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अथ त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
धर्ममाश्रमिणां वक्ष्ये
भुक्तिमुक्तिप्रदं शृणु ।
षोडशर्तुनिशा
स्त्रीणामाद्यस्तिस्रस्तु गर्हिताः ॥१॥
व्रजेद्युग्मासु पुत्रार्थी
कर्माधानिकमिष्यते ।
गर्भस्य स्पष्टताज्ञाने सवनं
स्पन्दनात्पुरा ॥२॥
षष्ठेऽष्टमे वा सीमन्तं पुत्रीयं
नामभं शुभं ।
अच्छिन्ननाड्यां कर्तव्यं जातकर्म
विचक्षणैः ॥३॥
अशौचे तु व्यतिक्रान्ते नामकर्म
विधीयते ।
शर्मान्तं ब्राह्मणस्योक्तं
वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ॥४॥
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं
वैश्यशूद्रयोः ।
बालं निवेदयेद्भर्त्रे तव
पुत्रोऽयमित्युत ॥५॥
पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी ! अब
मैं आश्रमी पुरुषों के धर्म का वर्णन करूँगा; सुनो!
यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। स्त्रियों के ऋतुधर्म की सोलह रात्रियाँ होती
हैं, उनमें पहले की तीन रातें निन्दित हैं। शेष रातों में जो
युग्म अर्थात् चौथी, छठी, आठवीं और
दसवीं आदि रात्रियाँ हैं, उनमें ही पुत्रकी इच्छा रखनेवाला
पुरुष स्त्री- समागम करे। यह 'गर्भाधान संस्कार' कहलाता है। 'गर्भ' रह गया- इस
बात का स्पष्टरूप से ज्ञान हो जाने पर गर्भस्थ शिशु के हिलने-डुलने से पहले ही 'पुंसवन संस्कार' होता है। तत्पश्चात् छठे या आठवें
मास में 'सीमन्तोन्नयन' किया जाता है।
उस दिन पुल्लिङ्ग नामवाले नक्षत्र का होना शुभ है। बालक का जन्म होने पर नाल काटने
के पहले ही विद्वान् पुरुषों को उसका 'जातकर्म - संस्कार' करना चाहिये। सूतक निवृत्त होने पर 'नामकरण-
संस्कार' का विधान है। ब्राह्मण के नाम के अन्त में 'शर्मा' और क्षत्रिय के नाम के अन्त में 'वर्मा' होना चाहिये । वैश्य और शूद्र के नामों के
अन्त में क्रमशः 'गुप्त' और 'दास' पद का होना उत्तम माना गया है। उक्त संस्कार के
समय पत्नी स्वामी की गोद में पुत्र को दे और कहे- 'यह आपका
पुत्र है ' ॥ १-५ ॥
यथाकुलन्तु
चूडाकृद्ब्राह्मणस्योपनायनं ।
गर्भाष्टमेऽष्टमे वाब्दे
गर्भादेकादशे नृपे ॥६॥
गर्भात्तु द्वादशे वैश्ये
षोडशाब्दादितो न हि ।
मुञ्जानां वल्कलानान्तु
क्रमान्मौज्ज्याः प्रकीर्तिताः ॥७॥
मार्गवैयाघ्रबास्तानि चर्माणि
व्रतचारिणां ।
पर्णपिप्पलबिल्वानां क्रमाद्दण्डाः
प्रकीर्तिताः ॥८॥
केशदेशललाटास्यतुल्याः प्रोक्ताः
क्रमेण तु ।
अवक्राः सत्वचः सर्वे
नाविप्लुष्टास्तु दण्डकाः ॥९॥
फिर कुलाचार के अनुरूप 'चूडाकरण' करे। ब्राह्मण-बालक का 'उपनयन संस्कार' गर्भ अथवा जन्म से आठवें वर्ष में
होना चाहिये। गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय बालक का तथा गर्भ से बारहवें
वर्ष में वैश्य- बालक का उपनयन करना चाहिये। ब्राह्मण- बालक का उपनयन सोलहवें,
क्षत्रिय बालक का बाईसवें और वैश्य – बालक का चौबीसवें वर्ष से आगे
नहीं जाना चाहिये। तीनों वर्णों के लिये क्रमशः मूँज प्रत्यञ्चा तथा वल्कल की
मेखला बतायी गयी है। इसी प्रकार तीनों वर्णों के ब्रह्मचारियों के लिये क्रमशः मृग,
व्याघ्र तथा बकरे के चर्म और पलाश, पीपल तथा
बेल के दण्ड धारण करने योग्य बताये गये हैं। ब्राह्मण का दण्ड उसके केशतक, क्षत्रिय का ललाटतक और वैश्य का मुखतक लंबा होना चाहिये। इस प्रकार क्रमशः
दण्डों की लंबाई बतायी गयी है। ये दण्ड टेढ़े-मेढ़े न हों। इनके छिलके मौजूद हों
तथा ये आग में जलाये न गये हों ॥ ६-९ ॥
वासोपवीते कार्पासक्षौमोर्णानां यथाक्रमं
।
आदिमध्यावसानेषु भवच्छब्दोपलक्षितं
॥१०॥
प्रथमं तत्र भिक्षेत यत्र भिक्षा
ध्रुवं भवेत् ।
स्त्रीणाममन्त्रतस्तानि विवाहस्तु
समन्त्रकः ॥११॥
उपनीय गुरुः शिष्यं
शिक्षयेच्छौचमादितः ।
आचारमग्निकार्यं च सन्ध्योपासनमेव च
॥१२॥
उक्त तीनों वर्णों के लिये वस्त्र
और यज्ञोपवीत क्रमशः कपास (रुई), रेशम तथा ऊन के
होने चाहिये। ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा माँगते समय वाक्य के आदि में 'भवत्' शब्द का प्रयोग करे।[ जैसे
माता के पास जाकर कहे 'भवति भिक्षां मे देहि मातः।' पूज्य माताजी! मुझे भिक्षा दें ।] इसी प्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्य के
मध्य में तथा वैश्य ब्रह्मचारी वाक्य के अन्त में 'भवत्' शब्द का प्रयोग करे। (यथा- क्षत्रिय - भिक्षां भवति मे देहि । वैश्य -
भिक्षां मे देहि भवति ।) पहले वहीं भिक्षा माँगे, जहाँ
भिक्षा अवश्य प्राप्त होने की सम्भावना हो । स्त्रियों के अन्य सभी संस्कार बिना
मन्त्र के होने चाहिये; केवल विवाह- संस्कार ही
मन्त्रोच्चारणपूर्वक होता है। गुरु को चाहिये कि वह शिष्य का उपनयन (यज्ञोपवीत)
संस्कार करके पहले शौचाचार, सदाचार, अग्निहोत्र
तथा संध्योपासना की शिक्षा दे ॥ १०-१२ ॥
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं
दक्षिणामुखः ।
श्रियं प्रत्यङ्मुखो भुङ्क्ते ऋतं
भुङ्क्ते उदङ्मुखः ॥१३॥
सायं प्रातश्च जुहुयान्नामेध्यं
व्यस्तहस्तकं ।
मधु मांसं जनैः सार्धं गीतं
नृत्यञ्च वै त्यजेत् ॥१४॥
हिंसां परापवादं च अश्लीलं च
विशेषतः ।
दण्डादि धारयेन्नष्टमप्सु क्षिप्त्वान्यधारणं
॥१५॥
वेदस्वीकरणं कृत्वा स्रायाद्वै
दत्तदक्षिणः ।
नैष्ठिको ब्रह्मचारी वा देहान्तं
निवसेद्गुरौ ॥१६॥
जो पूर्व की ओर मुँह करके भोजन करता
है, वह आयुष्य भोगता है, दक्षिण की ओर मुँह करके
खानेवाला यश का, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करनेवाला लक्ष्मी (धन)
का तथा उत्तर की ओर मुँह करके अन्न ग्रहण करनेवाला पुरुष सत्य का उपभोग करता है।
ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रातः काल अग्निहोत्र करे। अपवित्र वस्तु का होम
निषिद्ध है। होम के समय हाथ की अङ्गुलियों को परस्पर सटाये रहे। मधु, मांस, मनुष्यों के साथ विवाद, गाना
और नाचना आदि छोड़ दे। हिंसा, परायी निन्दा तथा विशेषतः
अश्लील चर्चा (गाली- गलौज आदि) का त्याग करे। दण्ड आदि धारण किये रहे। यदि वह टूट
जाय तो जल में उसका विसर्जन कर दे और नवीन दण्ड धारण करे। वेदों का अध्ययन पूरा
करके गुरु को दक्षिणा देने के पश्चात् व्रतान्त-स्नान करे; अथवा
नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर जीवनभर गुरुकुल में ही निवास करता रहे।। १३-१६ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
ब्रह्मचर्याश्रमो नाम त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'ब्रह्मचर्याश्रम-वर्णन' नामक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ १५३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 154
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