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Shri Devi Rahasya Patal 55
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य पचपनवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् पञ्चपञ्चाशत्तम
पटल
देवीरहस्य पटल ५५ पुरश्चरण विधि निरूपण
अथ पञ्चपञ्चाशत्तमः पटलः
पुरश्चर्याविधिः
मन्त्रराजपुरश्चरणक्रमः
श्रीभैरव उवाच
अधुना मन्त्रराजस्य
पुरश्चरणमुत्तमम् ।
वक्ष्ये सिद्धिप्रदो येन मन्त्रः
कल्पद्रुमो भवेत् ॥ १ ॥
एकदा सुदिने देवि सुनक्षत्रे
सुपर्वणि ।
पुरश्चरणकर्मादी आरभेत् साधकोत्तमः ॥
२ ॥
वर्णलक्षं जपेन्मन्त्रं तदर्थं वा
महेश्वरि ।
एकलक्षावधिं कुर्यान्नातो न्यूनं
कदाचन ॥३॥
लक्षसंख्या प्रकर्तव्या साधकैश्चेन्न
शक्यते ।
एकलक्षं प्रजप्तव्यं नातो न्यूनं
कदाचन ॥४॥
मन्त्रराज पुरश्चरण क्रम- अब मैं
मन्त्रराज के उत्तम पुरश्चरण का वर्णन करता हूँ, जिसके करने से मन्त्र कल्पवृक्ष के समान सिद्धिप्रद होता है। किसी समय शुभ
दिन, शुभ नक्षत्र, सौर पर्व के अवसर पर
साधक पुरश्चरण क्रिया का प्रारम्भ करे। मन्त्र के प्रत्येक वर्ण पर एक-एक लाख जप
करे या उसका आधा जप करे। अथवा सबका एक- एक लाख जप करे। यदि सभी वर्णों का एक-एक
लाख जप करने में साधक समर्थ न हो तो समस्त मन्त्र का एक लाख जप साधक कर सकता है।
इससे कम जप कदापि नहीं करना चाहिये ।। १-४।।
श्रीदेव्युवाच
लक्षजप्तो मनुर्देव यदि कल्पद्रुमो
भवेत् ।
तदा किं साधको लोके लक्षतत्त्वं
वदस्व मे ॥ ५ ॥
कस्य हस्तेन मन्त्रस्य
पुरश्चरणकक्रियाम् ।
कारयेत् साधकश्चैतत् संशयं छिन्धि
धूर्जटे ॥ ६ ॥
श्रीदेवी ने कहा कि हे देव! यदि एक
लाख जप करने से यह मन्त्र कल्पवृक्ष के तुल्य होता है तब इसके बाद साधक क्या करे।
इस लक्षतत्त्व को मुझे बतलाइये। किसके द्वारा यह पुरश्चरण करवाना चाहिये,
जिससे यह मन्त्र कल्पवृक्ष के समान होता है। इस शङ्का का समाधान आप
करें ।।५-६ ।।
देवीरहस्य पटल ५५- पुरश्चरणं
गुरुहस्तेन कारयितव्यम्
श्रीभैरव उवाच
साधु पृष्टं त्वया देवि शृणु
वक्ष्यामि पार्वति ।
न कदाचित् स्वयं कुर्यादादौ
मन्त्रपुरस्क्रियाम् ॥ ७ ॥
गुरुहस्तेन देवेशि साधकस्य करेण वा
।
कुर्यान्मन्त्रवरस्यास्य
पुरश्चरणकक्रियाम् ॥८॥
जीवहीनो यथा देहो सर्वकर्मसु न
क्षमः ।
पुरश्चरणहीनोऽपि न मन्त्रः फलदायकः
॥ ९ ॥
हे पार्वति ! अच्छा प्रश्न किया है।
सुनो,
मैं उत्तर बतलाता हूँ, पहले-पहल पुरश्चरण
क्रिया अपने से नहीं करनी चाहिये। पहले यह क्रिया गुरु के द्वारा या किसी साधक
द्वारा करवानी चाहिये। तब यह श्रेष्ठ मन्त्र कल्पवृक्ष सदृश होता है। जैसे जीवहीन
देह कोई काम करने लायक नहीं होता, वैसे ही पुरश्चरण के बिना
कोई मन्त्र फलदायक नहीं होता।। ७-९ ।।
देवीरहस्य पटल ५५- मन्त्रदशांशतो
होमादीनि
जपाद् दशांशतो होमस्तद्दशांशेन
तर्पणम् ।
मार्जनं तद्दशांशेन तद्दशांशेन
भोजनम् ॥१० ॥
जप का दशांश हवन,
हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और
मार्जन का दशांश ब्राह्मणभोजन पुरश्चरण के आवश्यक अङ्ग कहे गये हैं ।। १० ।।
मन्त्रस्यादौ प्रमादाच्चेत् स्वयं
कुर्यात् पुरस्क्रियाम् ।
तदा जाप्यं भवेद् व्यर्थं
क्षेत्रेष्विव घृतं यथा ॥ ११ ॥
तस्माच्च गुरुहस्तेन साधकस्य करेण
वा ।
पुरश्चर्यां स्वमन्त्रस्य कारयेत्
साधकोत्तमः ॥ १२ ॥
पुरश्चरणसङ्कल्पं दत्त्वादौ गुरवे
शिवे ।
जपं यथाविधिं कुर्याद् गुरुः
कुलमनोः प्रिये ॥ १३ ॥
गुरोः पादप्रसादेन पुरश्चर्याफलं
शिवे ।
गृह्णीयात् साधको देवि गुरुं
सन्तोषयेत् ततः ॥१४॥
प्रमादवश यदि साधक पहला पुरश्चरण
स्वयं करता है तो उसका जप वैसे ही व्यर्थ होता है, जैसे पृथ्वी पर घी का गिरना । इसलिये पुरश्चरण गुरु के द्वारा या किसी
उत्तम साधक द्वारा ही करवावे। प्रारम्भ में पुरश्चरण हेतु संकल्प गुरु को समर्पित
करे। तब यथाविधि गुरु मन्त्र का जप करे गुरु के पादप्रसाद से पुरश्चरण का फल साधक
ग्रहण करे। इसके बाद गुरु को सन्तुष्ट करे । । ११- १४ ।।
येन मन्त्रः कलौ
शीघ्रमिष्टसिद्धिप्रदो भवेत् ।
दक्षिणाभिः
शुभैर्वस्त्रैर्यथाविभवमात्मनः ॥ १५ ॥
ततः स्वयं पुरश्चर्या बह्वीः
कुर्यात्तु साधकः ।
पर्वताग्रे नदीतीरे देवतायतने तथा
।। १६ ।।
एकान्ते च शुचौ देशे जपेन्नियतमानसः
।
ब्रह्मचर्यधरो वीरो मिताहारो
जितेन्द्रियः ॥१७ ॥
इस प्रकार कलियुग में मन्त्र
इष्टसिद्धिप्रदायक शीघ्र होता है। गुरु को अपने वैभव के अनुसार दक्षिणा और
वस्त्रादि देकर प्रसन्न एवं सन्तुष्ट करे। इसके बाद साधक स्वयं बहुत से पुरश्चरण
करे। यह पुरश्चरण पर्वत के आगे, नदी के किनारे
या देवालय में करे। एकान्त पवित्र देश में नियत मन से जप करे पुरश्चरण काल में वीर
साधक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे। मिताहारी और जितेन्द्रिय रहे।। १५-१७।।
अनृतं मत्सरं दम्भं त्यजेत्
प्रतिग्रहं तथा ।
पुरश्चरणकाले तु तद्धोमावसरे तथा ।।
१८ ।।
मूलं जप्त्वैकलक्षं तु कृत्वा होमं
दशांशतः ।
साधकैः क्षत्रियेणापि दशांशं
होममाचरेत् ॥ १९ ॥
तर्पयेत् सुहितो देवीं भोजयेत्
साधकांस्ततः ।
पुरश्चर्याविधिश्चैष वर्णितः कुलसुन्दरि
॥ २० ॥
अनृत, मत्सर, दम्भ और प्रतिग्रह का त्याग जप और हवन के
अवसर पर करे। एक लाख मूल मन्त्र का जप करके उसका दशांश अर्थात् दश हजार हवन करें। क्षत्रिय
साधक भी दशांश हवन करे। हवन का दशांश तर्पण करे और उसके बाद साधकों को भोजन कराये
हे कुलसुन्दरि ! इस प्रकार यह पुरश्चरण की विधि का वर्णन किया गया ।।१८-२० ।।
देवीरहस्य पटल ५५- पुरश्चरणप्रकारान्तराणि
अथवान्यप्रकारेण पुरश्चरणमिष्यते ।
अष्टम्यां वा चतुर्दश्यां
पक्षयोरुभयोरपि ॥ २१ ॥
सूर्योदयात् समारभ्य यावत्
सूर्योदयो भवेत् ।
तावज्जप्त्वा निरातङ्को मन्त्रः
कल्पद्रुमो भवेत् ॥ २२ ॥
पुरश्चरण के अन्य प्रकार —
अब अन्य प्रकार के पुरश्चरण को कहता हूँ। दोनों पक्षों की अष्टमी या
चतुर्दशी तिथियों में सूर्योदय से लेकर अगले सूर्योदय तक मन्त्र का जप निर्भय होकर
करे तो मन्त्र कल्पद्रुमसदृश होता है ।। २१-२२ ।।
चन्द्रसूर्यग्रहे वापि ग्रासावधि
विमुक्तितः ।
यावत्
संख्यामनुर्जप्तस्तावद्धोमादिकं चरेत् ॥ २३ ॥
सर्वसिद्धीश्वरो मन्त्रो भवेत्
साधकवन्दिते ।
शरत्काले रवौ देवि जपेन्मन्त्रं
यथाविधि ॥ २४ ॥
निशीथे रचयेद्धोमं
क्षत्रन्यस्ताहुतिं शिवे ।
तत्क्षणात् साधको देवि क्षत्रियोऽपि
शुभं लभेत् ॥२५॥
चन्द्र या सूर्यग्रहण की ग्रास अवधि
से मोक्षकाल तक जितना जप करे, उतना ही हवन
करे। हे साधकवन्दिते! इससे मन्त्र सिद्धीश्वर होता है। शरत्काल के रविवार में
यथाविधि मन्त्र का जप करे। निशीथकाल में होम की रचना कर हस्त न्यस्ताहुति प्रदान
करे। उस क्षण से क्षत्रिय साधक भी शुभता लाभ करता है ।। २३-२५ ।।
अथवान्यप्रकारेण पुरश्चरणमिष्यते ।
गुरुमानीय संस्थाप्य देवतापूजनं
चरेत् ॥ २६ ॥
वस्त्रालङ्कारहेमाद्यैः सन्तोष्य
गुरुमेव च ।
तत्सुतं तत्सुतां चैव तस्य पत्नीं
तथैव च ॥ २७ ॥
पूजयित्वा मनुं जप्त्वा सर्वसिद्धीश्वरो
भवेत् ।
अथवा अन्य प्रकार के पुरश्चरण को
कहता हूँ। गुरु को लाकर आसन पर बैठाकर देवता का पूजन करे। गुरु को वस्त्र,
अलंकार, स्वर्णादि देकर सन्तुष्ट करे। गुरु के
न होने पर उसके पुत्र या उसकी पुत्री या उसकी पत्नी का पूजन करके मन्त्र का जप
करे। इससे साधक सिद्धियों का स्वामी हो जाता है ।। २६-२७।।
अथवान्यप्रकारेण पुरश्चरणमिष्यते ॥२८॥
सहस्त्रारे गुरोः पादपद्मं ध्यात्वा
प्रपूज्य च ।
केवलं देवभावेन सर्वसिद्धीश्वरो
भवेत् ॥ २९ ॥
गुरवे दक्षिणां दद्याद्
यथाविभवमात्मनः ।
गुरोरनुज्ञामात्रेण दुष्टमन्त्रोऽपि
सिद्ध्यति ॥३०॥
अथवा अन्य प्रकार से पुरश्चरण करे।
सहस्रार में गुरु के पादपद्मों का ध्यान करके पूजन करे। केवल देवीभाव से पूजन करे।
इससे साधक सभी सिद्धियों का स्वामी होता है। अपने वैभव के अनुसार गुरु को दक्षिणा
प्रदान करे। गुरु की अनुज्ञामात्र से दुष्ट मन्त्र भी सिद्ध होते है ।। २८-३०।।
देवीरहस्य पटल ५५- पटलोपसंहारः
इत्येष पटलो गुह्यो मन्त्रसारमयो
ध्रुवः ।
अप्रकाश्यो न दातव्यो नाख्येयो
ब्रह्मवादिभिः ॥ ३१ ॥
यह पटल मन्त्रसारमय है- यह निश्चित
है। इसे ब्रह्मवादियों को भी न तो बतलाना चाहिये न देना चाहिये और न ही उनसे कहना
चाहिये ।। ३१ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये पुरश्चर्याविधिनिरूपणं नाम पञ्चपञ्चाशत्तमः पटलः ॥५५॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में पुरश्चर्याविधि निरूपण नामक पञ्चपञ्चाशत्तम पटल
पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 56
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