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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
लक्ष्मीनारायण मूलमन्त्र स्तोत्र
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ४० में लक्ष्मीनारायणपञ्चाङ्ग निरूपण अंतर्गत लक्ष्मीनारायण मूलमन्त्रस्तोत्र के विषय में बतलाया गया है।
श्रीलक्ष्मीनारायणमूलमन्त्रस्तोत्रम्
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् चत्वारिंशः
पटल:
Shri Devi Rahasya Patal 40
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य
चालीसवाँ पटल
देवीरहस्य पटल ४० लक्ष्मीनारायण मूलमन्त्र स्तोत्र
अथ चत्वारिंशः पटलः
लक्ष्मीनारायण स्तोत्रम्
स्तोत्रमाहात्म्यम्
श्री भैरव उवाच
अद्याहं तत्त्वसर्वस्वं रहस्यं परमार्थदम्
।
मन्त्रस्तोत्रं प्रवक्ष्यामि
लक्ष्मीनारायणस्य ते ॥ १ ॥
हे देवि! अब मैं तुम्हें
लक्ष्मीनारायण के मन्त्रस्तोत्र को सुनाता हूँ, जो
सभी तत्त्वों का रहस्य एवं परमार्थ प्रदायक है।
पञ्चमाङ्ग महादेवि परमार्थप्रकाशकम्
।
चतुर्वेदागमस्तुत्यं भोगमोक्षैककारणम्
॥ २ ॥
हे महादेवि ! यह पञ्चम अङ्ग परमार्थ
का प्रकाशक, चारो वेद एवं आगमों से स्तुत्य
और भोग मोक्ष का कारण है।
गुह्यं गुप्ततरं तत्त्वं
मन्त्रराजस्य पार्वति ।
कौलिकानां सदा संविदानन्दरसकारणम् ॥
३ ॥
हे पार्वति! मन्त्रराज का यह तत्त्व
गुह्य एवं अत्यन्त गुप्त है तथा कौलिकों के लिये सदा संविदा से प्राप्त आनन्दरस का
हेतु है ।। १-३ ।।
लक्ष्मीनारायणमूलमन्त्रस्तोत्रम् विनियोगः
अस्य
श्रीलक्ष्मीनारायणमन्त्रस्तोत्रराजस्य शिव ऋषिः,
त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीलक्ष्मीनारायणो देवता,
श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं, भोगापवर्गसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः ।
विनियोग —
इस लक्ष्मीनारायणमन्त्रस्तोत्रराज के शिव ऋषि, त्रिष्टुप् छन्द, श्रीलक्ष्मीनारायण देवता, श्रीं बीज, ह्रीं शक्ति, ॐ
कीलक है एवं भोग तथा अपवर्ग की सिद्धि हेतु पाठ में इसका विनियोग किया जाता है।
श्रीलक्ष्मीनारायण
ध्यानम्
पूर्णेन्दुवदनं पीतवसनं कमलासनम् ।
लक्ष्म्या श्रितं चतुर्बाहुं
लक्ष्मीनारायणं भजे ॥ ४ ॥
किरीटिनं कुण्डलहारमण्डितं पद्मासनं
श्याममुखं चतुर्भुजम् ।
पीताम्बरं शंखगदाब्जचक्रपाणिं
पुराणं पुरुषं भजे विभुम् ॥५॥
पूर्णिमा के चाँद जैसा मुखमण्डल,
पीले वस्त्र, कमल का आसन, लक्ष्मी से सेवित, चतुर्भुज लक्ष्मीनारायण का मैं
ध्यान करता हूँ, जो माथे पर किरीट, कानों
में कुण्डल, गले में हार, श्यामल वर्ण
का मुख, चार भुजा से शोभित एवं कमल के आसन पर बैठे हैं।
पीताम्बर धारण किये हुये हैं। हाथों में शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म है। ऐसे पुराणपुरुष
विभु का मैं स्मरण करता हूँ ।।४-५।।
लक्ष्मीनारायण स्तोत्र
प्रणवं यदि मानवो
जपेद्धरिपादाम्बुजसेवनाकुलः ।
दनुजान्तकधाम याति नूनं परमानन्दमयो
गतस्मयः ॥ ६ ॥
पराबीजं नुत्यं यदि जपति
जन्तुर्जपभुवि
स्मराक्रान्तः स्मार्तागमकुटिलमार्गोंज्झितभयः
।
भवेत् कौलेशानः सकलरिपुदावाग्निजलदः
सुरस्त्रीभिः सार्धं सुरविटपिवाटीषु
रमते ॥७॥
विबीजं यो महामन्त्रं
जपेदानन्दनिर्भरः ।
आनन्दरूपो भविता
लक्ष्मीनारायणप्रियः ॥ ८ ॥
विष्णुपद सेवा में तत्पर मनुष्य यदि
'ॐ' का जप करे तो वह गत- विकार परमानन्दमय होकर
विष्णुधाम वैकुण्ठ में जाता है। लक्ष्मीनारायण को प्रणाम करके पराबीज 'ही' का जप जो कामातुर होकर करता है तो स्मार्ता रमणी
कठिन मार्ग में होने पर भी साधक के पास आ जाती है। वह कौलों में श्रेष्ठ सभी
शत्रुरूपी दावानल के लिये मेघ के समान होता है। वह देवकन्याओं के साथ नन्दनवन में
विहार करता है हसौः बीज महामन्त्र जप जो आनन्दमग्न होकर करता है, वह आनन्दरूप होकर लक्ष्मीनारायण का प्रिय होता है।।६-८।।
विभूतिबीजं मनुराजतत्त्वं
जपेद्रतान्ते यदि कौलिकेन्द्रः ।
स याति देवासुरपूजिताङ्घ्रिः परं
पदं सर्वसुरैरलभ्यम् ॥९॥
माबीजमन्तः परमार्थतत्त्वं
सत्त्वैकरूपं मनसा जपेद्यः ।
स कामिनीकामरणप्रवीणो
भवेदरीणामुरुदर्पहारी ॥ १० ॥
रमाबीजं नामाक्षरपदमयं मन्त्रमुकुटं
जपेद्यो यन्त्राग्रे हरचरणपद्मार्पितमनाः
।
भवेद् भूभृन्मौलिस्फुरितमणिमालांशुनिवह-
प्रभाभास्वत्पादः स धरणिधरेन्द्रो
विजयवान् ।।११।।
मन्त्रराजतत्त्व 'ह्रीं' का जो कौलिक श्रेष्ठ मैथुन के बाद जप करता है,
वह देव- दैत्यपूजित सभी देवों को अप्राप्य परम पद को प्राप्त करता
है। परमार्थ तत्त्व 'श्रीं' का जप जो
सात्त्विक भाव से मानसिक रूप से करता है, वह कामिनी के साथ मैथुन
में प्रवीण होता है और शत्रुओं के दर्प का विनाशक होता है। विष्णु के चरणकमलों में
मन लगाकर मन्त्रमुकुट श्रीलक्ष्मीनारायण का जप यन्त्र के आगे जो करता है, वह भूपालों में श्रेष्ठ, मणिमाला से प्रकाशित
प्रभाभास्वत् पाद सभी राजाओं का इन्द्र एवं विजयी होता है।। ९-११।।
नारायणायेति जन्मनुं यो रात्रौ प्रभाते
परमार्थबीजम् ।
स वैरिदावानलवारिवाहो भवेत् स गीर्भिर्गुरुगर्वहारी
॥ १२ ॥
विश्वं जपेद्यो हृदि विश्वसारं विश्वम्भरध्यानपरः
प्रभाते ।
साम्राज्यलक्ष्मीं स रिपून् विजित्य
लभेद् भुवि स्वर्गमत: परासुः ।।१३।।
चतुरश्ररवृत्तषोडशारवसुपत्राञ्चितकाश्रराश्रबिन्दौ
।
कमलाश्रितमीश्वरं निविष्टं
परमानन्दमयं भजाम्यनन्तम् ॥ १४ ॥
केवल 'नारायण' का जप जो रात में या प्रभात में करता है,
वह इस परमार्थ बीज के प्रभाव से वैरी दावानल के लिये जलद के समान
होता है। अपनी वाणी द्वारा गुरु के गर्व को हरण करने वाला होता है। प्रभात में
अपने हृदय में विश्वसार विश्वम्भर के ध्यानसहित जो 'नमः'
का जप करता है, उसे साम्राज्यलक्ष्मी प्राप्त
होती है। शत्रुओं को जीतकर वह भूमि पर स्वर्ग का सुख भोगता है। चतुरस्र, वृत्तत्रय, षोडशदल, अष्टपत्र,
अष्टकोण, त्रिकोण, बिन्दुमण्डल
में कमलासहित विष्णु का ध्यान में परमानन्दमय रूप में करता हूँ। । १२-१४ ।।
लक्ष्मीनारायणमूलमन्त्रस्तोत्रम् फलश्रुतिः
इति मन्त्रमयं पठेत् स्तवं यो हृदि
नारायणवल्लभं प्रभाते ।
कमला विमलाशयस्य तस्य श्रुतिशीलस्य
वशीभवत्यवश्यम् ॥१५॥
इतीदं स्तोत्रमीशानि मूलमन्त्रमयं
परम् ।
तव भक्त्या मयाख्यातं न चाख्येयं
मुमुक्षुभिः ॥ १६ ॥
पञ्चाङ्गमिदमाद्यन्तं
लक्ष्मीनारायणस्य ते ।
वर्णितं गोप्यमर्चाढ्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ॥ १७ ॥
प्रातः काल में हृदय में
लक्ष्मीनारायण के ध्यानसहित जो इस मन्त्रमय स्तोत्र का पाठ करता है,
विमलाशय कमला उसकी हो जाती है। वह श्रुतिशील होता है। उसके वश में
सभी वश्य होते हैं। हे ईशानि! यह श्रेष्ठ स्तोत्र मूलमन्त्रमय है तुम्हारी भक्ति
के कारण मैंने इसका वर्णन किया। मुमुक्षुओं को इसे नहीं बतलाना चाहिये। इस प्रकार
लक्ष्मीनारायण के पञ्चाङ्ग के आदि और अन्त का वर्णन किया। यह गोप्य है एवं अर्चन
से परिपूर्ण है। अपनी योनि के समान इसे गुप्त रखना चाहिये ।। १५-१७।।
श्रीदेव्युवाच
भगवन् सर्वत्त्वज्ञ सर्वलोकहिते रत ।
क्रीतास्मि भवतानेन कथनेनास्य शङ्कर
।। १८ ।।
लक्ष्मीनारायणस्याद्य श्रुत्वा
पञ्चाङ्गमुत्तमम् ।
मयाप्तः परमानन्दो दास्यहं ते
ब्रवीमि किम् ।।१९।।
श्रीदेवी ने कहा –
भगवन्! आप सभी तत्त्वों के ज्ञाता हैं एवं सभी लोकों के कल्याण में
लगे रहते हैं। आपने मुझे यह बताकर खरीद लिया है। आज लक्ष्मी- नारायण के उत्तम
पञ्चाङ्ग को सुनकर मैं आप्तकाम होकर परम आनन्दित होकर आपकी दासी हो गई हूँ,
अब क्या कहूँ ? ।। १८-१९ ।।
श्रीभैरव उवाच
एतद्रहस्यमखिलं सर्वतन्त्रेषु
गोपितम् ।
वेदानालोड्य तन्त्रांश्च देवि ते
कथितं मया ॥ २० ॥
देवानां दुर्लभं तत्त्वं पञ्चाङ्गं
वैष्णवार्चिते ।
रहस्यं सर्वलोकानां सर्वस्वं मम
पार्वति ॥ २१ ॥
अप्रकाश्यमवक्तव्यमदातव्यं दुरात्मने
।
देयं शिष्याय शान्ताय गुरुभक्तिपराय
च ॥ २२ ॥
दानशीलाय भक्ताय कौलमार्गरताय च ।
महाचीनपदस्थाय वैष्णवाय महात्मने ।।
२३ ।।
दत्त्वा मुक्तिं लभेद् देवि
भक्तानां सुखदायिनीम् ।
इतीदं परमं तत्त्वं
तत्त्वात्तत्त्वं परात्परम् ।
गोप्यं गुह्यं गोपनीयं चेत्याज्ञा
पारमेश्वरी ॥२४॥
श्रीभैरव ने कहा- यह अखिल रहस्य सभी
तन्त्रों में गोपित है, वेदों और तन्त्रों
का आलोड़न करके मैंने इसका वर्णन किया है। विष्णु के अर्चन में यह पञ्चाङ्ग तत्त्व
देवताओं को भी दुर्लभ है। सभी लोकों के लिये यह रहस्य है और मेरा सर्वस्व है।
दुष्टों के लिये अप्रकाश्य, अवक्तव्य और अदातव्य है । शान्त,
गुरुभक्तिपरायण शिष्य को ही इसे देना चाहिये। हे देवि! कौलमार्ग में
तत्पर साधक को प्रदान करने से दाता भक्तों की सुखदायिनी मुक्ति को प्राप्त करता
है। यह तत्त्वों का परात्पर श्रेष्ठ तत्त्व है। हे परमेश्वरि ! मेरी आज्ञा है कि
इसे गोप्य गुह्य गोपनीय रखना चाहिये ।। २०-२४।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये लक्ष्मीनारायणस्तवाख्यानं नाम चत्वारिंशः पटलः ॥४०॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में लक्ष्मीनारायण- मूलमन्त्रस्तोत्र नामक चत्वारिंश
पटल पूर्ण हुआ।
समाप्तमिदं लक्ष्मीनारायणपञ्चाङ्गम्
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 41
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