अग्निपुराण अध्याय १५८
अग्निपुराण अध्याय १५८ में गर्भस्त्राव
आदि सम्बन्धी अशौच का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 158
अग्निपुराण एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः १५८
अग्निपुराणम् अध्यायः १५८ – स्रावाद्याशौचं
अथाष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
स्रावाशौचं प्रवक्ष्यामि
मन्वादिमुनिसम्मतं ।
रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे
त्र्यहेण या ॥१॥
चातुर्मासिकपातान्ते दशाहं
पञ्चमासतः ।
राजन्ये च चतूरात्रं वैश्ये
पञ्चाहमेव च ॥२॥
अष्टाहेन तु शूद्रस्य द्वादशाहादतः
परं ।
स्त्रीणां विशुद्धिरुदिता
स्नानमात्रेण वै पितुः ॥३॥
पुष्कर कहते हैं—
अब मैं मनु आदि महर्षियों के मत के अनुसार गर्भस्राव जनित अशौच का
वर्णन करूँगा। चौथे मास के स्राव तथा पाँचवें, छठे मास के
गर्भपाततक यह नियम है कि जितने महीने पर गर्भस्खलन हो, उतनी
ही रात्रियों के द्वारा अथवा तीन रात्रियों के द्वारा स्त्रियों की शुद्धि होती
है।* सातवें मास से
दस दिन का अशौच होता है। (प्रथम से तीसरे मासतक के गर्भस्राव
में ब्राह्मण के लिये तीन राततक अशुद्धि रहती है।*)
क्षत्रिय के लिये चार रात्रि, वैश्य के लिये पाँच दिन तथा
शूद्र के लिये आठ दिनतक अशौच का समय है। सातवें मास से अधिक होने पर सबके लिये
बारह दिनों की अशुद्धि होती है। यह अशौच केवल स्त्रियों के लिये कहा गया है।
तात्पर्य यह कि माता ही इतने दिनों तक अशुद्ध रहती है। पिता की शुद्धि तो
स्नानमात्र से हो जाती है* ॥ १-३ ॥
* १.मनुस्मृति में लिखा है 'रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भशावे
विशुद्धयति' (५। ६६) इसकी टीका में कुल्लूकभट्ट ने कहा
है-तृतीयमासात्प्रभृति गर्भसावे गर्भमास्तुल्याहोरात्रैातुर्वर्ण्यस्त्री
विशुद्ध्यति । अर्थात् तीसरे महीने से लेकर गर्भस्राव होनेपर जितने महीने का गर्भ
हो, उतने दिन-रात में चारों वर्णों की स्त्रियाँ शुद्ध होती
हैं।' कुल्लूकभट्ट ने यह नियम छः महीनेतक के लिये बताया है
और इसकी पुष्टि में आदिपुराण का निम्नाङ्कित श्लोक उद्धृत किया है पण्मासाभ्यन्तरं
यावद् गर्भस्रावो भवेद् यदि तदा माससमैस्तासां दिवसः शुद्धिरिष्यते ॥' मिताक्षराकार ने स्मृतिवचन का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि 'चौथे मासतक जो गर्भस्खलन होता है, वह 'स्राव' है और पाँचवें, छठे मास
में जो स्राव होता है, उसे 'पात'
कहते हैं इसके ऊपर 'प्रसव' कहलाता है। यथा-आ चतुर्थाद् भवेत्स्त्रावः पातः पञ्चमषष्ठयोः । अत ऊर्ध्य
प्रसूतिः स्यात्।' गर्भस्रावे मासतुल्या निशा:' इत्यादि वचन द्वारा याज्ञवल्क्यजी ने भी उपर्युक्त मत को ही व्यक्त किया
है। त्रिरात्र का नियम तीन मासतक ही लागू होता है।
* २. 'अत ऊर्ध्वं तु जात्युक्तमाशौचं
तासु विद्यते।' (आदिपुराण) छठे मास के बाद से अर्थात् सातवें
मास से स्त्रियों को पूर्णजननाशीच (दस या बारह दिन का) लगता है। तीन मास के अंदर
जो स्राव होता है, उसको 'अचिरस्राव'
कहा गया है उसमें मरीचिका मत इस प्रकार है – 'गर्भलुत्यां
यथामासमचिरे तूतमे जयः । राजन्ये तु चतू रात्रं वैश्ये पञ्चाहमेव च। अष्टाहेन तु
शूद्रस्य शुद्धिरेषा प्रकीर्तिता। इन श्लोकों का भाव मूल के अनुवाद में आ गया है।
* ३. मरीचि के मत में माता को मास-संख्या के अनुसार और पिता आदि को तीन
दिन का अशीच होता है। यह अशौच केवल गर्भपात को लक्ष्य करके कहा गया है।
जन्मसम्बन्धी सूतक को पूरा ही लगता है। इसमें 'जातमृते मृतजाते वा सपिण्डानां दशाहम्।' यह 'हारोत-स्मृति का वचन प्रमाण है।
न स्नानं हि सपिण्डे
स्यात्त्रिरात्रं सप्तमाष्टयोः ।
सद्यः शौचं
सपिण्डानामादन्तजननात्तथा ॥४॥
आचूडादेकरात्रं स्यादाव्रताच्च
त्रिरात्रकं ।
दशरात्रं
भवेदस्मान्मातापित्रोस्त्रिरात्रकं ॥५॥
अजातदन्ते तु मृते कृतचूडेऽर्भके
तथा ।
प्रेते न्यूने त्रिभिर्वर्षैर्मृते
शुद्धिस्तु नैशिल्की ॥६॥
जो सपिण्ड पुरुष हैं,
उन्हें छः मासतक सद्य:- शौच (तत्काल शुद्धि) रहता है। उनके लिये स्नान
भी आवश्यक नहीं है। किंतु सातवें और आठवें मास के गर्भपात में सपिण्ड पुरुषों को
भी त्रिरात्र अशौच लगता है। जितने समय में दाँत निकलते हैं, उतने
मासतक यदि बालक की मृत्यु हो जाय तो सपिण्ड पुरुषों को तत्काल शुद्धि प्राप्त होती
है। चूडाकरण के पहले मृत्यु होने पर उन्हें एक रात का अशौच लगता है। यज्ञोपवीत के
पूर्व बालक का देहावसान होने पर सपिण्डों को तीन राततक अशौच प्राप्त होता है। इसके
बाद मृत्यु होने पर सपिण्ड पुरुषों को दस रात का अशौच लगता है। दाँत निकलने के
पूर्व बालक की मृत्यु होने पर माता-पिता को तीन रात का अशौच प्राप्त होता है।
जिसका चूडाकरण न हुआ हो, उस बालक की मृत्यु होने पर भी माता-
पिता को उतने ही दिनों का अशौच प्राप्त होता है। तीन वर्ष से कम की आयु में
ब्राह्मण-बालक की मृत्यु हो (और चूडाकरण न हुआ हो तो सपिण्डों की शुद्धि एक रात में
होती है* ॥ ४-६ ॥
* नृणामकृतचूडानां विशुद्धिनैशिकी स्मृता'
(मनु० ५। ६७)
द्व्यहेण क्षत्रिये
शुद्धिस्त्रिभिर्वैश्ये मृते तथा ।
शुद्धिः शूद्रे पञ्चभिः
स्यात्प्राग्विवाहद्द्विषट्त्वहः ॥७॥
यत्र त्रिरात्रं विप्राणामशौचं
सम्प्रदृश्यते ।
तत्र शूद्रे द्वादशाहः षण्णव क्षत्रवैशय्योः
॥८॥
द्व्यब्दे नैवाग्निसंस्कारो मृते
तन्निखनेद्भुवि ।
न चोदकक्रिया तस्य नाम्नि चापि कृते
सति ॥९॥
जातदन्तस्य वा कार्या
स्यादुपनयनाद्दश ।
एकाहाच्छुद्ध्यते विप्रो
योऽग्निवेदसमन्वितः ॥१०॥
हीने हीनतरे चैव त्र्यहश्चतुरहस्तथा
।
पञ्चाहेनाग्निहीनस्तु दशाहाद्ब्राह्मणव्रुवः
॥११॥
क्षत्रिय – बालक के मरने पर उसके
सपिण्डों की शुद्धि दो दिन पर, वैश्य- बालक के
मरने से उसके सपिण्डों की तीन दिन पर और शूद्र बालक की मृत्यु हो तो उसके सपिण्डों
की पाँच दिन पर शुद्धि होती है। शूद्र बालक यदि विवाह के पहले मृत्यु को प्राप्त
हो तो उसे बारह दिन का अशौच लगता है। जिस अवस्था में ब्राह्मण को तीन रात का अशौच
देखा जाता है, उसी में शूद्रके लिये बारह दिन का अशौच लगता
है; क्षत्रिय के लिये छः दिन और वैश्य के लिये नौ दिनों का
अशौच लगता है। दो वर्ष के बालक का अग्नि द्वारा दाहसंस्कार नहीं होता। उसकी मृत्यु
होने पर उसे धरती में गाड़ देना चाहिये। उसके लिये बान्धवों को उदक-क्रिया
(जलाञ्जलि-दान) नहीं करनी चाहिये। अथवा जिसका नामकरण हो गया हो या जिसके दाँत निकल
आये हों; उसका दाह संस्कार तथा उसके निमित्त जलाञ्जलि-दान
करना चाहिये।* उपनयन के पश्चात् बालक की
मृत्यु हो तो दस दिन का अशौच लगता है। जो प्रतिदिन अग्निहोत्र तथा तीनों वेदों का
स्वाध्याय करता है, ऐसा ब्राह्मण एक दिन में ही शुद्ध हो
जाता है।* जो उससे हीन और हीनतर है,
अर्थात् जो दो अथवा एक वेद का स्वाध्याय करनेवाला है, उसके लिये तीन एवं चार दिन में शुद्ध होने का विधान है। जो अग्निहोत्रकर्म
से रहित हैं, वह पाँच दिन में शुद्ध होता है जो केवल 'ब्राह्मण' नामधारी है (वेदाध्ययन या अग्निहोत्र नहीं
करता), वह दस दिन में शुद्ध होता है ॥ ७-११ ॥
* १.यहाँ दो वर्ष की आयुवाले बालक के दाहसंस्कार तथा उसके निमित्त
जलाञ्जलि-दान का निषेध भी मिलता है और विधान भी। अतः यह समझना चाहिये कि किया जाय
तो उससे मृत जीव का उपकार होता है और न किया जाय तो भी बान्धवों को कोई दोष नहीं लगता।
(मनु० ५॥७० की 'मन्वर्थमुक्तावली'
टीका देखें ।)
* २. मनु की प्राचीन पोथियों में इसी आशय का श्लोक था, जिसका उल्लेख प्रायश्चित्ताध्याय के आशौच- प्रकरण
२८-२९ श्लोकों की मिताक्षरा में किया गया है। यह विधान केवल स्वाध्याय और
अग्निहोत्र की सिद्धि के लिये है। संध्यावन्दन और अन्न-भोजन आदि के योग्य शुद्धि
तो दस दिन के बाद ही होती है। जैसा कि यम आदि का वचन है- 'उभयत्र
दशाहानि कुलस्यानं न भुज्यते।' इत्यादि।
क्षत्रियो
नवसप्ताहच्छुद्ध्येद्विप्रो गुणैर्युतः ।
दशाहात्सगुणो वैश्यो विंशाहाच्छूद्र
एव च ॥१२॥
दशाहाच्छुद्ध्यते विप्रो द्वादशाहेन
भूमिपः ।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन
शुद्ध्यति ॥१३॥
गुणोत्कर्षे दशाहाप्तौ
त्र्यहमेकाहकं त्र्यहे ।
एकाहाप्तौ सद्यः शौचं सर्वत्रैवं
समूहयेत् ॥१४॥
दासान्तेवासिभृतकाः शिष्याश्चैवात्र
वासिनः ।
स्वामितुल्यमशौचं स्यान्मृते
पृथक्पृथग्भवेत् ॥१५॥
मरणादेव कर्तव्यं संयोगो यस्य
नाग्निभिः ।
दाहादूर्ध्वमशौचं स्याद्यस्य
वैतानिको विधिः ॥१६॥
गुणवान् ब्राह्मण सात दिन पर शुद्ध
होता है,
गुणवान् क्षत्रिय नौ दिन में, गुणवान् वैश्य
दस दिन में और गुणवान् शूद्र बीस दिन में शुद्ध होता है। साधारण ब्राह्मण दस दिन में,
साधारण क्षत्रिय बारह दिन में, साधारण वैश्य
पंद्रह दिन में और साधारण शूद्र एक मास में शुद्ध होता है। गुणों की अधिकता होने पर,
यदि दस दिन का अशौच प्राप्त हो तो वह तीन ही दिनतक रहता है, तीन दिनोंतक का अशौच प्राप्त हो तो वह एक दिन रहता है तथा एक दिन का अशौच
प्राप्त हो तो उसमें तत्काल ही शुद्धि का विधान है। इसी प्रकार सर्वत्र ऊहा कर
लेनी चाहिये। दास, छात्र, भृत्य और
शिष्य – ये यदि अपने स्वामी अथवा गुरु के साथ रहते हों तो
गुरु अथवा स्वामी की मृत्यु होने पर इन सबको स्वामी एवं गुरु के कुटुम्बी- जनों के
समान ही पृथक् पृथक् अशौच लगता है। जिसका अग्नि से संयोग न हो अर्थात् जो
अग्निहोत्र न करता हो, उसे सपिण्ड पुरुषों की मृत्यु होने के
बाद ही तुरंत अशौच लगता है; परंतु जिसके द्वारा नित्य
अग्निहोत्र का अनुष्ठान होता हो, उस पुरुष को किसी कुटुम्बी
या जाति-बन्धु की मृत्यु होने पर जब उसका दाह संस्कार सम्पन्न हो जाता है, उसके बाद अशौच प्राप्त होता है ॥ १२-१६ ॥
सर्वेषामेव
वर्णानान्त्रिभागात्स्पर्शनम्भवेत् ।
त्रिचतुःपञ्चदशभिः स्पृश्यवर्णाः
क्रमेण तु ॥१७॥
चतुर्थे पञ्चमे चैव सप्तमे नवमे तथा
।
अस्थिसञ्चयनं कार्यं
वर्णानामनुपूर्वशः ॥१८॥
सभी वर्ण के लोगों को अशौच का एक
तिहाई समय बीत जाने पर शारीरिक स्पर्श का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस नियम के
अनुसार ब्राह्मण आदि वर्ण क्रमशः तीन, चार,
पाँच तथा दस दिन के अनन्तर स्पर्श करने के योग्य हो जाते हैं।
ब्राह्मण आदि वर्णों का अस्थिसंचय क्रमशः चार, पाँच, सात तथा नौ दिनों पर करना चाहिये ॥ १७-१८ ॥
अहस्त्वदत्तकन्यासु प्रदत्तासु
त्र्यहं भवेत् ।
पक्षिणी संस्कृतास्वेव स्वस्रादिषु
विधीयते ॥१९॥
पितृगोत्रं कुमारीणां व्यूढानां
भर्तृगोत्रता ।
जलप्रदानं पित्रे च उद्वाहे चोभयत्र
तु ॥२०॥
दशाहोपरि पित्रोश्च दुहितुर्मरणे
त्र्यहं ।
सद्यः शौचं सपिण्डानां पूर्वं
चूडाकृतेर्द्विज ॥२१॥
एकाहतो ह्याविविहादूर्ध्वं
हस्तोदकात्त्र्यहं ।
पक्षिणी भ्रातृपुत्रस्य सपिण्डानां
च सद्यतः ॥२२॥
दशाहाच्छुद्ध्यते विप्रो जन्महानौ
स्वयोनिषु ।
षद्भिस्त्रिभिरहैकेन
क्षत्रविट्शूद्रयोनिषु ॥२३॥
जिस कन्या का वाग्दान नहीं किया गया
है ( और चूडाकरण हो गया है), उसकी यदि वाग्दान
से पूर्व मृत्यु हो जाय तो बन्धु बान्धवों को एक दिन का अशौच लगता है जिसका
वाग्दान तो हो गया है, किंतु विवाह संस्कार नहीं हुआ है,
उस कन्या के मरने पर तीन दिन का अशौच लगता है। यदि ब्याही हुई बहिन
या पुत्री आदि की मृत्यु हो तो दो दिन एक रात का अशौच लगता है। कुमारी कन्याओं का
वही गोत्र है, जो पिता का है। जिनका विवाह हो गया है,
उन कन्याओं का गोत्र वह है, जो उनके पति का
है। विवाह हो जाने पर कन्या की मृत्यु हो तो उसके लिये जलाञ्जलि – दान का कर्तव्य
पिता पर भी लागू होता है; पति पर तो है ही। तात्पर्य यह कि विवाह
होने पर पिता और पति दोनों कुलों में जलदान की क्रिया प्राप्त होती है। यदि दस
दिनों के बाद और चूडाकरण के पहले कन्या की मृत्यु हो तो माता-पिता को तीन दिन का
अशौच लगता है और सपिण्ड पुरुषों की तत्काल ही शुद्धि होती है। चूडाकरण के बाद
वाग्दान के पहलेतक उसकी मृत्यु होनेपर बन्धुबान्धवों को एक दिन का अशौच लगता है।
वाग्दान के बाद विवाह के पहलेतक उन्हें तीन दिन का अशौच प्राप्त होता है।
तत्पश्चात् उस कन्या के भतीजों को दो दिन एक रात का अशौच लगता है; किंतु अन्य सपिण्ड पुरुषों की तत्काल शुद्धि हो जाती है। ब्राह्मण सजातीय
पुरुषों के यहाँ जन्म-मरण में सम्मिलित हो तो दस दिन में शुद्ध होता है और
क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के यहाँ जन्म – मृत्यु में
सम्मिलित होने पर क्रमश: छ:, तीन तथा एक दिन में शुद्ध होता
है ॥ १९-२३ ॥
एतज्ज्ञेयं सपिण्डानां वक्ष्ये
चानौरसादिषु ।
अनौरसेषु पुत्रेषु
भार्यास्वन्यगतासु च ॥२४॥
परपूर्वासु च स्त्रीषु
त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते ।
वृथासङ्करजातानां प्रव्रज्यासु च
तिष्ठतां ॥२५॥
आत्मनस्त्यागिनाञ्चैव
निवर्तेतोदकक्रिया ।
मात्रैकया द्विपितरौ
भ्रतरावन्यगामिनौ ॥२६॥
एकाहः सूतके तत्र मृतके तु द्व्यहो
भवेत् ।
सपिण्डानामशौचं हि समानोदकतां वदे
॥२७॥
यह जो अशौच सम्बन्धी नियम निश्चित
किया गया है, वह सपिण्ड पुरुषों से ही
सम्बन्ध रखता है, ऐसा जानना चाहिये। अब जो औरस नहीं हैं,
ऐसे पुत्र आदि के विषय में बताऊँगा । औरस-भिन्न क्षेत्रज, दत्तक आदि पुत्रों के मरने पर तथा जिसने अपने को छोड़कर दूसरे पुरुष से
सम्बन्ध जोड़ लिया हो अथवा जो दूसरे पति को छोड़कर आयी हो और अपनी भार्या बनकर
रहती रही हो, ऐसी स्त्री के मरने पर तीन रात में अशौच को
निवृत्ति होती है। स्वधर्म का त्याग करने के कारण जिनका जन्म व्यर्थ हो गया हो, जो वर्णसंकर संतान हो अर्थात् नीचवर्ण के पुरुष और उच्चवर्ण की स्त्री से
जिसका जन्म हुआ हो, जो संन्यासी बनकर इधर-उधर घूमते-फिरते
रहे हों और जो अशास्त्रीय विधि से विष-बन्धन आदि के द्वारा प्राणत्याग कर चुके हों,
ऐसे लोगों के निमित्त बान्धवों को जलाञ्जलि-दान नहीं करना चाहिये;
उनके लिये उदक-क्रिया निवृत्त हो जाती है। एक ही माता द्वारा दो
पिताओं से उत्पन्न जो दो भाई हों, उनके जन्म में सपिण्ड पुरुषों
को एक दिन का अशौच लगता है और मरने पर दो दिन का । यहाँतक सपिण्डों का अशौच बताया
गया। अब 'समानोदक'का बता रहा हूँ
॥२४-२७॥
बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च
संस्थिते ।
सवासा जलमाप्लुत्य सद्य एव
विशुद्ध्यति ॥२८॥
दशाहेन सपिण्डास्तु शुद्ध्यन्ति
प्रेतसूतके ।
त्रिरात्रेण सुकुल्यास्तु स्नानात्
शुद्ध्यन्ति गोत्रिणः ॥२९॥
सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे
विनिवर्तते ।
समानोदकभावस्तु निवर्तेताचतुर्दशात्
॥३०॥
जन्मनामस्मृते वैतत्तत्परं
गोत्रमुच्यते ।
विगतन्तु विदेशस्थं शृणुयाद्यो
ह्यनिर्दशं ॥३१॥
यच्छेषं दशरात्रस्य
तावदेवाशुचिर्भवेत् ।
अतिक्रान्ते दशाहे तु
त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् ॥३२॥
दाँत निकलने से पहले बालक की मृत्यु
हो जाय,
कोई सपिण्ड पुरुष देशान्तर में रहकर मरा हो और उसका समाचार सुना जाय
तथा किसी असपिण्ड पुरुष की मृत्यु हो जाय तो इन सब अवस्थाओं में (नियत अशौच का काल
बिताकर ) वस्त्रसहित जल में डुबकी लगाने पर तत्काल ही शुद्धि हो जाती है। मृत्यु
तथा जन्म के अवसर पर सपिण्ड पुरुष दस दिनों में शुद्ध होते हैं, एक कुल के असपिण्ड पुरुष तीन रात में शुद्ध होते हैं और एक गोत्रवाले
पुरुष स्नान करनेमात्र से शुद्ध हो जाते हैं। सातवीं पीढ़ी में सपिण्डभाव की
निवृत्ति हो जाती है और चौदहवीं पीढ़ीतक समानोदक सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है।
किसी के मत में जन्म और नाम का स्मरण न रहने पर अर्थात् हमारे कुल में अमुक पुरुष
हुए थे, इस प्रकार जन्म और नाम दोनों का ज्ञान न रहने पर-समानोदकभाव
निवृत्त हो जाता है। इसके बाद केवल गोत्र का सम्बन्ध रह जाता है। जो दशाह बीतने के
पहले परदेश में रहनेवाले किसी जाति बन्धु की मृत्यु का समाचार सुन लेता है,
उसे दशाह में जितने दिन शेष रहते हैं, उतने ही
दिनका अशौच लगता है। दशाह बीत जाने पर उक्त समाचार सुने तो तीन रात का अशौच
प्राप्त होता है ॥ २८-३२ ॥
संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो
विशुद्ध्यति ।
मातुले पक्षिणो रात्रिः
शिष्यत्विग्बान्धवेषु च ॥३३॥
मृटे जामातरि प्रेते दैहित्रे
भगिनीसुते ।
श्यालके तत्सुते चैव स्नानमात्रं
विधीयते ॥३४॥
मातामह्यां तथाचार्ये मृते मातामहे
त्र्यहं ।
दुर्भिक्षे राष्ट्रसम्पाते आगतायां
तथापदि ॥३५॥
उपसर्गमृतानाञ्च दाहे
ब्रह्मविदान्तथा ।
सत्रिव्रति ब्रह्मत्तारिसङ्ग्रामे
देशविप्लवे ॥३६॥
दाने यज्ञे विवाहे च सद्यः शौचं
विधीयते ।
विप्रगोनृपहन्तॄणामनुक्तं
चात्मघातिनां ॥३७॥
वर्ष बीत जाने पर उक्त समाचार ज्ञात
हो तो जल का स्पर्श करके ही मनुष्य शुद्ध हो जाता है। मामा,
शिष्य, ऋत्विक् तथा बान्धवजनों के मरने पर एक
दिन, एक रात और एक दिन का अशौच लगता है। मित्र, दामाद, पुत्री के पुत्र, भानजे,
साले और साले के पुत्र के मरने पर स्नानमात्र करने का विधान है।
नानी, आचार्य तथा नाना की मृत्यु होने पर तीन दिन का अशौच
लगता है। दुर्भिक्ष (अकाल) पड़ने पर, समूचे राष्ट्र के ऊपर
संकट आने पर आपत्ति - विपत्ति पड़ने पर तत्काल शुद्धि कही गयी है। यज्ञकर्ता,
व्रतपरायण, ब्रह्मचारी, दाता
तथा ब्रह्मवेत्ता की तत्काल ही शुद्धि होती है। दान, यज्ञ,
विवाह, युद्ध तथा देशव्यापी विप्लव के समय भी
सद्यः शुद्धि ही बतायी गयी है। महामारी आदि उपद्रव में मरे हुए का अशौच भी तत्काल
ही निवृत्त हो जाता है। राजा, गौ तथा ब्राह्मण द्वारा मारे
गये मनुष्यों की और आत्मघाती पुरुषों की मृत्यु होने पर भी तत्काल ही शुद्धि कही
गयी है ।३३-३७॥
असाध्यव्याधियुक्तस्य स्वाध्याये
चाक्षमस्य च ।
प्रायश्चित्तमनुज्ञातमग्नितोयप्रवेशनं
॥३८॥
अपमानात्तथा क्रोधात्स्नेहात्परिभवाद्भयात्
।
उद्बध्य म्रियते नारी पुरुषो वा
कथञ्चन ॥३९॥
आत्मघाती चैकलक्षं वसेत्स नरके शुचौ
।
वृद्धः श्रौतस्मृतेर्लुप्तः
परित्यजति यस्त्वसून् ॥४०॥
त्रिरात्रं तत्र शाशौचं द्वितीये
चास्थिसञ्चयं ।
तृतीये तूदकं कार्यं चतुर्थे
श्राद्धमाचरेत् ॥४१॥
विद्युदग्निहतानाञ्च त्र्यहं
शुद्धिः सपिण्डिके ।
पाषण्डाश्रिता भर्तृघ्न्यो
नाशौचोदकगाः स्त्रियः ॥४२॥
पितृमात्रादिपाते तु आर्द्रवासा
ह्युपोषितः ।
अतीतेब्दे प्रकुर्वीत प्रेतकार्यं
यथाविधि ॥४३॥
जो असाध्य रोग से युक्त एवं
स्वाध्याय में भी असमर्थ है, उसके लिये भी
तत्काल शुद्धि का ही विधान है। जिन महापापियों के लिये अग्नि और जल में प्रवेश कर
जाना प्रायश्चित्त बताया गया है (उनका वह मरण आत्मघात नहीं है)। जो स्त्री अथवा
पुरुष अपमान, क्रोध, स्नेह, तिरस्कार या भय के कारण गले में बन्धन ( फाँसी) लगाकर किसी तरह प्राण
त्याग देते हैं, उन्हें 'आत्मघाती'
कहते हैं। वह आत्मघाती मनुष्य एक लाख वर्षतक अपवित्र नरक में निवास
करता है। जो अत्यन्त वृद्ध है, जिसे शौचाशौच का भी ज्ञान
नहीं रह गया है, वह यदि प्राण त्याग करता है तो उसका अशौच
तीन दिनतक ही रहता है। उसमें (प्रथम दिन दाह), दूसरे दिन
अस्थिसंचय, तीसरे दिन जलदान तथा चौथे दिन श्राद्ध करना
चाहिये । जो बिजली अथवा अग्नि से मरते हैं, उनके अशौच से
सपिण्ड पुरुषों की तीन दिन में शुद्धि होती है। जो स्त्रियाँ पाखण्ड का आश्रय
लेनेवाली तथा पतिघातिनी हैं, उनकी मृत्यु पर अशौच नहीं लगता
और न उन्हें जलाञ्जलि पाने का ही अधिकार होता है। पिता माता आदि की मृत्यु होने का
समाचार एक वर्ष बीत जाने पर भी प्राप्त हो तो सवस्त्र स्नान करके उपवास करे और
विधिपूर्वक प्रेतकार्य (जलदान आदि) सम्पन्न करे ॥ ३८-४३ ॥
यः कश्चित्तु हरेत्प्रेतमसपिण्डं
कथञ्चन ।
स्नात्वा स्चेलः स्पृष्ट्वाग्निं
घृतं प्राश्य विशुद्ध्यति ॥४४॥
यद्यन्नमत्ति तेषान्तु दशाहेनैव
शुद्ध्यति ।
अनदन्नन्नमह्न्येव न वै तस्मिन्
गृहे वसेत् ॥४५॥
अनाथं व्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति
द्विजातयः ।
पदे पदे यज्ञफलं शुद्धिः
स्यात्स्नानमात्रतः ॥४६॥
प्रेतीभूतं द्विजः
शूद्रमनुगच्छंस्त्र्यहाच्छुचिः ।
मृतस्य बान्धवैः सार्धं कृत्वा च
परिदेवनं ॥४७॥
वर्जयेत्तदहोरात्रं दानश्राद्धादि
कामतः ।
शूद्रायाः प्रसवो गेहे शूद्रस्य
मरणं तथा ॥४८॥
भाण्डानि तु परित्यज्य
त्र्यहाद्भूलेपतः शुचिः ।
न विप्रं स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं
शूद्रेण नाययेत् ॥४९॥
नयेत्प्रेतं स्नापितञ्च पूजितं
कुसुमैर्दहेत् ।
नग्नदेहं दहेन्नैव किञ्चिद्देहं
परित्यजेत् ॥५०॥
जो कोई पुरुष जिस किसी तरह भी
असपिण्ड शव को उठाकर ले जाय, वह वस्त्रसहित
स्नान करके अग्नि का स्पर्श करे और घी खा ले, इससे उसकी
शुद्धि हो जाती है। यदि उस कुटुम्ब का वह अन्न खाता है तो दस दिन में ही उसकी
शुद्धि होती है। यदि मृतक के घरवालों का अन्न न खाकर उनके घर में निवास भी न करे
तो उसकी एक ही दिन में शुद्धि हो जायगी। जो द्विज अनाथ ब्राह्मण के शवको ढोते हैं,
उन्हें पग-पगपर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है और स्नान
करनेमात्र से उनकी शुद्धि हो जाती है। शूद्र के शव का अनुगमन करनेवाला ब्राह्मण
तीन दिन पर शुद्ध होता है। मृतक व्यक्ति के बन्धु बान्धवों के साथ बैठकर शोक
प्रकाश या विलाप करनेवाला द्विज उस एक दिन और एक रात में स्वेच्छा से दान और
श्राद्ध आदि का त्याग करे। यदि अपने घर पर किसी शूद्रा स्त्री के बालक पैदा हो या
शूद्र का मरण हो जाय तो तीन दिन पर घर के बर्तन भाँड़े निकाल फेंके और सारी भूमि
लीप दे, तब शुद्धि होती है। सजातीय व्यक्तियों के रहते हुए
ब्राह्मण- शव को शूद्र के द्वारा न उठवाये। मुर्दे को नहलाकर नूतन वस्त्र से ढक दे
और फूलों से उसका पूजन करके श्मशान की ओर ले जाय। मुर्दे को नंगे शरीर न जलाये।
कफन का कुछ हिस्सा फाड़कर श्मशानवासी को दे देना चाहिये ॥ ४४ - ५० ॥
गोत्रजस्तु गृहीत्वा तु चितां
चारोपयेत्तदा ।
आहिताग्निर्यथान्यायं
दग्धव्यस्तिभिरग्निभिः ॥५१॥
अनाहिताग्निरेकेन लौकिकेनापरस्तथा ।
अस्मात्त्वमभिजातोऽसि त्वदयं जायतां
पुनः ॥५२॥
असौ स्वर्गाय लोकाय सुखाग्निं
प्रददेत्सुतः ।
सकृत्प्रसिञ्चन्त्युदकं नामगोत्रेण
बान्धवाः ॥५३॥
एवं
मातामहाचार्यप्रेतानाञ्चोदकक्रिया ।
काम्योदकं
सखिप्रेतस्वस्रीयश्वश्रुरर्त्विजां ॥५४॥
अपो नः शोशुचिदयं दशाहञ्च
सुतोऽर्पयेत् ।
ब्राह्मणे दशपिण्डाः स्युः
क्षत्रिये द्वादश स्मृताः ॥५५॥
वैश्ये पञ्चदश प्रोक्ताः शूद्रे
त्रिंशत्प्रकीर्तिता ।
पुत्रो वा पुत्रिकान्यो वा पिण्डं
दद्याच्च पुत्रवत् ॥५६॥
उस समय सगोत्र पुरुष शव को उठाकर
चिता पर चढ़ावे। जो अग्निहोत्री हो, उसे
विधिपूर्वक तीन अग्नियों (आहवनीय, गार्हपत्य और
दाक्षिणाग्नि) द्वारा दग्ध करना चाहिये। जिसने अग्नि की स्थापना नहीं की हों,
परंतु उपनयन-संस्कार से युक्त हो, उसका एक
अग्नि (आहवनीय) द्वारा दाह करना चाहिये तथा अन्य साधारण मनुष्यों का दाह लौकिक
अग्नि से करना चाहिये।* 'अस्मात् त्वमभिजातोऽसि त्वदयं जायतां पुनः । असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा।'
इस मन्त्र को पढ़कर पुत्र अपने पिता के शव के मुख में अग्नि
प्रदान करे। फिर प्रेत के नाम और गोत्र का उच्चारण करके बान्धवजन एक-एक बार जल-
दान करें। इसी प्रकार नाना तथा आचार्य के मरने पर भी उनके उद्देश्य से जलाञ्जलिदान
करना अनिवार्य है। परंतु मित्र, ब्याही हुई बेटी-बहन आदि,
भानजे, श्वशुर तथा ऋत्विज्के लिये भी जलदान
करना अपनी इच्छा पर निर्भर है। पुत्र अपने पिता के लिये दस दिनोंतक प्रतिदिन 'अपो नः शोशुचद् अयम्' इत्यादि पढ़कर जलाञ्जलि दे
। ब्राह्मण को दस पिण्ड, क्षत्रिय को बारह पिण्ड, वैश्य को पंद्रह पिण्ड और शूद्र को तीस पिण्ड देने का विधान है। पुत्र हो
या पुत्री अथवा और कोई, वह पुत्र की भाँति मृत व्यक्ति को पिण्ड
दे ॥ ५१-५६ ॥
* देवल स्मृति में लिखा है कि 'चाण्डाल की अग्नि, अपवित्र अग्नि, सूतिका गृह की अग्नि पतित के घर की अग्नि तथा चिता की अग्नि- इन्हें शिष्ट
पुरुष को नहीं ग्रहण करना चाहिये।' अतः लौकिक अग्नि लेते समय
उपर्युक्त अग्नियों को त्याग देना चाहिये। 'चाण्डालाग्निरमेध्याग्निः
सूतिकाग्निच कर्हिचित्। पतिताग्निचिताग्निशन शिष्टग्रहणोचिताः ॥'
विदिश्य निम्बपत्राणि नियतो द्वारि
वेश्मनः ।
आचम्य चाग्निमुदकं गोमयं
गौरसर्षपान् ॥५७॥
प्रविशेयुः समालभ्य कृत्वाश्मनि पदं
शनैः ।
अक्षरलवणान्नः स्युर्निर्मांसा
भूमिशायिनः ॥५८॥
क्रीतलब्धाशनाः स्नाता आदिकर्ता
दशाहकृत् ।
अभावे ब्रह्मचारी तु
कुर्यात्पिण्डोदकादिकं ॥५९॥
यथेदं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते
।
जननेप्येवं स्यान्निपुणां
शुद्धिमिच्छतां ॥६०॥
सर्वेषां शावमाशौचं मातापित्रोश्च
सूतकं ।
सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता
शुचिः ॥६१॥
शव का दाह संस्कार करके जब घर लौटे
तो मन को वश में रखकर द्वार पर खड़ा हो दाँत से नीम की पत्तियाँ चबाये। फिर आचमन
करके अग्नि, जल, गोबर
और पीली सरसों का स्पर्श करे। तत्पश्चात् पहले पत्थर पर पैर रखकर धीरे- धीरे घर में
प्रवेश करे। उस दिन से बन्धु बान्धवों को क्षार नमक नहीं खाना चाहिये, मांस त्याग देना चाहिये। सबको भूमि पर शयन करना चाहिये। वे स्नान करके
खरीदने से प्राप्त हुए अन्न को खाकर रहें। जो प्रारम्भ में दाह-संस्कार करे,
उसे दस दिनों तक सब कार्य करना चाहिये। अन्य अधिकारी पुरुषों के
अभाव में ब्रह्मचारी ही पिण्डदान और जलाञ्जलि दान करे। जैसे सपिण्डों के लिये यह
मरणाशौच की प्राप्ति बतायी गयी है, उसी प्रकार जन्म के समय
भी पूर्ण शुद्धि की इच्छा रखनेवाले पुरुषों को अशौच की प्राप्ति होती है। मरणाशौच
तो सभी सपिण्ड पुरुषों को समानरूप से प्राप्त होता है; किंतु
जननाशौच की अस्पृश्यता विशेषतः माता- पिता को ही लगती है। इनमें भी माता को ही
जन्म का विशेष अशौच लगता है, वही स्पर्श के अधिकार से वञ्चित
होती है। पिता तो स्नान करनेमात्र से शुद्ध (स्पर्श करने योग्य) हो जाता है ॥ ५७ -
६१ ॥
पुत्रजन्मदिने श्राद्धं कर्तव्यमिति
निश्चितं ।
तदहस्तत्प्रदानार्थं
गोहिरण्यादिवाससां ॥६२॥
मरणं मरणेनैव सूतकं सूतकेन तु ।
उभयोरपि यत्पूर्वं तेनाशौचेन
शुद्ध्यति ॥६३॥
सूतके मृतकं चेत्स्यान्मृतके त्वथ
सूतकं ।
तत्राधिकृत्य मृतकं शौचं कुर्यान्न
सूतकं ॥६४॥
समानं लघ्वशौचन्तु प्रथमेन समापयेत्
।
असमानं द्वितीयेन धर्मराजवचो यथा
॥६५॥
शावान्तः शाव आयाते पूर्वाशौचेन
शुद्ध्यति ।
गुरुणा लघु बाध्येत लघुना नैव
तद्गुरु ॥६६॥
मृतके सूतके वापि
रात्रिमध्येऽन्यदापतेत् ।
तच्छेषेणैव सुद्ध्येरन् रात्रिशेषे
द्व्यहाधिकात् ॥६७॥
प्रभाते यद्यशौचं स्याच्छुद्धेरंश्च
त्रिभिर्दिनैः ।
उभयत्र दशाहानि कुलस्यान्नं न
भुज्यते ॥६८॥
दानादि निनिवर्तेत कुलस्यान्नं न
भुज्यते ।
अज्ञाते पातकं नाद्ये
भोक्तुरेकमहोऽन्यथा ॥६९॥
पुत्र का जन्म होने के दिन निश्चय
ही श्राद्ध करना चाहिये। वह दिन श्राद्ध-दान तथा गौ, सुवर्ण आदि और वस्त्र का दान करने के लिये उपयुक्त माना गया है। मरण का
अशौच मरण के साथ और सूतक का सूतक के साथ निवृत्त होता है। दोनों में जो पहला अशौच
है, उसी के साथ दूसरे की भी शुद्धि होती है। जन्माशौच में
मरणाशौच हो अथवा मरणाशौच में जन्माशौच हो जाय तो मरणाशौच के अधिकार में जन्माशौच को
भी निवृत्त मानकर अपनी शुद्धि का कार्य करना चाहिये । जन्माशौच के साथ मरणाशौच की
निवृत्ति नहीं होती। यदि एक समान दो अशौच हों (अर्थात् जन्म- सूतक में जन्म सूतक
और मरणाशौच में मरणाशौच पड़ जाय तो प्रथम अशौच के साथ दूसरे को भी समाप्त कर देना
चाहिये और यदि असमान अशौच हो (अर्थात् जन्माशौच में मरणाशौच और मरणाशौच में
जन्माशौच हो) तो द्वितीय अशौच के साथ प्रथम को निवृत्त करना चाहिये - ऐसा धर्मराज का
कथन है। मरणाशौच के भीतर दूसरा मरणाशौच आने पर वह पहले अशौच के साथ निवृत्त हो
जाता है। गुरु अशौच से लघु अशौच बाधित होता है; लघु से गुरु
अशौच का बाध नहीं होता। मृतक अथवा सूतक में यदि अन्तिम रात्रि के मध्यभाग में
दूसरा अशौच आ पड़े तो उस शेष समय में ही उसकी भी निवृत्ति हो जाने के कारण सभी
सपिण्ड पुरुष शुद्ध हो जाते हैं। यदि रात्रि के अन्तिम भाग में दूसरा अशौच आवे तो
दो दिन अधिक बीतने पर अशौच की निवृत्ति होती है तथा यदि अन्तिम रात्रि बिताकर
अन्तिम दिन के प्रातः काल अशौचान्तर प्राप्त हो तो तीन दिन और अधिक बीतने पर
सपिण्डों की शुद्धि होती है। दोनों ही प्रकार के अशौचों में दस दिनोंतक उस कुल का
अन्न नहीं खाया जाता है। अशौच में दान आदि का भी अधिकार नहीं रहता। अशौच में किसी के
यहाँ भोजन करनेपर प्रायश्चित्त करना चाहिये। अनजान में भोजन करने पर पातक नहीं
लगता, जान-बूझकर खानेवाले को एक दिन का अशौच प्राप्त होता है
॥६२-६९॥
इत्याग्नेये महापुराणे
स्रावाद्याशौचं नाम अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'जनन-मरण के अशौच का वर्णन' नामक एक सौ अट्ठावनवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ १५८ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 159
0 Comments