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- अग्निपुराण अध्याय १५१
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
देवीरहस्य पटल ४१
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ४१ में मृत्युञ्जयपञ्चाङ्ग निरूपण में मृत्युञ्जय पटल जिसे दीक्षानायकवल्लभ
पटल भी कहा जाता है,के विषय में बतलाया
गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् एकोचत्वारिंशः मृत्युञ्जयपटलम्
Shri Devi Rahasya Patal 41
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य इकचालीसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् एकोचत्वारिंश
पटल
देवीरहस्य पटल ४१ मृत्युञ्जयपञ्चाङ्ग निरूपण
अथ मृत्युञ्जयपञ्चाङ्गम्
अथैकचत्वारिंशः पटलः
मृत्युञ्जयपञ्चाङ्गावतारः
श्रीभैरव उवाच
कैलासशिखरे रम्ये मणिमालातिभास्वरे
।
नानाद्रुमलताकीर्णे नानापुष्पोपशोभिते
॥ १ ॥
विचित्ररत्नखचित शिलामण्डपमण्डिते ।
किन्नरीमधुरालाप-मुखरीकृतदिङ्मुखे ॥२॥
भगवन्तमुमानाथमुपविष्टमुमाश्रितम् ।
ब्रह्मोपेन्द्रेन्द्रचन्द्रार्क-गुरुशुक्रसमन्वितम्
॥३॥
ब्रह्मर्षिवसुसिद्धौघ-
गणगन्धर्वसेवितम् ।
मृत्यञ्जय पञ्चाङ्ग अवतरण- कैलाश के
रम्य शिखर पर भगवान् उमानाथ उमासहित बैठे हैं। कैलाशशिखर मणिमाला से प्रकाशमान है।
विविध प्रकार के वृक्ष और लताओं से परिपूर्ण है। भाँति-भाँति के फूलों से शोभित
है। विचित्र रत्नों से खचित सुन्दर शिलामण्डप है। किन्नरियाँ मधुर आलाप कर रही
हैं। उनके आलाप से दिशायें गुञ्जित हैं। भगवान् उमानाथ ब्रह्मा,
विष्णु, चन्द्र, सूर्य,
गुरु, शुक्र से समन्वित हैं। ब्रह्मर्षि,
वसु, सिद्धौघगण, गन्धर्व
उनकी सेवा में लगे हुए हैं।। १-३।।
चन्द्रार्धमुकुटोपेतं
शूलखट्वाङ्गधारिणम् ॥४॥
वराभयकरं शान्तं कुन्तबाणासिसंयुतम्
।
खड्गखेटकहस्तं च पाशतोमरकायुधम् ॥५॥
भिण्डिपालकरं प्रासपरिघायुधधारणम् ।
गदाडमरुहस्तं च शतघ्नीचक्रसंयुतम्
।। ६ ।।
अष्टादशभुजं देवं भूतिभूषितविग्रहम्
।
भगवान् शिव के जटामुकुट में
द्वितीया का चाँद है। हाथों में त्रिशूल और खाटी का पावा है। वरमुद्रा और
अभयमुद्रा है। वे शान्त हैं। कुन्त, वाण
और तलवार से युक्त हैं। खड्ग, खेटक, पाश
तोमर, आयुध से युक्त हैं। भिन्दिपाल, प्रास,
परिघ, आयुध धारण किये हुये हैं। गदा,डमरू,शतघ्नी और चक्र भी है।ये सभी अस्त्र उनकी
अट्ठारह भुजाओं में शोभित हैं।।४-६।।
दिगम्बरं विशालाक्षं त्रिनेत्रं
पञ्चवक्त्रकम् ॥७॥
आनन्दमुदितं विश्वं
विश्वनायकमीश्वरम् ।
जपन्तं प्रहसन्तं च गौर्यालिङ्गितविग्रहम्
॥८ ॥
पन्नगाभरणोपेतं महादेवं महेश्वरम् ।
बद्धपद्मासनं शंभुं शरणागतवत्सलम् ॥
९ ॥
प्रसन्नवदनं दृष्ट्वा प्रणम्योत्थाय
पार्वती ।
गिरा मधुरया देवं प्रोवाच
परमेश्वरम् ॥१० ॥
शरीर में भस्म रमाये हैं। दिगम्बर
हैं। उनकी आँखें विशाल हैं। तीन-तीन नेत्रों से युक्त पाँच मुख हैं। ये आनन्दित
हैं। यही विश्व और विश्वनायक ईश्वर हैं। जप करते हैं,
हँसते हैं, श्रीविग्रह गौरी से आलिङ्गित हैं।
साँपों के आभूषण हैं। ये महादेव महेश्वर हैं। शम्भु पद्मासन में अवस्थित हैं। ये
शरणागतवत्सल हैं। भगवान् शिव को प्रसन्न देखकर पार्वती ने उठकर प्रणाम किया और
परमेश्वर से मधुर वाणी में कहा ।। ७-१० ।।
श्रीदेव्युवाच
भगवन् यः शिवो देवो महामृत्युञ्जयः
परः ।
आदिनाथो जगत्त्राता दीक्षानायक
ईश्वरः ॥ ११ ॥
वर्णितः प्राङ् महादेवो
गुणातीतश्चिदीश्वरः।
भवता तस्य देवस्य परब्रह्मस्वरूपिणः
॥ १२ ॥
पञ्चाङ्गं श्रोतुमिच्छामि
वक्तुमर्हसि मे प्रभो ।
देवी बोलीं- हे भगवन्! जिन परदेव
महामृत्युञ्जय आदिनाथ, जगत् के त्राता, दीक्षानायक ईश्वर के बारे में आपने पहले कहा है, उन
महादेव गुणातीत चित्त के ईश्वर परब्रह्मस्वरूप देव के पञ्चाङ्ग को सुनने की मेरी
इच्छा है। आपमें कहने की शक्ति-सामर्थ्य है; अतः आप बताइये ।
। ११-१२ ।।
श्रीभैरव उवाच
परमेश्वरदेवस्य महामृत्युञ्जयस्य ते
।
भक्त्या वक्ष्यामि पञ्चाङ्गं
नाख्येयं यस्य कस्यचित् ॥ १३ ॥
पटलं पद्धतिं वर्म
मन्त्रनामसहस्रकम् ।
स्तोत्रं पञ्चाङ्गभूतं च गोपयेद्यः
स साधकः ॥ १४ ॥
श्रीभैरव ने कहा—
परमेश्वर महामृत्युञ्जय देव के पञ्चाङ्ग को बतलाता हूँ। इसे जिस किसी
से नहीं कहना चाहिये। पटल, पद्धति, कवच,
मन्त्रनामसहस्र और स्तोत्र- ये इस पञ्चाङ्ग के पाँच अङ्ग हैं। साधक
इसे गुप्त रखे ।। १३-१४।।
तत्रादौ पटलं वक्ष्ये
दीक्षानायकवल्लभम् ।
गुह्यं परमगुह्यं च गोप्तव्यं तु
मुमुक्षुभिः ॥ १५ ॥
सर्वप्रथम पहले दीक्षानायकवल्लभ
पटल का वर्णन करता हूँ। यह गुह्य, परम
गुह्य और गोप्तव्य है। मुमुक्षुओं को भी इसे नहीं बतलाना चाहिये ।। १५ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- मृत्युञ्जयमन्त्रोद्धारः
मन्त्रोद्धारं महादेवी दीक्षाफलविवृद्धये
।
दिव्यं सुखकरं साध्यं सिद्धं
वक्ष्यामि सिद्धये ॥ १६ ॥
तारं हृद्भातार्तिकं
शिवशरन्मण्डूकबीजं ततो
वाच्यं पालय पालयेति च पुनः शक्तिः
शिवः शाक्तिकम् ।
हृज्जं तारकभूषणं
निगदितस्त्वद्भक्तिहेतोर्मया
दीक्षानायकवल्लभो मनुरयं
त्रैलोक्यचिन्तामणिः ॥१७॥
हे महादेवि! दीक्षाफल में वृद्धि के
लिये मन्त्रोद्धार बतलाता हूँ, जो दिव्य,
सुखकर एवं साध्य, सिद्ध और सिद्धि का साधन है।
श्लोक १७ का उद्धार करने पर मन्त्र बनता है — ॐ हौं जूं सः
पालय पालय सः जूं हौं ॐ।
इस मन्त्र का वर्णन हे देवि!
तुम्हारी भक्ति के कारण किया। यह दीक्षानायक का प्रिय है। यह मन्त्र त्रैलोक्य में
चिन्तामणि के समान है ।।१६-१७ ।।
नास्यान्तरायबाहुल्यं
सिद्धसाध्यारिदूषणम् ।
न कायक्लेशदौर्बल्यं नाचारनियमभ्रमः
॥ १८ ॥
न पञ्चदोषशङ्कापि नोत्तमर्णाधमर्णकौ
।
केवलं परमानन्दवर्धनो रिपुमर्दनः ॥
१९ ॥
मन्त्रोऽयं मन्त्रराजेन्द्रो दीक्षाफलसुरद्रुमः
।
इसकी साधना में अन्तराय की अधिकता
नहीं है। सिद्ध, साध्य, अरि,
दोष का विचार आवश्यक नहीं है। इसकी साधना में शरीर को क्लेश नहीं
होता। दुर्बलता नहीं होती। इसमें आचार-नियम का भ्रम नहीं है। इसमें पञ्च दोष की
शङ्का नहीं है । उत्तमर्ण और अधमर्ण का विचार भी नहीं है। यह केवल परमानन्दवर्धक
है, शत्रुविनाशक हैं। यह मन्त्र मन्त्रों का राजा इन्द्र है।
इसका दीक्षाफल कल्पवृक्ष के समान है।। १८-१९।।
विना पुरस्क्रियामेष मन्त्रराजो न
सिध्यति ॥ २० ॥
तस्मात् पुरस्क्रियाहेतोर्गुरुं
संप्रार्थयेच्छिवे ।
गुरुहस्तेन यः
कुर्यान्मन्त्रस्यास्य पुरस्क्रियाम् ॥ २१ ॥
तस्यायं मन्त्रराजेन्द्रो भवेत्
कल्पद्रुमोपमः ।
वर्णलक्षं पुरश्चर्यं तदर्थं वा
महेश्वरि ॥ २२ ॥
एकलक्षावधिं कुर्यान्नातो न्यूनं
कदाचन ।
जपाद् दशांशतो होमस्तद्दशांशेन
तर्पणम् ॥ २३ ॥
मार्जनं तद्दशांशेन तद्दशांशेन
भोजनम् ।
एवं विधाय मन्त्रस्य पुरश्चर्यां च
साधकः ॥ २४ ॥
बिना पुरश्चरण क्रिया के यह
मन्त्रराज सिद्ध नहीं होता। इसलिये पुरश्चरण के लिये गुरु से साधक प्रार्थना करे। गुरु
के द्वारा इसका यदि पुरश्चरण किया जाता है तो उस साधक के लिये यह मन्त्रराज
कल्पवृक्ष के समान होता है। हे महेश्वरि वर्णलक्ष या उसका आधा जप करने से इसका
पुरश्चरण सम्पन्न होता है। किसी भी स्थिति में एक लाख से कम जप नहीं करना चाहिये।
जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण,
तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मणभोजन कराना
चाहिये। इस प्रकार समस्त कृत्यों को सम्पन्न करने से पुरश्चरण सम्पन्न होता है
।।२०-२४।।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा
यथाविभवमीश्वरि ।
ततो जपो भवेद् देवि
सर्वसिद्धिप्रदायकः ॥ २५ ॥
अन्यथा न भवेत् सिद्धिर्दीक्षायाः
सुमनोरपि ।
हे ईश्वर! यथाशक्ति गुरुदक्षिणा
देने से मन्त्रजप सर्वसिद्धिप्रदायक होता है। अन्यथा मन्त्र सिद्धिदायक नहीं
होता।। २५ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- मृत्युञ्जययन्त्रोद्धारः
यन्त्रोद्धारविधिं वक्ष्ये
देवदेवस्य पार्वति ॥ २६ ॥
सर्वसंमोहनं दिव्यं
सर्वाशापरिपूरकम् ।
बिन्दुत्रिकोणषट्कोण-वृत्ताष्टदलमण्डितम्
॥२७॥
वृत्तत्रयं धरासद्म श्रीचक्रं
शैवमीरितम् ।
मृत्युञ्जय यन्त्रोद्धार - हे
पार्वति ! अब देवदेव मृत्युञ्जय के यन्त्रोद्धार को बतलाता हूँ। देवदेव का यह
यन्त्र सर्वसम्मोहन है। सभी मनोरथों को पूरा करने वाला है। बिन्दु,
त्रिकोण, षट्कोण, अष्टदल,
वृत्तत्रय और भूपुर से यह यन्त्र बनता है।। २६-२७।।
देवीरहस्य पटल ४१- मृत्युञ्जयलयाङ्गम्
लयाङ्गमस्य वक्ष्यामि यन्त्रराजस्य
पार्वति ॥ २८ ॥
यस्य श्रवणमात्रेण दीक्षाफलमवाप्नुयात्
।
इन्द्राद्या दश दिक्पालाः सायुधा भूगृहे
शिवे ॥ २९ ॥
दिव्यसिद्धौघमर्त्यौघा
गुरवोऽप्यारणत्रये ।
असिताङ्गो रुरुश्चण्डक्रोधेशोन्मत्त
भैरवाः ॥ ३० ॥
कपालीशो भीषणाख्यः संहारेशोऽष्टमः
शिवे ।
पूजनीया वसुदले साधकैस्तु
मुमुक्षुभिः ॥ ३१ ॥
हे पार्वति! अब इस यन्त्रराज के
लयाङ्ग का वर्णन करता हूँ। इसके सुनने से ही दीक्षा का फल प्राप्त होता है। भूपुर
में अस्त्रों सहित इन्द्रादि दिक्पालों का पूजन होता है। वृत्तत्रय के अन्तरालों
में गुरु,
मानवौघ, दिव्यौघ और सिद्धौधों का पूजन होता
है। अष्टदल में असिताङ्ग, रुद्र, चण्ड,
क्रोधेश, उन्मत्त, कपालीश,
भीषण, संहार - इन आठ भैरवों का पूजन होता है
।। २८-३१।।
कालाग्निरुद्रं नेत्रेशं विश्वनाथं
महेश्वरम् ।
सद्योजातं वामदेवं पूजयेत्
कामयोनिषु ॥ ३२ ॥
कामेश्वरं महाकालं देवं स्वच्छन्द
भैरवम् ।
त्रिकोणे पूजयेद् देवि
स्वाग्रेशानाग्निभागतः ॥ ३३ ॥
बिन्दौ मृत्युञ्जयं देवं स्वशक्त्या
सहितं शिवे ।
अमृतेश्वरमीशानमीश्वरं भुवनेश्वरम्
।।३४।।
षट्कोण में कालाग्निरुद्र,
नेत्रेश, विश्वनाथ, महेश्वर,
सद्योजात वामदेव - इन छः की पूजा होती है। त्रिकोण में अपने सामने
के कोण में कामेश्वर का, ईशान में महाकाल का और अग्निकोण में
स्वच्छन्द भैरव का पूजन होता है। बिन्दुमण्डल में शक्तिसहित मृत्युञ्जय देव
का पूजन करना चाहिये। साथ ही अमृतेश्वर, ईशान, ईश्वर और भुवनेश्वर का पूजन भी होता है।। ३२-३४।।
त्रिखण्डां पाशमीशानि
सुधाकलशमुत्तमम् ।
मुक्ताक्षसूत्रं देवाङ्गे पूजयेत्
साधकोत्तमः ॥ ३५॥
संपूज्य विधिवद् देवि
गन्धाक्षतप्रसूनकैः ।
धूपदीपादिनैवेद्यस्ताम्बूलैश्छत्रचामरैः
॥ ३६॥
लयाङ्गमिदमाख्यातं सर्वतन्त्रेषु
गोपितम् ।
सर्वसिद्धिप्रदं देवि गोपनीयं
विशेषतः ॥३७॥
देवता के अङ्ग में त्रिखण्डा,
पाश, ईशानि, सुधाकलश,
मुक्ता, अक्षसूत्र का भी पूजन होता है। यह
पूजन गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल,
छत्र, चामर से विधिवत् करना चाहिये। इस पूजा
का नाम लयाङ्ग है। यह सभी तन्त्रों में गोपित है। यह सर्वसिद्धिप्रद लयाङ्ग विशेष
रूप से गोपनीय है।। ३५-३७।।
देवीरहस्य पटल ४१- मृत्युञ्जयमन्त्रर्ष्यादि
मन्त्रस्यास्य महादेवि महाचमपदादिकः
।
सकहोल ऋषिश्छन्दो गायत्री देवता तथा
॥ ३८ ॥
महामृत्युञ्जयो रुद्रो
महादेवोऽधिदेवता ।
बीजं च प्रणवो देवि शक्तिर्हृज्जाख्यबीजकम्
।। ३९ ।।
कीलकं शरदीशानि
दिग्बन्धोऽस्त्यस्त्रमीश्वरि ।
चतुर्वर्गेषु विद्याया विनियोगः प्रकीर्तितः
॥ ४० ॥
विनियोग - हे महादेवि ! इस
मृत्युञ्जय मन्त्र के ऋषि कहोल कहे गये हैं। छन्द गायत्री,
देवता महामृत्युञ्जय रुद्र, अधिदेवता महादेव,
बीज ॐ, शक्ति ह्रौं, कीलक
स: एवं फट् से दिग्बन्ध कहा गया है। हे ईशानि चतुर्वर्ग की सिद्धि के लिये इस
विद्या का विनियोग कहा गया है।। ३८-४० ।।
तारहृज्जशरद्वीजै: षड्दीर्घै: प्राण
(न्यास) माचरेत् ।
करयोर्हृदयादीनामङ्गानां साधकोत्तमः
॥४१॥
मूलादिबीजमात्रेण प्राणायामत्रयं
चरेत् ।
तत्त्वत्रयेणाचमनमात्मविद्याशिवादिना
॥४२॥
न्यास - ॐ जूं सः के षड्दीर्घ रूप
से करन्यास और हृदयादि षडङ्ग न्यास करे। मूल मन्त्र के आदि बीज 'ॐ ह्रौं जूं सः' से तीन प्राणायाम करे। आत्म विद्या,
शिव- तत्त्वत्रय से आचमन करे ।।४१-४२ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- मृत्युञ्जयध्यानम्
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि
देवदेवेश्वरस्य हि ।
येनैव ध्यानमात्रेण मन्त्री शैवं
पदं व्रजेत् ॥ ४३ ॥
चन्द्रार्काग्निविलोचनं स्मितमुखं
पद्मद्वयान्तः स्थितं
मुद्रापाशसुधाक्षसूत्रविलसत्पाणिं
हिमांशुप्रभम् ।
कोटीरेन्दुगलत्सुधाप्लुततनुं हारादिभूषोज्ज्वलं
कान्त्या विश्वविमोहनं पशुपतिं
मृत्युञ्जयं भावयेत् ॥४४॥
ध्यान - अब मैं देवदेव के ध्यान का
वर्णन करता हूँ, जिस ध्यान के करने से ही साधक
शैव पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है। चन्द्र-सूर्य-अग्नि- ये तीन इनके नेत्र हैं,
मुस्कानयुक्त मुख हैं। दो हाथों में कमल और अन्यों में पाश, मुद्रा, सुधा, अक्षसूत्र हैं।
चन्द्रमा के समान प्रकाशमान हैं। कोटि चन्द्र से झरते अमृत से शरीर भीगा हुआ है।
हार आदि भूषण उज्ज्वल हैं, विश्व को मोहित करने वाली कान्ति
है। ऐसे पशुपति मृत्युञ्जय का ध्यान करना चाहिये ।।४३-४४ ।।
चन्द्रमण्डलमध्यस्थे
रुद्रभालेऽतिविस्तृते ।
तत्रस्थं चिन्तयेत् साध्यं मृत्युं
प्राप्तोऽपि जीवति ॥४५ ॥
इति साध्यं पराबीजमन्त्रावयवभूषितम्
।
रुद्रभालस्थमीशानि गोपनीयं विशेषतः ॥
४६ ।।
मन्त्र का माहात्म्य - रुद्र के अति
विस्तृत ललाट के चन्द्रमण्डल मध्य में साध्य को स्थित रूप में चिन्तन करने से मृत
व्यक्ति भी जीवित हो जाता है। ऐसा ध्यान करते हुए साध्य के अवयवों को परा बीज ह्रीं
से विभूषित होने का चिन्तन करे। यह साधन विशेष गोपनीय है ।। ४५-४६ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- मृत्युञ्जयमन्त्रस्याष्टौ
प्रयोगाः
प्रयोगानष्ट वक्ष्यामि दुर्लभान्
परमार्थदान् ।
यान् विधाय शिवे मन्त्री भवेद्
भैरवसन्निभः ॥ ४७ ॥
स्तम्भनं मोहनं चैव मारणाकर्षणे ततः
।
वशीकारं तथोच्चाटं शान्तिकं
पौष्टिकं तथा ॥ ४८ ॥
एतेषां साधनं वक्ष्ये
सर्वसौख्यैककारणम् ।
येन साधनमात्रेण सर्वसिद्धिर्भवेत्
कलौ ॥४९॥
आठ प्रयोग - अब मैं आठ दुर्लभ
परमार्थप्रद प्रयोगों का वर्णन करता हूँ। इन विधानों के करने से साधक भैरवतुल्य हो
जाता है। ये आठ प्रयोग हैं— स्तम्भन, मोहन, मारण, आकर्षण, वशीकरण, उच्चाटन, शान्ति और
पुष्टि । इनके साधना-विधान का वर्णन करता हूँ। ये सभी प्रकार के सुखों के कारण
हैं। इनके साधनमात्र से कलियुग में सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।। ४७-४९ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- स्तम्भनम्
रवौ स्नानं शिवे कृत्वा नित्यकर्म
समाप्य च ।
संकल्पपूर्वं मन्त्रं च
जपेदयुतसंख्यया ।। ५० ।।
होमो दशांशत: सर्पिर्यवाकनकबीजकैः ।
स्तम्भनं जायते वादिमुखदस्युविवस्वताम्
॥ ५१ ॥
स्तम्भन —
हे शिवे ! रविवार में स्नानादि नित्य कर्म करके सङ्कल्पपूर्वक दश
हजार मन्त्र जप करे। एक हजार हवन गाय के घी, यव और धतूरे के
बीजों से करे। इससे वादी-मुख और दस्युओं का स्तम्भन होता है।।५०-५१।।
देवीरहस्य पटल ४१- मोहनम्
चन्द्रे संपूज्य देवेशं
जपेदयुतसंख्यया ।
होमो घृतयवालाजशाकपत्रेर्दशांशतः ॥
५२ ॥
तद्भस्मतिलकेनैव मोहनं जगतां भवेत्
।
मोहन —
सोमवार में देवेश का पूजन करके दश हजार मन्त्र जप करें। एक हजार हवन
घी, यव, लावा और शाकपत्र के मिश्रण से
करे। हवन-भस्म से तिलक लगाने से सारा संसार मोहित होता है ।। ५२ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- मारणम्
मङ्गले साधकः स्नात्वा गत्वा
श्मशानमण्डलम् ॥५३॥
अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं होमो
घृतविशालया ।
श्रीपर्णीमधुकोन्मिश्रैः श्रीफलैश्चिश्ञ्चिनीफलैः
॥५४॥
मृत्युं याति रिपुर्देवि दशाहावधि
मत्समः ।
मारण- मंगलवार में स्नान करके साधक
श्मशान-मण्डल में जाकर दश हजार मन्त्र जप करे। घी, विशाल मृगमांस, श्रीपर्णी और मधु मिलाकर बेलफल और
इमली के फल से एक हजार हवन करे। इससे मुझ शिव के समान शत्रु की भी मृत्यु दश दिनों
में हो जाती है।।५३-५४।।
देवीरहस्य पटल ४१- आकर्षणम्
बुधे स्नात्वार्चयेद् देवं
श्रीचक्राग्रे जपेन्मनुम् ॥ ५५ ॥
अयुतं तद्दशांशेन हुनेत् सर्पिः
शतावरीम् ।
त्रिकण्टकं बिल्वकं च
स्त्रीणामाकर्षणं भवेत् ॥ ५६ ॥
आकर्षण - बुधवार में स्नान करके देव
का श्रीचक्र के आगे विधिपूर्वक अर्चन करें। चक्र के सामने बैठकर दश हजार मन्त्र जप
करें। एक हजार हवन गाय के घी, शतावरी,
त्रिकंटक एवं बेल को एक में मिलाकर करे। इससे स्त्रियों का आकर्षण
होता है ।। ५५-५६ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- वशीकरणम्
गुरौ स्नात्वा जपेद्विद्यां
परामयुतसंख्यया ।
होमो दशांशतः कार्यों
घृतपद्माक्षचन्दनैः ॥ ५७ ॥
आरग्वधेन कणया वरयामृतया शिवे ।
रिपू राजा धनी वीरो
जिष्णुर्दासत्वमेष्यति ॥ ५८ ॥
वशीकरण - गुरुवार में स्नान के बाद
पराविद्या का जप दश हजार करे। एक हजार हवन घी, कमलगट्टा,
चन्दन, सेमलचूर्ण और गुरुचखण्डों को एक में
मिलाकर करे। इससे राजा, शत्रु वीर और विष्णु भी साधक के दास
हो जाते हैं।।५७-५८ ।
देवीरहस्य पटल ४१- उच्चाटनम्
शुक्रे श्मशाने वीरेशो
जपेदयुतसंख्यया ।
चिताग्ने मूलविद्यां तु तद्दशांशं
हुनेद् घृतम् ॥ ५९ ॥
समण्डूकं शम्भूकं च रिपुमुच्चाटयेद्
ध्रुवम् ।
उच्चाटन - शुक्रवार में वीरेश
श्मशान में जाकर दश हजार मन्त्र जप चिता के सामने करे। एक हजार हवन घी,
मेढ़क और घोंघा से करें। इससे शत्रु का उच्चाटन निश्चित रूप से होता
है ।। ५९ ।।
देवीरहस्य पटल ४१- शान्तिः
शनौ स्नात्वा चरेत् पूजां
जपेद्विद्यां तथायुतम् ॥ ६० ॥
हुनेदाज्यपयोमृत्स्ना
वार्ताकमृदुशाद्वलान् ।
धत्तूर पुष्पसहितान् सर्वशान्तिः
प्रजायते ।। ६९ ।।
शान्ति- शनिवार में स्नान के बाद
पूजा करे। विद्या का जप दश हजार करे। एक हजार हवन गोघृत,
दूध, मिट्टी, बैगन,
घास के मैदान की मिट्टी और धत्तूर- पुष्प के मिश्रण से करे। इससे
सभी प्रकार की शान्ति होती है।। ६०-६१।।
देवीरहस्य पटल ४१- पुष्टि:
सर्वदा सर्ववारेषु जपेदयुतसंख्यया ।
होमो दशांशत: कार्यों
घृतपायसपङ्कजैः ॥६२॥
छागैणकूर्मवाराहपलयुक्तैः सभक्तकैः
।
पितॄणां देवतानां च भूभृतां रोगिणां
तथा ॥ ६३ ॥
दशांशं विधिवद् दत्त्वा महापुष्टिः
प्रजायते ।
पुष्टि-सर्वदा सभी दिनों में दश
हजार मन्त्र जप करे एक हजार हवन घी, पायस, कमल, छाग कछुआ, सूअर मांस और
भात के मिश्रण से पितरों, देवताओं, भूपालों
एवं रोगियों के लिये करे। इससे महापुष्टि होती है।।६२-६३।।
देवीरहस्य पटल ४१- पटलोपसंहारः
इतीदं परमं तत्त्वं मन्त्रस्यास्य
मयेरितम् ।
अदातव्यमभक्तेभ्यो गोपनीयं स्वयोनिवत्
॥ ६४ ॥
इस प्रकार इस मन्त्र के परम तत्त्व
का निरूपण मैंने किया। यह अभक्तों को देय नहीं है। अपनी योनि के समान इसे गुप्त
रखना चाहिये।। ६४ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये मृत्युञ्जयपटलनिरूपणं नामैकचत्वारिंशः पटलः॥४१।।
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में मृत्युञ्जयपटल निरूपण नामक एकचत्वारिंश पटल पूर्ण
हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 42
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