अग्निपुराण अध्याय १६३

अग्निपुराण अध्याय १६३            

अग्निपुराण अध्याय १६३ में श्राद्धकल्प का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १६३

अग्निपुराणम् त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 163              

अग्निपुराण एक सौ तिरसठवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १६३        

अग्निपुराणम् अध्यायः १६३ – श्राद्धकल्पकथनं

अथ त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

श्राद्धकल्पं प्रवक्ष्यामि भुक्तिमुक्तिप्रदं शृणु ।

निमन्त्र्य विप्रान् पूर्वेद्युः स्वागतेनापराह्णतः ॥०१॥

प्राच्योपवेशयेत्पीठे युग्मान्दैवेऽथ पित्रके ।

अयुग्मान् प्राङ्मुखान्दैवे त्रीन् पैत्रे चैकमेव वा ॥०२॥

मातामहानामप्येवन्तन्त्रं वा वैश्यदेविकं ।

पाणिप्रक्षालनं दत्त्वा विष्टरार्थं कुशानपि ॥०३॥

आवाहयेदनुज्ञातो विश्वे देवास इत्यृचा ।

यवैरन्ववकीर्याथ भाजने सपवित्रके ॥०४॥

शन्नोदेव्या पयः क्षिप्त्वा यवोसीति यवांस्तथा ।

यादिव्या इतिमन्त्रेण हस्ते ह्यर्घं विनिक्षिपेत् ॥०५॥

दत्वोदकं गन्धमाल्यं धूपदानं प्रदीपकं ।

पुष्कर कहते हैंपरशुराम ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले श्राद्धकल्प का वर्णन करता हूँ, सावधान होकर श्रवण कीजिये । श्राद्धकर्ता पुरुष मन और इन्द्रियों को वश में रखकर, पवित्र हो, श्राद्ध से एक दिन पहले ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे। उन ब्राह्मणों को भी उसी समय से मन, वाणी, शरीर तथा क्रिया द्वारा पूर्ण संयमशील रहना चाहिये। श्राद्ध के दिन अपराह्नकाल में आये हुए ब्राह्मणों का स्वागतपूर्वक पूजन करे। स्वयं हाथ में कुश की पवित्री धारण किये रहे। जब ब्राह्मणलोग आचमन कर लें, तब उन्हें आसन पर बिठाये। देवकार्य में अपनी शक्ति के अनुसार युग्म (दो, चार, छः आदि संख्यावाले) और श्राद्ध में अयुग्म (एक, तीन, पाँच आदि संख्यावाले) ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे। सब ओर से घिरे हुए गोबर आदि से लिपे पुते पवित्र स्थान में, जहाँ दक्षिण दिशा की ओर भूमि कुछ नीची हो, श्राद्ध करना चाहिये। वैश्वदेव- श्राद्ध में दो ब्राह्मणों को पूर्वाभिमुख बिठाये और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणों को उत्तराभिमुख अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण को ही सम्मिलित करे। मातामहों के श्राद्ध में भी ऐसा ही करना चाहिये। अर्थात् दो वैश्वदेव- श्राद्ध में और तीन मातामहादि श्राद्ध में अथवा उभय पक्ष में एक ही एक ब्राह्मण रखे। वैश्वदेव- श्राद्ध के लिये ब्राह्मण का हाथ धुलाने के निमित्त उसके हाथ में जल दे और आसन के लिये कुश दे। फिर ब्राह्मण से पूछे–'मैं विश्वेदेवों का आवाहन करना चाहता हूँ।' तब ब्राह्मण आज्ञा दें- 'आवाहन करो।' इस प्रकार उनकी आज्ञा पाकर 'विश्वेदेवास आगत०' (यजु० ७।३४ ) इत्यादि ऋचा पढ़कर विश्वेदेवों का आवाहन करे । तब ब्राह्मण के समीप की भूमि पर जौ बिखेरे। फिर पवित्रीयुक्त अर्घ्यपात्र में 'शं नो देवी०' (यजु० ३६ । १२ ) - इस मन्त्र से जल छोड़े। 'यवोऽसि०'- इत्यादि से जौ डाले। फिर बिना मन्त्र के ही गन्ध और पुष्प भी छोड़ दे। तत्पश्चात् 'या दिव्या आपः ०' - इस मन्त्र से अर्घ्य को अभिमन्त्रित करके ब्राह्मण के हाथ में संकल्पपूर्वक अर्घ्य दे और कहे- 'अमुक श्राद्धे विश्वेदेवाः इदं वो हस्तार्घ्यं नमः ।'- यों कहकर वह अर्घ्यजल कुशयुक्त ब्राह्मण के हाथ में या कुशा पर गिरा दे। तत्पश्चात् हाथ धोने के लिये जल देकर क्रमशः गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा आच्छादन वस्त्र अर्पण करे। पुनः हस्त शुद्धि के लिये जल दे। (विश्वेदेवों को जो कुछ भी देना हो, वह सव्यभाव से उत्तराभिमुख होकर दे और पितरों को प्रत्येक वस्तु अपसव्यभाव से दक्षिणाभिमुख होकर देनी चाहिये ।) ॥ १ – ५अ ॥

अपसव्यं ततः कृत्वा पितॄणामप्रदक्षिणं ॥०६॥

द्विगुणांस्तु कुशान् कृत्वा ह्युशन्तस्त्वेत्यृचा पितॄन् ।

आवाह्य तदनुज्ञातो जपेदायान्तु नः ततः ॥०७॥

यवार्थास्तु तिलैः कार्याः कुर्यादर्घ्यादि पूर्ववत् ।

दत्त्वार्घ्यं संश्रवान् शेषान् पात्रे कृत्वा विधानतः ॥०८॥

पितृभ्यः स्थानमसीति न्युब्जं पात्रं करोत्यधः ।

अग्नौ करिष्य आदाय पृच्छत्यन्नं घृतप्लुतं ॥०९॥

कुरुष्वेति ह्यनुज्ञातो हुत्वाग्नौ पितृयज्ञवत् ।

हुतशेषं प्रदद्यात्तु भाजनेषु समाहितः ॥१०॥

यथालाभोपपन्नेषु रौप्येषु तु विशेषतः ।

दत्वान्नं पृथिवीपात्रमिति पात्राभिमन्त्रणं ॥११॥

कृत्वेदं विष्णुरित्यन्ने द्विजाङ्गुष्ठं निवेशयेत् ।

सव्याहृतिकां गायत्रीं मधुवाता इति त्यचं ॥१२॥

जप्त्वा यथासुखं वाच्यं भुञ्जीरंस्तेऽपि वाग्यताः ।

अन्नमिष्टं हविष्यञ्च दद्याज्जप्त्वा पवित्रकं ॥१३॥

अन्नमादाय तृप्ताः स्थ शेषं चैवान्नमस्य च ।

तदन्नं विकिरेद्भूमौ दद्याच्चापः सकृत्सकृत् ॥१४॥

सर्वमन्नमुपादाय सतिलं दक्षिणामुखः ।

उच्छिष्टसन्निधौ पिण्डान् प्रदद्यात्पितृयज्ञवत् ॥१५॥

मातामहानामप्येवं दद्यादाचमनं ततः ।

स्वस्ति वाच्यं ततः कुर्यादक्षय्योदकमेव च ॥१६॥

दत्वा तु दक्षिणां शक्त्या स्वधाकारमुदाहरेत् ।

वाच्यतामित्यनुज्ञातः स्वपितृभ्यः स्वधोच्यतां ॥१७॥

कुर्युरस्तु स्वधेत्युक्ते भूमौ सिञ्चेत्ततो जलं ।

प्रीयन्तामिति वा दैवं विश्वे देवा जलं ददेत् ॥१८॥

दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः सन्ततिरेव च ।

श्रद्धा च नो माव्यगमद्बहुदेयं च नो .स्त्विति ॥१९॥

इत्युक्त्वा तु प्रिया वाचः प्रणिपत्य विसर्जयेत् ।

वाजे वाज इति प्रीतपितृपूर्वं विसर्जनं ॥२०॥

यस्मिंस्तु संश्रवाः पूर्वमर्घपात्रे निपातिताः ।

पितृपात्रं तदुत्तानं कृत्वा विप्रान् विसर्जयेत् ॥२१॥

प्रदक्षिणमनुव्रज्य भक्त्वा तु पितृसेवितं ।

ब्रह्मचारी भवेत्तान्तु रजनीं ब्राह्मणैः सह ॥२२॥

वैश्वदेव-काण्ड के अनन्तर यज्ञोपवीत अपसव्य करके पिता आदि तीनों पितरों के लिये तीन द्विगुणभुग्न कुशों को उनके आसन के लिये अप्रदक्षिण- क्रम से दे। फिर पूर्ववत् ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर 'उशन्तस्त्वा०' (यजु० १९ । ७० ) इत्यादि मन्त्र से पितरों का आवाहन करके, 'आयन्तु नः ०' (यजु० १९ । ५८) इत्यादि का जप करे। 'अपहता असुरा रक्षासि वेदिषदः ०' - (यजु० २१२१८) - यह मन्त्र पढ़कर सब ओर तिल बिखेरे। वैश्वदेवश्राद्ध में जो कार्य जौ से किया जाता है, वही पितृ श्राद्ध में तिल से करना चाहिये । अर्घ्य आदि पूर्ववत् करे। संस्रव (ब्राह्मण के हाथ से चूये हुए जल ) पितृपात्र में ग्रहण करके, भूमि पर दक्षिणाग्र कुश रखकर, उसके ऊपर उस पात्र को अधोमुख करके ठुलका दे और कहे- 'पितृभ्यः स्थानमसि ।' फिर उसके ऊपर अर्घ्यपात्र और पवित्र आदि रखकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि पितरों को निवेदित करे। इसके बाद 'अग्नीकरण' कर्म करे। घी से तर किया हुआ अन्न लेकर ब्राह्मणों से पूछे 'अग्नौ करिष्ये' (मैं अग्नि में इसकी आहुति दूँगा ।) तब ब्राह्मण इसके लिये आज्ञा दें। इस प्रकार आज्ञा लेकर पितृ यज्ञ की भाँति उस अन्न की दो आहुति दे । [ उस समय ये दो मन्त्र क्रमशः पढ़े- 'अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा नमः । सोमाय पितृमते स्वाहा नमः ।' (यजु० २।२९ )] फिर होम शेष अन्न को एकाग्रचित्त होकर यथा प्राप्त पात्रों में - विशेषतः चाँदी के पात्रों में परोसे। इस प्रकार अन्न परोसकर, 'पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे०' इत्यादि मन्त्र पढ़कर पात्र को अभिमन्त्रित करे। फिर 'इदं विष्णुः ०' (यजु० ५।१५) इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करके अन्न में ब्राह्मण के अँगूठे का स्पर्श कराये। तदनन्तर तीनों व्याहृतियों सहित गायत्री मन्त्र तथा मधुवाता०' (यजु० १३ । २७ - २९ ) - इत्यादि तीन ऋचाओं का जप करे और ब्राह्मणों से कहे- 'आप सुखपूर्वक अन्न ग्रहण करें।' फिर वे ब्राह्मण भी मौन होकर प्रसन्नतापूर्वक भोजन करें। (उस समय यजमान क्रोध और उतावली को त्याग दे और) जबतक ब्राह्मणलोग पूर्णतया तृप्त न हो जायँ, तबतक पूछ-पूछकर प्रिय अन्न और हविष्य उन्हें परोसता रहे। उस समय पूर्वोक्त मन्त्रों का तथा 'पावमानी' आदि ऋचाओं का जप या पाठ करते रहना चाहिये। तत्पश्चात् अन्न लेकर ब्राह्मणों से पूछे- 'क्या आप पूर्ण तृप्त हो गये ?' ब्राह्मण कहें - 'हाँ, हम तृप्त हो गये।' यजमान फिर पूछे 'शेष अन्न का क्या किया जाय ?' ब्राह्मण कहें 'इष्टजनों के साथ भोजन करो।' उनकी इस आज्ञा को 'बहुत अच्छा' कहकर स्वीकार करे। फिर हाथ में लिये हुए अन्न को ब्राह्मणों के आगे उनकी जूठन के पास ही दक्षिणाग्र कुश भूमि पर रखकर उन कुशों पर तिल जल छोड़कर रख दे। उस समय ' अग्निदग्धाश्च ये०' इत्यादि मन्त्र का पाठ करे। फिर ब्राह्मणों के हाथ में कुल्ला करने के लिये एक-एक बार जल दे। फिर पिण्ड के लिये तैयार किया हुआ सारा अन्न लेकर, दक्षिणाभिमुख हो, पितृयज्ञ-कल्प के अनुसार तिलसहित पिण्डदान करे। इसी प्रकार मातामह आदि के लिये पिण्ड दे। फिर ब्राह्मणों के आचमनार्थ जल दे। तदनन्तर ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराये और उनके हाथ में जल देकर उनसे प्रार्थनापूर्वक कहे "आपलोग 'अक्षय्यमस्तु' कहें।" तब ब्राह्मण 'अक्षय्यम् अस्तु' बोलें। इसके बाद उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा देकर कहे- 'अब मैं स्वधा वाचन कराऊँगा।' ब्राह्मण कहें- 'स्वधा वाचन कराओ।' इस प्रकार उनकी आज्ञा पाकर 'पितरों और मातामहादि के लिये आप यह स्वधा वाचन करें' - ऐसा कहे। तब ब्राह्मण बोलें- 'अस्तु स्वधा ।' इसके अनन्तर पृथ्वी पर जल सींचे और 'विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम् ।'- यों कहे। ब्राह्मण भी इस वाक्य को दुहरायें- 'प्रीयन्तां विश्वेदेवाः' तदनन्तर ब्राह्मणों की आज्ञा से श्राद्धकर्ता निम्नाङ्कित मन्त्रका जप करे-

दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः संततिरेव च।

श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहुदेयं च नोऽस्त्विति ॥

'मेरे दाता बढ़ें। वेद और संतति बढ़े। हमारी श्रद्धा कम न हो और हमारे पास दान के लिये बहुत धन हो।' -यह कहकर ब्राह्मणों से नम्रतापूर्वक प्रियवचन बोले और उन्हें प्रणाम करके विसर्जन करे- 'वाजे वाजे०' (यजु० ९ । १८) इत्यादि ऋचाओं को पढ़कर प्रसन्नतापूर्वक पितरों का विसर्जन करे। पहले पितरों का, फिर विश्वेदेवों का विसर्जन करना चाहिये। पहले जिस अर्घ्यपात्र में संस्रव का जल डाला गया था, उस पितृ-पात्र को उतान करके ब्राह्मणों को बिदा करना चाहिये। ग्राम की सीमा तक ब्राह्मणों के पीछे-पीछे जाकर उनके कहने पर उनकी परिक्रमा करके लौटे और पितृसेवित श्राद्धान्न को इष्टजनों के साथ भोजन करे। उस रात्रि में यजमान और ब्राह्मणदोनों को ब्रह्मचारी रहना चाहिये ॥ ६ - २२ ॥

एवं प्रदक्षिणं कृत्वा वृद्धौ नान्दीमुखान् पितॄन् ।

यजेत दधिकर्कन्धुमिश्रान् पिण्डान् यवैः क्रिया ॥२३॥

एकोद्दिष्टं दैवहीनमेकार्घैकपवित्रकं ।

आवाहनाग्नौकरणरहितं ह्यपसव्यवत् ॥२४॥

उपतिष्ठतामित्यक्षय्यस्थाने पितृविसर्जने ।

अभिरम्यतामिति वदेद्ब्रूयुस्तेऽभिरताः स्म ह ॥२५॥

गन्धोदकतिलैर्युक्तं कुर्यात्पात्रचतुष्टयं ।

अर्घार्थपितृपात्रेषु प्रेतपात्रं प्रसेचयेत् ॥२६॥

ये समाना इति द्वाभ्यां शेषं पूर्ववदाचरेत् ।

एतत्सपिण्डीकरणमेकोद्दिष्टं स्तिया सह ॥२७॥

अर्वाक्सपिण्डीकरणं यस्य संवत्सराद्भवेत् ।

तस्याप्यन्नं सोदकुम्भं दद्यात्संवत्सरं द्विजे ॥२८॥

मृताहनि च कर्तव्यं प्रतिमासन्तु वत्सरं ।

प्रतिसंवत्सरं कार्यं श्राद्धं वै मासिकान्नवत् ॥२९॥

हविष्यान्नेन वै मासं पायसेन तु वत्सरं ।

मात्स्यहारिणकौरभ्रशाकुनच्छागपार्षतैः ॥३०॥

ऐणरौरववाराहशाशैर्मांसैर्यथाक्रमं ।

मासवृद्ध्याभितृप्यन्ति दत्तैरेव पितामहाः ॥३१॥

खड्गामिषं महाशल्कं मधुयुक्तान्नमेव च ।

लोहामिषं कालशाकं मांसं वार्धीनसस्य च ॥३२॥

यद्ददाति गयास्थञ्च सर्वमानन्त्यमुच्यते ।

तथा वर्षात्रयोदश्यां मघासु च न संशयः ॥३३॥

कन्यां प्रजां वन्दिनश्च पशून्मुख्यान् सुतानपि ।

घृतं कृषिं च वाणिज्यं द्विशफैकशफं तथा ॥३४॥

ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रान् स्वर्णरूप्ये सकुप्यके ।

ज्ञातिश्रैष्ठ्यं सर्वकामानाप्नोति श्राद्धदः सदा ॥३५॥

प्रतिपत्प्रभृतिष्वेतान्वर्जयित्वा चतुर्दशीं ।

शस्त्रेण तु हता ये वै तेषां तत्र प्रदीयते ॥३६॥

स्वर्गं ह्यपत्यमोजश्च शौर्यं क्षेत्रं बलं तथा ।

पुत्रश्रैष्ठ्यं ससौभाग्यमपत्यं मुख्यतां सुतान् ॥३७॥

प्रवृत्तचक्रतां पुत्रान् वाणिज्यं प्रसुतां तथा ।

अरोगित्वं यशो वीतशोकतां परमाङ्गतिं ॥३८॥

धनं विद्यां भिषकसिद्धिं रूप्यं गाश्चाप्यजाविकं ।

अश्वानायुश्च विधिवत्यः श्राद्धं सम्प्रयच्छति ॥३९॥

कृत्तिकादिभरण्यन्ते स कामानाप्नुयादिमान् ।

वसुरुद्रादितिसुताः पितरः श्राद्धदेवताः ॥४०॥

प्रीणयन्ति मनुष्याणां पितॄन् श्राद्धेन तर्पिताः ।

आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च ॥४१॥

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीता नॄणां पितामहाः ॥४२॥

इसी प्रकार पुत्रजन्म और विवाहादि वृद्धि के अवसरों पर प्रदक्षिणावृत्ति से नान्दीमुख- पितरों का यजन करे। दही और बेर मिले हुए अन्न का पिण्ड दे और तिल से किये जानेवाले सब कार्य जौ से करे । एकोद्दिष्टश्राद्ध बिना वैश्वदेव के होता है। उसमें एक ही अर्घ्यपात्र तथा एक ही पवित्रक दिया जाता है। इसमें आवाहन और अग्नौकरण की क्रिया नहीं होती। सब कार्य जनेऊ को अपसव्य रखकर किये जाते हैं। अक्षय्यमस्तु' के स्थान में 'उपतिष्ठताम्' का प्रयोग करे। 'वाजे वाजे० ' इस मन्त्र से ब्राह्मण का विसर्जन करते समय 'अभिरम्यताम् ।' कहे और ब्राह्मण लोग 'अभिरताः स्मः । ' - ऐसा उत्तर दें। सपिण्डीकरण- श्राद्ध में पूर्वोक्त विधि से अर्घ्यसिद्धि के लिये गन्ध, जल और तिल से युक्त चार अर्घ्यपात्र तैयार करे । (इनमें से तीन तो पितरों के पात्र हैं और एक प्रेत का पात्र होता है। इनमें प्रेत के पात्र का जल पितरों के पात्रों में डाले। उस समय 'ये समाना० ' इत्यादि दो मन्त्रों का उच्चारण करे। शेष क्रिया पूर्ववत् करे। यह सपिण्डीकरण और एकोद्दिष्टश्राद्ध माता के लिये भी करना चाहिये। जिसका सपिण्डीकरण - श्राद्ध वर्ष पूर्ण होने से पहले हो जाता है, उसके लिये एक वर्ष तक ब्राह्मण को सान्नोदक कुम्भदान देते रहना चाहिये। एक वर्षतक प्रतिमास मृत्यु- तिथि को एकोद्दिष्ट करना चाहिये। फिर प्रत्येक वर्ष में एक बार क्षयाहतिथि को एकोद्दिष्ट करना उचित है। प्रथम एकोद्दिष्ट तो मरने के बाद ग्यारहवें दिन किया जाता है। सभी श्राद्धों में पिण्डों को गाय, बकरे अथवा लेने की इच्छावाले ब्राह्मण को दे देना चाहिये। अथवा उन्हें अग्नि में या अगाध जल में डाल देना चाहिये । जबतक ब्राह्मणलोग भोजन करके वहाँ से उठ न जायँ, तबतक उच्छिष्ट स्थान पर झाडू न लगाये । श्राद्ध में हविष्यान्न के दान से एक मासतक और खीर देने से एक वर्षतक पितरों की तृप्ति बनी रहती है। भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी को, विशेषत: मघा नक्षत्र का योग होनेपर जो कुछ पितरों के निमित्त दिया जाता है, वह अक्षय होता है। एक चतुर्दशी को छोड़कर प्रतिपदा से अमावास्यातक की चौदह तिथियों में श्राद्धदान करनेवाला पुरुष क्रमशः इन चौदह फलों को पाता है-रूपशीलयुक्त कन्या, बुद्धिमान् तथा रूपवान् दामाद, पशु, श्रेष्ठ पुत्र, द्यूत-विजय, खेती में लाभ, व्यापार में लाभ, दो खुर और एक खुरवाले पशु, ब्रह्मतेज से सम्पन्न पुत्र, सुवर्ण, रजत, कुप्यक ( त्रपु - सीसा आदि), जातियों में श्रेष्ठता और सम्पूर्ण मनोरथ । जो लोग शस्त्र द्वारा मारे गये हों, उन्हीं के लिये उस चतुर्दशी तिथि को श्राद्ध प्रदान किया जाता है। स्वर्ग, संतान, ओज, शौर्य, क्षेत्र, बल, पुत्र, श्रेष्ठता, सौभाग्य, समृद्धि, प्रधानता, शुभ, प्रवृत्त चक्रता ( अप्रतिहत शासन), वाणिज्य आदि, नीरोगता, यश, शोकहीनता, परम गति, धन, विद्या, चिकित्सा में सफलता, कुप्य ( त्रपु सीसा आदि), गौ, बकरी, भेड़, अश्व तथा आयु इन सत्ताईस प्रकार के काम्य पदार्थों को क्रमशः वही पाता है, जो कृत्तिका से लेकर भरणीपर्यन्त प्रत्येक नक्षत्र में विधिपूर्वक श्राद्ध करता है तथा आस्तिक, श्रद्धालु एवं मद-मात्सर्य आदि दोषों से रहित होता है। वसु, रुद्र और आदित्य-ये तीन प्रकार के पितर श्राद्ध के देवता हैं। ये श्राद्ध से संतुष्ट किये जाने पर मनुष्यों के पितरों को तृप्त करते हैं। जब पितर तृप्त होते हैं, तब वे मनुष्यों को आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य प्रदान करते हैं ।। २३ - ४२ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे श्राद्धकल्पो नाम त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'श्राद्धकल्प का वर्णन' नामक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१६३॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 164

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