प्रकृति स्तोत्र
जो मनुष्य शिव द्वारा किये गये इस
प्रकृति के स्तोत्र का पाठ करता है, उसका
प्रत्येक जन्म में अपनी पत्नी से कभी वियोग नहीं होता। इहलोक में सुख भोगकर वह
शिवलोक में चला जाता है तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष– चारों पुरुषार्थों
को प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है।
प्रकृति स्तोत्रम्
महेश्वर उवाच ।।
ॐ नमः प्रकृत्यै मन्त्रः ।।
ब्राह्मि ब्रह्मस्वरूपे त्वं मां
प्रसीद सनातनि ।
परमात्मस्वरूपे च परमानन्दरूपिणि ।।
१ ।।
महेश्वर बोले–
ॐ (सच्चिदानन्दमयी) प्रकृति देवी को नमस्कार है। ब्राह्मि! तुम
ब्रह्मस्वरूपिणी हो। सनातनि! परमात्मस्वरूपे! परमानन्दरूपिणि! तुम मुझ पर प्रसन्न
हो जाओ।
भद्रे भद्रप्रदे दुर्गे दुर्गघ्ने
दुर्गनाशिनि ।
पोतस्वरूपे जीर्णे त्वं मां प्रसीद
भवार्णवे ।। २ ।।
भद्रे! तुम भद्र अर्थात् कल्याण
प्रदान करने वाली हो। दुर्गे! तुम दुर्गम संकट का निवारण तथा दुर्गति का नाश करने
वाली हो। भवसागर से पार उतारने के लिये नूतन एवं सुदृढ़ नौकास्वरूपिणी देवि! मुझ
पर कृपा करो।
सर्वस्वरूपे सर्वेशि
सर्वबीजस्वरूपिणि ।
सर्वाधारे सर्वविद्ये मां प्रसीद
जयप्रदे ।। ३ ।।
सर्वस्वरूपे! सर्वेश्वरि!
सर्वबीजस्वरूपिणि! सर्वाधारे! सर्वविद्ये! विजयप्रदे! मुझ पर प्रसन्न होओ।
सर्वमङ्गलरूपे च सर्वमङ्गलदायिनि ।
समस्तमङ्गलाधारे प्रसीद सर्वमङ्गले
।। ४ ।।
सर्वमंगले! तुम सर्वमंगलरूपा,
सभी मंगलों को देने वाली तथा सम्पूर्ण मंगलों की आधारभूता हो;
मेरे ऊपर कृपा करो।
निद्रे तन्द्रे क्षमे श्रद्धे
तुष्टिपुष्टिस्वरूपिणि ।
लज्जे मेधे बुद्धिरूपे प्रसीद
भक्तवत्सले ।। ५ ।।
भक्तवत्सले! तुम निद्रा,
तन्द्रा, क्षमा, श्रद्धा,
तुष्टि, पुष्टि, लज्जा,
मेधा और बुद्धिरूपा हो; मुझ पर प्रसन्न होओ।
वेदस्वरूपे वेदानां कारणे वेददायिनि
।
सर्ववेदाङ्गरूपे च वेदमातः प्रसीद
मे ।। ६ ।।
वेदमातः! तुम वेदस्वरूपा,
वेदों का कारण, वेदों का ज्ञान देने वाली और
सम्पूर्ण वेदांग-स्वरूपिणी हो; मेरे ऊपर कृपा करो।
दये जये महामाये प्रसीद जगदम्बिके ।
क्षान्ते शान्ते च सर्वान्ते
क्षुत्पिपासास्वरूपिणि ।। ७ ।।
जगदम्बिके! तुम दया,
जया, महामाया, क्षमाशील,
शान्त, सबका अन्त करने वाली तथा
क्षुधापिपासारूपिणी हो; मुझ पर प्रसन्न होओ।
लक्ष्मीर्नारायणक्रोडे
स्रष्टुर्वक्षसि भारति ।
मम क्रोडे महामाये विष्णुमाये
प्रसीद मे ।। ८ ।।
विष्णुमाये! तुम नारायण की गोद में
लक्ष्मी,
ब्रह्मा के वक्षःस्थल में सरस्वती और मेरी गोद में महामाया हो;
मेरे ऊपर कृपा करो।
कलाकाष्ठास्वरूपे च
दिवारात्रिस्वरूपिणि ।
परिणामप्रदे देवि प्रसीद दीनवत्सले
।। ९ ।।
दीनवत्सले! तुम कला,
दिशा, दिन तथा रात्रिस्वरूपा एवं कर्मों के
परिणाम (फल)– को देने वाली हो; मुझ पर
प्रसन्न होओ।
कारणे सर्वशक्तीनां कृष्णस्योरसि
राधिके ।
कृष्णप्राणाधिके भद्रे प्रसीद
कृष्णपूजिते ।। १० ।।
राधिके! तुम सभी शक्तियों का कारण,
श्रीकृष्ण के हृदय मन्दिर में निवास करने वाली, श्रीकृष्ण की प्राणों से भी अधिक प्रिया तथा श्रीकृष्ण से पूजित हो। मेरे
ऊपर कृपा करो।
यशःस्वरूपे यशसां कारणे च यशःप्रदे
।
सर्वदेवीस्वरूपे च नारीरूपविधायिनि
।। ११ ।।
देवि! तुम यशःस्वरूपा,
सभी यश की कारण भूता, यश देने वाली, सम्पूर्ण देवीस्वरूपा और अखिल नारीरूप की सृष्टि करने वाली हो।
समस्तकामिनीरूपे कलांशेन प्रसीद मे
।
सर्वसंपत्स्वरूपे च सर्वसंपत्प्रदे
शुभे ।। १२ ।।
शुभे! तुम अपनी कला के अंशमात्र से
सम्पूर्ण कामिनियों का रूप धारण करने वाली, सर्वसम्पत्स्वरूपा
तथा समस्त सम्पत्ति को देने वाली हो; मुझ पर प्रसन्न होओ।
प्रसीद परमानन्दे कारणे सर्वसंपदाम्
।
यशस्विनां पूजिते च प्रसीद यशसां
निधे ।। १३ ।।
देवि! तुम परमानन्दस्वरूपा,
सम्पूर्ण सम्पत्तियों का कारण, यशस्वियों से
पूजित और यश की निधि हो; मेरे ऊपर कृपा करो।
आधारे सर्वजगतां रत्नाधारे वसुन्धरे
।
चराचरस्वरूपे च प्रसीद मम मा चिरम् ।।
१४ ।।
देवि! तुम समस्त जगत एवं रत्नों की
आधारभूता वसुन्धरा हो, चर और अचरस्वरूपा
हो; मुझ पर शीघ्र ही प्रसन्न होओ।
योगस्वरूपे योगीशे योगदे योगकारणे ।
योगाधिष्ठात्रि देवीशे प्रसीद
सिद्धयोगिनि ।। १५ ।।
सिद्धयोगिनि! तुम योगस्वरूपा,
योगियों की स्वामिनी, योग को देने वाली,
योग की कारणभूता, योग की अधिष्ठात्री देवी और
देवियों की ईश्वरी हो; मेरे ऊपर कृपा करो।
सर्वसिद्धिस्वरूपे च
सर्वसिद्धिप्रदायिनि ।
कारणे सर्व सिद्धीनां सिद्धेश्वरि
प्रसीद मे ।।१६ ।।
सिद्धेश्वरि! तुम सम्पूर्ण
सिद्धिस्वरूपा, समस्त सिद्धियों को देने वाली
तथा सभी सिद्धियों का कारण हो; मुझ पर प्रसन्न होओ।
व्याख्यानं सर्वशास्त्राणां मतभेदे
महेश्वरि ।
ज्ञाने यदुक्तं तत्सर्वं क्षमस्व
परमेश्वरि ।। १७ ।।
महेश्वरि! विभिन्न मतों के अनुसार
जो समस्त शास्त्रों का व्याख्यान है, उसका
तात्पर्य तुम्हीं हो। ज्ञानस्वरूपे परमेश्वरि! मैंने जो कुछ अनुचित कहा हो,
वह सब तुम क्षमा करो।
केचिद्वदन्ति प्रकृतेः प्राधान्यं
पुरुषस्य च ।
केचित्तत्र मतद्वैधे व्याख्याभेदं
विदुर्बुधाः ।। १८ ।।
कुछ विद्वान प्रकृति की प्रधानता बतलाते
हैं और कुछ पुरुष की। कुछ विद्वान इन दो प्रकार के मतों में व्याख्याभेद को ही
कारण मानते हैं।
महाविष्णोर्नाभिदेशे स्थितं तं
कमलोद्भवम् ।
मधुकैटभौ महादैत्यौ लीलया
हंतुमुद्यतौ ।। १९ ।।
पहले प्रलयकाल में एकार्णव के जल
में शयन करने वाले महाविष्णु के नाभिदेश से प्रकट हुए कमल पर,
उसी से उत्पन्न हुए जो ब्रह्मा जी बैठे थे, उन्हें
महादैत्य मधु और कैटभ खेल-खेल में ही मारने को उद्यत हो गये।
दृष्ट्वा स्तुतिं प्रकुर्वन्तं
ब्रह्माणं रक्षितुं पुरा ।
बोधयामास गोविन्दं विनाशहेतवे तयोः
।। २० ।।
तब ब्रह्मा जी अपनी रक्षा के लिये
तुम्हारी स्तुति करने लगे। उन्हें स्तुति करते देख तुमने उन दोनों महादैत्यों के
विनाश के लिये जलशायी महाविष्णु को जगा दिया।
नारायणस्त्वद्भक्त्या च जघान तौ
महासुरौ ।
सर्वेश्वरस्त्वया सार्द्धमनीशोऽयं
त्वया विना ।। २१ ।।
तब नारायण ने तुम शक्ति की सहायता
से उन दोनों महादैत्यों को मार डाला। ये भगवान तुम्हारा सहयोग पाकर ही सब कुछ करने
में समर्थ हैं। तुम्हारे बिना शक्तिहीन होने के कारण ये कुछ भी नहीं कर सकते।
पुरा त्रिपुरसंग्रामे गगनात्पतिते
मयि ।
त्वया च विष्णुना सार्द्धं
रक्षितोऽहं सुरेश्वरि ।।२२ ।।
सुरेश्वरि! पूर्वकाल में त्रिपुरों से संग्राम करते समय जब मैं आकाश से नीचे गिर पड़ा, तब तुमने ही विष्णु के साथ आकर मेरी रक्षा की थी।
अधुना रक्ष मामीशे प्रदग्धं
विरहाग्निना ।
स्वात्मदर्शनपुण्येन क्रीणीहि
परमेश्वरि ।।२३ ।।
ईश्वरि! इस समय मैं विरहाग्नि से जल
रहा हूँ;
तुम मेरी रक्षा करो। परमेश्वरि! अपने दर्शन के पुण्य से मुझे क्रीत
दास बना लो।
इत्युक्त्वा विरतः शंभुर्ददर्श
गगनस्थिताम् ।
रत्नसाररथस्थां तां देवीं शतभुजां
मुदा ।। २४ ।।
यह कहकर शम्भु मौन हो गये। तब
उन्होंने आकाश में विराजमान उस देवी प्रकृति को प्रसन्नतापूर्वक देखा,
जो रत्नसारनिर्मित रथ पर बैठी थीं। उनके सौ भुजाएँ थीं।
तप्तकाञ्चनवर्णाभां
रत्नाभरणभूषिताम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां जगतां मातरं
सतीम् ।। २५ ।।
उनकी अंगकान्ति तपाये हुए स्वर्ण के
समान देदीप्यमान थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थीं और उनके प्रसन्नमुख पर मन्द
हास की छटा छा रही थी।
दृष्ट्वा तां विरहासक्तः
पुनस्तुष्टाव सत्वरम् ।
दुःखं निवेदयामास
प्ररुदन्विरहोद्भवम् ।। २६ ।।
उन जगन्माता सती को देखकर विरहसाक्त
शंकर ने पुनः शीघ्र ही उनकी स्तुति की और रोते हुए अपने विरहजनित दुःख को निवेदन
किया।
दर्शयामासास्थिमालां स्वांगस्थं
भस्मभूषणम् ।
कृत्वा बहु परीहारं तोषयामास
सुंदरीम् ।। २७ ।।
तदनन्तर उन्होंने सती की अस्थियों
से बनी हुई अपनी माला उन्हें दिखायी और उनके शरीर जनित भस्म को,
जो शिव ने अपने अंगों का भूषण बना रखा था; उसकी
ओर भी उनकी दृष्टि आकर्षित की। फिर अनेक प्रकार से मनुहार करके उन्होंने सुन्दरी
सती को संतुष्ट किया।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे शंकरशोकापनो दनं नाम प्रकृति स्तोत्रं त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।। ४३ ।।
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