स्वच्छन्द भैरव
स्वच्छन्द भैरव ने जो सिंह चर्म ओढ़ा
है वह शुद्धविद्या ईश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव इन पांचों तत्त्वों का चिद् विस्तार है। क्योंकि स्वच्छन्द
भैरव पंचानन (पांच मुखोंवाला) है। बहुरूपगर्भस्तोत्र का 34 श्लोक स्वच्छन्द भैरव
या अघोर भट्टारक के 34 बीजाक्षरों वाले महामन्त्र से सम्बद्ध है।
स्वच्छन्द भैरव महामन्त्र का रहस्य
इस अघोर भट्टारक या स्वच्छन्द भैरव
का महामंत्र इस प्रकार है
ऊँ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोर घोर
तरे*भ्यश्च।
सर्वतः शर्व सर्वेभ्यो नमस्ते रुद्र
रूपेभ्यः॥
मन्त्र व्याख्या
–
हे शर्व! अर्थात् हे परभैरव! हे महाभीषण रूप वाले! (कोई आपके सामने
ठहर नहीं सकता है और न कोई आपसे कुछ ऊँचे स्वर में कह सकता है, जो कुछ आप करते हो कोई उसका विरोध नहीं कर सकता है।) आपकी अघोर शक्ति,
घोर शक्ति और घोरतर या घोरतरी शक्तियां
चारों ओर से व्याप्त हैं, ये सीमित नहीं हैं, मैं आपकी इन अनन्त शक्तियों को प्रणाम करता हूँ जो भीषण हैं और जिनके
सामने कोई ठहर नहीं सकता है।
शैवी मार्ग में यद्यपि अनन्त
शक्तियां हैं पर प्रधान रूप से अघोर, घोर
और घोरतरी ये तीन हैं।
अघोर शक्ति
–
ये अनन्त है। ये साधना पथ पर चलने वाले साधक की सहायक हैं। यदि शैवी
साधक कहीं मार्ग में अटकता है तो ये शक्तियां उसे अपने इष्टदेव के ज्ञानक्रियारूपी
चरणों पर धकेलती हैं। इन्हीं शक्तियों को पराशक्ति के उपनाम से भी पुकारा जाता है।
ये अघोर शक्तियां पर-भैरव की सन्देश वाहिका होती हैं।
घोर शक्ति
–
ये घोर शक्तियां भी असंख्य हैं। परापरा शक्ति के नाम से भी ये
पुकारी जाती हैं। ये शक्तियां अघोर शक्ति मार्ग की ओर साधक को जाने नहीं देती हैं।
अतः वह साधक भय के कारण बीच में ही रुक जाता है पर अघोर शक्तियां उसे पतन से बचाती
हैं।
घोर घोरतरी या घोर घोरतर शक्तियां
भी अनन्त हैं। इन्हें अपरा शक्ति के नाम से भी पुकारा जाता है। ये शक्तियां
सांसारिक विषयों में लीन करके प्राणियों को नीचे-नीचे की ओर धकेलती हैं और साधना
मार्ग से विमुख कर देती हैं। ये शक्तियां अतीव भयानक हैं।
इस उपरोक्त मन्त्र का रहस्य,
जो बहुरूप गर्भ स्तोत्र में व्याप्त है, हमारे
पूर्वजों ने अपने वंशजों में ही आजतक सुरक्षित रखा था।
अथ श्री स्वच्छन्दभैरवस्वरूपवर्णनम्
त्रिपंचनयनं देवं जटा मुकुट
मण्डितम् ।
चन्द्रकोटि प्रतीकाशं चन्द्रार्ध
कृत शेखरम् ॥1 ॥
शब्दार्थ-त्रि-तीन,
पंच-पांच, नयनं-नेत्र अर्थात् पांच मुखों वाले स्वच्छन्द भैरव के प्रत्येक मुख पर तीन,
तीन नेत्र हैं। पांच मुख चिद्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया रूप हैं। तीन नेत्र सृष्टि
स्थिति और संहार के प्रतीक हैं। इन सृष्टि स्थिति संहार रूप तीन क्रियाओं का चिद्
आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रियारूप पांच
शक्तियों के साथ गुणन होने से 3 x 5 = 15 नेत्रों का स्वरूप
साकार हो उठता है।
नयनं–नी प्रापणे धात्वर्थक होने से नयनं का अर्थ 'उपाय'
है। इस प्रकार ये तीन क्रियायें पांच शक्तियों के साथ मिलकर पन्द्रह
उपायों के प्रतीक हैं।
देवं-
द्योतनशील। अथवा विश्वत्राण क्रीडा पर। कहा है-'देवः स्वतन्त्रचिद्रूपः प्रकाशात्मा महेश्वरः।'
जटा मुकुट मण्डितं
–
जटा और मुकुट से शोभित। अथवा जटाओं रूपी मुकुट अर्थात् जटाओं को ही
मुकुट के रूप में रखा है। ऊर्ध्वपद अवस्थित वामा ऐश्वर्य आदि शक्तियां ही जटाओं का
प्रतिरूप हैं। जटायें इन्हीं शक्तियों के प्रतीक हैं।
चन्द्रकोटि प्रतीकाशं
–
जो करोड़ों चन्द्रमाओं के समान श्वेत प्रकाशधारी है। श्वेत प्रकाश
सतोगुण की अनन्तता का प्रतीक है। अर्थात् जिसमें नैर्मल्य ही नैर्मल्य है किसी
प्रकार के मल की सत्ता ही नहीं। प्रकाशानन्दैकघन जो है।
चन्द्रार्ध कृत शेखरं-अर्ध
चन्द्रकला जिस के मस्तक पर विराजमान है अर्थात् चन्द्रकला धारण जिसका मुख्य रूप
है। अर्ध चन्द्रकला विश्व को आप्यायित करने वाली वह अमृत कला है जो चिति शक्ति का
प्रतीक है।
पञ्चवक्त्रं विशालाक्षं सर्पगोनास
मण्डितम् ।
वृश्चिकैः अग्निवर्णाभैः हारेण तु
विराजितम् ॥2॥
शब्दार्थ-पञ्चवक्त्रं-जिसके पांच
मुख हैं। ये पांच मुख चित् शक्ति,आनन्द शक्ति,
इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति के
प्रतीकात्मक श्रीभैरव के परस्वरूप को जतानेवाले हैं।
विशालाक्षं
–
विशाल आंखें – अर्थात् “अन्तर्लक्ष्यो बहिर्दृष्टिः निमेषोन्मेष वर्जितः” यही अवस्था विशालाक्ष से अभिप्रेत है।
सर्प गोनास मण्डितम्
–
सांपों और गोनासा नामक विषैले जन्तुओं से शोभित। विषैले सांप
सांसारिक सुख भोगों के प्रतीक हैं। गोनासा प्रतीक है वासना का । गोनासा जिसे
अंग्रेजी भाषा में VIPER कहते हैं और कश्मीरी भाषा में 'गुनस' कहते हैं। यह छोटी और मोटी महाविषैली, भीषण सर्प जाति से सम्बन्धित है। इसकी विशेषता यह है कि यदि इसे पकड़कर
हजारों टुकड़े करेंगे या सैकड़ों बार उखाड़ कर फेकेंगे फिर भी इसका एक-एक भाग
स्पन्दनशील होता है। इसलिए 'गोनासा' को
वासना का प्रतीक माना गया है। कहा है उन्मूलितापि शतशो दलितापि सहस्रशः।
गोनासेवाप्रथोदेति द्रागत्र शरणं शिवः।। अर्थात् जैसे गोनासा के प्रत्येक अंग
का टुकड़ा काट-काट कर अलग-अलग होके भी स्फुरायमान होता है इसी तरह से जब तक कि
शिवकृपा उदय में नहीं आती है शान्त हो होके भी वासना स्फुरायमान होकर जन्म
जन्मांतरों में मनुष्य का पीछा करती है। स्वच्छन्दनाथ ने इसी विषैली विषय
भोगाकांक्षा और वासनारूपी अप्रथा को अपने गले में धारण करके रखा है।
वृश्चिकैः अग्निवर्णाभैः-लाल
रंग के बिच्छुओं की, हारेणमाला से,विराजितं-शोभायमान है।
अग्निवर्णाभैः-आग
के लाल रंग के समान लाल वर्ण वाले बिच्छू डंक मारने में सबसे भयंकर होते हैं। ऐसे
बिच्छुओं की माला को गले में स्वच्छन्दनाथ ने धारण किया है। लालरंग के बिच्छू मोह ‘मद' मात्सर्य और तिरोधान करी शक्ति के प्रतीक हैं।
इन चारों में से किसी एक का डंक लगने पर साधक विक्षुब्ध होता है।
कपालमालाभरणं खड्ग खेटक धारिणम् ।
पाशाङ्कशधरं देवं शरहस्तं पिनाकिनम्
॥3 ॥
शब्दार्थ-कपाल
माला आभरणं- कपालों की माला इनका आभूषण है। सदाशिव से सकल तक सारे माया
प्रमाताओं की मुण्डमाला कपाल माला से अभिप्रेत है। अथवा कं-सुखं
भूमानन्दघनस्वरूपं, पालयतीति कपाली,
स्वानन्द स्वभावात् अप्रच्युतम् इत्यर्थः।
खड्ग-संसारिकों
के संसार के बन्धनों को छिन्न-भिन्न करने के लिए ही ज्ञान शक्ति का चिह्नभूत खड्ग
स्वच्छन्द नाथ ने हाथ में धारण किया है।
खेटक धारिणं-चर्मास्त्र
(ढ़ाल) को धारण करने वाला। साधकों के संसारिक कष्टों का क्रिया शक्ति द्वारा
निवारण ही खेटक से अभिप्रेत है। इस चर्मास्त्र को हाथ में धारण करने का यही
प्रयोजन है।
पाश-फन्दा
(और) अङ्कुशधरं-अंकुश को धारण करने वाला। पाश विश्व बन्धन के स्वातन्त्र्य
का प्रतीक है और अंकुश (goad) विश्व आकर्षण
का साधन माना गया है। जैसे मदमत्त हाथी के से मस्तक पर अंकुश ठोकने से ही वश में
किया जाता है। उसी तरह विषय भोगों के सेवन करने से उन्मत्त बने हुए व्यक्ति को
स्वस्वरूप में लाने के लिए स्वच्छन्दनाथ ने अंकुश हाथ में धारण किया है।
देवं-द्योतनशील,
शरहस्तं-हाथ में बाण है, पिनाकिनं-और
धनुष है। काम वासना को तितर-बितर करने के लिए बाण हाथ में धारण किये हैं।
पिनाकिनं-स्वच्छन्दनाथ के हाथ में रखे धनुष का नाम 'पिनाक'
है जो शासन, पालन, रोधन
और पाचन कर्मों का सम्पादन करता है।
वरदाभय हस्तं च मुण्ड खट्वांग
धारिणम् ।
वीणाडमरुहस्तं च घण्टाहस्तं त्रिशूलिनम्
।।४ ।।
शब्दार्थ-
वरद-वर देने की मुद्रा अभय हस्तं च-और अभय दान की मुद्रा। वर देने
की मुद्रा सांसारिक भोगों को प्रदान करती है और अभय दान की मुद्रा मोक्ष प्रदायिका
कही गई है। मुण्ड-खोपड़ी को और खट्वांग-चारपाई का पाया,
धारिणं -धारण करने वाला। मुण्ड से मल
अभिप्रेत है जिसे अख्याति कहते हैं। यही अख्याति संसार में आवाजाही का कारण है।
कहा है-मलमज्ञानमिच्छन्ति संसाराङ्कर कारणम्। एवं जन्ममरण के हेतुभूत
अख्याति को तथा अहंकार को खोपड़ी (मुण्ड) के रूप में हाथ में धारण कर रखा है।
खट्वांग-अनाश्रित अन्तवाले इस विश्व की, अपनी संवित् भित्ति
से संलग्नता का प्रतीक, खट्वांग है। वीणाडमरुहस्तं च-वीणा
और डमरु तथा घण्टाहस्तं त्रिशूलिनं जिसके हाथ में घंटा और त्रिशूल
भी है। इनमें वीणा, डमरु और घण्टा ये तीन मन्द्र ध्वनि,
तार ध्वनि तथा मध्य ध्वनि के प्रतीकभूत हैं। त्रिशूलिनं-त्रिशूलधारी
को-तीनों बन्धनों का नाश त्रिशूल से अभिप्रेत है अथवा धर्म, वैराग्य
और ज्ञान के प्रतीक त्रिशूल के तीन तेग कहे गये हैं। अथवा परा, परापरा और अपरा शक्ति के प्रतीक ये तीन तेग कहे गये हैं।
वज्रदण्डकृताटोपं परश्वायुध हस्तकम्
।
मुद्गरेण विचित्रेण वर्तुलेन
विराजितम् ।। 5 ।।
शब्दार्थ-
वज्र-(कुलिश=thunderbolt)।
स्वच्छन्दनाथ के हाथ में धारण किया वज्र दुर्भेद्य विश्वमय और विश्वोत्तीर्ण शक्ति
प्राधान्य का सूचक है। नियति शक्ति के द्वारा विश्व आकर्षण करने की कुशलता का सूचक
वह “दण्ड” है जिसे स्वच्छन्दनाथ
ने अपने हाथ में धारण किया है। परशु आयुध हस्तकं-कुल्हाड़ी नामक आयुध जिसके
हाथ में है। कुल्हाड़ी प्रतीक है नादशक्ति का क्योंकि यह नादशक्ति की तरह “हल्" आकृति की होती है।
मुद्गरेण-
मुद्गर से सुशोभित, सारे भेदमय प्रपंच
को चकनाचूर करने का सूचक मुद्गर आयुध स्वच्छन्दभैरव ने हाथ में धारण किया है। विचित्रेण
वर्तुलेन-अनेक रंगों से रंजित गोलाकार चक्र से विराजितं-सुशोभित है।
चक्र प्रतीक है भाग्य पंक्ति का। समस्त विश्व के प्राणियों के भाग्य का चक्र
स्वच्छन्दनाथ के हाथ में है। कहा भी है-चक्रार पंक्तिरिव गच्छति भाग्य
पंक्तिः।।
सिंहचर्म परीधानं गजचर्मोत्तरीयकम् ।
अष्टादशभुजं देवं नीलकण्ठं सुतेजसम्
॥6 ॥
शब्दार्थ-सिंहचर्म
परीधानं-शेर की खाल को जिसने ओढ़ा है। सिंह धर्म का प्रतीक है अतः
स्वच्छन्दभैरव को धर्म का ज्वलन्त स्वरूप माना जाता है। अथवा स्वच्छन्द भैरव ने जो
सिंह चर्म ओढ़ा है वह शुद्धविद्या ईश्वर, सदाशिव,
शक्ति और शिव इन पांचों तत्त्वों का चिद् विस्तार है। क्योंकि
स्वच्छन्द भैरव पंचानन (पांच मुखोंवाला) है। स्मरण रहे पंचानन शेर का भी
पर्यायवाची गज चर्मोत्तरीयकं-हाथी की खाल का दुपट्टा जिसने धारण किया है।
हाथी अहंकार का प्रतीक है। श्रीभैरव ने अहंकार को उत्तरीय बनाकर तन पर ओढ़ा है। इस
सत्य का संकेत उन्होंने हाथी की खाल को दुपट्टा के रूप में तन पर रखने से दिया है।
अर्थात् मद मोह और मात्सर्य के संस्कार का लेश मात्र भी इन्हें नहीं है। अष्टादशभुजं-श्री
स्वच्छन्द भैरव की 18 भुजायें हैं। दायीं ओर 9 भुजायें और बायीं ओर 9 भुजायें। इन 18 भुजाओं में 18 आयुध हैं जिनका वर्णन वामे खेटक
पाशशाङ्गविलसत् इस ध्यान श्लोक में किया गया है। देवं-द्योतनशील। या जो
संसाररूपी नाटक की क्रीडा करने में तत्पर है। नीलकण्ठं-कालकूट नामक विष पान
करने से जिनका गला नीला बन पड़ा है। स्मरण रहे कि समुद्रमन्थन के समय प्रादुर्भूत
रत्नों में से कालकूट नामक भयंकर विष भी प्रकट हुआ था जिसे नीलकण्ठ ने पीकर कण्ठ
स्थान पर रोक रखा था। सुतेजसम्-जो प्रकाश पूर्ण है अर्थात् जो चिदानन्दघन
है।
ऊर्ध्ववक्त्रं महेशानि! स्फटिकाभं
विचिन्तयेत् ।
आपीतं पूर्ववक्त्रं तु
नीलोत्पलदलप्रभम् ॥7॥
दक्षिणं तु विजानीयात् वामं चैव
विचिन्तयेत् ।
दाडिमी कुसुमप्रख्यं कुङ्कमोदक
सन्निभम् ॥8॥
चन्द्रार्बुद प्रतीकाशं पश्चिमं तु
विचिन्तयेत् ॥ 9॥
शब्दार्थ-इन
अढ़ाई श्लोकों में स्वच्छन्द भैरव के पांच मुखों का वर्णन किया गया है। इनमें पहला
मुख ऊपर की ओर दृष्टि उठाये है इस का वर्णन इस प्रकार है हे महेशानि-हे
पार्वति ! (स्वच्छन्द भैरवस्य) ऊर्ध्ववक्त्रं स्फटिकाभं (तथा) पूर्ववक्त्रं
आपीतं विचिन्तयेत्-स्वच्छन्द भैरव का ऊर्ध्वमुख अर्थात् ऊपर की ओर दृष्टि डाला
हुआ मुख,
स्फटिकाभं-स्फटिक मणि के आकार वाला है
अर्थात् जैसे स्फटिक रत्न (बिलौर) [कश्मीरी में स्फटिक को सुटखअ कहते हैं] का वर्ण
होता है उसी आकार का इनका ऊर्ध्वमुख है। स्फटिक मणि की यह विशेषता होती है कि वह
अत्यन्त निर्मल व पारदर्शी होता है। श्रीभैरव का यह ऊर्ध्वमुख भी अत्यन्त निर्मल व
पारदर्शी है। सारे विश्व का प्रतिबिम्ब इसमें सदा पड़ा रहता है जिसमें एक-एक वस्तु
छोटी या बड़ी विभागशः क्रम से दीखती है। पूर्ववक्त्रं आपीतं विचिन्तयेत्-स्वच्छन्द
भैरव के पांच मुखों में दूसरा मुख पूर्व दिशा की ओर है। आपीतं-इसका रंग चारों ओर
से पीला है। ऐसे रंगवाले दूसरे मुख का विचिन्तयेत्-ध्यान करें। पीतरंग-पीला रंग
वैराग्य वृत्ति का द्योतक है अतः यह मुख वैराग्य वृत्ति का साकार रूप है। दक्षिणं
तु नीलोत्पलदलप्रभम् विजानीयात्-पंचाननों में श्री स्वच्छन्द भैरव का तीसरा
मुख दक्षिण दिशा की ओर है। इसका रंग नील कमल के पंखुड़ियों का सा है। ऐसा
विजानीयात्-ध्यान करे। कुण्डलिनी उपासना पद्धति में साधक स्वच्छन्द भैरव के तीसरे
मुख का ध्यान मणिपूर चक्र में करता है क्योंकि इस चक्र में दस पंखुड़ियों वाला नील
कमल होता है जिसका वेधन करने के पश्चात् ही इस चक्रस्थित उपलब्धियों को प्राप्त
किया जाता है। दाडिमी कुसुमप्रख्यं, कुङ्कम उदक
सन्निभं वामं चैव विचिन्तयेत् -श्री स्वच्छन्द
भैरव के पांच मुखों में चौथा मुख वाम दिशा (बायीं दिशा) की ओर है। इसका रंग दाडिमी
कुसुम-अनार के फूल, प्रख्यं–जैसा तथा उदक-जल
मिश्रित, कुङ्कम-केसर के सन्निभम्-समान है। अर्थात् केसर के
रंग से रंजित जल जैसा दिखता है तथा अनार का फूल भी जिस रंग का होता है प्रायः एक
समान दिखने वाले इन्हीं रंगों की आकृति का वामदिशा की ओर दिखने वाला इनका चौथा मुख
है। ऊपर निर्दिष्ट लाल रंग की गहराई दृष्टव्य है-संत कबीर ने भी इस लाल रंग की
महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि- लाली देखी लाल की जित देखू तित लाल। लाली
देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल। सारे विश्व के प्रति अन-अपेक्षित (unconditional)
प्रेम रखने वाले इस चौथे मुख की विशेषता लाल रंग से रंजित होने के
कारण है। लाल रंग प्रेम का प्रतीक है। अतः सारे विश्व में अनअपेक्षित प्रेम,
धर्म-वर्ण-जाति की अनदेखी करके, परस्पर बांटना
ही इस मुख की साधना का सार है। चन्द्रार्बुद प्रतीकाशं पश्चिमं तु विचिन्तयेत्।
पश्चिमं– श्री स्वच्छन्द भैरव के पांच मुखों में पश्चिम दिशा
(west) की ओर दिखने वाला मुख चन्द्र अर्बुद प्रतीकाशं-अरबों
चन्द्रमाओं के समान उज्ज्वल दिखने वाला, विचिन्तयेत्-ध्यान
करे। श्री स्वच्छन्द भैरव का यह पांचवां मुख अत्यन्त नैर्मल्य के कारण
सत्त्वोद्रेक का प्रतिफलन है। अर्थात् यहां इस मुख में केवल सतोगुण की अगाध गरिमा
है। शेष गुणों का अस्तित्व लेश मात्र भी यहां नहीं है। सतोगुण प्राचुर्य के लिए इस
पांचवें मुख की साधना तथा ध्यान आवश्यक है। इस प्रकार श्री स्वच्छन्द भैरव के पांच
मुखों की विभिन्न ध्यान साधना इन उपरोक्त श्लोकों में बतायी गयी है। एतदनुसार उपरि
स्थित प्रथम मुख स्फटिक के रंग का सा, दूसरा पूर्वदिशोन्मुख
मुख पीले वर्ण का, तीसरा दक्षिणदिशोन्मुख वदन नील कमल के
पंखुड़ियों का सा नील, चौथा वामदिशोन्मुख मुख अनार के फूल
तथा कुङ्कुम मिश्रित जल का सा ललिमा युक्त, और पांचवां
वामदिशोन्मुख मुख अनन्त चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान निर्मल है। स्फटिकवर्ण,
पीतवर्ण, नीलवर्ण, रक्तवर्ण
और सफेद रंग ये पांच बिलोरी, पीला, नीला,
लाल और सफेद रंग महागायत्री के पांच मुखों के रंगों के समान ही है।
जैसे-“मुक्ताविद्महेम नीलधवलच्छायैः
मुखैस्त्र्यक्षणैः” अर्थात् मुक्ता-मोती विद्रुम-मूंगा,
हेम-सुनहरी पीला, नील-नीला, धवल-सफेद वर्गों के तीन आंखों वाले मुखों से। कहा भी है कि स्वच्छन्दभैरव
का साधक महागायत्री की विशेष कृपा का पात्र अनायास ही होता है।
स्वच्छन्दभैरवं देवं
सर्वकामफलप्रदम् ।
ध्यायते यस्तु युक्तात्मा क्षिप्रं
सिध्यतिमानवः।।10।।
शब्दार्थ-सर्वकाम
फलप्रदम्-समस्त इच्छाओं और अभिलाषाओं की पूर्ति करने वाले स्वच्छन्दभैरवं
देवं-श्री स्वच्छन्द भैरव का यस्तु-जो, युक्तात्मा समाहित मनवाला साधक, ध्यायते ध्यान करता है, वह मानवः-साधारण व्यक्ति भी
यदि हो तो क्षिप्रं-तत्काल, शीघ्रातिशीघ्र, सिध्यति–सिद्धि को प्राप्त करता है।
या सा पूर्वं मया ख्याता अघोरी
शक्तिरुत्तमा ।
भैरवं पूजयित्वा तु तस्योत्सङ्गे तु
तां न्यसेत् ।।11।।
यादृशं भैरवं रूपं भैरव्यास्तादृग्
एव हि
ईषत् करालवदनां गम्भीर विपुलस्वनाम्
।
प्रसन्नास्यां सदा ध्यायेत् भैरवीं
विस्मतेक्षणाम् ॥12।।
शब्दार्थ-श्री
भैरव कहते हैं कि मया-मैंने पूर्व-पहले,
ख्याता–कहा है सा अघोरी शक्तिः
उत्तमा-कि, वह अघोरी शक्ति उत्तम शक्ति है। भैरवं
पूजयित्वा-पहले स्वच्छन्द भैरव की अर्चना करनी चाहिए। फिर तस्य-उसी की,
उत्संगे-गोदी में, तां-उस भैरवी को न्यसेत्–विराजमान करना चाहिए। यादृशं-जैसा, भैरवं
रूपं–भैरव का रूप है, भैरव्याः-भैरवी का भी, तादृगेवहि-वैसा ही रूप है। अतः ईषत्-थोड़ा सा, करालवदनां- भीषण मुखवाली, गम्भीर-गम्भीर
तथा विपुलस्वनां-जोर से शब्द करती हुई प्रसन्नास्यां प्रसन्न
मुखवाली, विस्मितेक्षणां-चकित नेत्रों
वाली, उस भैरवीं-भैरवी शक्ति का, सदा–प्रति समय ध्यायेत्-ध्यान करे। भैरवी
का करालवदनां कहने का तात्पर्य यह है कि भैरवी भी सांसारिकों के पूर्व जन्मों के
संचित सारे कुकर्मों का नाश करने से कुछ करालवदना दिखती है। गम्भीर विपुलस्वनां
कहने का तात्पर्य यह है कि भैरवी स्वयं विमर्शशक्तिस्वरूपा होने से, विमर्श प्राधान्य की घोर झंकार से लबालब भरी हुई है। प्रसन्नवदनां कहने का
तात्पर्य यह है कि पर भैरव के समान भैरवी भी सदा अनुग्रहतत्परा है तथा
विस्मितेक्षणां-चकित नयनों वाली है। स्मरण रहे भैरवीमुद्रा भी विस्मितेक्षणा कही
गई है।
आगे जारी.....................बहुरूपगर्भस्तोत्र
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