अग्निपुराण अध्याय १६१
अग्निपुराण अध्याय १६१ में संन्यासी
के धर्म का वर्णन है।
अग्निपुराणम् एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 161
अग्निपुराण एक सौ इकसठवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः १६१
अग्निपुराणम् अध्यायः १६१ – यतिधर्मः
अथैकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
यतिर्धर्मं प्रवक्ष्यामि
ज्ञानमोक्षादिदर्शकं ।
चतुर्धमायुषो भागं प्राप्य
सङ्गात्परिवर्जयेत् ॥०१॥
यदह्नि विरजेद्धीरस्तदह्नि च
परिव्रजेत् ।
प्रजापत्यां निरूप्येष्टिं
सर्वदेवसदक्षिणां ॥०२॥
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य
प्रव्रजेद्ब्राह्मणो गृहात् ।
एक एव चरेन्नित्यं
ग्रासमन्नाथमाश्रयेत् ॥०३॥
उपेक्षकोऽसिञ्चयिको
मुनिर्ज्ञानसमन्वितः ।
कपालं वृक्षमूलञ्च कुचेलमसहायाता
॥०४॥
समता चैव सर्वस्मिन्नेतन्मुक्तस्य
लक्षणं ।
नाभिनन्देन मरणं नाभिनन्देत जीवनं
॥०५॥
पुष्कर कहते हैं- अब मैं ज्ञान और
मोक्ष आदि का साक्षात्कार करानेवाले संन्यास धर्म का वर्णन करूँगा। आयु के चौथे
भाग में पहुँचकर, सब प्रकार के सङ्ग से
दूर हो संन्यासी हो जाय। जिस दिन वैराग्य हो, उसी दिन घर
छोड़कर चल दे- संन्यास ले ले। प्राजापत्य इष्टि (यज्ञ) करके सर्वस्व की दक्षिणा दे
दे तथा आहवनीयादि अग्नियों को अपने-आपमें आरोपित करके ब्राह्मण घर से निकल जाय।
संन्यासी सदा अकेला ही विचरे। भोजन के लिये ही गाँव में जाय। शरीर के प्रति
उपेक्षाभाव रखे। अन्न आदि का संग्रह न करे। मननशील रहे। ज्ञान सम्पन्न होवे। कपाल
(मिट्टी आदि का खप्पर) ही भोजनपात्र हो, वृक्ष की जड़ ही
निवास स्थान हो, लँगोटी के लिये मैला-कुचैला वस्त्र हो,
साथ में कोई सहायक न हो तथा सबके प्रति समता का भाव हो-यह
जीवन्मुक्त पुरुष का लक्षण है। न तो मरने की इच्छा करे, न जीने
की - जीवन और मृत्यु में से किसी का अभिनन्दन न करे ॥ १-५ ॥
कालमेव प्रतीक्षेत निदेशं भृतको यथा
।
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं
जलं पिवेत् ॥०६॥
सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं
समाचरेत् ।
अलावुदारुपत्राणि मृण्मयं वैष्णवं
यतेः ॥०७॥
विधूमे न्यस्तमुषले व्यङ्गारे
भुक्तवज्जने ।
वृत्ते शरावसम्पाते भिक्षां नित्यं
यतिश्चरेत् ॥०८॥
मधूकरमसङ्क्लिप्तं
प्राक्प्रणीतमयाचितं ।
तात्कालिकञ्चोपपन्नं भैक्षं
पञ्चविधं स्मृतं ॥०९॥
पाणिपात्री भवेद्वापि पात्रे
पात्रात्समाचरेत् ।
अवेक्षेत गतिं नॄणां
कर्मदोषसमुद्भवां ॥१०॥
जैसे सेवक अपने स्वामी की आज्ञा की
प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार वह
प्रारब्धवश प्राप्त होनेवाले काल (अन्तसमय) की प्रतीक्षा करता रहे। मार्ग पर
दृष्टिपात करके पाँव रखे अर्थात् रास्ते में कोई कीड़ा-मकोड़ा, हड्डी, केश आदि तो नहीं है, यह
भलीभाँति देखकर पैर रखे। पानी को कपड़े से छानकर पीये। सत्य से पवित्र की हुईं वाणी
बोले । मन से दोष- गुण का विचार करके कोई कार्य करे। लौकी, काठ,
मिट्टी तथा बाँस – ये ही संन्यासी के पात्र
हैं। जब गृहस्थ के घर से धूआँ निकलना बंद हो गया हो, मुसल रख
दिया गया हो, आग बुझ गयी हो, घर के सब
लोग भोजन कर चुके हों और जूँठे शराव (मिट्टी के प्याले ) फेंक दिये गये हों,
ऐसे समय में संन्यासी प्रतिदिन भिक्षा के लिये जाय। भिक्षा पाँच
प्रकार की मानी गयी है-मधुकरी (अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा अन्न माँग लाना), असंक्लृप्त (जिसके विषय में पहले से कोई संकल्प या निश्चय न हो, ऐसी भिक्षा), प्राक्प्रणीत ( पहले से तैयार रखी हुई
भिक्षा), अयाचित (बिना माँगे जो अन्न प्राप्त हो जाय,
वह) और तत्काल उपलब्ध (भोजन के समय स्वतः प्राप्त ) । अथवा करपात्री
होकर रहे- अर्थात् हाथ ही में लेकर भोजन करे और हाथ में ही पानी पीये। दूसरे किसी
पात्र का उपयोग न करे। पात्रसे अपने हाथरूपी पात्रमें भिक्षा लेकर उसका उपयोग करे।
मनुष्यों की कर्मदोष से प्राप्त होनेवाली यमयातना और नरकपात आदि गति का चिन्तन करे
॥ ६-१० ॥
शुद्धभावश्चरेद्भर्मं यत्र
तत्राश्रमे रतः ।
समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं
धर्मकारणं ॥११॥
फलं कतकवृक्षस्य
यद्यप्यम्बुप्रसादकं ।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति
॥१२॥
अजिह्मः पण्डकः पङ्गुरन्धो बधिर एव
च ।
सद्भिश्च मुच्यते
मद्भिरज्ञानात्संसृतो द्विजः ॥१३॥
अह्नि रात्र्याञ्च यान् जन्तून्
हिनस्त्यज्ञानतो यतिः ।
तेषां स्नात्वा विशुद्ध्यर्थं
प्राणायामान् षडाचरेत् ॥१४॥
अस्थिस्थूणं स्नायुयुतं
मांसशोणितलेपनं ।
चर्मावनद्धं दुर्गन्धं पूर्णं
मूत्रपुरीषयोः ॥१५॥
जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरं ।
रजस्वलमनित्यञ्च
भूतावासमिमन्त्यजेत् ॥१६॥
जिस किसी भी आश्रम में स्थित रहकर
मनुष्य को शुद्धभाव से आश्रमोचित धर्म का पालन करना चाहिये। सब भूतों में समान भाव
रखे। केवल आश्रम-चिह्न धारण कर लेना ही धर्म का हेतु नहीं है (उस आश्रम के लिये
विहित कर्तव्य का पालन करने से ही धर्म का अनुष्ठान होता है) । निर्मली का फल
यद्यपि पानी में पड़ने पर उसे स्वच्छ बनानेवाला है, तथापि केवल उसका नाम लेनेमात्र से जल स्वच्छ नहीं हो जाता। इसी प्रकार
आश्रम के लिङ्ग धारणमात्र से लाभ नहीं होता, विहित धर्म का
अनुष्ठान करना चाहिये। अज्ञानवश संसार- बन्धन में बँधा हुआ द्विज लँगड़ा, लूला, अंधा और बहरा क्यों न हो, यदि कुटिलतारहित संन्यासी हो जाय तो वह सत् और असत् - सबसे मुक्त हो जाता
है। संन्यासी दिन या रात में बिना जाने जिन जीवों की हिंसा करता है, उनके वधरूप पाप से शुद्ध होने के लिये वह स्नान करके छः बार प्राणायाम करे
। यह शरीररूपी गृह हड्डीरूपी खंभों से युक्त है, नाडीरूप
रस्सियों से बँधा हुआ है, मांस तथा रक्त से लिपा हुआ और चमड़ेसे
छाया गया है। यह मल और मूत्र से भरा हुआ होने के कारण अत्यन्त दुर्गन्धपूर्ण है।
इसमें बुढ़ापा तथा शोक व्याप्त हैं। यह अनेक रोगों का घर और भूख-प्यास से आतुर
रहनेवाला है। इसमें रजोगुण का प्रभाव अधिक है। यह अनित्य- विनाशशील एवं पृथिवी आदि
पाँच भूतों का निवास स्थान है; विद्वान् पुरुष इसे त्याग दे-
अर्थात् ऐसा प्रयत्न करे, जिससे फिर देह के बन्धन में न आना
पड़े ॥ ११ - १६ ॥
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
ह्रीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं
धर्मलक्षणं ॥१७॥
चतुर्विधं भैक्षवस्तु कुटीरकवहूदके
।
हंसः परमहंसश्च यो यः पश्चात्स उत्तमः
॥१८॥
एकदण्डी त्रिदण्डी वा योगी मुच्यते
बन्धनात् ।
अहिंसा सत्यमस्तेयं
ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ ॥१९॥
यमाः पञ्चाथ नियमाः शौचं
सन्तोषणन्तपः ।
स्वाध्यायेश्वरपूजा च पद्मकाद्यासनं
यतेः ॥२०॥
धृति, क्षमा, दम (मनोनिग्रह), चोरी न
करना, बाहर-भीतर से पवित्र रहना, इन्द्रियों
को वश में रखना, लज्जा*,
विद्या, सत्य तथा अक्रोध( क्रोध न करना) – ये धर्म के दस लक्षण हैं। संन्यासी
चार प्रकार के होते हैं-कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस । इनमें जो-जो पिछला है, वह पहले की
अपेक्षा उत्तम है। योगयुक्त संन्यासी पुरुष एकदण्डी हो या त्रिदण्डी, वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। अहिंसा, सत्य,
अस्तेय ( चोरी का(अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( संग्रह न रखना) - ये पाँच 'यम' हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की आराधना ये पाँच 'नियम' हैं। योगयुक्त संन्यासी के लिये इन सबका पालन
आवश्यक है। पद्मासन आदि आसनों से उसको बैठना चाहिये ॥ १७- २० ॥
* मनुस्मृति में 'ह्रौ:' के स्थान में 'धी:'
पाठ है 'धी' का अर्थ
है-शास्त्र आदि के तत्त्वत्का ज्ञान।
प्राणायामस्तु द्विविधः स
गर्भोऽगर्भ एव च ।
जपध्यानयुतो गर्भो
विपरीतस्त्वगर्भकः ॥२१॥
प्रत्येकं त्रिविधं सोपि
पूरकुम्भकरेचकैः ।
पूरणात्पूरको वायोर्निश्चलत्वाच्च
कुम्भकः ॥२२॥
रेचनाद्रेचकः प्रोक्तो मात्राभेदेन
च त्रिधा ।
द्वादशात्तु चतुर्विंशः
षट्त्रिंशन्मात्रिकोऽपरः ॥२३॥
तालो लघ्वक्षरो मात्रा प्रणवादि
चरेच्छनैः ।
प्रत्याहारो जापकानां
ध्यानमीश्वरचिन्तनं ॥२४॥
मनोधृतिर्धारणा
स्यात्समाधिर्ब्रह्मणि स्थितिः ।
प्राणायाम दो प्रकार का है- एक 'सगर्भ' और दूसरा 'अगर्भ'
मन्त्रजप और ध्यान से युक्त प्राणायाम 'सगर्भ'
कहलाता है और इसके विपरीत जप ध्यानरहित प्राणायाम को 'अगर्भ' कहते हैं। पूरक, कुम्भक
तथा रेचक के भेद से प्राणायाम तीन प्रकार का होता है। वायु को भीतर भरने से 'पूरक' प्राणायाम होता है, उसे
स्थिरतापूर्वक रोकने से 'कुम्भक' होता
है और फिर उस वायु को बाहर निकालने से 'रेचक' प्राणायाम कहा गया है। मात्राभेद से भी वह तीन प्रकार का है- बारह मात्रा का,
चौबीस मात्रा का तथा छत्तीस मात्रा का इसमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है।
ताल या हृस्व अक्षर को 'मात्रा' कहते
हैं। प्राणायाम में 'प्रणव' आदि मन्त्र
का धीरे-धीरे जप करे। इन्द्रियों के संयम को 'प्रत्याहार'
कहा गया है। जप करनेवाले साधकों द्वारा जो ईश्वर का चिन्तन किया
जाता है, उसे 'ध्यान' कहते हैं; मन को धारण करने का नाम 'धारणा' है; ब्रह्म में स्थिति को
'समाधि' कहते हैं । २१ – २४अ ॥
अयमात्मा परं ब्रह्म सत्यं
ज्ञानमनन्तकं ॥२५॥
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म
तत्त्वमस्य.अहमस्मि तत् ।
परं ब्रह्म ज्योतिरात्मा वासुदेवो
विमुक्त ओं ॥२६॥
देहेन्द्रियमनोबुद्धिप्राणाहङ्कारवर्जितं
।
जाग्रत्स्वप्नसुसुप्त्यादिमुक्तं
ब्रह्म तुरोयकं ॥२७॥
नित्यशुद्धबुद्धयुक्तसत्यमानन्दमद्वयं
।
अहं ब्रह्म परं ज्योतिरक्षरं सर्वगं
हरिः ॥२८॥
सोऽसावादित्यपुरुषः सोऽसावहमखण्ड ओं
।
'यह आत्मा परब्रह्म है:
ब्रह्म-सत्य, ज्ञान और अनन्त है; ब्रह्म
विज्ञानमय तथा आनन्दस्वरूप है; वह ब्रह्म तू है; वह ब्रह्म मैं हूँ; परब्रह्म परमात्मा प्रकाशस्वरूप
है; वही आत्मा है, वासुदेव है, नित्यमुक्त है; वही 'ओ३म्'
शब्दवाच्य सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है; देह,
इन्द्रिय, मन, बुद्धि,
प्राण और अहंकार से रहित तथा जाग्रत्, स्वप्न एवं
सुषुप्ति आदि से मुक्त जो तुरीय तत्त्व है, वही ब्रह्म है;
वह नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप है; सत्य,
आनन्दमय तथा अद्वैतरूप है; सर्वत्र व्यापक,
अविनाशी ज्योतिःस्वरूप परब्रह्म ही श्रीहरि है और वह मैं हूँ;
आदित्यमण्डल में जो वह ज्योतिर्मय पुरुष है, वह
अखण्ड प्रणववाच्य परमेश्वर मैं हूँ' - इस प्रकार का सहज बोध
ही ब्रह्म में स्थिति का सूचक है । २५ – २८अ ॥
सर्वारम्भपरित्यागी समदुःखसुखं
क्षमी ॥२९॥
भावशुद्धश्च ब्रह्माण्डं भित्त्वा
ब्रह्म भवेन्नरः ।
आषढ्यां पौर्णमास्याञ्च चातुर्मास्यं
व्रतञ्चरेत् ॥३०॥
ततो ज्रजेत्नवम्यादौ ह्यृतुसन्धिषु
वापयेत् ।
प्रायश्चित्तं यतीनाञ्च ध्यानं
वायुयमस्तथा ॥३१॥
जो सब प्रकार के आरम्भ का त्यागी
है- अर्थात् जो फलासक्ति एवं अहंकारपूर्वक किसी कर्म का आरम्भ नहीं
करता-कर्तृत्वाभिमान से शून्य होता है, दुःख-सुख
में समान रहता है, सबके प्रति क्षमाभाव रखनेवाला एवं सहनशील
होता है, वह भावशुद्ध ज्ञानी मनुष्य ब्रह्माण्ड का भेदन करके
साक्षात् ब्रह्म हो जाता है। यति को चाहिये कि वह आषाढ़ की पूर्णिमा को
चातुर्मास्यव्रत प्रारम्भ करे। फिर कार्तिक शुक्ला नवमी आदि तिथियों से विचरण करे
। ऋतुओं की संधि के दिन मुण्डन करावे। संन्यासियों के लिये ध्यान तथा प्राणायाम ही
प्रायश्चित्त है ।। २९ - ३१ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे यतिर्धर्मा
नामैकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'यतिधर्म का वर्णन' नामक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ १६१ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 162
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