देवीरहस्य पटल ४६

देवीरहस्य पटल ४६   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ४६ में दुर्गापञ्चाङ्ग निरूपण में श्रीदुर्गापटल के विषय में बतलाया गया है।

देवीरहस्य पटल ४६

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् षट्चत्वारिंशः पटलः श्रीदुर्गापटलम्

Shri Devi Rahasya Patal 46   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य छीयालीसवाँ पटल

रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् षट्चत्वारिंश पटल

देवीरहस्य पटल ४६ श्रीदुर्गापञ्चाङ्ग निरूपण

अथ षट्चत्वारिंशः पटलः

दुर्गापञ्चाङ्गावतारः

श्रीदेव्युवाच

भगवन् सर्वतत्त्वज्ञ साधकानां जयावह।

यत् पुरा सूचितं देव दुर्गापञ्चाङ्गमुत्तमम् ॥ १ ॥

सर्वस्वं सर्वदेवानां रहस्यं सर्वमन्त्रिणाम् ।

तदद्य कृपया ब्रूहि यद्यस्ति मयि ते दया ॥ २ ॥

श्रीदुर्गा पञ्चाङ्ग श्री देवी ने कहा- भगवन्! आप सभी तत्त्वों के ज्ञाता और साधकों को जय देने वाले हैं। आपने पहले जिस दुर्गा पञ्चाङ्ग का जिक्र किया था, जो सभी देवों का सर्वस्व है, सभी साधकों के लिये रहस्य है; यदि मुझ पर आपकी दया हो तो कृपया आज उसी को सुनाइये ।। १-२ ।।

श्री भैरव उवाच

एतद् गुह्यतमं देवि पञ्चाङ्गं तत्त्वलक्षणम् ।

दुर्गाया: सारसर्वस्वं न कस्य कथितं मया ॥ ३ ॥

तव स्नेहात् प्रवक्ष्यामि दुर्गापञ्चाङ्गमीश्वरि ।

 गुह्यं गोप्यतमं दिव्यं न देयं ब्रह्मवादिभिः ॥४॥

श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! तत्त्वलक्षण से युक्त यह पञ्चाङ्ग गुह्यतम है। दुर्गा के सार का सर्वस्व है। इसे मैंने किसी से नहीं कहा है। हे ईश्वरि! तुम्हारे स्नेहवश इस दुर्गा- पञ्चाङ्ग का वर्णन करता हूँ। यह गुह्य, गोप्यतम, दिव्य है और ब्रह्मवादियों से भी कहने के लाय नहीं है ।। ३-४ ।।

या देवी दैत्यदमनी दुर्गेत्यष्टाक्षरा शिवा ।

देवैराराधिता पूर्वं ब्रह्माच्युतपुरःसरैः ॥५॥

पुरन्दरहितार्थाय वधार्थाय सुरद्विषाम् ।

सैवं सृजति भूतानि राजसी परमेश्वरी ॥६॥

सात्त्विकी रक्षति प्रान्ते संहरिष्यति तामसी ।

इत्थं गुणत्रयीरूपा सृष्टिस्थितिलयात्मिका ॥७॥

अष्टाक्षरी महाविद्या संख्यातीता परात्मिका ।

तस्याः पञ्चाङ्गमधुना रहस्यं त्रिदिवौकसाम् ॥८ ॥

वक्ष्यामि परमप्रीत्या न चाख्येयं दुरात्मने ।

पटलं तव वक्ष्यामि दुर्गायास्तत्त्वमुत्तमम् ॥ ९ ॥

येन श्रवणमात्रेण कोटिपूजाफलं लभेत् ।

दैत्य- दमनी दुर्गा देवी का अष्टाक्षर मन्त्र पूर्वकाल में ब्रह्मा, विष्णु और देवताओं द्वारा आराधित है। यह राजसी परमेश्वरी इन्द्र की भलाई और देवताओं के वैरियों के विनाश के लिये रूप धारण करती है। सात्विकी रूप से सृष्टि की रक्षा करती है और तामसी रूप से संहार करती है। यह त्रिगुणात्मिका देवी सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती है। यह अष्टाक्षरी महाविद्या संख्यातीता और परात्मिका है। उसी देवी का पञ्चाङ्ग वर्तमान में देवों के लिये भी रहस्य बना हुआ है। उसी दुर्गापञ्चाङ्ग को तुम्हारे स्नेहवश मैं कहता हूँ । दुष्टों के सामने इसे नहीं कहना चाहिये। सर्वप्रथम दुर्गा के उत्तम तत्त्वरूप पटल का वर्णन करता हूँ, जिसके श्रवणमात्र से ही करोड़ पूजा का फल प्राप्त होता है ।। ५-९ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गामन्त्रोद्धारः

दुर्गाया देवि वक्ष्यामि मन्त्रोद्धारं पराश्रयम् ।

सर्वतन्त्रेष्वविख्यातं सर्वकामफलप्रदम् ॥ १० ॥

तारं माया चाक्रिकं चक्रिदूर्वा वायव्याणं विश्वमन्ते भवानि ।

दुर्गायास्ते वर्णितो मूलविद्यामन्त्रोद्धारो गोपितोऽष्टाक्षरोऽयम् ॥११॥

नास्यान्तरायबाहुल्यं नाप्यमित्रादिदूषणम् ।

नो वा प्रयाससंयोगो नाचारयुगविप्लवः ॥ १२ ॥

साक्षात् सिद्धिप्रदो मन्त्रो दुर्गायाः कलिनाशनः ।

अष्टाक्षरोऽष्टसिद्धीशो गोपनीयो दिगम्बरैः ॥ १३ ॥

दुर्गामन्त्रोद्धार - हे देवि! समस्त तन्त्रों में गुप्त रूप से विद्यमान एवं समस्त कामनाओं को प्रदान करने वाले पराश्रय दुर्गा के मन्त्रोद्धार का मैं निरूपण करता हूँ। तार = ॐ, माया = ह्रीं, चक्री= दुं, चक्रिदूर्वा वायव्यार्ण= दुर्गाय, विश्व = नमः के योग से मन्त्रस्पष्ट होता है - ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यह दुर्गा की मूल विद्या है। इस अष्टाक्षर मन्त्र का उद्धार गोपित है। इस मन्त्र की साधना में अन्तराय की बहुलता नहीं होनी चाहिये। इसमें अरिदोष विचारणीय नहीं है। न प्रयास का संयोग है, न आचार युग- विप्लव है। दुर्गा का यह मन्त्र साक्षात् सिद्धिदायक है और कलि का विनाशक है। इसके आठ अक्षर अष्ट सिद्धियों के स्वामी हैं और दिगम्बरों से गोपनीय हैं।। १०-१३।।

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गामन्त्रपुरश्चर्याविधिः

महाचीनक्रमस्थानां साधकानां जयावहः ।

मन्त्रराजो महादेवि सद्यो भोगापवर्गदः ॥ १४ ॥

वर्णलक्षं पुरश्चर्या तदर्थं वा महेश्वरि ।

एकलक्षावधिं कुर्यान्नातो न्यूनं कदाचन ।। १५ ।।

मूलोत्कीलनसिद्धं तु सञ्जीवनसुसंस्कृतम् ।

पुरश्चर्यां चरेत् पश्चात् संपुटाढ्यं चरेन्मनुम् ॥ १६ ॥

ततो मन्त्रं जपेन्नित्यं दुर्गायास्त्वष्टसिद्धिदम् ।

यं जप्त्वा साधको भूमौ विचरेद्वैरवो यथा ॥ १७ ॥

पुरश्चरण विधि- महाचीन क्रमाचारी साधकों के लिये यह जयप्रद है। हे महा- देवि! यह मन्त्रराज तत्काल भोग- अपवर्गप्रदायक है। वर्ण लक्ष के अनुसार पुरश्चरण के लिये इसका जप आठ लाख या उसका आधा चार लाख या एक लाख करना चाहिये। इससे कम कदापि नहीं करना चाहिये। मूल मन्त्र को उत्कीलन और सञ्जीवन से सुसंस्कृत करके पुरश्चरण करना चाहिये। इसके बाद इसे सम्पुट से सुशोभित करना चाहिये। इसके बाद दुर्गा के अष्ट सिद्धिदायक मन्त्र का जप नित्य करना चाहिये। इसके जप से साधक पृथ्वी पर भैरव के समान विचरण करता है। । १४-१७।।

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गामन्त्रर्ष्यादयः

ऋषिरस्य स्मृतो देवि मन्त्रस्याद्यो महेश्वरः ।

छन्दोऽनुष्टुब् देवता च श्रीदुर्गाष्टाक्षरा स्मृता ॥ १८ ॥

चाक्रिकं वीजमीशानि माया शक्तिरिति स्मृता ।

तारं कीलकमाशानां विश्वं बन्धनमीश्वरि ।। १९ ।।

धर्मार्थकाममोक्षार्थे विनियोगः प्रकीर्तितः ।

विनियोग हे देवि ! इस मन्त्र के ऋषि आद्य महेश्वर, छन्द अनुष्टुप् देवता श्रीदुर्गा, बीज दुं, शक्ति ह्रीं एवं कीलक ॐ है। नमः से इसका बन्धन किया जाता है। एवं धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप पुरुषार्थचतुष्टय की प्राप्ति हेतु इसका विनियोग किया जाता है।। १८-१९।।

तारमायाक्षरैर्देवि न्यासं षड्दीर्घभागिभिः ॥ २० ॥

निहत्य षड्रिपून् देवि ध्यायेद् दुर्गां कुलेश्वरीम् ।

ॐ ह्रीं के षडदीर्घ से इसका न्यास करे; जैसे-

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ हैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां नमः । ॐ हः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

तत्पश्चात् षडङ्गन्यास कर; जैसे-

ॐ ह्रां हृदयाय नमः। ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। ॐ हूं शिखायै वषट् । ॐ हैं कवचाय हुँ। ॐ हौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ह्रः अस्त्राय फट्। काम-क्रोधादि षड्रिपुओं का विनाश करके दुर्गा देवी का ध्यान करे ।। २० ।।

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गां ध्यानम्

दूर्वानिभां त्रिनयनां विलसत्किरीटां

शङ्खाब्जखड्गशरखेटकशूलचापान् ।

संतर्जनीं च दधतीं महिषासनस्थां

दुर्गा नवार कुलपीठगतां भजेऽहम् ॥ २१ ॥

ध्यान - कुलेश्वरी दुर्गा का वर्ण दूर्वा के समान है। उनके तीन नेत्र हैं एवं माथे पर किरीट शोभित है। आठ हाथ हैं। उनमें शङ्ख, कमल, खड्ग, वाण, खेट, शूल, धनुष और सन्तर्जनी है। महिषासन पर शोभित हैं। दुर्गा नवयोन्यात्मक पीठ पर स्थित हैं। उनके इस रूप का ध्यान में करता हूँ।। २१ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गा यन्त्रोद्धारं

यन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि दुर्गायाः कुलमन्दिरम् ।

सर्वसिद्धिप्रदं चक्रं सर्वाशापरिपूरकम् ॥ २२ ॥

बिन्दुत्रिकोण रसकोणबिम्बं वृत्ताष्टपत्राञ्चितवह्निवृत्तम् ।

धरागृहोद्भासितामिन्दुचूडे दुर्गाश्रयं यन्त्रमिदं प्रदिष्टम् ॥ २३ ॥

यन्त्रोद्धार अब मैं कुलमन्दिर दुर्गायन्त्र के उद्धार का वर्णन करता हूँ। यह चक्र सभी सिद्धियों का दाता और सभी आशाओं को पूरा करने वाला है। इस यन्त्र में बिन्दु, त्रिकोण, षट्कोण, अष्टदल, वृत्तत्रय और भूपुर का अङ्कन होता है। यह यन्त्र चन्द्रचूड़ दुर्गा का आश्रय कहा गया है ।। २२-२३ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गायन्त्रम्

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गालयाङ्गम्

लयाङ्गमस्य यन्त्रस्य सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।

येनोच्चारणमात्रेण कोटियज्ञफलं लभेत् ॥ २४ ॥

गणेशं च कुमारं च पुष्पदन्तं विकर्त्तनम् ।

चतुद्वरिषु देवेशि पूजयेत् साधकेश्वरः ॥ २५ ॥

ब्राह्मी नारायणी देवि चामुण्डाप्यपराजिता ।

माहेश्वरी च कौमारी वाराही नारसिंहिका ॥ २६ ॥

लयाङ्गपूजन- इस यन्त्र का लयाङ्ग सभी तन्त्रों में गोपित है। इसके उच्चारणमात्र से करोड़ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। हे देवेशि ! भूपुर के चारो द्वारों पर गणेश, कुमार, पुष्पदन्त एवं विकर्तन की पूजा करे। अष्टदल में ब्राह्मी, नारायणी, चामुण्ड, अपराजिता, माहेश्वरी, कौमारी, वाराही एवं नारसिंही का पूजन करे ।। २४-२६ ।।

पूज्या वसुदले देवि भैरवांश्चाष्ट पार्वति ।

असिताङ्गो रुरुश्चण्डः क्रोधोन्मत्तकपालिकाः ॥ २७ ॥

भीषणश्चैव संहारो वामावर्तेन साधकैः ।

पूज्याः पृथक् पृथग् देवि गन्धपुष्पाक्षतैः शिवे ॥ २८ ॥

दत्त्वा पुष्पाञ्जलिं चक्रे मूलमुच्चार्य साधकः ।

पूजयेत् पद्मकिञ्जल्कैः षडश्रे षट् कुलाम्बिकाः ॥२९॥

शैलपुत्री स्ववामाग्रात् पूजयेद् ब्रह्मचारिणीम् ।

चण्डघण्टां च कूष्माण्डां स्कन्दमातरमीश्वरि ॥ ३० ॥

कात्यायनीं च संपूज्य दूर्वागन्धाक्षतैः परम् ।

पुनः पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा श्रीचक्रे परमार्थदे ॥ ३१ ॥

पूजयेद् देवतास्तिस्रः कुलस्थास्त्रिपुराम्बिकाः ।

कालरात्री महागौरी देवदूतीति पार्वति ॥ ३२ ॥

अष्टदल के अग्रभाग में भैरवाष्टक की पूजा करे। ये हैं- असिताङ्ग, रुरु, चण्ड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहारभैरव। इनका पूजन वामावर्त से करे। इनका पूजन पृथक्-पृथक् गन्धाक्षतपुष्पों से करे चक्र में पुष्पाञ्जलि देकर मूलमन्त्र का उच्चारण करे। षट्कोण में छः कुलदेवियों का पूजन करे। ये छः देवियाँ हैंशैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्माण्डा, स्कन्दमाता और कात्यायनी इनका पूजन अपने वामाग्र से प्रारम्भ करके इन्हें दूर्वा गन्ध-अक्षत अर्पण करे। फिर यन्त्र पर पुष्पाञ्जलि देकर त्रिपुराम्बिका कुलस्थ परमार्थप्रद तीन देवताओं का पूजन त्रिकोण के कोनों में करे। ये हैं- कालरात्रि, महागौरी और देवदूती ।। २७-३२ ।।

त्रिकोणाग्राच्छिवे पूज्याः सिन्दूराक्षतपुष्पकैः ।

दूर्वादलाञ्जलिं दत्त्वा यन्त्रराजेऽष्टसिद्धिदे ॥ ३३ ॥

पूजयेदम्बिकां दुर्गामष्टाक्षरविभूषणाम् ।

बिन्दौ देवीमष्टभुजां विद्यामष्टाक्षरी शिवे ॥ ३४ ॥

नीलकण्ठं शिवं बिन्दौ पूजयेज्जगदम्बिकाम् ।

तत्रायुधानि देवेशि पूजयेदष्ट साधकः ॥ ३५ ॥

शङ्खं पद्ममसिं बाणान् धनुः खेटकमीश्वरि ।

शूलं संतर्जनीं दिव्यां नानापुष्पैः समर्चयेत् ॥ ३६ ॥

देवदेव्यौ बिन्दुपीठे पूजयेत् सर्वसिद्धये ।

इनका पूजन सिन्दूर, अक्षत, पुष्प से करे। इष्ट-सिद्धि के लिये दूर्वादल की अञ्जलि यन्त्र पर देवे। तब बिन्दु में आठ भुजी आठ मन्त्राक्षरों से विभूषित जगदम्बिका दुर्गा का पूजन करे। बिन्दु में ही नीलकण्ठ शिव का पूजन करे तब साधक देवी के आठ आयुधों का पूजन करे। आठ आयुध हैशङ्ख, पद्म, तलवार, वाण, धनुष, मूशल, त्रिशूल एवं सन्तर्जनी। इनका अर्चन विविध सुन्दर फूलों से करे। बिन्दुपीठ में देव और देवी का पूजन करे। इससे सभी प्रकार की सिद्धियाँ मिलती हैं।। २७-३६ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- दुर्गामन्त्रस्याष्टौ प्रयोगाः

अथ वक्ष्ये महादेवि प्रयोगानष्ट सिद्धये ॥ ३७ ॥

यान् विधाय कलौ मन्त्री भवेत् कल्पद्रुमोपमः ।

स्तम्भनं मोहनं चैव मारणाकर्षणे ततः ॥ ३८ ॥

वशीकारं तथोच्चाटं शान्तिकं पौष्टिकं तथा ।

एषां साधनमाचक्षे प्रयोगाणां महेश्वरि ॥ ३९ ॥

महाचीनक्रमस्थानां साधकानां हिताय च ।

आठ प्रयोगहे महादेवि! सिद्धि के लिये अब दुर्गामन्त्र के आठ प्रयोगों का वर्णन करता हूँ, जिसकी साधना करके साधक कलियुग में कल्पवृक्ष के समान हो जाता है। वे आठ प्रयोग हैंस्तम्भन, मोहन, मारण, आकर्षण, वशीकरण, उच्चाटन, शान्ति और पुष्टि ।  हे महेश्वरि ! इनके साधन और प्रयोग का वर्णन करता हूँ। इससे महाचीनाचारी साधकों का हितसाधन होता है।। ३७-३१।।

देवीरहस्य पटल ४६- स्तम्भनम्

अयुतं प्रजपेन्मूलं श्मशाने निशि साधकः ॥ ४० ॥

हुनेद् दशांशतः सर्पिर्यवान्मांसासृगच्युतान् ।

स्तम्भनं जायते क्षिप्रं वादिकामिजनाम्भसाम् ॥४१॥

स्तम्भन- रात में श्मशान में साधक दश हजार मन्त्र का जप करे। जप का दशांश एक हजार हवन गोघृत, यव, रुधिर एवं चूते हुए मांस से करे। इससे वैरी, कामीजन और बादलों का शीघ्र स्तम्भन होता है।।४०-४१।।

देवीरहस्य पटल ४६- मोहनम्

अयुतं प्रजपेद् देवि वटे रुद्राक्षमालया ।

होमो दशांशतः कार्यो घृतपद्माक्षपङ्कजैः ॥४२॥

आरग्वधैः सुधामूलैर्मोहनं जायते क्षणात् ।

देवानां दानवानां च का कथाल्पधियां नृणाम् ॥४३॥

मोहन- वटवृक्ष के नीचे रुद्राक्ष की माला से दश हजार जप करे। तदनन्तर घी, पद्माक्ष, कमल, आरग्वध (सेमल) और गिलोय की जड़ से एक हजार हवन करने से क्षण भर में ही देव और दैत्यों का भी जब मोहन हो जाता है तो अल्प बुद्धि वाले मनुष्यों के बारे में तो कहना ही क्या है ।। ४२-४३ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- मारणम्

अयुतं प्रजपेन्मूलं वने साधकसत्तमः ।

वेतसीमूलगो वापि हुनेत् तत्र दशांशतः ॥ ४४ ॥

घृतपायसशम्बूकान् रिपुर्मृत्युमुखं व्रजेत् ।

मारण- श्रेष्ठ साधक जङ्गल में मूल मन्त्र का जप दश हजार करे या यह जप वेत के मूल में करे। पुनः एक हजार हवन घी, पायस और घोघा से करे। इससे शत्रु मृत्यु के मुख में चला जाता है ।। ४४ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- आकर्षणम्

अयुतं प्रजपेद्रात्रौ शून्यागारे कुलेश्वरि ॥ ४५ ॥

होमो दशांशतः कार्यों घृतव्योषशटीशरैः ।

कपिबीजैरपि प्रातर्भवेदाकर्षणं स्त्रियाम् ॥ ४६ ॥

आकर्षण - सूने घर में रात में दश हजार जप करे। एक हजार हवन घी, काली मिर्च, पीपल, सोंठ, कचूर, खश और करञ्जबीज से करे। ऐसा करने से प्रातः स्त्रियों का आकर्षण होता है।।४५-४६ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- वशीकरणम्

अयुतं प्रजपेन्मूलं चत्वरे त्वरितं हुनेत् ।

आज्याब्जक्षुरपाषाण्डरक्तपुष्पाणि पार्वति ॥४७॥

शक्रोऽपि वशतामेति किं पुनः क्षुद्रभूमिपः ।

वशीकरण- चतुर्मास में दश हजार जप करे एक हजार हवन गोघृत, कमल, पशु-खुर के टुकड़ों एवं लाल फूलों से करें। इससे इन्द्र भी वश में हो जाता है तब क्षुद्र भूपालों के बारे में तो कहना ही क्या है।। ४७ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- उच्चाटनम्

अयुतं प्रजपेन्मूलं साधकोऽश्वत्थमूलगः ॥ ४८ ॥

हुनेदाज्यं दशांशेन केशं स्त्रीणां त्वचं कणाः ।

रिपुमुच्चाटयेत् शीघ्रं यदि शक्रसमो भवेत् ॥ ४९ ॥

उच्चाटन- पीपल की जड़ के निकट बैठकर दश हजार मन्त्र का जप करे। एक हजार हवन गोघृत, स्त्रियों के केश एवं त्वक् चूर्ण से करे। इससे इन्द्र के समान बलवान शत्रु का भी उच्चाटन हो जाता है।। ४८-४९ ।।

देवीरहस्य पटल ४६- शान्तिः

अयुतं प्रजपेन्मूलं सुरद्रुमतले हुनेत् ।

घृताक्तकुक्कुटाङ्गानि नानापुष्पाणि साधकः ॥ ५० ॥

रोगोपद्रवकालस्य सद्यः शान्तिर्भविष्यति ।

शान्ति - देववृक्ष के नीचे बैठकर दश हजार मन्त्र जप करे। तत्पश्चात् साधक घृत में भीगे कुक्कुट के अङ्गों और विविध फूलों से दशांश हवन करे। इससे तुरन्त रोगोपद्रव काल की शान्ति होती है ।। ५० ।।

देवीरहस्य पटल ४६- पुष्टि:

अयुतं प्रजपेन्मूलं लीलोपवनमण्डले ॥ ५१ ॥

होमो दशांशतः कार्यो घृतमीनाजमस्तकैः ।

पादैरष्टभिरीशानि सद्यः पुष्टिः प्रजायते ॥ ५२ ॥

पुष्टि-लीला उपवनमण्डल में मूल मन्त्र का जप दश हजार करे। एक हजार हवन घी एवं मत्स्यमुण्ड से मन्त्र के आठों पदों से अलग-अलग करे। हे ईशानि! इससे शीघ्र ही पुष्टि प्राप्त होती हैं ।। ५१-६२।।

देवीरहस्य पटल ४६- पटलोपसंहारः

इत्येष पटलो दिव्यो मन्त्रसर्वस्वरूपवान् ।

दुर्गारहस्यभूतोऽपि गोपनीयो मुमुक्षुभिः ॥५३॥

यह पटल दिव्य मन्त्रसर्वस्व का स्वरूप है एवं दुर्गा का रहस्यस्वरूप है। यह सर्वथा गोपनीय है और मुमुक्षुओं को भी देय नहीं है ।। ५३ ।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये दुर्गापटलनिरूपणं नाम षट्चत्वारिंशः पटलः ॥ ४६ ॥

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में दुर्गापटल निरूपण नामक षट्चत्वारिंश पटल पूर्ण हुआ।

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 47

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