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अग्निपुराण अध्याय १४८

अग्निपुराण अध्याय १४८          

अग्निपुराण अध्याय १४८ में संग्राम-विजयदायक सूर्य पूजन का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १४८

अग्निपुराणम् अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 148             

अग्निपुराण एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १४८     

अग्निपुराणम् अध्यायः १४८ – सङ्ग्रामविजयपूजा

अथ अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच ।

ओं डे ख ख्यां सूर्याय सङ्ग्रामविजयाय नमः ।

ह्रां ह्रों ह्रूं ह्रें ह्रौं ह्रः षडङ्गानि तु सूर्यस्य सङ्ग्रामे जयदस्य हि ॥१॥

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द ! (अब मैं संग्राम में विजय देनेवाले सूर्यदेव के पूजन की विधि बताता हूँ।) 'ॐ डे ख ख्यां सूर्याय संग्रामविजयाय नमः ।' यह मन्त्र है। ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रों ह्रः- ये संग्राम में विजय देनेवाले सूर्यदेव के छः अङ्ग हैं, अर्थात् इनके द्वारा षडङ्गन्यास करना चाहिये । यथा - ' ह्रां हृदयाय नमः । ह्रीं शिरसे स्वाहा। ह्रूं शिखायै वषट्। ह्रें कवचाय हुम् । ह्रों नेत्रत्रयाय वौषट् । ह्रः अस्त्राय फट् ' ॥ १ ॥

ओं हं खं खशोक्लाय स्वाहा ।

स्पूं ह्रूं हुं क्रूं ओं ह्रों क्रें ॥२॥

प्रभूतं विमलं सारसाराध्यं परमं मुखं ।

धर्मज्ञानञ्च वैराग्यमैश्वर्याद्यष्टकं यजेत् ॥३॥

अनन्तासनं सिंहासनं पद्मासनमतः परं ।

कर्णिकाकेशरण्येव सूर्यसोमाग्निमण्डलं ॥४॥

दीप्ता सूक्ष्मा जया भद्रा विभूतिर्विमला तथा ।

अमोघा विद्युता पूज्या नवमी सर्वतोमुखी ॥५॥

'ॐ हं खं खखोल्काय स्वाहा।'- यह पूजा के लिये मन्त्र है । 'स्फूं ह्रूं ह्रूं क्रूं ॐ ह्रों क्रें'- ये छः अङ्गन्यास के बीज-मन्त्र हैं। पीठस्थान में प्रभूत, विमल, सार, आराध्य एवं परम सुख का पूजन करे। पीठ के पायों तथा बीच की चार दिशाओं में क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य इन आठों की पूजा करे। तदनन्तर अनन्तासन, सिंहासन एवं पद्मासन की पूजा करे। इसके बाद कमल की कर्णिका एवं केसरों की, वहीं सूर्यमण्डल, सोममण्डल तथा अग्निमण्डल की पूजा करे। फिर दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युता तथा नवीं सर्वतोमुखी इन नौ शक्तियों का पूजन करे ॥ २-५ ॥

सत्त्वं रजस्तमश्चैव प्रकृतिं पुरुषं तथा ।

आत्मानञ्चान्तरात्मानं परमात्मानमर्चयेत् ॥६॥

सर्वे बिन्दुसमायुक्ता मायानिलसमन्विताः ।

उषा प्रभा च सन्ध्या च साया माया बलान्विता ॥७॥

बिन्दुविष्णुसमायुक्ता द्वारपालास्तथाष्टकं ।

सूर्यं चण्डं प्रचण्डञ्च पूजयेद्गन्धकादिभिः ॥८॥

पूजया जपहोमाद्यैर्युद्धादौ विजयो भवेत् ॥९॥

तत्पश्चात् सत्त्व, रज और तम का, प्रकृति और पुरुष का, आत्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का पूजन करे। ये सभी अनुस्वारयुक्त आदि अक्षर से युक्त होकर अन्त में 'नमः' के साथ चतुर्थ्यन्त होने पर पूजा के मन्त्र हो जाते हैं। यथा-'सं सत्त्वाय नमः । अं अन्तरात्मने नमः ।' इत्यादि। इसी तरह उषा, प्रभा, संध्या, साया, माया, बला, बिन्दु, विष्णु तथा आठ द्वारपालों की पूजा करे। इसके बाद गन्ध आदि से सूर्य, चण्ड और प्रचण्ड का पूजन करे। इस प्रकार पूजा तथा जप, होम आदि करने से युद्ध आदि में विजय प्राप्त होती है ॥६-९॥

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे सङ्ग्रामविजयपूजा नाम अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'संग्राम-विजयदायक सूर्यदेव की पूजा का वर्णन' नामक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४८ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 149  

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