अग्निपुराण अध्याय १५६

अग्निपुराण अध्याय १५६            

अग्निपुराण अध्याय १५६ में द्रव्य-शुद्धि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १५६

अग्निपुराणम् त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 156              

अग्निपुराण एक सौ छप्पनवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १५६       

अग्निपुराणम् अध्यायः १५६ – द्रव्यशुद्धिः

अथ षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

पुष्कर उवाच

द्रव्यशुद्धिं प्रवक्ष्यामि पुनःपाकेन मृण्मयं ।

शुद्ध्येन्मूत्रपुरीषाद्यैः स्पृष्टाम्रं सुवर्णकं ॥१॥

आवर्तितञ्चान्यथा तु वारिणाम्ल्लेन ताम्रकं ।

क्षारेण कांस्यलोहानां मुक्तादेः क्षालनेन तु ॥२॥

अब्जानां चैव भाण्डानां सर्वस्याश्ममयस्य च ।

शाकरज्जुमूलफलवैदलानां तथैव च ॥३॥

मार्जनाद्यज्ञपात्राणां पाणिना यज्ञकर्मणि ।

उष्णाम्बुना सस्नेहानां शुद्धिः सम्मार्जनाद्गृहे ॥४॥

शोधनान्म्रक्षणाद्वस्त्रे मृत्तिकाद्भिर्विशोधनं ।

बहुवस्त्रे प्रोक्षणाच्च दारवाणाञ्च तक्षणात् ॥५॥

पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी ! अब द्रव्यों की शुद्धि बतलाऊँगा । मिट्टी का बर्तन पुनः पकाने से शुद्ध होता है। किंतु मल-मूत्र आदि से स्पर्श हो जाने पर वह पुन: पकाने से भी शुद्ध नहीं होता। सोने का पात्र यदि अपवित्र वस्तुओं से छू जाय तो जल से धोने पर पवित्र होता है। ताँबे का बर्तन खटाई और जल से शुद्ध होता है। काँसे और लोहे का बर्तन राख से मलने पर पवित्र होता है। मोती आदि की शुद्धि केवल जल से धोने पर ही हो जाती है। जल से उत्पन्न शङ्ख आदि के बने बर्तनों की, सब प्रकार के पत्थर के बने हुए पात्र की तथा साग, रस्सी, फल एवं मूल की और बाँस आदि के दलों से बनी हुई वस्तुओं की शुद्धि भी इसी प्रकार जल से धोनेमात्र से हो जाती है। यज्ञकर्म में यज्ञपात्रों की शुद्धि केवल दाहिने हाथ से कुश द्वारा मार्जन करने पर ही हो जाती है। घी या तेल से चिकने हुए पात्रों की शुद्धि गरम जल से होती है। घर की शुद्धि झाड़ने- बुहारने और लीपने से होती है। शोधन और प्रोक्षण करने (सींचने) से वस्त्र शुद्ध होता है। रेह की मिट्टी और जल से उसका शोधन होता है। यदि बहुत- से वस्त्रों की ढेरी ही किसी अस्पृश्य वस्तु से छू जाय तो उस पर जल छिड़क देनेमात्र से उसकी शुद्धि मानी गयी है । काठ के बने हुए पात्रों की शुद्धि काटकर छील देने से होती है ॥ १-५ ॥

प्रोक्षणात्संहतानान्तु द्रवाणाञ्च तथोत्प्लवात् ।

शयनासनयानानां शूर्पस्य शकटस्य च ॥६॥

शुद्धिः सम्प्रोक्षणाज्ज्ञेया पलालेन्धनयोस्तथा ।

शुद्धार्थकानाङ्कल्केन शृङ्गदन्तमयस्य च ॥७॥

गोबालैः पलपात्राणामस्थ्नां स्याच्छृङ्गवत्तथा ।

निर्यासानां गुडानाञ्च लवणानां च शोषणात् ॥८॥

कुशुम्भकुसुमानाञ्च ऊर्णाकार्पासयोस्तथा ।

शुद्धन्नदीगतं तोयं पुण्यन्तद्वत्प्रसारितं ॥९॥

शय्या आदि संहत वस्तुओं के उच्छिष्ट आदि से दूषित होने पर प्रोक्षण (सींचने) मात्र से उनकी शुद्धि होती है। घी तेल आदि की शुद्धि दो कुश- पत्रों से उत्पवन करने (उछालने) मात्र से हो जाती है। शय्या, आसन, सवारी, सूप, छकड़ा, पुआल और लकड़ी की शुद्धि भी सींचने से ही जाननी चाहिये। सींग और दाँत की बनी हुई वस्तुओं की शुद्धि पीली सरसों पीसकर लगाने से होती है। नारियल और तूंबी आदि फलनिर्मित पात्रों को शुद्ध गोपुच्छ के बालों द्वारा रगड़ने से होती है। शङ्ख आदि हड्डी के पात्रों की शुद्धि सींग के समान ही पीली सरसों के लेप से होती है। गोंद, गुड, नमक, कुसुम्भ के फूल, ऊन और कपास की शुद्धि धूप में सुखाने से होती है। नदी का जल सदा शुद्ध रहता है। बाजार में बेचने के लिये फैलायी हुई वस्तु भी शुद्ध मानी गयी है ॥ ६-९ ॥

मुखवर्जञ्च गौः शुद्धा शुद्धमश्वाजयोर्मुखं ।

नारीणाञ्चैव वत्सानां शकुनीनां शुनो मुखं ॥१०॥

मुखैः प्रस्रवणे वृत्ते मृगयायां सदा शुचि ।

भुक्त्वा क्षुत्वा तथा सुप्त्वा पीत्वा चाम्भो विगाह्य च ॥११॥

रथ्यामाक्रम्य चाचामेद्वासो विपरिधाय च ।

मार्जारश्चङ्क्रमाच्छुद्धश्चतुर्य्थेऽह्नि रजस्वला ॥१२॥

स्नाता स्त्री पञ्चमे योग्या दैवे पित्र्ये च कर्मणि ।

पञ्चापाने दशैकस्मिन्नुभयोः सप्त मृत्तिकाः ॥१३॥

एकां लिङ्गे मृदं दद्यात्करयोस्त्रिद्विमृत्तिकाः ।

ब्रह्मचारिवनस्थानां यतीनाञ्च चतुर्गुणं ॥१४॥

गौ के मुँह को छोड़कर अन्य सभी अङ्ग शुद्ध हैं। घोड़े और बकरे के मुँह शुद्ध माने गये हैं। स्त्रियों का मुख सदा शुद्ध है। दूध दुहने के समय बछड़ों का, पेड़ से फल गिराते समय पक्षियों का और शिकार खेलते समय कुत्तों का मुँह भी शुद्ध माना गया है। भोजन करने, थूकने, सोने, पानी पीने, नहाने, सड़क पर घूमने और वस्त्र पहनने के बाद अवश्य आचमन करना चाहिये। बिलाव घूमने-फिरने से ही शुद्ध होता है। रजस्वला स्त्री चौथे दिन शुद्ध होती है। ऋतुस्नाता स्त्री पाँचवें दिन देवता और पितरों के पूजनकार्य में सम्मिलित होने योग्य होती है। शौच के बाद पाँच बार गुदा में, दस बार बायें हाथ में, फिर सात बार दोनों हाथों में, एक बार लिङ्ग में तथा पुनः दो-तीन बार हाथों में मिट्टी लगाकर धोना चाहिये। यह गृहस्थों के लिये शौच का विधान है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासियों के लिये गृहस्थ की अपेक्षा चौगुने शौच का विधान किया गया है ॥ १०- १४ ॥

श्रीफलैरंशुपट्टानां क्षौमाणाङ्गौरसर्षपैः ।

शुद्धिः पर्युक्ष्य तोयेन मृगलोम्नां प्रकीर्तिता ॥१५॥

पुष्पाणाञ्च फलानाञ्च प्रोक्षणाज्जलतोऽखिलं ॥१६॥

सरके कपड़ों की शुद्धि बेल के फल के गूदे से होती है। अर्थात् उसे पानी में घोलकर उसमें वस्त्र को डुबो दे और फिर साफ पानी से धो दे । तीसी एवं सन आदि के सूत से बने हुए कपड़ों की शुद्धि के लिये अर्थात् उनमें लगे हुए तेल आदि के दाग को छुड़ाने के लिये पीली सरसों के चूर्ण या उबटन से मिश्रित जल के द्वारा धोना चाहिये। मृगचर्म या मृग के रोमों से बने हुए आसन आदि की शुद्धि उस पर जल का छींटा देने मात्र से बतायी गयी है। फूलों और फलों की भी उन पर जल छिड़कने मात्र से पूर्णतः शुद्धि हो जाती है ।। १५-१६ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे द्रव्यशुद्धिर्नाम षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'द्रव्य-शुद्धि का वर्णन' नामक एक छप्पनयाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५६ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 157  

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