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अथ पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
मन्वन्तराणि वक्ष्यामि आद्याः
स्वायम्भुवो मनुः ।
अग्नीध्राद्यास्तस्य सुता यमो नाम
तदा सुराः ॥१॥
और्वाद्याश्च सप्तर्षय इन्द्रश्चैव
शतक्रतुः ।
पारावताः सतुषिता देवाः
स्वारोचिषेऽन्तरे ॥२॥
विपश्चित्तत्र देवेन्द्र
ऊर्जस्तम्भादयो द्विजाः ।
चैत्रकिम्पुरुषाः
पुत्रास्तृतीयश्चोत्तोतमो मनुः ॥३॥
सुशान्तिरिन्द्रो देवाश्च
सुधामाद्या वशिष्ठजाः ।
सप्तर्षयोऽजाद्याः
पुत्राश्चतुर्थस्तामसी मनुः ॥४॥
स्वरूपाद्याः सुरगणाः शिखिरिन्द्रः
सुरेश्वरः ।
ज्योतिर्धामादयो विप्रा नव ख्यातिमुखाः
सुताः ॥५॥
अग्निदेव कहते हैं- अब मैं
मन्वन्तरों का वर्णन करूँगा। सबसे प्रथम स्वायम्भुव मनु हुए हैं। उनके आग्नीध्र
आदि पुत्र थे। स्वायम्भुव मन्वन्तर में यम नामक देवता,
और्व आदि सप्तर्षि तथा शतक्रतु इन्द्र थे। दूसरे मन्वन्तर का नाम
था- स्वारोचिष; उसमें पारावत और तुषित नामधारी देवता थे।
स्वरोचिष मनु के चैत्र और किम्पुरुष आदि पुत्र थे। उस समय विपश्चित् नामक इन्द्र
तथा उर्जस्वन्त आदि द्विज (सप्तर्षि) थे। तीसरे मनु का नाम उत्तम हुआ; उनके पुत्र अज आदि थे। उनके समय में सुशान्ति नामक इन्द्र, सुधामा आदि देवता तथा वसिष्ठ के पुत्र सप्तर्षि थे। चौथे मनु तामस नाम से
विख्यात हुए; उस समय स्वरूप आदि देवता, शिखरी इन्द्र, ज्योतिर्होम आदि ब्राह्मण (सप्तर्षि)
थे तथा उनके ख्याति आदि नौ पुत्र हुए ॥ १-५ ॥
रैवते वितथश्चेन्द्रो अमिताभास्तथा
सुराः ।
हिरण्यरोमाद्या मुनयो बलबन्धादयः
सुताः ॥६॥
मनोजवश्चाक्षुषेऽथ इन्द्रः
स्वात्यादयः सुराः ।
सुमेधाद्या महर्षयः पुरुप्रभृतयः
सुताः ॥७॥
विवस्वतः सुतो विप्रः श्राद्धदेवो
मनुस्ततः ।
आदित्यवसुरुद्राद्या देवा इन्द्रः
पुरन्दरः ॥८॥
वशिष्ठः काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निः
सगोतमः ।
विश्वामित्रभरद्वाजौ मुनयः सप्त
साम्प्रतं ॥९॥
इक्ष्वाकुप्रमुखाः पुत्रा अंशेन
हरिराभवत् ।
स्वायम्भुवे मानसोऽभूदजितस्तदनन्तरे
॥१०॥
सत्यो हरिर्देवदरो वैकुण्ठो वामनः
क्रमात् ।
छायाजः सूर्यपुत्रस्तु भविता
चाष्टमो मनुः ॥११॥
रैवत नामक पाँचवें मन्वन्तर में
वितथ इन्द्र, अमिताभ देवता, हिरण्यरोमा आदि मुनि तथा बलबन्ध आदि पुत्र थे। छठे चाक्षुष मन्वन्तर में
मनोजव नामक इन्द्र और स्वाति आदि देवता सुमेधा आदि महर्षि और पुरु आदि मनु-पुत्र
थे। तत्पश्चात् सातवें मन्वन्तर में सूर्यपुत्र श्राद्धदेव मनु हुए। इनके समय में
आदित्य, वसु तथा रुद्र आदि देवता; पुरन्दर
नामक इन्द्र, वसिष्ठ, काश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र तथा भरद्वाज सप्तर्षि हैं। यह वर्तमान मन्वन्तर का वर्णन है।
वैवस्वत मनु के इक्ष्वाकु आदि पुत्र थे। इन सभी मन्वन्तरों में भगवान् श्रीहरि के
अंशावतार हुए हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर में भगवान् 'मानस'
के नाम से प्रकट हुए थे। तदनन्तर शेष छः मन्वन्तरों में क्रमश: अजित,
सत्य, हरि, देववर,
वैकुण्ठ और वामन रूप में श्रीहरि का प्रादुर्भाव हुआ। छाया के गर्भ
से उत्पन्न सूर्यनन्दन सावर्णि आठवें मनु होंगे॥६-११॥
पूर्वस्य च सवर्णोऽसौ
सावर्णिर्भविताष्टमः ।
सुतपाद्या देवगणा
दीप्तिमद्द्रौणिकादयः ॥१२॥
मुनयो बलिरिन्द्रश्च विरजप्रमुखाः
सुताः ।
नवमो दक्षसावर्णिः पाराद्याश्च तदा
सुराः ॥१३॥
इन्द्रश्चैवाद्भुतस्तेषां सवनाद्या
द्विजोत्तमाः ।
धृतकेत्वादयः पुत्रा
ब्रह्मसावर्णिरित्यतः ॥१४॥
सुखादयो देवगणास्तेषां शान्तिः
शतक्रतुः ।
हविष्याद्याश्च मुनयः
सुक्षेत्राद्याश्च तत्सुताः ॥१५॥
वे अपने पूर्वज (ज्येष्ठ भ्राता)
श्राद्धदेव के समान वर्णवाले हैं, इसलिये 'सावर्णि' नाम से विख्यात होंगे। उनके समय में सुतपा
आदि देवता, परम तेजस्वी अश्वत्थामा आदि सप्तर्षि, बलि इन्द्र और विरज आदि मनुपुत्र होंगे। नवें मनु का नाम दक्षसावर्णि
होगा। उस समय पार आदि देवता होंगे। उन देवताओं के इन्द्र की 'अद्भुत' संज्ञा होगी। उनके समय में सवन आदि श्रेष्ठ
ब्राह्मण सप्तर्षि होंगे और 'धृतकेतु' आदि
मनुपुत्र । तत्पश्चात् दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि के नाम से प्रसिद्ध होंगे। उस समय
सुख आदि देवगण, शान्ति इन्द्र, हविष्य
आदि मुनि तथा सुक्षेत्र आदि मनुपुत्र होंगे ॥ १२-१५॥
धर्मसावर्णिकश्चाथ विहङ्गाद्यास्तदा
सुराः ।
गणेशश्चेन्द्रो नश्चराद्या मुनयः
पुत्रकामयोः ॥१६॥
सर्वत्रगाद्या रुद्राख्यः सावर्णिभविता
मनुः ।
ऋतधामा सुरेन्द्रश्च हरिताद्याश्च
देवताः ॥१७॥
तपस्याद्याः सप्तर्षयः सुता वै
देववन्मुखाः ।
मनुस्त्रयोदशो रौच्यः सुत्रामाणादयः
सुराः ॥१८॥
इन्द्रो दिवस्पतिस्तेषां
दानवादिविमर्दनः ।
निर्मोहाद्याः
सप्तर्षयश्चित्रसेनादयः सुताः ॥१९॥
मनुश्चतुर्दशो भौत्यः शुचिरिन्द्रो
भविष्यति ।
चाक्षुषाद्याः सुरगणा
अग्निबाह्णादयो द्विजाः ॥२०॥
चतुर्दशस्य भौत्यस्य पुत्रा ऊरुमुखा
मनोः ।
तदनन्तर धर्मसावर्णि नामक ग्यारहवें
मनु का अधिकार होगा। उस समय विहङ्ग आदि देवता, गण
इन्द्र, निश्वर आदि मुनि तथा सर्वत्रग आदि मनुपुत्र होंगे।
इसके बाद बारहवें मनु रुद्रसावर्णि के नाम से विख्यात होंगे। उनके समय में ऋतधामा
नामक इन्द्र और हरित आदि देवता होंगे। तपस्य आदि सप्तर्षि और देववान् आदि मनुपुत्र
होंगे। तेरहवें मनु का नाम होगा रौच्य। उस समय सूत्रामणि आदि देवता तथा दिवस्पति
इन्द्र होंगे, जो दानव दैत्य आदि का मर्दन करनेवाले होंगे।
रौच्य मन्वन्तर में निर्मोह आदि सप्तर्षि तथा चित्रसेन आदि मनुपुत्र होंगे।
चौदहवें मनु भौत्य के नाम से प्रसिद्ध होंगे। उनके समय में शुचि इन्द्र, चाक्षुष आदि देवता तथा अग्निबाहु आदि सप्तर्षि होंगे। चौदहवें मनु के
पुत्र ऊरु आदि के नाम से विख्यात होंगे ॥ १६ – २०अ ॥
प्रवर्तयन्ति वेदांश्च भुवि
सप्तर्षयो दिवः ॥२१॥
देवा यज्ञभुजस्ते तु भूः पुत्रैः
परिपाल्यते ।
ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन्मनवस्तु
चतुर्दश ॥२२॥
मन्वाद्याश्च हरिर्वेदं द्वापरान्ते
विभेद सः ।
आद्यो वेदश्चतुष्पादः शतसाहस्रसम्मितः
॥२३॥
एकश्चासीद्यजुर्वेदस्तं चतुर्धा
व्यकल्पयत् ।
आध्वर्यवं यजुर्भिस्तु
ऋग्भिर्होत्रं तथा मुनिः ॥२४॥
औद्गात्रं सामभिओश्चक्रे
ब्रह्मत्वञ्चाप्यथर्वभिः ।
प्रथमं व्यासशिष्यस्तु पैलो
ह्यृग्वेदपारगः ॥२५॥
सप्तर्षि द्विजगण भूमण्डल पर वेदों का
प्रचार करते हैं, देवगण यज्ञ-भाग के
भोक्ता होते हैं तथा मनुपुत्र इस पृथ्वी का पालन करते हैं। ब्रह्मन् ! ब्रह्मा के
एक दिन में चौदह मनु होते हैं। मनु, देवता तथा इन्द्र आदि भी
उतनी ही बार होते हैं। प्रत्येक द्वापर के अन्त में व्यासरूपधारी श्रीहरि वेद का
विभाग करते हैं। आदि वेद एक ही था, जिसमें चार चरण और एक लाख
ऋचाएँ थीं। पहले एक ही यजुर्वेद था, उसे मुनिवर व्यासजी ने चार
भागों में विभक्त कर दिया। उन्होंने अध्वर्यु का काम यजुर्भाग से, होता का कार्य ऋग्वेद की ऋचाओं से, उद्गाता का कर्म
साम-मन्त्रों से तथा ब्रह्मा का कार्य अथर्ववेद के मन्त्रों से होना निश्चित किया।
व्यास के प्रथम शिष्य पैल थे, जो ऋग्वेद के पारंगत पण्डित
हुए।२१ - २५॥
इन्द्रः प्रमतये प्रादाद्वास्कलाय च
संहितां ।
बौध्यादिभ्यो ददौ सोपि चतुर्धा
निजसंहितां ॥२६॥
यजुर्वेदतरोः शाखाः
सप्तविंशन्महामतिः ।
वैशम्पायननामासौ व्यासशिष्यश्चकार
वै ॥२७॥
काण्वा वाजसनेयाद्या
याज्ञवल्क्यादिभिः स्मृताः ।
सामवेदतरोः शाखा व्यासशिष्यः
सजैमिनिः ॥२८॥
सुमन्तुश्च सुकर्मा च एकैकां
संहितां ततः ।
गृह्णते च सुकर्माख्यः सहस्रं
संहितां गुरुः ॥२९॥
सुमन्तुश्चाथर्वतरुं व्यासशिष्यो
विभेद तं ।
शिष्यानध्यापयामास पैप्यलादान्
सहस्रशः ॥३०॥
पुराणसंहितां चक्रे सुतो
व्यासप्रसादतः ॥३१॥
इन्द्र ने प्रमति और बाष्कल को
संहिता प्रदान की। बाष्कल ने भी बौध्य आदि को चार भागों में विभक्त अपनी संहिता
दी। व्यासजी के शिष्य परम बुद्धिमान् वैशम्पायन ने यजुर्वेदरूप वृक्ष की सत्ताईस
शाखाएँ निर्माण कीं । काण्व और वाजसनेय आदि शाखाओं को याज्ञवल्क्य आदि ने सम्पादित
किया है। व्यास- शिष्य जैमिनि ने सामवेदरूपी वृक्ष की शाखाएँ बनायीं। फिर सुमन्तु
और सुकर्मा ने एक- एक संहिता रची। सुकर्मा ने अपने गुरु से एक हजार संहिताओं को
ग्रहण किया। व्यास शिष्य सुमन्तु ने अथर्ववेद की भी एक शाखा बनायी तथा उन्होंने
पैप्पल आदि अपने सहस्रों शिष्यों को उसका अध्ययन कराया। भगवान् व्यासदेवजी की कृपा
से सूत ने पुराण-संहिता का विस्तार किया ॥ २६-३१ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे मन्वन्तराणि
नाम पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'मन्वन्तरों का वर्णन नामक एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१५०॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 151
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