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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
देवीरहस्य पटल ५३
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ५३ में शिव विद्या निरूपण के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् त्रिपञ्चाशत्तमः पटलः शिवविद्या
Shri Devi Rahasya Patal 53
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य तीरपनवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् त्रिपञ्चाशत्तम
पटल
देवीरहस्य पटल ५३ शिव विद्या
अथ त्रिपञ्चाशत्तमः पटलः
शिवविद्यानिर्णयः
श्रीभैरव उवाच
अधुना शिवविद्यां ते वक्ष्यामि
परमार्थदाम् ।
सर्वविद्यामयीं साध्यां
सर्वतन्त्रेषु गोपिताम् ॥ १ ॥
केवलं यो जपेच्छाक्तं मनुं शैवं तु
नो जपेत् ।
जन्मकोटिषु जप्तोऽपि न मनुः
सिद्धिभाग्भवेत् ॥ २ ॥
यस्या देव्यास्तु यो देवः
शिवस्तस्याः शिवो भवेत् ।
तेन विद्या महादेवि कलौ सिद्ध्यति
सत्वरम् ॥३॥
शिवविद्या निर्णय- श्री भैरव ने कहा
कि हे देवि ! अब मैं परमार्थदायक शिवविद्या को कहता हूँ। यह विद्या सर्वसिद्धिमयी,
साध्य और सभी तन्त्रों में गोपित है। जो केवल शक्तिमन्त्र का जप
करता है, शिवमन्त्र का जप नहीं करता, उसे
करोड़ों जन्मों तक जप करने से भी सिद्धि नहीं मिलती। जैसे देवियाँ होती हैं,
वैसे ही उनके शिव भी होते हैं। शिव के साथ विद्या के जप से कलियुग
में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।। १-३।।
देवीरहस्य पटल ५३ - कस्याः
देव्याः कः शिवः
कालिकाया महाकालः सुमुख्या
अमृतेश्वरः ।
कामेश्वरस्त्रिकूटायाः शिव
इत्येवमीश्वरि ॥४॥
छिन्नाया: कालरुद्रस्तु शारदायाः
शिवः शिवः ।
श्री भैरवः कालरात्र्याः शिव
इत्येवमीश्वरि ॥५॥
ज्वालामुख्या महादेवो वाग्देव्या
विजयेश्वरः ।
ईश्वरो भुवनेश्वर्य्याः शिव
इत्येवमीश्वरि ॥६॥
विश्वनाथस्तु पार्वत्या राज्या
भूतेश्वरः शिवः ।
भीडायास्तु विरूपाक्ष: शिव
इत्येवमीश्वरि ॥७॥
नीलकण्ठस्तु दुर्गायाः शिव इत्येवमीश्वरि
।
शिलाया वामदेवस्तु शिवः प्रोक्तः
सुरेश्वरि ॥८ ॥
सद्योजातस्तु तारायाः शिव
इत्येवमीश्वरि ।
अद्य दुर्गाशिवस्यादौ वक्ष्ये
मूलमनुं परम् ॥ ९ ॥
यं जप्त्वा परमेशानि विद्या
सिद्ध्यति सत्वरम् ।
किस देवी के कौन शिव - कालिका के
शिव महाकाल हैं, सुमुखी के शिव अमृतेश्वर हैं।
हे ईश्वरि! त्रिकूटा पञ्चदशी ललिता मन्त्र के शिव कामेश्वर हैं। छिन्नमस्ता के शिव
कालरुद्र हैं। शारदा के शिव शंकर हैं। कालरात्रि के शिव श्रीभैरव है। ज्वालामुखी
के शिव महादेव हैं। वाग्देवता के शिव विजयेश्वर हैं। भुवनेश्वरी के शिव ईश्वर हैं।
पार्वती के शिव विश्वनाथ है, राज्ञी के शिव भूतेश्वर हैं।
भीड़ा के शिव विरूपाक्ष हैं। दुर्गा के शिव नीलकण्ठ है। शिला के शिव वामदेव हैं।
तारा के शिव सद्योजात हैं। अब मैं आदिदुर्गा के शिव के मूल मन्त्र को कहता हूँ। इस
श्रेष्ठ मन्त्र के जप से विद्या तत्काल सिद्ध होती है।।४-९।।
देवीरहस्य पटल ५३ - नीलकण्ठमन्त्रर्ष्यादिकथनम्
श्रीनीलकण्ठमन्त्रस्य दक्षिणामूर्तिरीश्वरः
॥ १० ॥
ऋषिश्छन्दो मयानुष्टुव् वर्णितो
वीरवन्दिते ।
दुर्गेश्वरो नीलकण्ठो देवता कथितो
मया ।। ११ ।।
हरितं बीजमीशानि तारं शक्तिः स्मृता
शिवे ।
कीलकं विश्वमाख्यातं नियोगो
मनुसिद्धये ॥ १२ ॥
विनियोग —
हे वीरवन्दिते! मेरे द्वारा इस श्रीनीलकण्ठ मन्त्र के ऋषि
दक्षिणामूर्ति ईश्वर एवं छन्द अनुष्टुप् कहे गये हैं। दुर्गेश्वर नीलकण्ठ इसके
देवता कहे गये हैं। हे शिवे! इसका बीज ह्सौः एवं शक्ति ॐ कहा गया है। कीलक नमः कहा
गया है एवं मन्त्रसिद्धि हेतु इसका विनियोग कहा गया है ।। १०-१२ ।।
देवीरहस्य पटल ५३ - न्यासः
तारचन्द्रकडिम्बाद्यैः षड्दीर्घैर्न्यासमाचरेत्
।
ध्यानमस्य शिवस्याद्य श्रुत्वा
गुप्ततमं कुरु ॥१३॥
न्यास - ॐ सः ह्सौः के
षड्दीर्घ रूप से करन्यास करे। अङ्ग न्यास करे। इस आद्या शिव का ध्यान सुनकर उसे
गुप्त रखना चाहिये ।। १३ ।।
देवीरहस्य पटल ५३ - नीलकण्ठध्यानम्
बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ वरमभीतिममुं दधानम् ।
हस्तैः शशाङ्कशकलाभरणं त्रिनेत्रं
श्रीनीलकण्ठमुमया श्रितमाश्रयामि ॥ १४ ॥
ध्यान - बन्धूकपुष्प और सोने के
समान वर्ण है। सुन्दर अक्षमाला है। हाथों में पाश, अङ्कुश, वर और अभय है। हाथों में चन्द्रखण्ड का
आभूषण है। तीन नेत्र हैं। उन उमा के साथ नीलकण्ठ का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ
।।१४।।
देवीरहस्य पटल ५३ - नीलकण्ठमन्त्रोद्धारः
मन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि
सर्वसिद्धिमयं परम् ।
दुर्गारहस्यभूतं च शृणु पार्वति
सत्वरम् ॥ १५ ॥
प्रणवं हरितं व्योषं नीलकण्ठाय चाश्मरी
।
दुर्गेशनीलकण्ठस्य मन्त्रोद्धारो
दशाक्षरः ॥ १६ ॥
नीलकण्ठमन्त्र –
सर्वसिद्धिमय परम मन्त्र के उद्धार का अब मैं वर्णन करता हूँ। यह
दुर्गारहस्य का अङ्ग है। हे पार्वति सत्वर सुनो। प्रणव = ॐ,
हरित्= ह्सौः, व्योष = ह्रां, नीलकण्ठाय,
अश्मरी = नमः के योग से यह मन्त्र बनता है। मन्त्र स्पष्ट है - ॐ
ह्सौः ह्रां नीलकण्ठाय नमः । इसमें दश अक्षर हैं। यही दुर्गेश नीलकण्ठ का
मन्त्र है ।। १५-१६ ।।
अनेन मन्त्रराजेन जप्तमात्रेण पार्वति
।
दुर्गायाः परमा विद्या कलौ
सिद्ध्यति सत्वरम् ॥ १७॥
इतीदं गुह्यगुप्तातिगुह्यं
सर्वस्वमीश्वरि ।
रहस्यं नीलकण्ठस्य गोपनीयं
मुमुक्षुभिः ॥ १८ ॥
हे पार्वति ! इस मन्त्रराज के
जपमात्र से ही कलियुग में दुर्गा की परमा विद्या शीघ्र सिद्ध होती है। यह
गुह्यातिगुह्य सर्वस्व है। हे ईश्वरि! नीलकण्ठ का रहस्य मुमुक्षु से भी गुप्त रखना
चाहिये ।। १५-१८ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये शिवविद्यानिरूपणं नाम त्रिपञ्चाशत्तमः पटलः ॥ ५३ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में शिवविद्या निरूपण नामक त्रिपञ्चाशत्तम पटल पूर्ण
हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 54
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