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- देवीरहस्य पटल ६०
- देवीरहस्य पटल ५९
- देवीरहस्य पटल ५८
- देवीरहस्य पटल ५७
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- अग्निपुराण अध्याय १६५
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- अग्निपुराण अध्याय १६०
- अग्निपुराण अध्याय १५९
- अग्निपुराण अध्याय १५८
- अग्निपुराण अध्याय १५७
- अग्निपुराण अध्याय १५६
- दुर्गा मूलमन्त्र स्तोत्र
- दुर्गा सहस्रनाम
- देवीरहस्य पटल ४७
- देवीरहस्य पटल ४६
- ब्रह्महृदय स्तोत्र
- अग्निपुराण अध्याय १५५
- अग्निपुराण अध्याय १५४
- अग्निपुराण अध्याय १५३
- अग्निपुराण अध्याय १५२
- अग्निपुराण अध्याय १५१
- मृत्युञ्जयस्तोत्र
- महामृत्युञ्जय सहस्रनाम
- देवीरहस्य पटल ४२
- देवीरहस्य पटल ४१
- ब्रह्म शतनाम स्तोत्र
- ब्रह्म कवच
- अग्निपुराण अध्याय १५०
- अग्निपुराण अध्याय १४९
- अग्निपुराण अध्याय १४८
- अग्निपुराण अध्याय १४७
- अग्निपुराण अध्याय १४६
- लक्ष्मीनारायण मूलमन्त्र स्तोत्र
- लक्ष्मीनारायण सहस्रनाम
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
देवीरहस्य पटल ४७
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ४७ में दुर्गापञ्चाङ्ग निरूपण में दुर्गापूजापद्धति के विषय में बतलाया गया
है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् सप्तचत्वारिंशः पटलः दुर्गापूजापद्धतिः
Shri Devi Rahasya Patal 47
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य सैतालीसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् सप्तचत्वारिंश
पटल
देवीरहस्य पटल ४७ दुर्गा पूजा पद्धति
अथ सप्तचत्वारिंशः पटलः
दुर्गापूजापद्धतिः
श्रीभैरव उवाच
शृणु पार्वति वक्ष्यामि पद्धतिं
गद्यरूपिणीम् ।
यस्याः श्रवणमात्रेण कोटियज्ञफलं
लभेत् ॥ १ ॥
दुर्गा पद्धति - श्री भैरव ने कहा
कि हे पार्वति! सुनो, अब मैं गद्यरूपिणी
दुर्गा-पद्धति को कहता हूँ, जिसके सुनने से ही करोड़ यज्ञ का
फल प्राप्त होता है ।। १।।
ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय
बद्धपद्मासनः स्वशिरः स्थसहस्त्राराधोमुखकमल- कणिकान्तर्गतं निजगुरुं श्वेतवर्णं
श्वेतालङ्कारालंकृतं द्विभुजं स्वशक्त्या श्वेताम्बरभूषितया वामाङ्गे सहितं
ध्यात्वा मानसैरुपचारैः संपूज्य दण्डवत् प्रणमेत् ।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन
चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे
नमः ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया
।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै
श्रीगुरवे नमः ॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुः
साक्षान्महेश्वरः ।
गुरुरेव जगत् सर्वं तस्मै श्रीगुरवे
नमः ॥
इति नत्वा तदाज्ञां गृहीत्वा
बहिरागत्य मलमूत्रादि संत्यज्य, वर्णोक्तं
शौचं विधाय नद्यादौ गत्वा सुकूर्चं द्वादशाङ्गुलं दन्तधावनं कुर्यात्। 'ॐ क्लीं' कामदेवाय सर्वजनप्रियाय नमः' इति दन्तान् विशोध्य, चाक्रिकबीजेन गडूषषट्कं विधाय
प्रणवेन मुखं त्रिः प्रोक्ष्य 'ॐ ह्रां मणिधरि वज्रिणि
शिखापरिसरे रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा' इति शिखां बद्ध्वा
तत्त्वत्रयेणाचम्य मूलेन प्राणायामं विधाय मलापकर्षणं स्नानं कृत्वा मन्त्रस्नानं
चरेत्।
ब्राह्म मुहूर्त में उठकर,
पद्मासन में बैठकर अपने शिर में स्थित अधोमुख सहस्रदल कमल की
कर्णिका में अपने गुरु का ध्यान करे। उनके वस्त्र श्वेत हैं। श्वेत अलङ्कारों से अलंकृत
हैं। उनके दो हाथ हैं। श्वेत वस्त्रधारिणी उनकी शक्ति उनके वामाङ्ग में है। इस
प्रकार का ध्यान करके मानसोपचारों से उनका पूजन करके दण्डवत् प्रणाम करे और
निम्नांकित स्तोत्रों का पाठ करे-
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन
चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे
नमः ।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य
ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै
श्रीगुरवे नमः ।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुः
साक्षान्महेश्वरः ।
गुरुरेव जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे
नमः ।।
इस प्रकार प्रणाम करके उनसे आज्ञा
लेकर घर से बाहर जाकर मल-मूत्र का त्याग करे। वर्णोक्त शौच क्रिया करे नदी आदि
जलाशय पर जाकर 'हूं'
मन्त्रोचारणपूर्वक बारह अंगुल के दतुवन से दन्तशोधन करे।
दतुवन करने के बाद 'दुं' से छ: कुल्ला करे।
'ॐ' कहकर मुख प्रक्षालन तीन बार
करे। 'ॐ ह्रां मणिधरि वज्रिणि शिखापरिसरे रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा' से
शिखा बाँधे । आत्मतत्त्वाय नमः, विद्यातत्त्वाय
नमः, शिवतत्त्वाय नमः से आचमन करके मूल मन्त्र से प्राणायाम
करे। मलापकर्षण स्नान करे। मन्त्र-स्नान करे।
ततो मूलेन मृदमानीय जलं
प्रोक्षयेत्। मन्त्रमृदा सूर्यमण्डलं विचिन्त्य 'गङ्गे च यमुने चेति' तीर्थान्यावाह्य जले यन्त्रं
विभाव्य सनीलकण्ठां दुर्गामावाहयेत् । तत्र षडङ्गं विधाय देवीं सशिवां ध्यात्वा,
मूलं यथा- शक्त्या जप्त्वा त्रिर्निमज्ज्योन्मज्जेत् । तत्र
कुम्भमुद्रां बद्ध्वा स्वमूर्ध्नि देवदेव्यौ जलेन स्नपयित्वा 'ॐ ह्रांह्रींसः मार्तण्ड भैरवाय प्रकाशशक्तिसहिताय एष तेऽर्थो नमः'
इति सूर्यायार्घ्यत्रयं दत्त्वा वासोऽन्यत् परिधाप्य
तत्त्वत्रयेणाचम्य त्रिः प्राणायामं विधाय पूर्वसंध्यां कृत्वा, षडङ्गं कृत्वा, चुलकेन जलमादाय तत्त्वमुद्रयाच्छाद्य
यरलवहं इति त्रिरभिमन्त्र्य मूलमुच्चरंस्तद्गलितोदकबिन्दुभिः सप्तधा
स्वशिरस्यभ्युक्ष्य, सव्यहस्ते शेषमुदकं धृत्वा
इडयान्तर्नीत्वा देहान्तः पापं
प्रक्षाल्य पिङ्गलया विरेच्य, पुरः
कल्पितवज्रशिलायां वामतः फडिति निक्षिपेत् । इत्यघमर्षणं विधाय पूर्ववदाचम्य,
जले यन्त्रं ध्यात्वा मूलं यथाशक्त्या जप्त्वा मूलविद्यान्ते सा
सवाहने सायुधे सपरिच्छदे श्रीनीलकण्ठसहिते मातर्दुर्गे तृप्यतामित्यष्टवारं
संतर्प्य नीलकण्ठं त्रिः संतर्प्य, एकैकाञ्जलिना
परिवारदेवताः संतर्प्य, देवदेव्यौ हृदि ध्यात्वा जले
चतुरश्रं विलिख्य, तत्रेशानादिक्रमेण गुरुपति संतर्प्य देवीं
गायत्री जपेत्। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै विद्महे अष्टाक्षरायै धीमहि तन्नः चण्डी
प्रचोदयात् । इति यथाशक्त्या प्रजप्य गायत्र्यानया देवदेवयोरर्घ्यत्रयं दत्त्वा
जपं समर्प्य, यागमण्डपमागच्छेदिति सन्ध्याविधिः ।
तब मूल मन्त्र बोलकर मिट्टी लेकर जल
से प्रोक्षण करे। मिट्टी को मन्त्रित करे। उसमें सूर्यमण्डल का चिन्तन करे। 'गङ्गे च यमुने चैव' से तीर्थों
का आवाहन करे। जल में यन्त्र की कल्पना करके उसमें नीलकण्ठ के सहित दुर्गा का
आवाहन करे। तब षडङ्ग न्यास करके शिवसहित देवी का ध्यान करे। मूलमन्त्र का यथाशक्ति
जप करके तीन बार जल में डुबकी लगाये। कुम्भमुद्रा से अपने मूर्धां पर देव-देवी को
जल से स्नान कराये। तब ‘ॐ ह्रीं ह्रीं सः
मार्तण्डभैरवाय प्रकाशशक्तिसहिताय एष ते अर्घो नमः' बोलते
हुए सूर्य को तीन बार अर्घ्य प्रदान करे। दूसरा वस्त्र धारण करे। तत्त्वत्रय से
आचमन करे। तीन प्राणायाम करें। पूर्व सन्ध्या करके षडङ्गन्यास करे। चुल्लू में जल
लेकर तत्त्वमुद्रा से आच्छादन करे। यं रं लं वं हं'
के तीन जप से अभिमन्त्रित करे। मूल मन्त्र का
उच्चारण करते हुए चुल्लू से गिरते जल की बूंदों से अपने शिर का अभ्युक्षण सात बार
करें। शेष जल बाँयें हाथ में लेकर इड़ा नाडी से श्वास द्वारा हृदय के भीतर खींचकर
देह के अन्दर के पाप का प्रक्षालन करे। पिङ्गला नाड़ी से उसका विरेचन करे। दाँयीं
हथेली में लेकर अपने सामने कल्पित वज्रशिला पर 'फट्' कहते हुए पटक दे।
इस प्रकार अघमर्षण करके पूर्ववत्
आचमन करे जल में यन्त्र का ध्यान करके मूल मन्त्र का यथाशक्ति जप करे मूल मन्त्र
बोलकर यह बोले- साङ्गे सवाहने सायुधे सपरिच्छदे श्रीनीलकण्ठसहिते मातर्दुर्गे
तृप्यताम् । इस मन्त्र से आठ बार तर्पण करे। नीलकण्ठ का तर्पण तीन बार करे।
देव-देवी का हृदय में ध्यान करे। जल में चतुरस्र अंकित करके उसमें ईशान आदि के
क्रम से गुरुपंक्ति का तर्पण करे। गायत्री का जप करें—
'ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै विद्महे अष्टाक्षरायै धीमहि तन्नः चण्डी
प्रचोदयात्'। यथाशक्ति जप के बाद
इस गायत्री से देवदेव को तीन अर्घ्य प्रदान करे। जप को समर्पित करे। तब यागमण्डप
के पास आये। यही सन्ध्याविधि है।
ततो गृहमागत्य पादौ प्रक्षाल्य
द्वारदेवताः पूजयेत् । ॐ गां गूं गणेशाय नमः पूर्वे ॐ क्षां ह्रीं वटुकाय नमो
दक्षिणे। ॐ क्षां क्षैं क्षेत्रपालाय नमः पश्चिमे । ॐ यां यूं योगिनीभ्यो नमः
उत्तरे। गं गङ्गायै नमो देहल्यां । यां यमुनायै नमः अधः । सौः सरस्वत्यै नमो मध्ये
। इति संपूज्य, गृहान्तः प्रविश्य
यथार्हमासनं शोधयेत् । आं आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः, सुतलं
छन्दः, कूर्मो देवा, आसनमन्त्रणे
विनियोगः । ॐ प्रीं पृथिव्यै नमः ।
महि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ॥
ॐ ध्रुवा द्यौर्धुवा पृथिवी
ध्रुवासः पर्वता इमे ।
ध्रुवं विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा
विश्वामसि ॥
ॐ आं आधारशक्तये नमः मं
मूलप्रकृत्यै नमः । ॐ अनन्ताय नमः । पं पद्माय नमः । प्री पद्मनालाय नमः ।
तत्रोपविश्य तालत्रयं कुर्यात् ।
घर पर आकर पैरों को धोकर द्वारदेवता
का पूजन करे। पूरब में 'ॐ गां गूं गणेशाय
नमः' से गणेश का पूजन
करे। दक्षिण में 'ॐ क्षां ह्रीं वटुकाय नमः' से वटुक का पूजन करे। 'ॐ क्षां क्षैं
क्षेत्रपालाय नमः' से क्षेत्रपाल का पूजन पश्चिम में
करे। 'ॐ यां यूं योगिनीभ्यो नमः' से योगिनियों का पूजन उत्तर में करें। 'ॐ गं गङ्गायै
नमः' से देहली में, 'यां
यमुनायै नमः' से द्वार के नीचले भाग में, 'सौं सरस्वत्यै नमः' से सरस्वती का मध्य में पूजन
करे। इस प्रकार पूजन के बाद गृह में प्रवेश करे यथोपचित आसन का शोधन करे।
आं आसनशोधनमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः,
सुतलं छन्दः, कूर्मो देवता, आसनमन्त्रणे विनियोगः ।
ॐ प्रीं पृथिव्ये नमः ।
महि त्वया धृता लोका देवि त्वं
विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु
चासनम् ।।
ॐ ध्रुवा द्यौः ध्रुवा पृथिवी
ध्रुवासः पर्वता इमे ।
ध्रुवं विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा
विश्वामसि ।।
ॐ आं आधारशक्तये नमः मं मूल
प्रकृत्यै नमः ।
ॐ अनन्ताय नमः पं पद्माय नमः ।
प्रीं पद्मनालाय नमः।
तब बैठकर तीन ताली बजाये ।
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि
संस्थिताः ।
ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ।।
इति तालत्रयं दत्त्वा
वामपार्ष्णिघातत्रयेण विघ्नानुत्सार्य नाराचमुद्रां प्रदर्श्य गुरुं प्रणमेत्।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुरिति, अज्ञानतिमिरान्धस्येति,
अखण्डमण्डलाकारमिति च पठित्वा, श्रीगुरवे नमः
स्ववामे गुं गुरुभ्यो नमः परमगुरुभ्यो नमः । परापरगुरुभ्यो नमः परमेष्ठिगुरुभ्यो
नमः इति गन्धाक्षतैरभ्यर्च्य न्यासपूर्वं संकल्पं कुर्यात् ।
अस्य श्रीदुर्गादेवी ( योगपीठपूजा )
मन्त्रस्य महेश्वर ऋषिः, अनुष्टुप्
छन्दः, श्रीदुर्गा देवता, दुं बीजं,
ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं, नमः
इति दिग्बन्धः, धर्मार्थकाममोक्षार्थे दुर्गापूजायां
विनियोगः ।
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि
संस्थिता ।
ये भूता विघ्न कर्तारस्ते नश्यन्तु
शिवाज्ञया ।।
यह बोलते हुये तीन ताली बजाकर बाँयी
ऍड़ी से पृथ्वी पर तीन आघात करे। विघ्नोत्सारण करके नाराच मुद्रा दिखावे। तब गुरु
को प्रणाम करे। प्रणाममन्त्र है-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै
श्रीगुरवे नमः ।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया
।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै
श्रीगुरवे नमः ।।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन
चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे
नमः ।।
अपने वाम भाग में—गुं गुरुभ्यो नमः । परमगुरुभ्यो नमः । परापरगुरुभ्यो नमः ।
परमेष्ठिगुरुभ्यो नमः से गुरुपंक्ति की पूजा
गन्धाक्षतपुष्प से करे। तब योगपीठ का पूजन कर सङ्कल्प इस प्रकार करे-
अस्य श्रीदुर्गायोगपीठपूजामन्त्रस्य
महेश्वर ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीदुर्गा देवता, दुं बीजं, ह्रीं
शक्तिः, ॐ कीलकं, नमः दिग्बन्धः,
धर्मार्थकाममोक्षार्थे दुर्गापूजायां विनियोग:। इसके बाद इस प्रकार
न्यास करे।
देवीरहस्य पटल ४७- न्यासः
अथ न्यासः । महेश्वरऋषये नम: शिरसि ।
अनुष्टुप्छन्दसे नमो मुखे । श्रीदुर्गादेवतायै नमो हृदि । दुं बीजाय नमो नाभौ ।
ह्रीं शक्तये नमो गुह्ये । ॐ कीलकाय नमः पादयोः । नमो दिग्बन्धः इति सर्वाङ्गेषु ।
ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः
। ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः इति करन्यासः । एवं हृदादिषडङ्गन्यासः ।
अथ मूलन्यासः । ॐ नमः शिरसि । ह्रीं
मुखे । दुं वक्षसि । दुं भुजयोः । र्गां नाभौ। यै पृष्ठे । नं जान्वोः । मः पादयोः
इति त्रिर्व्यापयेत् । ॐ आत्मतत्त्वाय नमः शिरसि । ह्रीं विद्यातत्त्वाय नमो मुखे
। दुं शिवतत्त्वाय नमो हृदये । ॐ गुरुतत्त्वाय नमो नाभौ । ॐ ह्रीं शक्तितत्त्वाय
नमो जङ्घयोः ।
ॐ दुं शिवशक्तितत्त्वाय नमः पादयोः
। ॐ अंआंकंखंगंघंङंइंईं हृदयाय नमः । ह्रीं उंऊंचंछंजंझंञंऋंऋॄं शिरसे स्वाहा ।
दुं लृंटंठंडंढंणंलॄं शिखायै वषट् । ॐ एंतंथंदंधंनंऐं कवचाय हुं । ह्रीं ॐ
पंफंबंभंमंऔं नेत्रेभ्यो वौषट् । दुं अंयंरंलंवंशंषंसंहंळंक्षः अः अस्त्राय फट्
इति हृदयादिन्यासः । एवं करन्यासः । इति शुद्धमातृकान्यासः ।
ऋष्यादि न्यास
—
महेश्वरऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे।
श्रीदुर्गादेवतायै नमः हृदये । दुं बीजाय नमः नाभौ । ह्रीं शक्तये नमः गुह्ये । ॐ
कीलकाय नमः पादयोः । नमो दिग्बन्धः ।
करन्यास
—
ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं
मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रः
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि न्यास
- ॐ ह्रां हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं शिखायै वषट् । ॐ ह्रैं कवचाय
हुं। ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ।
मूल मन्त्रन्यास
- ॐ नमः शिरसि । ह्रीं नमः मुखे । दुं नमः वक्षसि । ॐ दुं नमः भुजयोः । ॐ र्गा नमः
नाभौ । ॐ यै नमः पृष्ठे । ॐ नं नमः जान्वोः । ॐ मः नमः पादयोः ।
तीन बार व्यापक न्यास करे।
तत्त्वन्यास
—
ॐ आत्मतत्त्वाय नमः शिरसि । ह्रीं विद्यातत्त्वाय नमः मुखे । दुं
शिवतत्त्वाय नमः हृदये। ॐ गुरुतत्त्वाय नमः नाभौ । ॐ ह्रीं शक्तितत्त्वाय नमः
जङ्घयोः । ॐ दुं शिवशक्तितत्त्वाय नमः पादयोः । ॐ अं आं कं खं गं घं ङं इं ईं
हृदयाय नमः । ह्रीं उं ऊं चं छं जं झं जं ञं ऋं ॠं शिरसे स्वाहा। दुं लृं टं ठं डं
ढं णं लॄं शिखायै वषट् । ॐ एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुं । ह्रीं ओं पं फं बं भं
मं औँ नेत्राभ्यां वौषट् । दुं अं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षः अः अस्त्राय
फट्।
इसी प्रकार करन्यास करे।
अथ मूलमातृकान्यासः। अं नमः शिरसि ।
आं नमो मुखवृत्ते । इं दक्षनेत्रे । ईं वामनेत्रे उं दक्षकर्णे । ऊं वामकर्णे । ऋं
दक्षगण्डे । ऋॄं वामगण्डे । लृं दक्षनासापुटे । लॄं वामनासापुटे। एं ऊर्ध्वोष्ठे ।
ऐं अधरोष्ठे । ओं ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ । औं अधोदन्तपंक्तौ । अं ललाटे । अः जिह्वायाम्
। कं नमो दक्षबाहुमूले । खं कूर्परे । गं मणिबन्धे । घं अङ्गुलिमूले । ङं
अङ्गुल्यग्रे । चं वामबाहुमूले । छं कूर्परे । जं मणिबन्धे । झं अङ्गुलिमूले । ञं
अङ्गुल्यो । टं नमो दक्षपादमूले । ठं जानुनि । डं गुल्फे । ढं अङ्गुलिमूले । णं
अङ्गुल्यये । तं वामपादमूले । थं जानुनि । दं गुल्फे । धं अङ्गुलिमूले । नं
अङ्गुल्यये । पं दक्षपार्श्वे । फं वामपार्श्वे । बं पृष्ठे । भं नाभौ । मं जठरे ।
यं हृदि । रं दक्षांसे । लं ककुदि । वं वामांसे । शं हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तं । षं
हृदादिवामहस्ताग्रान्तं । सं हृदादिदक्षपादाग्रान्तं । हं हृदादिवामपादाग्रान्तं ।
ळं पादादिशिरः पर्यन्तम् । क्षः नमः शिरसः । पादपर्यन्तमिति त्रिर्व्यापयेत्।
मूल मातृकान्यास - अं नमः शिरसि ।
आं नमो मुखवृत्ते । इं दक्षनेत्रे । ईं वामनेत्रे उं दक्षकर्णे । ऊं वामकर्णे । ऋं
दक्षगण्डे । ऋॄं वामगण्डे । लृं दक्षनासापुटे । लॄं वामनासापुटे। एं ऊर्ध्वोष्ठे ।
ऐं अधरोष्ठे । ओं ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ । औं अधोदन्तपंक्तौ । अं ललाटे । अः जिह्वायाम्
। कं नमो दक्षबाहुमूले । खं कूर्परे । गं मणिबन्धे । घं अङ्गुलिमूले । ङं
अङ्गुल्यग्रे । चं वामबाहुमूले । छं कूर्परे । जं मणिबन्धे । झं अङ्गुलिमूले । ञं
अङ्गुल्यो । टं नमो दक्षपादमूले । ठं जानुनि । डं गुल्फे । ढं अङ्गुलिमूले । णं
अङ्गुल्यये । तं वामपादमूले । थं जानुनि । दं गुल्फे । धं अङ्गुलिमूले । नं
अङ्गुल्यये । पं दक्षपार्श्वे । फं वामपार्श्वे । बं पृष्ठे । भं नाभौ । मं जठरे ।
यं हृदि । रं दक्षांसे । लं ककुदि । वं वामांसे । शं हृदादिदक्षहस्ताग्रान्तं । षं
हृदादिवामहस्ताग्रान्तं । सं हृदादिदक्षपादाग्रान्तं । हं हृदादिवामपादाग्रान्तं ।
ळं पादादिशिरः पर्यन्तम् । क्षः नमः शिरसः पादपर्यन्तम् ।
देवीरहस्य पटल ४७- पूजन पद्धति
एवं न्यासं विधाय पूर्ववत् षडङ्गं
कृत्वा प्रणवेन प्राणायामत्रयं विधाय (पूरकं १२ कुम्भकं १६ रेचकं ३२ ) ॐ ह्रीं
आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा, ॐ
ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि स्वाहा, ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं
शोधयामि स्वाहा इति त्रिराचम्य, प्राणायामयोगेन भूतशुद्धिं
कुर्यात् ।
ॐ हूं आकुञ्चेन सुषुम्नावर्त्मना
प्रदीपकलिकाकारं तेजो ब्रह्मपथान्तनत्वा परमशिवे समानीय,
तत्र सुधावृष्ट्या कुलगुरून् ध्यात्वा तथैव संतर्प्य, पुनस्तेनैव मार्गेण षट्चक्रकुलं भित्त्वा तत्तेजः स्वस्थानमानीय, यमिति वायुबीजेन षोडशधा जप्तेन वामकुक्षिगतं पापपुरुषं कृष्णवर्णं
रक्तश्मश्रुलमङ्गुष्ठमात्राकारं ध्यात्वा शोषयेत्। रमिति वह्निबीजेन षोडशधा जप्तेन
तं दाहयेत् । वमित्यमृतबीजेन षोडशधा जप्तेन गलच्चन्द्रामृत- वृष्ट्याप्लावयेत्।
लमितीन्द्रबीजेन षोडशवारजप्तेन ( पिण्डीभूतं स्वात्मकं ध्यात्वा, हमित्याकाशबीजेन सकृज्जप्तेन) स्वात्मानं दिव्यदेहं विभावयेदिति
भूतशुद्धिं कृत्वा प्राणप्रतिष्ठां कुर्यात्। ॐ ह्रींदुंआंक्रों सोहं हंसः मम
प्राणा इह प्राणाः, एवं ॐ ह्रींदुंआंक्रों सोहं हंसः मम जीव
इह स्थितः ॐ ह्रींदुंआंक्रों सोहं हंसः मम सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितानि ॐ ह्रींदुंआंक्रों
सोहं हंसः मम वाङ्मनश्चक्षुस्त्वक् श्रोत्रजिह्वाप्राण- प्राणा इहैवागत्य सुखं
चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा, इति प्राणप्रतिष्ठाक्रमः ।
इस प्रकार न्यास करके पूर्ववत्
षडङ्ग करके 'ॐ' से तीन
प्राणायाम- पूरक १२, कुम्भक १६ एवं रेचक ३२ करे। इसके बाद
तत्त्वशोधन करे। जैसे-
ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा
।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि
स्वाहा ।
ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि स्वाहा ।
तीन आचमन करके प्राणायामयोग से भूतशुद्धि
करे।
'ॐ हूं' से
मूलाधार को आकुञ्चित करे। सुषुम्ना मार्ग से दीपशिखाकृति तेजरूप को ब्रह्मरन्ध्र
में लाकर परमशिव के साथ मिला दे। वहाँ कुलगुरु का ध्यान करके सुधावृष्टि से तर्पित
करे। फिर उसी प्रकार षट्चक्र कुलों का भेदन करते हुए उस तेज को मूलाधार में
प्रतिष्ठित करे। वायुबीज 'यं' के सोलह
जप से वाम कुक्षिगत काले वर्ण, लाल दाढीयुक्त अङ्गुष्ठाकार
पापपुरुष का ध्यान करके उसका शोषण करे। अग्निबीज 'रं'
के सोलह जप से उसे जला दे अमृतबीज 'वं'
के सोलह जप से चन्द्रमा से झरते हुए अमृतवृष्टि से प्लावित करे।
इन्द्रबीज 'लं' के सोलह जप से अपने
शरीर को पिण्डीकृत करे। आकाशबीज 'हं' के
जप से अपने दिव्य देह को फिर उत्पन्न समझे। इस प्रकार की भूतशुद्धि के बाद
प्राणप्रतिष्ठा करे। प्राणप्रतिष्ठा का मन्त्र यह है-
ॐ ह्रीं दुं आं क्रों सोहं हंसः
प्राणा इह प्राणा ।
ॐ ह्रीं दुं आं क्रों हंसः सोहं मम जीव
इह स्थितः।
ॐ ह्रीं दुं आं क्रों हंसः सोहं मम
सर्वेन्द्रियाणि इह स्थितः।
ॐ ह्रीं दुं आं क्रों मम वाङ्मन
चक्षु श्रोत्र त्वक् जिह्वा घ्राण प्राणा इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।
एवं प्राणान् संस्थाप्य पूर्ववत्
षडङ्गं विधायाचम्य मूलदेवीं ध्यायेत्-
भूगेहनागदलवृत्तरसाररारबिन्दुस्थसन्महिषपीठगतां
भवानीम् ।
दूर्वादलाग्रसदृशच्छविमष्टबाहुं
दुर्गां भजे त्रिनयनां विलसत्त्रिबीजाम् ॥
इति ध्यात्वा मूलाङ्गन्यासौ विधाय,
श्रीचक्रं चतुर्द्वारं त्रिवृत्तं साष्टदलं वृत्तं षडश्रं
त्रिकोणबिन्दुं विचिन्त्य वा अष्टगन्धेन विलिख्य वा विभाव्य पीठ- पूजां कुर्यात् ।
ॐ ह्रीं मण्डूकाय नमः । ॐ ह्रीं कालाग्निरुद्राय नमः । ॐ ह्रीं मूलप्रकृत्यै नमः ।
ॐ ह्रीं आधारशक्त्यै नमः। ॐ ह्रीं कूर्माय नमः । ॐ ह्रीं अनताय० । ॐ ह्रीं वराहाय
० । ॐ ह्रीं पृथिव्यै० इत्युपर्युपरि संपूज्य, ॐ ह्रीं सुधार्णवाय
नमः मध्ये । ॐ ह्रीं नवरत्नविराजितनवखण्डमयद्वीपाय नमः । ॐ ह्रीं पद्मरागखण्डाय
नमः । ॐ ह्रीं स्वर्णगिरये ०। ॐ ह्रीं नन्दनोद्यानाय ०। ॐ ह्रीं कल्पवनाय॰ । ॐ
ह्रीं पद्मवनाय० । ॐ ह्रीं विचित्ररत्नखचित
भूमिकायै ० । ॐ ह्रीं चिन्तामणिमण्डपाय॰ । ॐ ह्रीं नवरत्नखचितरत्नमयवेदिकायै ०। ॐ ह्रीं
रत्नसिंहासनाय॰ । तन्मध्ये ॐ ह्रीं सहस्रारपद्माय० । ॐ ह्रीं प्रकृतिमयपत्रेभ्यो ० । ॐ ह्रीं विकृतिमयकेसरेभ्यो
०। तन्मध्ये ॐ ह्रीं अष्टबीजविभूषितकर्णिकायै ० । तत्पार्श्वे ॐ ह्रीं धर्माय० । ॐ
ह्रीं ज्ञानाय ० । ॐ ह्रीं वैराग्याय ० । ॐ ह्रीं ऐश्वर्याय ० । वामतः ॐ ह्रीं अधर्माय०
। ॐ ह्रीं अज्ञानाय । ॐ ह्रीं अवैराग्याय० । ॐ ह्रीं अनैश्वर्याय ० । मध्ये ॐ
ह्रीं सं सत्त्वाय० । ॐ ह्रीं रं रजसे ० । ॐ ह्रीं तं तमसे ०। मूलविद्यामुच्चार्य
महिषासनाय नमः । मूलमुच्चार्य मातृकाः प्रोच्चार्य श्रीयोगपीठाय नमः इत्यभ्यर्च्य
पात्रार्चनं कुर्यात् ।
इस प्रकार प्राणप्रतिष्ठा करके
पूर्ववत् षडङ्गन्यास करे। तीन आचमन करके मूल देवी का ध्यान करे।
भूगेहनागदलवृत्तरसारसारबिन्दुस्थसन्महिषपीठगतां
भवानीम् ।
दूर्वादलाग्रसदृशच्छविमष्टबाहुं
दुर्गां भजे त्रिनयनां विलसत्त्रिबीजाम्।।
आशय यह है कि भूपुर,
अष्टदल, वृत्त, षट्कोण,
त्रिकोण के मध्य बिन्दु में महिष की पीठ पर स्थित भवानी की छवि
दूर्वादल के अग्रभाग के समान है। उनकी आठ भुजाएँ हैं, तीन
नेत्र हैं। तीन बीजों में विलसित दुर्गा का मैं भजन करता हूँ।
इस प्रकार ध्यान करके मूल मन्त्र के
वर्णों से पूर्ववर्णित विधि से न्यास करे। चार द्वारयुक्त भूपुर,
वृत्तत्रय, अष्टदल, षट्कोण,
त्रिकोण, बिन्दु से युक्त श्रीचक्र का चिन्तन करके
या अष्टगन्ध से अंकन करके या भावना करके पीठपूजा करे। जैसे-
ॐ ह्रीं मण्डूकाय नमः । ॐ ह्रीं
कालाग्निरुद्राय नमः । ॐ ह्रीं मूलप्रकृत्यै नमः । ॐ ह्रीं आधारशक्त्यै नमः । ॐ
ह्रीं कूर्माय नमः । ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः । ॐ ह्रीं वराहाय नमः । ॐ ह्रीं पृथिव्यै
नमः ।
यन्त्र पर इनका पूजन करे। इसके बाद
इस प्रकार पूजा करें। जैसे—
मध्य में
ॐ ह्रीं सुधार्णवाय नमः । ॐ ह्रीं नवरत्नविराजितनवखण्डमयद्वीपाय नमः । ॐ ह्रीं
स्वर्णगिरये नमः । ॐ ह्रीं नन्दनोद्यानाय नमः । ॐ ह्रीं कल्पवनाय नमः । ॐ ह्रीं
पद्मवनाय नमः । ॐ ह्रीं विचित्ररत्नखचितभूमिकायै नमः । ॐ ह्रीं चिन्तामणिमण्डपाय
नमः । ॐ ह्रीं नवरत्नखचित- रत्नमयवेदिकायै नमः । ॐ ह्रीं रत्नसिंहासनाय नमः ।
सिंहासनमध्ये
- ॐ ह्रीं सहस्रदलपद्माय नमः । ॐ ह्रीं प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः । ॐ ह्रीं
विकृतिमयकेसरेभ्यो नमः ।
तन्मध्ये
- ॐ ह्रीं अष्टबीजविभूषितकर्णिकाय नमः।
तत्पार्श्वे-
ॐ ह्रीं धर्माय नमः । ॐ ह्रीं ज्ञानाय नमः । ॐ ह्रीं वैराग्याय नमः । ॐ ह्रीं
ऐश्वर्याय नमः ।
वामतः-
ॐ ह्रीं अधर्माय नमः । ॐ ह्रीं अज्ञानाय नमः । ॐ ह्रीं अवैराग्याय नमः । ॐ ह्रीं
अनैश्वर्याय नमः ।
मध्ये-
ॐ ह्रीं सं सत्त्वाय नमः । ॐ ह्रीं रं रजसे नमः । ॐ ह्रीं तं तमसे नमः ।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः महिषासनाय
नमः ।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः अं आं इं
ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं
ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं
श्रीयोगपीठाय नमः ।
इस प्रकार योगपीठ का अर्चन करके
पात्रार्चन करे।
ततः स्वदेहं गन्धादिना संपूज्य,
तत्र स्ववामे वृत्तत्रिकोणचतुरश्रमण्डलं विधाय मूलेनाभ्यर्च्य मूलं
दुर्गासामान्यार्ध्याय नमः। रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः इत्याधारे, तन्मण्डलं षडङ्गेनाभ्यर्च्य तत्रास्त्रक्षालितं शङ्खं संस्थाप्य, शङ्ख अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः इति संपूज्य, विलोममातृकया संपूर्य, सौः सोममण्डलाय षोडशकलात्मने
नमः इत्यभ्यर्च्य, मूलाष्टाभिमन्त्रितं कृत्वा 'गङ्गे च यमुने चैव' इत्या- दिना तीर्थमावाह्य,
शुद्धं भावयेदिति सामान्यार्घ्यविधिः।
अपने देह की गन्धादि से पूजा करके
अपने बाँयें भाग में त्रिकोण, वृत्त,
चतुरस्र मण्डल बनाकर मूल मन्त्र से पूजन करे।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः
दुर्गासामान्यार्ध्याय नमः ।
रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः। से
आधार की पूजा करे।
उस मण्डल में षडङ्ग मन्त्र से पूजन
करे। उस आधार पर धोकर शङ्ख रखे । शङ्ख में 'अं
अर्कमण्डलाय द्वादश-कलात्मने नमः' से
पूजन करे। क्षं से अं तक की मातृकाओं का विलोम रूप में उच्चारण करके
उसमें जल भरे। जल में 'सौः सोममण्डलाय
षोडशकलात्मने नमः' से पूजा करे।
मूल मन्त्र के आठ बार उच्चारण से अभिमन्त्रित करे 'गङ्गे
च यमुने चैव' से तीर्थों का आवाहन करे। इसके बाद उसके
शुद्ध होने की भावना करे। इस प्रकार सामान्यार्घ्यं स्थापन विधि पूर्ण होती है।
देवीरहस्य पटल ४७- मुद्राप्रदर्शन
सामान्यार्घ्यस्य वामे
त्रिकोणषट्कोणवृत्तचतुरश्रं मण्डलं विधाय तन्म- ण्डलं षडङ्गेनाभ्यर्च्य
मूलमुच्चार्य, श्रीदुर्गाकलशमण्डलाय
नमः । ततः पूर्ववत् मूलेनाभ्यर्च्य तत्रास्त्रक्षालितां त्रिपादिकां संस्थाप्य,
रं वह्नि- मण्डलाय दशकलात्मने नमः इत्यभ्यर्च्य तत्रास्त्रक्षालितं
कलशं संस्थाप्य अं अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमः इत्यक्षतपुष्पैरभ्यर्च्य
तत्रानामिकाङ्गुष्ठाभ्याममृतधारापातेन कलशमापूर्य, सौः
सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः इत्यभ्यर्च्य ॐ ह्रींदांदींदुंदैंदौंदः दुं अं अमृते
अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्त्रावय २ शुक्रशापं मोचय २ ॐ ह्रीं दुं सुरादेव्यै
वौषट् इति सप्तधाभिमन्त्र्य, दुं ह्रीं ॐ हसक्षमलवरयऊ
आनन्दभैरवाय वौषट् इति सप्तधाभिमन्त्र्य, ॐ ह्रीं
आनन्दभैरवसुरादेवीपादुकाभ्यो नमः इति संपूज्य, धेनुयोनिमुद्रे
प्रदर्श्य,
ॐ सूर्यमण्डलसम्भूते वरुणालयसम्भवे
।
अमाबीजयमये देवि
शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥
एकमेव परं ब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं
ध्रुवम् ।
कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते
नाशयाम्यहम् ॥
पवमानः परानन्दः पवमानः परो रसः ।
पवमानं परं ज्ञानं तेन त्वां
पावयाम्यहम् ॥
वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं
यदि ।
तेन सत्येन ते देवि ब्रह्महत्यां
व्यपोहतु ॥
कृष्णशापविनिर्मुक्ता त्वं मुक्ता
ब्रह्मशापतः ।
विमुक्ता मुनिशापेन पवित्रा भव
सर्वदा ॥
इति कलशं संपूज्य
धेनुयोनिमत्स्यमुद्राः प्रदर्श्य गरुडमुद्रयाच्छादयेदिति द्रव्यशुद्धिः ।
सामान्यार्घ्य पात्र के वाम भाग में
त्रिकोण,
षट्कोण, वृत्त, चतुरस्र
मण्डल बनाकर उस मण्डल का पूजन षडङ्ग मन्त्र से करे – 'ॐ
ह्रीं दुं दुर्गाय नमः । श्री दुर्गाकलशमण्डलाय नमः' का
उच्चारण करे। मूल मन्त्र से उसका पूजन करे। फट् मन्त्र से आधार को धोकर
स्थापित करे। रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः' से अर्चन करे। उस मण्डल पर 'फट्' से कलश को धोकर रखे। उसका पूजन अक्षत पुष्प से 'अं
अर्कमण्डलाय द्वादशकलात्मने नम' मन्त्रोच्चारण करते हुए
करे। उसमें अनामिका एवं अङ्गुष्ठ के योग से अमृतधारापात से कलश को जल से भर दे। 'सौः सोममण्डलाय षोड़शकलात्मने नमः' से अर्चन करे।
उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित करे; जैसे-
ॐ ह्रीं दां दीं दूं दें दौं दः दुं
अं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय शुक्रशापं मोचय मोचय ॐ ह्रीं
दुं सुरादेव्यै वौषट् ।
इस मन्त्र का पाठ सात बार करे। तब ॐ
ह्रीं दुं आनन्दभैरवसुरादेवीपादुकाभ्यां नमः से पूजन करे। धेनुमुद्रा एवं
योनिमुद्रा दिखाये।
ॐ सूर्यमण्डलसम्भूते वरुणालयसम्भवे
।
अमाबीजमये देवि शुक्रशापाद्
विमुच्यताम् ।।
एकमेव परब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं
ध्रुवम् ।
कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते
नाशयाम्यहम्।।
पवमानः परानन्दः पवमानः परो रसः ।
पवमानं परं ज्ञानं तेन त्वां
पावयाम्यहम् ।।
वेदानां प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं
यदि ।
तेन सत्येन ते देवि ब्रह्महत्यां
व्यपोहतु ।।
कृष्णशापनिर्मुक्ता त्वं मुक्ता
ब्रह्मशापतः ।
विमुक्ता रुद्रशापेन पवित्रा भव
सर्वदा ।।
इस प्रकार कलश का पूजन करके
धेनु-योनि मत्स्यमुद्रा दिखाये। गरुड़मुद्रा आच्छादन करे। इस प्रकार द्रव्यशुद्धि
सम्पन्न होती है।
देवीरहस्य पटल ४७- शोधन
ॐ ह्रीं दुं कृतावतारो हरिणा कलिना
पीडितं जगत् ।
बलिना निगृहीतं तु कौलिकानां हिताय
च ॥
श्रीदुर्गापरितोषार्थं स्वयं
मीनोऽभवत् प्रभुः ।
इति मुद्रात्रयं प्रदर्श्य शुद्धि
शोधयेत् ।
ॐ ह्रीं दुं
छागलादिगवान्तादिकृतरूपाय वै नमः ।
बल्यर्थं देवदेव्योश्च पवित्रीभव साम्प्रतम्
।
मूलं त्रिधा जप्त्वा मुद्रात्रयं
दर्शयेदिति ।
ॐ ह्रीं दुं श्रीदुर्गार्चनकाले तु
यानि यानीह सांप्रतम् ।
वस्तूनि सौरभेयानि पवित्राणीह
सिद्धये ॥
इति मूलं त्रिधा जपन् मुद्रात्रयं
सर्वस्योपरि दर्शयेदिति कलशादिविधिः ।
मीनशोधन-
ॐ ह्रीं दुं कृतावतारो हरिणा कलिना
पीड़ितं जगत् ।
बलिना निगृहीतं तु कौलिकानां हिताय
च।
श्रीदुर्गापरिशोषार्थं स्वयं मीनोऽभवत्
प्रभुः ।।
इस मन्त्र को पढ़कर धेनु,
योनि और मत्स्य मुद्रा दिखावे। तब शुद्धि शोधन करे-
मांसशोधन-
ॐ ह्रीं दुं
छागलादिगवान्तादिकृतरूपाय वै नमः ।
बल्यर्थं देवदेव्योश्च पवित्रीभव
साम्प्रतम्।।
मूल मन्त्र तीन बार जप कर धेनु,
योनि, मत्स्यमुद्रा दिखाये।
सभी सामग्री शोधन-
ॐ ह्रीं दुं श्रीदुर्गाचनकाले तु
यानि यानीह साम्प्रतम्।
वस्तूनि सुरदेयानि पवित्राणीह सिद्धये
।।
मूल मन्त्र का तीन जप करके धेनु,
योनि, मत्स्यमुद्रा दिखाये। इस प्रकार कलश-
स्थापनविधि पूर्ण होती है।
देवीरहस्य पटल ४७- पूजन
ततो मूलेनानन्दभैरवाङ्कोपविष्टां
नीलकण्ठेशीं श्रीदेवीं ध्यात्वा मूले- नावाह्य श्रीचक्रमर्चयेत्। तत्र मूलेन
पाद्यार्थ्याचमनीयादि परिकल्पयेत्। मूलेन देवदेव्योर्मधुपर्काचमनीयादि निवेदयेत्।
मूलेन नैवेद्यं निवेद्य आचमनीयं नमः इति निवेद्य,
गण्डूषत्रयं निवेद्य, मूलेन ताम्बूलादि समर्पयेत्।
श्रीचक्रार्चन
- मूल मन्त्र 'ॐ ह्रीं दुं
दुर्गायै नमः' से आनन्दभैरव की गोद
में बैठी नीलकण्ठेशी देवी का ध्यान करे। मूलमन्त्र 'ॐ ह्रीं
दुं दुर्गायै नमः दुर्गाम् आवाहयामि' से आवाहन करे। तब
श्रीचक्र का अर्चन करे। जैसे-
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः पाद्यं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः अर्घ्यं
सर्मपयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः आचमनीयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
मधुपर्क समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
आचमनीयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
गन्धं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
वस्त्रोपवस्त्रालङ्कारानि समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
पुष्पं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
धूपं आघ्रापयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
दीपं दर्शयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
नैवेद्यं निवेदयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
आचमनीयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
गण्डूषत्रयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः देवदेव्यौ
ताम्बूलादिसर्वोपचारान् सर्मपयामि।
योनि मुद्रा से प्रणाम करे।
देवीरहस्य पटल ४७- आवरण
पूजन
ततो मूलषडङ्गं विधाय चतुरश्रं
पूजयेत्। ॐ ह्रीं दुं सर्वसिद्धिप्रदाय चक्राय नमः इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा,
ॐ ह्रीं दुं गं गणेशाय नमः पूर्वे ॐ ह्रीं दुं हौं कुमाराय नमः
दक्षिणे। ॐ ह्रीं दुं प्रीं पुष्पदन्ताय नमः पश्चिमे । ॐ ह्रीं दुं वै विकर्तनाय नमः
उत्तरे इति गन्धाक्षतपुष्पैरभ्यर्च्य प्रथमावरणम्।
प्रथम आवरण
- मूल मन्त्र से षडङ्ग करके भूपुर में पूजन करे। पहले
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः
सर्वसिद्धिप्रदाय चक्राय नमः
से पुष्पाञ्जलि देवे।
भूपुर में पूर्व में- ॐ ह्रीं दुं
गं गणेशाय नमः ।
दक्षिण में- ॐ ह्रीं दुं हौं कुमाराय नमः ।
पश्चिम में - ॐ ह्रीं दुं श्री
पुष्पदन्ताय नमः ।
उत्तर में- ॐ ह्रीं दुं वै
विकर्तनाय नमः।
सबों को गन्धाक्षतपुष्प समर्पित
करे। इसके पश्चात् निम्न मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित करे-
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
प्रथमावरणार्चनम्।।
ॐ ह्रीं दुं असिताङ्गभैरवयुतब्राह्मी
श्रीपादु० । ॐ ह्रीं दुं रुरुभैरवयुतनारायणी श्रीपा० । ॐ ह्रीं दुं चण्डभैरवयुतचामुण्डाश्रीपा० । ॐ ह्रीं दुं
क्रोधेशभैरवयुतापराजिताश्रीपा० । ॐ ह्रीं दुं उन्मत्तभैरवयुतवाराही श्रीपा०। ॐ
ह्रीं दुं कपालिभैरवयुतकौमारीश्रीपा० । ॐ ह्रीं दुं भीषणभैरवयुतवाराही श्रीपा०। ॐ
ह्रीं दुं संहारभैरवयुतनारसिंही श्रीपादु०
इति वामावर्तेन गन्धाक्षतपुष्पैरभ्यर्चयेत् । इति द्वितीयावरणम् ।
द्वितीय आवरण
– अष्टदल में-
ॐ ह्रीं दुं
असिताङ्गयुतब्राह्मीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं
रुरुभैरवयुतनारायणीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं
चण्डभैरवयुतचामुण्डाश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं
क्रोधेशयुतापराजिताश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं उन्मत्तयुतमाहेश्वरी
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं कपालीयुतकौमारी
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं भीषणभैरवयुतवाराही
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं संहार-
भैरवयुतनारसिंहीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
इनका पूजन वामावर्त क्रम से
गन्धाक्षत पुष्प से करे। निम्न मन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित करे-
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
द्वितीयावरणार्चनम्।।
तत्पश्चात् योनिमुद्रा से प्रणाम
करे।
ॐ ह्रीं दुं
सर्वाशापूरकचक्राय नमः इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा षट्कोणं पूजयेत् । ॐ ह्रीदुं
शैलपुत्री श्रीपा० । ॐ ह्रीं दुं ब्रह्मचारिणीश्री० । ॐ ह्रीं दुं चण्डघण्टाश्री०
। ॐ ह्रीं दुं कूष्माण्डाश्री० । ॐ ह्रीं दुं स्कन्दमातृश्री ०। ॐ
ह्रीं दुं कात्यायनी श्री० इति वामावर्तेन संपूजयेत् । इति तृतीयावरणम् ।
तृतीय आवरण
–
षट्कोण में-
ॐ ह्रीं दुं सर्वाशापरिपूरकचक्राय
नमः से पुष्पाञ्जलि देकर पूजा करे।
ॐ ह्रीं दुं शैलपुत्री श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं
ब्रह्मचारिणीश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं चन्द्रघण्टाश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं कूष्माण्डाश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं स्कन्दमातृश्रीपादुका
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं कात्यायनी श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
वातावर्त क्रम से पूजा करे। पूजा
समर्पण करे; जैसे-
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले
।
भक्तया समर्पये तुभ्यं
तृतीयावरणार्चनम्।।
पुष्पाञ्जलि प्रदान कर योनि मुद्रा
से प्रणाम करे।
ॐ ह्रीं दुं सौभाग्यप्रदाय चक्राय
नमः इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा त्रिकोणं पूजयेत्। ॐ ह्रीं दुं
कालरात्री श्रीपा०। ॐ ह्रीं दुं महागौरीश्री ०। ॐ ह्रीं दुं देवदूती
श्री ० । इति अग्रेशानाग्नेयतोऽभ्यर्चयेत् । इति चतुर्थावरणम् ।
चतुर्थ आवरण-
त्रिकोण में-
ॐ ह्रीं दुं सौभाग्यप्रदाय चक्राय
नमः से पुष्पाञ्जलि देकर पूजा करे।
अग्रकोण में- ॐ ह्रीं दुं
कालरात्रिश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ईशान कोण में- ॐ ह्रीं दुं महागौरी
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
आग्नेय कोण में - ॐ ह्रीं दुं
देवदूती श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
चतुर्थावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर
योनिमुद्रा से प्रणाम करे।
ॐ ह्रीं दुं
अष्टसिद्धिप्रदाय चक्राय नमः इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा मूलमुच्चार्य
श्रीनीलकण्ठश्रीदुर्गा श्रीपा० इति सप्तवारं बिन्दौ अभ्यर्चयेत् । इतिपञ्चमावरणम्।
बिन्दूपरि मूलं अम्बिका श्रीपा० ॐ
ह्रीं दुं अष्टाक्षराश्रीपा०। ॐ ह्रीं दुं
अष्टभुजा श्री ० । ॐ ह्रीं दुं नीलकण्ठ श्रीपा० । ॐ ह्रीं दुं जगदम्बिका
श्री० इत्यभ्यर्चयेत् । इति षष्ठावरणम्।
पञ्चम आवरण-
बिन्दु में –
ॐ ह्रीं दुं अष्टसिद्धिप्रदाय
चक्राय नमः से पुष्पाञ्जलि देकर पूजा करे।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः
श्रीनीलकण्ठ श्रीदुर्गा श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः से सात बार पूजन करें।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
पञ्चमावरणार्चनम्।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर
योनिमुद्रा से प्रणाम करे।
षष्ठ आवरण-
बिन्दु में ही –
ॐ ह्रीं दुं अम्बिका श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ।
ॐ ह्रीं दुं अष्टाक्षरा श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं अष्टभुजा- श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं नीलकण्ठश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः ।
ॐ ह्रीं दुं जगदम्बिका श्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
षष्ठावरणार्चनम् ।।
इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर
योनिमुद्रा से प्रणाम करे।
बिन्दूपरि मू० शङ्खाय नमः। पद्माय ।
खड्गाय ० बाणेभ्यो ०। धनुषे । खेटकाय० । शूलाय० । तर्जन्यै नमः। मूलविद्यां
त्रिरुच्चार्य श्रीनील- कण्ठ श्रीदुर्गा श्रीपा० पू० त० इति मूलेन
गन्धाक्षतपुष्पधूपदीपनैवेद्याच- मनीयताम्बूलच्छत्रचामरारात्रिकादीन् समर्पयेदिति
सप्तमावरणम् ।
सप्तम आवरण-
बिन्दु में ही-
ॐ ह्रीं दुं शङ्खाय नमः
शङ्खश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं पद्माय नमः
पद्मश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं खड्गाय नमः
खड्गश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं वाणेभ्यो नमः
वाणश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं खेटकाय नमः खेटक
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं धनुषाय नमः
धनुषश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं शूलाय नमः
शूलश्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं तर्जन्यै नमः तर्जनी
श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः'
तीन बार कहकर श्रीनीलकण्ठ श्रीदुर्गा श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि
नमः।
अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले
।
भक्त्या समर्पये तुभ्यं
सप्तमावरणार्चनम्।।
उक्त मन्त्र बोलकर पुष्पाञ्जलि
समर्पित करे।
मूल मन्त्र से गन्धाक्षतपुष्प,
धूप, दीप, नैवेद्य,
आचमनीय, ताम्बूल, छत्र,
चामर, आरती आदि समर्पित करे।
तत्र मूलेन बलिं निवेद्य सौः
सर्वविघ्नकृद्भ्यो भूतेभ्यो नमः स्वाहा । यांयींयूं योगिनीगणेभ्यो नमः स्वाहा।
वांवीं देवीपुत्रवटुकनाथ कपि- लजटाभार भास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख एह्येहि इमं
बलिं यथोपचितं गृह्ण २ स्वाहा । क्षांक्षी क्षेत्रपालाय नमः इति बलिं दत्त्वा
सङ्कल्पपूर्वं न्यासादि विधाय देव्यत्रे मालामादाय यथाशक्ति मूलविद्यां जप्त्वा 'गुह्याती'ति जपं समर्प्य, देव्य
कवचसहस्रनामस्तवपाठं विधाय तदपि देवदेव्यो: समर्प्य
प्रातः प्रभृति सायान्तं सायादि
प्रातरन्ततः ।
यत्करोमि जगन्मातस्तदस्तु तव पूजनम्
॥
इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा
योनिमुद्रया प्रणम्य, संहारमुद्रया
देवदेव्यौ हृदि विसृज्य स्वयमपि सदाशिवो भूत्वा स्वशक्त्या सह पात्रार्पणं विधाय सुखं
विहरेदिति ।
बलि
- इनको बलि इस प्रकार देनी चाहिये-
ॐ ह्रीं दुं सौः सर्वविघ्नकृद्भ्यो
भूतेभ्यो नमः स्वाहा ।
ॐ ह्रीं दुं यां यीं यूं
योगिनीगणेभ्यो नमः स्वाहा ।
ॐ ह्रीं दुं वां वीं
देवीपुत्रवटुकनाथ कपिलजटाभार भास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख एह्येहि इमं बलिं यथोपचितं
गृह्ण गृह्ण स्वाहा ।
ॐ ह्रीं दुं क्षां क्षीं
क्षेत्रपालाय नमः ।
इस प्रकार बलि देकर संकल्प करे।
न्यासादि करे। देवी के आगे माला लेकर मूल विद्या का जप यथाशक्ति करे। 'गुह्यातिगुह्य' मन्त्रोच्चारणपूर्वक
जप देवी को समर्पित करे। देवी के आगे कवच, सहस्रनाम स्तोत्र
का पाठ करे। तदनन्तर पाठों को देवी के करकमलों में समर्पित करे एवं निम्न मन्त्र
का पाठ करे-
प्रातः प्रभृति सायान्तं सायादि
प्रातरन्ततः ।
यत्करोमि जगन्मातः तदस्तु तव पूजनम्
।।
पुष्पाञ्जलि प्रदान करे ।
योनिमुद्रा से प्रणाम करे। संहारमुद्रा से देव-देवी को अपने हृदय में ले आये। तब
स्वयं सदाशिव होकर अपनी शक्ति के साथ पात्रार्पण करके चिरकाल तक सुखपूर्वक विहार
करे।
देवीरहस्य पटल ४७- पटलोपसंहारः
इति श्रीनित्यपूजायाः पद्धतिं
गुह्यगोपिताम् ।
श्रीदुर्गासारसम्भूतां गोपयेत्
साधकेश्वरि ॥
हे साधकेश्वरि! श्री नित्य पूजा
पद्धति गुह्य और गोप्य है। श्री दुर्गासार समुत्पन्न है। अतः इसे गुप्त रखे।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये श्रीदुर्गापद्धतिनिरूपणं नाम सप्तचत्वारिंशः पटलः ॥ ४७ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में श्रीदुर्गापद्धति निरूपण नामक सप्तचत्वारिंश पटल
पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 48
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