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पुष्कर उवाच
ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय
विष्ण्वादीन् दैवतान् स्मरेत् ।
उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा
कुर्यादुदङ्मुखः ॥१॥
रातौ च दक्षिणे कुर्यादुभे सन्ध्ये
यथा दिवा ।
न मार्गादौ जले वीप्यां सतृणायां
सदाचरेत् ॥२॥
शौचं कृत्वा मृदाचम्य
भक्षयेद्दन्तधावनं ।
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं
क्रियाङ्गं मलकर्षणं ॥३॥
क्रियास्नानं तथा षष्ठं षोढास्नानं
प्रकीर्तितं ।
अस्नातस्याफलं कर्म प्रातःस्नानं
चरेत्ततः ॥४॥
पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी !
प्रतिदिन प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर श्रीविष्णु आदि देवताओं का स्मरण
करे। दिन में उत्तर की ओर मुख करके मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये,
रात में दक्षिणाभिमुख होकर करना उचित है और दोनों संध्याओं में दिन की
ही भाँति उत्तराभिमुख होकर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये। मार्ग आदि पर, जल में तथा गली में भी कभी मलादि का त्याग न करे। सदा तिनकों से पृथ्वी को
ढककर उसके ऊपर मल त्याग करे। मिट्टी से हाथ-पैर आदि की भलीभाँति शुद्धि करके,
कुल्ला करने के पश्चात्, दन्तधावन करे। नित्य,
नैमित्तिक, काम्य, क्रियाङ्ग,
मलकर्षण तथा क्रिया-स्नान- ये छ: प्रकार के स्नान बताये गये हैं। जो
स्नान नहीं करता, उसके सब कर्म निष्फल होते हैं; इसलिये प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करना चाहिये ॥ १-४ ॥
भूमिष्ठमुद्धृतात्पुण्यं ततः
प्रस्रवणोदकं ।
ततोऽपि सारसं पुण्यं
तस्मान्नादेयमुच्यते ॥५॥
तीर्थतोयं ततः पुण्यं गाङ्गं
पुण्यन्तु सर्वतः ।
संशोधितमलः पूर्वं निमग्नश्च जलाशये
॥६॥
उपस्पृश्य ततः कुर्यादम्भसः
परिमार्जनं ।
हिरण्यवर्णास्तिसृभिः शन्नो देवीति
चाप्यथ ॥७॥
आपोहिष्ठेति तिसृभिरिदमापस्तथैव च ।
ततो जलाशये मग्नः कुर्यादन्तर्जलं
जपं ॥८॥
तत्राघमर्षणं सूक्तं द्रुपदां वा
तथा जपेत् ।
युञ्जते मन इत्येवं सूक्तं सूक्तं वाप्यथ
पौरुषं ॥९॥
गायत्रीं तु विशेषेण अघमर्षणसूक्तके
।
देवता भाववृत्तस्तु
ऋषिश्चैवाघमर्षणः ॥१०॥
छन्दश्चानुष्टुभं तस्य भाववृत्तो
हरिः स्मृतः ।
आपीडमानः शाटीं तु देवतापितृतर्पणं
॥११॥
कुएै से निकाले हुए जल की अपेक्षा
भूमि पर स्थित जल पवित्र होता है। उससे पवित्र झरने का जल,
उससे भी पवित्र सरोवर का जल तथा उससे भी पवित्र नदी का जल बताया
जाता है। तीर्थ का जल उससे भी पवित्र होता है और गङ्गा का जल तो सबसे पवित्र माना
गया है। पहले जलाशय में गोता लगाकर शरीर का मैल धो डाले। फिर आचमन करके जल से
मार्जन करे। 'हिरण्यवर्णाः०' आदि तीन
ऋचाएँ, 'शं नो देवीरभिष्टये०' (यजु० ३६
। १२) यह मन्त्र, 'आपो हि ष्ठा०' (यजु०
३६ । १४ - १६) आदि तीन ऋचाएँ तथा 'इदमापः०' (यजु० ६ । १७ ) यह मन्त्र - इन सबसे मार्जन किया जाता है। तत्पश्चात् जलाशय
में डुबकी लगाकर जल के भीतर ही जप करे। उसमें अघमर्षण सूक्त अथवा 'द्रुपदादिव०' (यजु० २०२०) मन्त्र, या 'युञ्जते मनः०' (यजु० ५ ।
१४) आदि सूक्त अथवा 'सहस्त्रशीर्षा ० ' (यजु० अ० ३१) आदि पुरुष सूक्त का जप करना चाहिये। विशेषतः गायत्री का जप
करना उचित है। अघमर्षणसूक्त में भाववृत्त देवता और अघमर्षण ऋषि हैं। उसका छन्द
अनुष्टुप् है। उसके द्वारा भाववृत्त (भक्तिपूर्वक वरण किये हुए) श्रीहरि का स्मरण
होता है। तदनन्तर वस्त्र बदलकर भीगी धोती निचोड़ने के पहले ही देवता और पितरों का
तर्पण करे ॥ ५- ११॥
पौरुषेण तु सूक्तेन
ददेच्चैवोदकाञ्जलिं ।
ततोऽग्निहवनं कुर्याद्दानं दत्वा तु
शक्तितः ॥१२॥
ततः समभिगच्छेत
योगाक्षेमार्थमीश्वरं ।
आसनं शयनं यानं जायापत्यङ्कमण्डलुः
॥१३॥
आत्मनः शुचिरेतानि परेषां न
शुचिर्भवेत् ।
भाराक्रान्तस्य गुर्विण्याः पन्था
देयो गुरुष्वपि ॥१४॥
फिर पुरुषसूक्त (यजु० अ० ३१) के
द्वारा जलाञ्जलि दे। उसके बाद अग्निहोत्र करे। तत्पश्चात् अपनी शक्ति के अनुसार
दान देकर योगक्षेम की सिद्धि के लिये परमेश्वर की शरण जाय। आसन,
शय्या, सवारी, स्त्री,
संतान और कमण्डलु - ये वस्तुएँ अपनी ही हों, तभी
अपने लिये शुद्ध मानी गयी हैं; दूसरों की उपर्युक्त वस्तुएँ
अपने लिये शुद्ध नहीं होतीं। राह चलते समय यदि सामने से कोई ऐसा पुरुष आ जाय,
जो भार से लदा हुआ कष्ट पा रहा हो, तो स्वयं
हटकर उसे जाने के लिये मार्ग दे देना चाहिये। इसी प्रकार गर्भिणी स्त्री तथा
गुरुजनों को भी मार्ग देना चाहिये ॥ १२ - १४ ॥
न पश्येच्चार्कमुद्यन्तन्नास्तं
यान्तं न चाम्भसि ।
नेक्षेन्नग्नां स्त्रियं कूपं
शूनास्थानमघौघिनं ॥१५॥
कार्पासाथि तया भस्म नाक्रामेद्यच्च
कुत्सितं ।
अन्तःपुरं वित्तिगृहं परदौत्यं
ब्रजेन्न हि ॥१६॥
नारोहेद्विषमान्नावन्न वृक्षं न च
पर्वतं ।
अर्थायतनशास्त्रेषु तथैव
स्यात्कुतूहली ॥१७॥
लोष्टमर्दो तृणच्छेदी नखखादी
विनश्यति ।
मुखादिवादनं नेहेद्विना दीपं न
रात्रिगः ॥१८॥
नाद्वारेण विशेद्वेश्म न च वक्त्रं
विरागयेत् ।
कथाभङ्गं न कुर्वीत न च
वासोविपर्ययं ॥१९॥
भद्रं भद्रमिति ब्रूयान्नानिष्टं
कीर्तयेत्क्वचित् ।
पालाशमासनं वर्ज्यं देवादिच्छायया
व्रजेत् ॥२०॥
उदय और अस्त के समय सूर्य की ओर न
देखे । जल में भी उनके प्रतिबिम्ब की ओर दृष्टिपात न करे। नंगी स्त्री,
कुआँ, हत्या के स्थान और पापियों को न देखे।
कपास (रुई), हड्डी, भस्म तथा घृणित
वस्तुओं को न लाँधे। दूसरे के अन्तः पुर और खजानाघर में प्रवेश न करे। दूसरे के
दूत का काम न करे। टूटी-फूटी नाव, वृक्ष और पर्वत पर न चढ़े।
अर्थ, गृह और शास्त्रों के विषय में कौतूहल रखे। ढेला फोड़ने,
तिनके तोड़ने और नख चबानेवाला मनुष्य नष्ट हो जाता है। मुख आदि
अङ्गों को न बजावे। रात को दीपक लिये बिना कहीं न जाय। दरवाजे के सिवा और किसी
मार्ग से घर में प्रवेश न करे। मुँह का रंग न बिगाड़े। किसी की बातचीत में बाधा न
डाले तथा अपने वस्त्र को दूसरे के वस्त्र से न बदले। 'कल्याण
हो, कल्याण हो' - यही बात मुँह से
निकाले; कभी किसी के अनिष्ट होने की बात न कहे। पलाश के आसन को
व्यवहार में न लावे देवता आदि की छाया से हटकर चले ॥ १५-२० ॥
न मध्ये
पूज्ययोर्यायात्नोच्छिष्टस्तारकादिदृक् ।
नद्यान्नान्यां नदीं ब्रूयान्न
कण्डूयेद्द्विहस्तकं ॥२१॥
असन्तर्प्य पितॄन् देवान्नदीपारञ्च
न व्रजेत् ।
मलादिप्रक्षिपेन्नाप्सु न नग्नः
स्नानमाचरेत् ॥२२॥
ततः समभिगच्छेत योगक्षेमार्थमीश्वरं
।
स्रजन्नात्मनाप्पनयेत्खरादिकरजस्त्यजेत्
॥२३॥
हीनान्नावहसेत्गच्छेन्नादेशे
नियसेच्च तैः ।
वैद्यराजनदीहीने
म्लेच्छस्त्रीबहुनायके ॥२४॥
रजस्वलादिपतितैर्न भाषेत केशवं
स्मरेत् ।
नासंवृतमुखः कुर्याद्धासं जृम्भां
तथा क्षुतं ॥२५॥
दो पूज्य पुरुषों के बीच से होकर न
निकले। जूठे मुँह रहकर तारा आदि की ओर दृष्टि न डाले । एक नदी में जाकर दूसरी नदी का
नाम न ले । दोनों हाथों से शरीर न खुजलावे। किसी नदी पर पहुँचने के बाद देवता और
पितरों का तर्पण किये बिना उसे पार न करे। जल में मल आदि न फेंके। नंगा होकर न
नहाये। योगक्षेम के लिये परमात्मा की शरण में जाय। माला को अपने हाथ से न हटाये ।
गदहे आदि की धूल से बचे। नीच पुरुषों को कष्ट में देखकर कभी उनका उपहास न करे।
उनके साथ अनुपयुक्त स्थान पर निवास न करे। वैद्य, राजा और नदी से हीन देश में न रहे। जहाँ के स्वामी म्लेच्छ, स्त्री तथा बहुत से मनुष्य हों, उस देश में भी न
निवास करे। रजस्वला आदि तथा पतितों के साथ बात न करे। सदा भगवान् विष्णु का स्मरण
करे। मुँह के ढके बिना न जोर से हँसे, न जँभाई ले और न छींके
ही॥२१-२५॥
प्रभोरप्यवमनं खद्गोपयेद्वचनं बुधः
।
इन्द्रियाणां नानुकूली वेदरोधं न
कारयेत् ॥२६॥
नोपेक्षितव्यो व्याधिः
स्याद्रिपुरल्पोऽपि भार्गव ।
रथ्यातिगः सदाचामेत्
विभृयान्नाग्निवारिणी ॥२७॥
न हुङ्कुर्याच्छिवं पूज्यं पादं
पादेन नाक्रमेत् ।
प्रत्यक्षं वा परोक्षं वा कस्य
चिन्नाप्रियं वदेत् ॥२८॥
वेदशास्त्रनरेन्द्रर्षिदेवनिन्दां
विवर्जयेत् ।
स्त्रीणामीर्षा न कर्तव्या
त्रिश्वासन्तासु वर्जयेत् ॥२९॥
धर्मश्रुतिं देवरतिं
कुर्याद्धर्मादि नित्यशः ।
सोमस्य पूजां जन्मर्क्षे
विप्रदेवादिपूजनं ॥३०॥
षष्ठीचतुर्दश्यष्टम्यामभ्यङ्गं
वर्जयेत्तथा ।
दूराद्गृहान्मूत्रविष्ठे नोत्तमैवैरमाचरेत्
॥३१॥
विद्वान् पुरुष स्वामी के तथा अपने
अपमान की बात को गुप्त रखे। इन्द्रियों के सर्वथा अनुकूल न चले- उन्हें अपने वश में
किये रहे। मल-मूत्र के वेग को न रोके। परशुरामजी! छोटे-से भी रोग या शत्रु की
उपेक्षा न करे। सड़क लाँघकर आने के बाद सदा आचमन करे। जल और अग्नि को धारण न करे।
कल्याणमय पूज्य पुरुष के प्रति कभी हुंकार न करे। पैर को पैर से न दबावे ।
प्रत्यक्ष या परोक्ष में किसी की निन्दा न करे। वेद, शास्त्र, राजा, ऋषि और देवता की
निन्दा करना छोड़ दे। स्त्रियों के प्रति ईर्ष्या न रखे तथा उनका कभी विश्वास भी न
करे। धर्म का श्रवण तथा देवताओं से प्रेम करे। प्रतिदिन धर्म आदि का अनुष्ठान करे।
जन्म नक्षत्र के दिन चन्द्रमा, ब्राह्मण तथा देवता आदि की
पूजा करे। षष्ठी, अष्टमी और चतुर्दशी को तेल या उबटन न
लगावे। घर से दूर जाकर मल-मूत्र का त्याग करे। उत्तम पुरुषों के साथ कभी वैर-विरोध
न करे ॥ २६-३१ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे आचाराध्यायो
नाम पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'आचार का वर्णन' नामक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ १५५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 156
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