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Manu smriti chapter 5
मनुस्मृति अध्याय
५
मनुस्मृति पञ्चमोऽध्यायः
॥ अथ
पञ्चमोऽध्यायः ॥
भक्ष्याभक्ष्य-व्यवस्था
श्रुत्वैतान्
ऋषयो धर्मान् स्नातकस्य यथौदितान् ।
इदमूचुर्महात्मानमनलप्रभवं
भृगुम् ॥ ॥१॥
एवं यथोक्तं
विप्राणां स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ।
कथं मृत्युः
प्रभवति वेदशास्त्रविदां प्रभो ॥ ॥ २ ॥
स तानुवाच
धर्मात्मा महर्षीन् मानवो भृगुः ।
श्रूयतां येन
दोषेण मृत्युर्विप्रान् जिघांसति ॥ ॥३॥
अनभ्यासेन
वेदानामाचारस्य च वर्जनात् ।
आलस्यादन्नदोषाच्च
मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति ॥ ॥४॥
इस प्रकार
स्नातक ब्राह्मण के धर्मों को सुनकर, अग्निवंशी महात्मा भृगु से ऋषियों ने कहा- हे प्रभो! इन
विधियों से धर्माचरण करनेवाले ब्राह्मणों को मृत्यु कैसे मार सकता है। यह सुनकर,
मनुवंशी भृगु उन ऋषियों से बोले: सुनिए जिन कारणों से मृत्यु
धर्माचरण करनेवाले ब्राह्मणों को मार सकता है। वेदाभ्यास न करना, सदाचार को छोड़ना, सदा आलसी रहना और अपवित्र भोजन से
मृत्यु मार लेता है । १-३ ॥
नं गृञ्जनं
चैव पलाण्डु कवकानि च ।
अभक्ष्याणि
द्विजातीनाममेध्यप्रभवानि च ॥ ॥५॥
लोहितान्
वृक्षनिर्यासान् वृश्चनप्रभवांस्तथा ।
लुं गव्यं च
पेयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत् ॥ ॥६॥
वृथा
कृसरसंयावं पायसापूपमेव च ।
अनुपाकृतमांसानि
देवान्नानि हवींषि च ॥ ॥७॥
लहसुन, शलगम, प्याज़,
कुकुरमुत्ता और दूसरे अपवित्र खाद से पैदा होने वाले पदार्थ द्विजों
को नहीं खाने चाहियें। वृक्षों से आप ही निकला, या काटने से
निकली लाल गोंद, गूलर, लहसोडा और दस
दिन के भीतर में गौ के दूध का पाक इन पदार्थों को अवश्य छोड़ना चाहिए। तिल,
चावल की खिचड़ी, दूध, गुड़,
आटे की लपसी, दूध का पाक, मालपुआ, बिना संस्कार का मांस, देवनिमित्त बना अन्न, यज्ञ का हविष्य इन पदार्थों को
देवार्पण बिना किये खाना नही चाहिए ॥ ५-७ ॥
अनिर्दशाया
गोः क्षीरमौष्टमैकशफं तथा ।
आविकं
संधिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः ॥ ॥८ ॥
आरण्यानां च
सर्वेषां मृगाणां माहिषं विना ।
स्त्रीक्षीरं
चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि ॥ ॥ ९ ॥
दधि भक्ष्यं च
शुक्तेषु सर्वं च दधिसंभवम् ।
यानि
चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः ॥ ॥ १० ॥
क्रव्यादान्
शकुनान् सर्वान्तथा ग्रामनिवासिनः ।
अनिर्दिष्टांश्चेकशफान्
टिट्टिभं च विवर्जयेत् ॥ ॥ ११ ॥
कलविङ्कं
प्लवं हंसं चक्राह्वं ग्रामकुक्कुटम् ।
सारसं
रज्जुवालं च दात्यूहं शुकसारिके ॥ ॥ १२ ॥
प्रतुदाज्ञ्जालपादांश्च
कोयष्टिनखविष्किरान् ।
निमज्जतश्च
मत्स्यादान् सौनं वल्लूरमेव च ॥ ॥१३॥
बकं चैव
बलाकां च काकोलं खञ्जरीटकम् ।
मत्स्यादान्
विड्वराहांश्च मत्स्यानेव च सर्वशः ॥ ॥१४॥
यो यस्य
मांसमश्नाति स तन्मांसाद उच्यते ।
मत्स्यादः
सर्वमांसादस्तस्मान् मत्स्यान् विवर्जयेत् ॥ ॥ १५ ॥
दस दिन के
अंदर ब्याई गौ का दूध, ऊंटनी का दूध, एक खुर वाली गधी, घोड़ी आदि का दूध, भेड़ का दूध, गर्भवती गौ का दूध और जिसका बच्चा मर गया हो उस गौ का दूध नहीं पीना
चाहिए। भैंस को छोड़कर, सब जंगली पशुओं का दूध और स्त्री का
दूध और बिगड़कर खट्टा हुआ पदार्थ नहीं खाना चाहिए। खट्टे पदार्थों में दही,
मट्ठा, अच्छे फूल फल के अर्क गुलाब, केवड़ा आदि खाना पीना चाहिए। कच्चा मांस खानेवाले पक्षी, शकुनवाले पक्षी, गांव वासी पक्षी, अभक्ष्य पक्षी, एक खुर वाले ऊंट, घोड़ा और टिड्डी यह सभी अभक्ष्य हैं । बतख, हंस,
चकवा, गांव की मुर्गा, सारस,
जल काक, पपीहा, तोता और
मैना यह सब अभक्ष्य हैं। चोंच से मार कर खानेवाले, पैरों में
जालवाले (बाज वगैरह ) कोयल, नख से फाड़ कर खानेवाले, जल में गोता लगाकर मछली खानेवाले, कसाईखाने का मांस
और सूखा मांस यह सब अभक्ष्य हैं। बगला, बतख, काला कौआ, खंजन, मछली खानेवाले
पक्षी, सुअर और सब प्रकार की मछली यह सब अभक्ष्य हैं । जो
जिसका मांस खाता है वह उस मांस को खानेवाला कहलाता है। पर मछली खाने वाला सब का
मांस खानेवाला कहा जाता है । इस लिए मछली नहीं खानी चाहिए। क्योकि मछली सब का मांस
खाती है । ॥ ८-१५॥
पाठीनरोहितावाद्यौ
नियुक्तौ हव्यकव्ययोः ।
राजीवान्
सिंहतुण्डाश्च सशल्काश्चैव सर्वशः ॥ ॥१६॥
न
भक्षयेदेकचरानज्ञातांश्च मृगद्विजान् ।
भक्ष्येष्वपि
समुद्दिष्टान् सर्वान् पञ्चनखांस्तथा ॥ ॥१७॥
श्वाविधं
शल्यकं गोधां खड्गकूर्मशशांस्तथा ।
भक्ष्यान्
पञ्चनखेष्वाहुरनुष्ट्रांश्चैकतोदतः ॥ ॥१८॥
छत्राकं
विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम् ।
पलाण्डुं
गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद् द्विजः ॥ ॥ १९ ॥
अमत्यैतानि
षड् जग्ध्वा कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत् ।
यतिचान्द्रायाणं
वाऽपि शेषेषूपवसेदहः ॥ ॥ २० ॥
पढ़न, रोहू आदि सब मछलियां हव्य- काव्य में ग्रहण
के लायक़ होती हैं। राजीव सिंहतुण्ड और मोटी खाल की मछली भी ग्राह्य हैं। अकेले
घूमने वाले और अनजान पक्षी, मृग अभक्ष्य हैं और जो भक्ष्य
पांच नखवाले पशु हैं उनमें भी सब भक्ष्य नहीं हैं । साही, शल्यक,
गधा, गैंडा, कछुवा,
खरगोश यह पांच नखवालों में भक्ष्य हैं, और ऊंट
को छोड़ कर, एक दाँतवाले दूसरे पांच नखवाले भी भक्ष्य हैं।
धरती का फूल, गांव का सुअर, लहुसन,
शलगम, प्याज़ इनको जानकर खानेवाला द्विज पतित
हो जाता है। और यह छ: पदार्थ अनजान में खा ले तो सान्तपन नामक वा यतिचान्द्रायण
नामक प्रायश्चित्त करे और लाल गोंद आदि खा ले तो एक दिन उपवास करे ॥१६-२० ॥
संवत्सरस्यैकमपि
चरेत् कृच्छ्रं द्विजोत्तमः ।
अज्ञात
भुक्तशुद्ध्यर्थं ज्ञातस्य तु विशेषतः ॥ ॥ २१ ॥
यज्ञार्थं
ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।
भृत्यानां चैव
वृत्त्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत् पुरा ॥ ॥ २२ ॥
बिना जाने कोई
अभक्ष्य पदार्थ खा ले तो उसकी शुद्धि के लिए ब्राह्मण को एक वर्ष में एक कृच्छ
व्रत अवश्य करना चाहिए। और जानकर खा लिया हो तो विशेष प्रायश्चित्त करना उचित है।
आपत्ति, दुर्भिक्ष के समय में अपने कर्म की पूर्णता
के लिए ब्राह्मणों को उत्तम ऋग- पक्षियों का वध करना चाहिए। अथवा जिनका पालन भार
अपने ऊपर हो उनकी तृप्ति के लिए मृग पक्षियों को मारना चाहिए क्योंकि पूर्व समय
में अगस्त्य मुनि ने ऐसा काम किया था॥२१-२२।
बभूवुर्हि
पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् ।
पुराणेष्वपि
यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ॥ ॥ २३ ॥
यत् किं चित्
स्नेहसंयुक्तं भोज्यमगर्हितम् ।
तत्
पर्युषितमप्याद्यं हविःशेषं च यद् भवेत् ॥ ॥ २४ ॥
चिरस्थितमपि
त्वाद्यमस्नेहाक्तं द्विजातिभिः ।
यवगोधूमजं
सर्वं पयसश्चैव विक्रिया ॥ ॥२५॥
एतदुक्तं
द्विजातीनां भक्ष्याभक्ष्यमशेषतः ।
मांसस्यातः
प्रवक्ष्यामि विधिं भक्षणवर्जने ॥ ॥ २६ ॥
प्राचीन काल
में ऋषि, ब्राह्मण और क्षत्रियों के यज्ञ में भक्ष्य
मृग पक्षियों के पुरोडाश हुआ करते थे। जो भक्ष्य, भोज्य
पदार्थ निन्दित नहीं हैं, वह बासी होने पर भी घी आदि मिला हो
तो खाने लायक है और जो हवन' शेष है वह भी खाने योग्य होता
है। जौं, गेहूं के पदार्थ, दूध के
पदार्थ अधिक दिन के बने हों पर घी से तर न हों तो उनको भी नहीं खाना चाहिए । इस
प्रकार द्विजों के भक्ष्य और अभक्ष्य सभी पदार्थ कहे गये हैं अब मांस भक्षण और
उसके त्याग की विधि कहते हैं ॥ २३-२६॥
मनुस्मृति अध्याय ५- मांसभक्षण व्यवस्था
प्रोक्षितं
भक्षयेन् मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया ।
यथाविधि
नियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये ॥ ॥२७॥
प्राणस्यान्नमिदं
सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावरं
जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम् ॥ ॥ २८ ॥
चराणामन्नमचरा
दंष्ट्रिणामप्यदंष्ट्रिणः ।
अहस्ताश्च
सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः ॥ ॥२९॥
यज्ञ में
वेदमन्त्रों से प्रोक्षण किया मांस खाना और ब्राह्मणों की इच्छा से हुआ हो तो खाना
चाहिए। देवकार्य और पितृकार्य में, निमन्त्रण होने पर या प्राण जाने का भय हो तो खाना उचित है।
ब्रह्मा ने इस जगत् के प्राण को अन्नरूप से बनाया है। इसलिए चराचर जगत्, स्थावर अथवा जंगम, सब कुछ प्राण का भोजन है। स्थावर,
घास आदि जङ्गमों का भोजन है, बिना दाढ़वाले
दाढ़वाले का भोजन है। बिना हाथवाले, हाथवाले का जैसे
मनुष्यों को मछली भोजन है और मृग आदि सिंहादि के भोज ॥ २७-२६ ॥
नात्ता
दुष्यत्यदन्नाद्यान् प्राणिनोऽहन्य्ऽहन्यपि ।
धात्रैव
सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च ॥ ॥३०॥
यज्ञाय
जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।
अतोऽन्यथा
प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते ॥ ॥३१॥
क्रीत्वा
स्वयं वाऽप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा ।
देवान्
पितॄंश्चार्चयित्वा खादन् मांसं न दुष्यति ॥ ॥ ३२ ॥
नाद्यादविधिना
मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः ।
जग्ध्वा
ह्यविधिना मांसं प्रेतस्तैरद्यतेऽवशः ॥ ॥३३॥
न तादृशं
भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः
।
यादृशं भवति
प्रेत्य वृथामांसानि खादतः ॥ ॥३४॥
नियुक्तस्तु
यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः ।
स प्रेत्य
पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ॥ ॥३५॥
असंस्कृतान्
पशून् मन्त्रैर्नाद्याद् विप्रः कदा चन ।
मन्त्रैस्तु
संस्कृतानद्यात्शाश्वतं विधिमास्थितः ॥ ॥३६॥
कुर्याद्
घृतपशुं सङ्गे कुर्यात् पिष्टपशुं तथा ।
न त्वेव तु
वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत् कदा चन ॥ ॥३७॥
जो भक्षण के
योग्य प्राणी हैं उनको प्रतिदिन खाने से, खाने वाला दोषभागी नहीं होता है। क्योंकि, भक्षण करने योग्य प्राणी और उनके भक्षकों को, परमात्मा
ने ही रचा है। यज्ञ के निमित्त से मांसभक्षण दैवी विधि कहलाती है। लेकिन देवार्पण
के बिना मांस खाना राक्षसावधि कही जाती है। स्वयं खरीद कर या आप ही मारकर अथवा
दूसरे से लाकर दिया हो, ऐसे मांस को देवता और पितरों को
अर्पण करके खाने से दोष नहीं होता। अपत्ति काल न हो तो विधि को जाननेवाले द्विज
कभी भी मांसभक्षण अविधि से न करे क्योंकि बिना विधि से जो मांसभक्षण करता हैं,
उसके मरने पर उसका मांस वह प्राणी खाते हैं । रोजगार के लिए जो पशु
मारते हैं उनको वैसा पाप नहीं होता जैसा बिना देवता और पितरों को चढ़ाये मांस
खानेवाले को होता है। श्राद्ध आदि में विधि से जो मांसभक्षण नहीं करता, वह मर कर इक्कीस पशुयोनि में जन्म लेता है । मन्त्रों से जिनका संस्कार
नहीं हुआ उन पशुओं को ब्राह्मण कभी न खाये । पर सनातन वेद विधि के अनुसार संस्कार
किया गया हो तो खा सकता है। मांस खाने हो को इच्छा हो तो घृत का पशु या मैदा का
पशु बनाकर विधि से मांस खाये। पर देव निमित्त के बिना पशु मारने की इच्छा कभी नहीं
करनी चाहिए ॥ ३०-३७ ॥
यावन्ति
पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् ।
वृथापशुघ्नः
प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ॥ ॥ ३८ ॥
यज्ञार्थं
पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा ।
यज्ञोऽस्य
भूत्यै सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः ॥ ॥३९॥
ओषध्यः पशवो
वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा ।
यज्ञार्थं
निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥ ॥४०॥
मधुपर्के च
यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि ।
अत्रैव पशवो
हिंस्या नान्यत्रैत्यब्रवीन् मनुः ॥ ॥४१॥
बिना देवनिमित्त
के जो वृथा पशुहिंसा करता है, वह मरने पर जितने पशुरोम हैं, उतने जन्मों तक उस पशु
के हाथ से मारा जाता है। ब्रह्मा स्वयं ही यज्ञ के लिए पशुओं को बनाया है और सब
यज्ञ जगत् के कल्याण के लिए हैं, इसलिए यज्ञ में जो पशुवध
होता है वह वध नहीं है। औषधि, पशु, वृक्ष,
पक्षी आदि यज्ञ के लिए मारे जाने से उत्तम गति को पाते हैं। मधुपर्क,
यज्ञ, श्राद्ध और दैवकर्म में पशुवध करना,
दूसरे कामों में न करना यह मनु जी की आज्ञा है ॥ ३८-४१ ॥
एष्वर्थेषु
पशून् हिंसन् वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः ।
आत्मानं च
पशुं चैव गमयत्युत्तमं गतिम् ॥ ॥४२॥
गृहे
गुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवान् द्विजः ।
नावेदविहितां
हिंसामापद्यपि समाचरेत् ॥ ॥४३॥
या वेदविहिता
हिंसा नियताऽस्मिंश्चराचरे ।
अहिंसामेव तां
विद्याद् वेदाद् धर्मो हि निर्बभौ ॥ ॥४४॥
योऽहिंसकानि
भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।
सजीवांश्च
मृतश्चैव न क्व चित् सुखमेधते ॥ ॥४५॥
वेदविशारद
द्विज, मधुपर्क आदि में पशुवध करके अपनी आत्मा और पशु
को उत्तम गति को पहुंचाता है। गृहस्थ, ब्रह्मचर्य या
वानप्रस्थ आश्रम में रहकर, द्विज को वेदविरुद्ध हिंसा कभी
आपत्तिकाल में भी नहीं करनी चाहिए। इस जगत् में जो वेदानुसार हिंसा नियत है उसको
हिंसा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि धर्म वेद से ही प्रकट हुआ है। जो पुरुष हिंसक
प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता या मरा
हुआ कहीं सुख नहीं पाता। ॥४२-४५॥
यो
बन्धनवधक्लेशान् प्राणिनां न चिकीर्षति ।
स सर्वस्य
हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्रुते ॥ ॥ ४६ ॥
यद् ध्यायति
यत् कुरुते रतिं बध्नाति यत्र च ।
तदवाप्नोत्ययत्नेन
यो हिनस्ति न किं चन ॥ ॥४७॥
नाकृत्वा
प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्व चित् ।
न च प्राणिवधः
स्वर्ग्यस्तस्मान् मांसं विवर्जयेत् ॥ ॥ ४८ ॥
समुत्पत्तिं च
मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् ।
प्रसमीक्ष्य
निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् ॥ ॥ ४९ ॥
जो पुरुष
प्राणियों को बांधने या मारने का दुःख नहीं देना चाहता, वह सबका हित चाहनेवाला पुरुष अनन्त सुख
पाता है। ऐसा पुरुष जो कुछ सोचता है, जो कुछ करता है और
जिसमें अभिलाषा रखता है। वह सब सहज ही उसको प्राप्त हो जाता है। प्राणियों की
हिंसा बिना मांस उत्पन्न नहीं होता और प्राणियों के वध से स्वर्ग भी नहीं मिलता, इसलिए मांस खाना छोड़ देना चाहिए। मांस की उत्पत्ति और प्राणियों के वध
आदि क्रम को देखकर सभी प्रकार के मांस भक्षण से चित्त को हटा लेना चाहिए ॥ ४६-४६
।।
न भक्षयति यो
मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् ।
न लोके
प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते ॥ ॥५०॥
अनुमन्ता
विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता
चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥ ॥५१॥
स्वमांसं
परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति ।
अनभ्यर्च्य
पितॄन् देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् ॥ ॥५२॥
जो विधि
छोड़कर, पिशाच के भांति मांस भक्षण नहीं करता वह
सबका प्रिय हो जाता है। और रोगों से दुःखी नहीं होता है। जिसकी इच्छा से मारा जाता
है, अङ्गों को काटकर अलग अलग करनेवाला, मारनेवाला, खरीदनेवाला, बेचनेवाला,
पकानेवाला, परोसनेवाला खानेवाला यह सभी
घातक-मारनेवाले होते हैं। जो पुरुष, देवता और पितरों का पूजन
बिना किये, दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है,
उससे बढ़कर कोई पाप करने वाला नहीं है ॥ ४६-५२ ।।
वर्षे
वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि च न
खादेद् यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥ ॥५३॥
फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां
च भोजनैः।
न तत्
फलमवाप्नोति यत्मांसपरिवर्जनात् ॥ ॥५४॥
मांस
भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाद् म्यहम् ।
एतत्मांसस्य
मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ॥ ५५ ॥
न मांसभक्षणे
दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्र वृत्तिरेषा
भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ ॥ ५६ ॥
सौ वर्ष तक
प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो जन्म भर मांस भक्षण नहीं करता, इन दोनों को समान पुण्य फल मिलता है।
पवित्र फल, मूल और मुनि अन्नों के खाने से वह फल नहीं मिलता
जो मांस छोड़ने से प्राप्त होता है । इस लोक में जिस का मांस भक्षण मैं करता हूं
"सः" अर्थात् वह परलोक मैं 'मां' अर्थात् मेरा भक्षण करेगा। यही 'मांस' शब्द का अर्थ विद्वानों ने कहा है। मांस खाना, मद्य
पीना और काम में मनुष्यों की प्रवृत्ति स्वाभाविक हुआ करती है, इस कारण इनमें दोष नहीं है । परन्तु इनको छोड़ देने से बड़ा पुण्य होता है
॥ ५३-५६॥
मनुस्मृति अध्याय ५- आशौच व्यवस्था
प्रेतशुद्धिं
प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धिं तथैव च ।
चतुर्णामपि
वर्णानां यथावदनुपूर्वशः ॥ ॥५७॥
दन्तजातेऽनुजाते
च कृतचूडे च संस्थिते ।
अशुद्धा
बान्धवाः सर्वे सूतके च तथौच्यते ॥ ॥ ५८ ॥
दशाहं शावमाशौचं
सपिण्डेषु विधीयते ।
अर्वाक्
सञ्चयनादस्थ्नां त्र्यहमेकाहमेव वा ॥ ॥ ५९ ॥
सपिण्डतातु
पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते ।
समानोदकभावस्तु
जन्मनाम्नोरवेदने ॥६०॥
अब चारों
वर्णों की सूतक व्यवस्था और धातु पात्रों की शुद्धि को क्रम से कहते हैं। बालक के
दांत निकल आये हों तो दांत निकलने के बाद और चूड़ा कर्म हो जाने के पश्च्यात यदि
बालक की मृत्यु हो जाए तो सभी बंधु बान्धवों को अशुद्धि और सूतक लगता है । सपिण्ड
अर्थात् सात पुश्त तक मरणा शौच दस दिन तक रहता है। किसी को अस्थि संचयन तक, किसी को तीन दिन तक सूतक रहता है । ॥५७-६०॥
यथैदं
शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।
जननेऽप्येवमेव
स्यानिपुणं शुद्धिमिच्छताम् ॥ ॥ ६१॥
सर्वेषां
शावमाशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम् ।
सूतकं मातुरेव
स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः ॥ ॥ ६२ ॥
निरस्य तु
पुमांशुक्रमुपस्पृस्यैव शुध्यति ।
बैजिकादभिसंबन्धादनुरुन्ध्यादघं
त्र्यहम् ॥ ॥ ६३ ॥
अह्ना चैकेन
रात्र्या च त्रिरात्रैरेव च त्रिभिः ।
शिवस्पृशो
विशुध्यन्ति त्र्यहादुदकदायिनः ॥ ॥६४॥
जैसा मरने पर
सपिण्डों को यह आशौच कहा है, वैसा ही पुत्र आदि उत्पन्न होने में भी अच्छी शुद्धता की इच्छा करनेवालों
को आशौच होता है। मरण आशौच सब सपिण्डों को और जन्मा शौच माता पिता को ही होता है।
उसमें भी पिता स्नान करने से शुद्ध होता और केवल माता को ही सूतक रहता है। पुरुष
जानकर वीर्य पात करे तो स्नान शुद्ध होता है । और दूसरी स्त्री में संतान पैदा
करने पर उसको तीन दिन तक आशौच रहता है। शव (मुर्दा) को छूने वाले दस दिन शुद्ध
होते हैं और समानोदुक अर्थात् सात पीढ़ी से ऊपर के पुरुष तीन दिन में शुद्ध होते
हैं ॥६१-६४॥
गुरोः
प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् ।
प्रेतहारैः
समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति । ॥६५॥
रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे
विशुध्यति ।
रजस्युपरते
साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला ॥ ॥६६॥
नृणामकृतचूडानां
विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता ।
निर्वृत्तचूडकानां
तु त्रिरात्रात्शुद्धिरिष्यते ॥ ॥६७॥
ऊनद्विवार्षिकं
प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः ।
अलङ्कृत्य
शुचौ भूमावस्थिसञ्चयनाद् ऋते ॥ ॥६८॥
शिष्य, अपने गुरु की अन्त्येष्टि करता हुआ,
शव उठाने वालों के साथ दसवें दिन शुद्ध होता है। जितने मास का
गर्भपात हो उतनी ही रात्रि में स्त्री शुद्ध होती है। और रजस्वला स्त्री रज बंद
होने पर स्नान करके शुद्ध होती है। जिन बालकों का चूडाकर्म नहीं हुआ उनके मरने से
एक दिन में और चूड़ा कर्म हो जाने पर तीन दिन में, सपिण्ड
पुरुष की शुद्धि होती है। दो वर्ष से कम उम्र का बालक यदि मर जाय तो उसको
पुष्पमाला, चंदन आदि से भूषित करके, नगर
के बाहर पवित्र भूमि में गाड़ कर उसका अस्थि संचयन नहीं करना चाहिए। ॥ ६५-६८ ॥
नास्य
कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्यौदकक्रिया ।
अरण्ये
काष्ठवत् त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहमेव तु ॥ ॥६९॥
नात्रिवर्षस्य
कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया ।
जातदन्तस्य वा
कुर्युर्नाम्नि वाऽपि कृते सति ॥ ॥७०॥
सब्रह्मचारिण्येकाहमतीते
क्षपणं स्मृतम् ।
जन्मन्येकौदकानां
तु त्रिरात्रात्शुद्धिरिष्यते ॥ ॥७१॥
और इस बालक का
अग्नि संस्कार, जल दान
आदि कुछ नहीं करना चाहिए। सिर्फ जंगल में, काष्ठ की भांति
गड्ढे में, छोड़ कर तीन दिन सूतक मानना चाहिए। तीन वर्ष से
कम अवस्था का बालक की मृत्यु होने पर, सपिण्ड को जलदान नहीं
करना चाहिए। परन्तु यदि बालक के दांत निकल गए हों, नामकरण हो
गया हो तो जलदान कर सकते हैं। सहाध्यायी के मरने पर एक दिन आशौच होता है और
समानोदक यहां सन्तति होने पर तीन दिन में शुद्धि होती है ॥६६-७१ ॥
स्त्रीणामसंस्कृतानां
तु त्र्यहात्शुध्यन्ति बान्धवाः ।
यथोक्तेनैव
कल्पेन शुध्यन्ति तु सनाभयः ॥ ॥७२॥
अक्षारलवणान्नाः
स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम् ।
मांसाशनं च
नाश्रीयुः शयीरंश्च पृथक् क्षितौ ॥ ॥७३॥
संनिधावेष वै
कल्पः शावाशौचस्य कीर्तितः ।
असंनिधावयं
ज्ञेयो विधिः संबन्धिबान्धवैः ॥ ॥ ७४ ॥
विगतं तु
विदेशस्थं शृणुयाद् यो ह्यनिर्दशम् ।
यत्शेषं
दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत् ॥ ॥७५॥
जिस कन्या का
विवाह न हुआ हो परन्तु सगाई ही गयी हो, उसके निधन में ससुराल वाले और पितृकुल के तीन रात में शुद्ध
होते हैं। मृत्यु सूतक वाले को उबला हुआ, बिना नमक का भोजन
करना चाहिए। तीन दिन तक नदी में स्नान करें और मांस भक्षण न करे, भूमि में अलग सोवे । जो सपिण्ड और समानोदक पुरुष, मरणकार्य
मैं समीप हों उनके लिए यह अशौचविधि कही गई है। और जो पास में हों, विदेश में हों उनके लिए आगे कही विधि जाननी चाहिए। विदेश मरने का हाल दस दिन
के भीतर जाने तो जितने दिन बचे हों उतने ही दिन का सूतक होता है ॥७२-७५ ॥
अतिक्रान्ते
दशाहे च त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् ।
संवत्सरे
व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति ॥ ॥७६॥
निर्दशं
ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च ।
सवासाजलमाप्लुत्य
शुद्धो भवति मानवः ॥ ॥७७॥
बाले
देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते ।
सवासाजलमाप्लुत्य
सद्य एव विशुध्यति ॥ ॥ ७८ ॥
अन्तर्दशाहे
स्यातां चेत् पुनर्मरणजन्मनी ।
तावत्
स्यादशुचिर्विप्रो यावत् तत् स्यादनिर्दशम् ॥ ॥७९॥
त्रिरात्रमाहुराशौचमाचार्ये
संस्थिते सति ।
तस्य पुत्रे च
पत्न्यां च दिवारात्रमिति स्थितिः ॥ ॥८०॥
दस दिन बीतने
पर मृत्यु सुने तो तीन दिन का आशौच होता हैं और एक वर्ष बीतने पर स्नान मात्र से
ही शुद्धि होता है। अपने समानोदक का मरण और पुत्र का जन्म सुनकर सचैल (वस्त्र
सहित) स्नान से शुद्ध है। सगोत्र बालक का और असपिण्ड मामा, साला आदि की विदेश में हुई मृत्यु को सुनकर,
सचैल (वस्त्र सहित) स्नान से शुद्ध होती है। यदि दशाह के भीतर फिर
कोई पैदा हो या मरे, तो ब्राह्मण दस दिन पूरे होने तक शुद्ध
नहीं होता। आचार्य के मरने में, शिष्य को तीन दिन आशौच रहता
है और आचार्य के पुत्र या स्त्री के मरण एक दिन का अशौच होता है ॥७६-८० ॥
श्रोत्रिये
तूपसम्पन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् ।
मातुले
पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च ॥ ॥८१॥
प्रेते राजनि
सज्योतिर्यस्य स्याद् विषये स्थितः।
अश्रोत्रिये
त्वहः कृत्स्नमनूचाने तथा गुरौ ॥ ॥८२॥
शुद्धयेद् विप्रो
दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः ।
वैश्यः
पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति ॥ ॥८३॥
श्रोत्रिय की
मृत्यु में तीन दिन, मामा, शिष्य, ऋत्विक और
बान्धवों की मृत्यु में दिन-रात आशौच रहता है। जिस राजा के देश में निवास हो उसकी
मृत्यु दिन में होने पर सूर्यास्त तक और रात में रातभर सूतक रहता है। अश्रोत्रिय
ब्राह्मण, वेदपाठी और गुरु के मरण में, एक दिन का, अशौच होता है। ब्राह्मण दस दिन में,
क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पंद्रह दिन में
और शुद्र एक मास में शुद्ध होता है। ॥८१-८३॥
न
वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः ।
न च तत्कर्म
कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत् ॥ ॥८४॥
दिवाकीर्तिमुदक्यां
च पतितं सूतिकां तथा ।
शवं
तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्टा स्नानेन
शुध्यति ॥ ॥८५॥
आचम्य प्रयतो
नित्यं जपेदशुचिदर्शने ।
सौरान्
मन्त्रान् यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः ॥ ॥८६॥
नारं
स्पृष्ट्वाऽस्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति ।
आचम्यैव तु
निःस्नेहं गामालभ्यार्कमीक्ष्य वा ॥ ॥८७॥
आदिष्टी नोदकं
कुर्यादा व्रतस्य समापनात् ।
समाप्ते तूदकं
कृत्वा त्रिरात्रेणैव शुध्यति ॥ ॥ ८८ ॥
अग्निहोत्री
को सूतक के दिन बढ़ाकर, अग्निहोत्र में विघ्न नहीं करना चाहिए। अग्निहोत्री को सपिण्ड होने पर भी
सूतक नहीं लगता । चाण्डाल, रजस्वला, पतित,
प्रसूता और मुर्दे को छूने पर स्नान से शुद्धि होती है। अपवित्र
वस्तु का दर्शन होने पर, पवित्र होकर आचमनपूर्वक सौर मन्त्र 'उदुत्य जात वेदसम्' और पवमान मन्त्रों का जप करना
चाहिए। मनुष्य की गीली हड्डी छूने पर स्नान करके और सूखी हो तो आचमन से विप्र
शुद्ध होता है। अथवा गौ का स्पर्श या सूर्यदर्शन से पवित्रता होती है। ब्रह्मचारी
व्रत की समाप्ति तक जलदान न करे। उसके बाद जलदान करें और तीन रात में ही शुद्ध भी
हो जाता है। ॥ ८४-८८ ॥
वृथासङ्करजातानां
प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम् ।
आत्मनस्त्यागिनां
चैव निवर्तेतोदकक्रिया ॥ ॥ ८९ ॥
पाषण्डमाश्रितानां
च चरन्तीनां च कामतः ।
गर्भभर्तृद्रुहां
चैव सुरापीनां च योषिताम् ॥ ॥९०॥
आचार्यं
स्वमुपाध्यायं पितरं मातरं गुरुम् ।
निर्हृत्य तु
व्रती प्रेतान्न व्रतेन वियुज्यते ॥ ॥ ९१ ॥
वर्णसंकर, संन्यासी और आत्मघाती को जलदान की ज़रूरत
नहीं है। पाखण्डी, दुराचारी स्त्री, गर्भ
और पति का घात करने वाली और मद्य पीनेवाली स्त्री को जलदान नहीं करना चाहिए। अपने
आचार्य, उपाध्याय, पिता, माता और गुरु के शव को उठाने और दग्ध करने से, ब्रह्मचारी
अपने व्रत से पतित नहीं होता है ॥८९-९१ ॥
दक्षिणेन मृतं
शूद्रं पुरद्वारेण निर्हरेत् ।
पश्चिमोत्तरपूर्वैस्तु
यथायोगं द्विजन्मनः ॥ ॥ ९२ ॥
न
राज्ञामघदोषोऽस्ति व्रतिनां न च सत्त्रिणाम् ।
ऐन्द्रं
स्थानमुपासीना ब्रह्मभूता हि ते सदा ॥ ॥ ९३ ॥
राज्ञो महात्मके
स्थाने सद्यः शौचं विधीयते ।
प्रजानां
परिरक्षार्थमासनं चात्र कारणम् ॥ ॥ ९४ ॥
डिम्भाहवहतानां
च विद्युता पार्थिवेन च ।
गोब्राह्मणस्य
चेवार्थे यस्य चैच्छति पार्थिवः ॥ ॥९५॥
शूद्र के मृत
शरीर को नगर के दक्षिण द्वार से और ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के शव को क्रम से पश्चिम, उत्तर और पूर्व द्वार से श्मशान में ले जाना चाहिए। राजा, ब्रह्मचर्य व्रत करनेवाला और यज्ञ करने वाले को सूतक नहीं लगता क्योंकि
राजा इन्द्र के पद पर है तथा ब्रह्मचारी और याज्ञिक सदा ब्रह्मरूप ही है। जो पुरुष
राजा के यहां श्रेष्ठ स्थान पर नियुक्त होता है। वह कार्य करने के निमित्त तुरंत
ही शौच से मुक्त होता है। क्योंकि प्रजारक्षा के लिए न्यायासन, पर बैठना ही इसमें कारण है। बिना शस्त्र की लड़ाई में, बिजली गिरने से, राजाज्ञा द्वारा फांसी से और
गौ-ब्राह्मण की रक्षा के लिए मरे हुए का और जिसको राजा अपने कार्य के लिए चाहे
उसकी तत्काल शुद्धि होती है ॥९२-९५॥
सोमाग्न्यर्कानिलेन्द्राणां
वित्ताप्पत्योर्यमस्य च ।
अष्टानां
लोकपालानां वपुर्धारयते नृपः ॥ ॥९६॥
लोकेशाधिष्ठितो
राजा नास्याशौचं विधीयते ।
शौचाशौचं हि
मर्त्यानां लोकेभ्यः प्रभवाप्ययौ ॥ ॥९७॥
उद्यतैराहवे
शस्त्रैः क्षत्रधर्महतस्य च ।
सद्यः
संतिष्ठते यज्ञस्तथाऽशौचमिति स्थितिः ॥ ॥९८ ॥
विप्रः
शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम् ।
वैश्यः
प्रतोदं रश्मीन् वा यष्टिं शूद्रः कृतक्रियः ॥ ॥९९॥
अग्नि, सूर्य, वायु, इंद्र, कुबेर, वरुण और यम इन
आठ लोकपालों के शरीर को राजा धारण करता है। लोकपालों को राजा के शरीर में निवास
होने से उसको सूतक नहीं लगता । अशौच तो मनुष्यों के लिए है राजा तो लोकपालों के
अंश से पैदा हुआ है। जो राजा शस्त्रों से धर्मयुद्ध करके मरता है उसको यज्ञ का फल
मिलता है तथा शौच तुरंत ही दूर हो जाता है। प्रेतक्रिया के अंत में ब्राह्मण जल का,
क्षत्रिय शस्त्र का, वैश्य हांकने के डंडे
अथवा बागडोर का तथा शुद्र लकड़ी का स्पर्श करके शुद्ध होता है। अर्थात इन पदार्थों
को अशोचन्त में अवश्य छूना चाहिए ॥ ९६-९९ ॥
एतद्
वोऽभिहितं शौचं सपिण्डेषु द्विजोत्तमाः ।
असपिण्डेषु
सर्वेषु प्रेतशुद्धिं निबोधत ॥ ॥ १०० ॥
असपिण्डं
द्विजं प्रेतं विप्रो निर्हृत्य बन्धुवत् ।
विशुध्यति
त्रिरात्रेण मातुराप्तांश्च बान्धवान् ॥ ॥ १०१ ॥
यद्यन्नमत्ति
तेषां तु दशाहेनैव शुध्यति ।
अनदन्नन्नमत्रैव
न चेत् तस्मिन् गृहे वसेत् ॥ ॥ १०२ ॥
अनुगम्येच्छया
प्रेतं ज्ञातिमज्ञातिमेव च ।
स्नात्वा
सचैलः स्पृष्ट्वाऽग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति ॥ ॥१०३॥
न विप्रं
स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण नाययेत् ।
अस्वर्ग्या
ह्याहुतिः सा स्यात्शूद्रसंस्पर्शदूषिता ॥ ॥ १०४ ॥
हे द्विजो !
यह सपिण्डों की मरणाशौच विधि कही गई है। अब असापिण्डों की विधि सुनो। असपिण्ड
द्विज की मृत्यु होने पर उसको बन्धु की तरह उठाना, दाह देना और माता के समीप के भाई बहन आदि का भी उसी तरह कर्म
किया हो तो इसमें तीन दिन का आशौच होता है। जो दाहादि करनेवाला मृतक के सपिण्डों
का अन्न खाता हो तो दस दिन में, और न खाता हो, न उसके मकान ही में रहता हो तो एक दिन में, शुद्ध हो
जाता है। अपनी जाति, या दूसरी जाति के शव का अनुगमन करने से,
सचैल स्नान, अग्निस्पर्श और धृत खाने से
शुद्धि है। सजातियों के रहते शूद्रों से, ब्राह्मण शव को
अथवा शव वाहन को कभी नहीं उठवाना चाहिए। क्योकि शूद्र स्पर्श से दूषित होती शव की
आहुति, स्वर्गदायक नहीं होती ॥ १००-१०४ ॥
ज्ञानं
तपोऽग्निराहारो मृत्मनो वार्युपाञ्जनम् ।
वायुः
कर्मार्ककालौ च शुद्धेः कर्तृणि देहिनाम् ॥ ॥ १०५ ॥
सर्वेषामेव
शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।
शुचिर्हि
शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ॥ ॥ १०६ ॥
क्षान्त्या
शुध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः।
प्रच्छन्नपापा
जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ॥ ॥ १०७ ॥
ज्ञान, तप, अग्नि, भोजन, मिट्टी, मन, जल, लीपना, वायु, कर्म, सूर्य और काल यह सभी प्राणियों की शुद्धि
करनेवाले हैं। सब शुद्धियों में न्याय मिले धन की शुद्धि श्रेष्ठ कही गयी है। जो
पुरुष, न्यायपूर्वक मिले धन से शुद्ध हैं वह ही सबसे शुद्ध
माने जाते हैं। केवल मिट्टी जल से शुद्ध होनेवाले पवित्र नहीं माने जाते ।
विद्वान् क्षमा से, यम आदि न करनेवाले दान से, पापी जप से और वेदविशारद तप से पवित्र होते हैं ॥ १०५-१०७ ॥
मृत्तोयैः
शुध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुध्यति ।
रजसा स्त्री
मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमाः ॥ ॥ १०८ ॥
अद्भिर्गात्राणि
शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां
भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ॥ ॥ १०९ ॥
एष शौचस्य वः
प्रोक्तः शरीरस्य विनिर्णयः ।
नानाविधानां
द्रव्याणां शुद्धेः शृणुत निर्णयम् ॥ ॥ ११० ॥
अपवित्र
पदार्थ मिट्टी और जल से शुद्ध होते हैं। नदी वेग से शुद्ध होती है। मन से दूषित
स्त्री, रजस्वला होने से शुद्ध होती है और ब्राह्मण
त्याग से शुद्ध होता है। जल से शरीर शुद्ध होते हैं। मन सत्यभाषण से शुद्ध होता
है। इस प्रकार शरीरशुद्धि का निर्णय कहा अब द्रव्यशुद्धि का निर्णय कहेंगे ॥ १०६
११० ॥
मनुस्मृति
अध्याय ५- पदार्थ शुद्धि
तैजसानां
मणीनां च सर्वस्याश्ममयस्य च ।
भस्मनाऽद्भिर्मृदा
चैव शुद्धिरुक्ता मनीषिभिः ॥ ॥ १११ ॥
निर्लेपं
काञ्चनं भाण्डमद्भिरेव विशुध्यति ।
अब्जमश्ममयं
चैव राजतं चानुपस्कृतम् ॥ ॥ ११२ ॥
अपामग्नेश्च
संयोगाद् हैमं रौप्यं च निर्बभौ ।
तस्मात् तयोः
स्वयोन्यैव निर्णेको गुणवत्तरः ॥ ॥ ११३ ॥
ताम्रायस्कांस्यरैत्यानां
त्रपुणः सीसकस्य च ।
शौचं यथार्हं
कर्तव्यं क्षाराम्लोदकवारिभिः ॥ ॥ ११४ ॥
द्रवाणां चैव
सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतम् ।
प्रोक्षणं
संहतानां च दारवाणां च तक्षणम् ॥ ॥ ११५ ॥
सुवर्ण आदि
तैजस पदार्थ, मणि और सब
पत्थर के पदार्थों की शुद्धि राख, जल और मिट्टी से होती हैं।
जिस में किसी भांति का लेप न हो ऐसे सोने का पात्र, शंख,
पत्थर और चांदी का पात्र जल से ही शुद्ध होता है। सोना और चांदी
अग्नि और जल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। इसलिये उनकी पवित्रता अपनी योनि से ही
उत्तम होती है। तांबा, लोहा, कांस्य,
पीतल, जस्ता और सीसे का पात्र, खार-खटाई और जल इनमें जिससे हो सके उसी से शुद्ध कर लेना चाहिए। घी,
मधु आदि को पिघलाकर छान लेने से, जमे हुए का
प्रोक्षण से और लकड़ी के पात्र को छीलने से शुद्धि होती है॥१११-११५॥
मार्जनं
यज्ञपात्राणां पाणिना यज्ञकर्मणि ।
चमसानां
ग्रहाणां च शुद्धिः प्रक्षालनेन तु ॥ ॥ ११६ ॥
चरूणां
स्रुक्सुवाणां च शुद्धिरुष्णेन वारिणा ।
स्फ्यशूर्पशकटानां
च मुसलौलूखलस्य च ॥ ॥११७॥
अद्भिस्तु
प्रोक्षणं शौचं बहूनां धान्यवाससाम् ।
प्रक्षालनेन
त्वल्पानामद्भिः शौचं विधीयते ॥ ॥ ११८ ॥
चैलवत्वर्मणां
शुद्धिर्वेदलानां तथैव च ।
शाकमूलफलानां
च धान्यवत्शुद्धिरिष्यते ॥ ॥ ११९ ॥
कौशेयाविकयोरूषैः
कुतपानामरिष्टकैः।
श्री
फलैरंशुपट्टानां क्षौमाणां गौरसर्षपैः ॥ ॥ १२० ॥
क्षौमवत्शङ्खशृङ्गाणामस्थिदन्तमयस्य
च ।
शुद्धिर्विजानता
कार्या गोमूत्रेणौदकेन वा ॥ ॥ १२१ ॥
प्रोक्षणात्
तृणकाष्ठं च पलालं चैव शुध्यति ।
मार्जनौपाञ्जनैर्वेश्म
पुनः पाकेन मृण्मयम् ॥ ॥१२२॥
यज्ञ कर्म में
यज्ञ के पात्र हाथ से धो डालने से पवित्र हो जाते हैं । चमस और ग्रहपात्र वगैरह
गरम जल से धोने से पवित्र होते हैं। चरु, स्रुव, स्रुवा, सफ़य,
सूप, शकट, मूसल और ऊखल
गरम जल से शुद्ध होते हैं । अन्न और वस्त्र का बहुत ढेर हो तो जल छिड़कने से
पवित्र होता है और थोड़ा हो तो जल से धोने पर पृवित्र होता है। चमड़ा, चटाई आदि बांस के प्रदार्थ, वस्त्रों के समान और
शाक-मूल-फलों को अन्न के समान पवित्र करना चाहिये। रेशम, ऊनी
वस्त्र रेत से, कम्बल रीठ से, सन के
वस्त्र बेल के गुद्दे से, अलसी आदि के वस्त्र – सफ़ेद सरसों
से, पवित्र होते हैं । शंख, सींग,
हड्डी और हाथीदांत के पदार्थ, सफ़ेद सरसों,
गोमूत्र और जल से, पवित्र होते हैं। लकड़ी,
घास वगैरह जल छिड़कने से, घर लीपने पोतने से
और मिट्टी के बर्तन आग में रखने से शुद्ध होते हैं ।। ११६-१२२ ॥
मद्यैर्मूत्रैः
पुरीषैर्वा ष्ठीवनैः पूयशोणितैः ।
संस्पृष्टं
नैव शुद्ध्येत पुनःपाकेन मृत्मयम् ॥ ॥१२३॥
संमार्जनौपाञ्जनेन
सेकेनौल्लेखनेन च ।
गवां च
परिवासेन भूमिः शुध्यति पञ्चभिः ॥ ॥ १२४ ॥
पक्षिजग्धं
गवा घ्रातमवधूतमवक्षुतम् ।
दूषितं
केशकीटैश्च मृत्प्रक्षेपेण शुध्यति ॥ ॥ १२५ ॥
यावन्नापेत्यमेध्याक्ताद्
गन्धो लेपश्च तत्कृतः ।
तावन्
मृद्वारि चादेयं सर्वासु द्रव्यशुद्धिषु ॥ ॥ १२६ ॥
त्रीणि देवाः
पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन् ।
अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं
यच्च वाचा प्रशस्यते ॥ ॥ १२७ ॥
आपः शुद्धा
भूमिगता वैतृष्ण्यं यासु गोर्भवेत् ।
अव्याप्ताश्चेदमेध्येन
गन्धवर्णरसान्विताः ॥ ॥ १२८ ॥
नित्यं शुद्धः
कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम् ।
ब्रह्मचारिगतं
भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः ॥ ॥ १२९ ॥
नित्यमास्यं
शुचि स्त्रीणां शकुनिः फलपातने ।
प्रस्रवे च
शुचिर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः ॥ ॥ १३० ॥
श्वभिर्हतस्य
यन् मांसं शुचि तन् मनुरब्रवीत् ।
क्रव्याद्भिश्च
हतस्यान्यैश्चण्डालाद्यैश्च दस्युभिः ॥ ॥ १३१ ॥
जिस मृत्पात्र
में मद्य-मल चरबी आदि का संपर्क हो जाता है उसका पुनः अग्निसंस्कार करने पर भी वह
शुद्ध नहीं होता । झाडू देना, लीपना, जल छिड़कना, खोदना और
गौ का निवास इन पांच प्रकारों से भूमि पवित्र होती है। पक्षी का खाया हुआ गौ को
सूंघा हुआ, पैर से दबाया हुआ और जिसके ऊपर छींक दिया हों,
जहां बाल या कीड़ा पड़ा हो ऐसा स्थान मिट्टी डालने से पवित्र होता
है। जब तक पदार्थों से अपवित्र वस्तु का गंध या लेप दूर न हो, तब तक उन पदार्थों को मिट्टी और जल से शुद्ध करना चाहिए। देवताओं ने
ब्राह्मणो के तीन पदार्थ पवित्र कहे हैं - एक अदृष्ट, दूसरा
जो पानी से धो लिया गया हो और तीसरा जिसको ब्राह्मणों ने चरण से पवित्र किया हो।
जिस जल में गौ की प्यास दूर हो जाये, पवित्र हो, गंध, रस और वर्ण से ठीक हो, ऐसा
पानी भूमि में शुद्ध होता है। कारीगर का हाथ, जो पदार्थ
बाजार में बेचने के लिए रखें हों और ब्रह्मचारी की भिक्षा यह सदा पवित्र होते हैं।
स्त्रियों का मुख, फल गिराने में पक्षी की चोंच, दूध निकालते समय बछेड़ा का मुख और शिकार में कुत्ते का मुख पवित्र माना
गया है। कुत्ते के द्वारा शिकार किए गए का मांस पवित्र होता है। मांसाहारी पशु,
चाण्डाल आदि के मारे जीवों का मांस भी पवित्र होता है यह मनुजी की
आज्ञा है ॥ १२३ -१३१ ॥
ऊर्ध्वं
नाभेर्यानि खानि तानि मेध्यानि सर्वशः ।
यान्यधस्तान्यमेध्यानि
देहाच्चैव मलाश्च्युताः ॥ ॥१३२॥
मक्षिका
विप्रुषश्छाया गौरश्वः सूर्यरश्मयः ।
रजो
भूर्वायुरग्निश्च स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् ॥ ॥ १३३ ॥
विण्मूत्रोत्सर्गशुद्ध्यर्थं
मृद्वार्यादयमर्थवत् ।
दैहिकानां
मलानां च शुद्धिषु द्वादशस्वपि ॥ ॥ १३४ ॥
वसा
शुक्रमसृग्मज्जा मूत्रविङ्घ्राणकर्णविट् ।
श्लेश्माश्रु
दूषिका स्वेदो द्वादशैते नृणां मलाः ॥ ॥ १३५ ॥
इन्द्रियां
नाभि के ऊपर हैं वह सब पवित्र हैं और जो नाभि के नीचे हैं वह सब अशुद्ध हैं। देह
से निकला मल सब अपवित्र हैं । मक्खी, मुख से निकली जल की छींट, छाया, गौ, घोड़ा, सूर्य की किरण,
धूलि, भूमि, वायु और
अग्नि इन सब का, स्पर्श पवित्र होता है। देह मल की शुद्धि के
लिए उतनी मिट्टी और जल लेना चाहिए जिससे दुर्गन्ध आदि शुद्ध हो जाये। चरबी,
वीर्य, रुधिर, मञ्जा,
मूत्र, विष्ठा, नाक-कान
का मैल, खखार, आँसू, आँखों का मैल और पसीना यह बारह मनुष्य देह के मल हैं ॥ १३२-१३५ ॥
एका लिङ्गे
गुदे तिस्रस्तथैकत्र करे दश ।
उभयोः सप्त
दातव्या मृदः शुद्धिमभीप्सता ॥ ॥१३६॥
एत शौचं
गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् ।
त्रिगुणं
स्याद् वनस्थानां यतीनां तु चतुर्गुणम् ॥ ॥१३७॥
कृत्वा मूत्रं
पुरीषं वा खान्याचान्त उपस्पृशेत् ।
वे
दमध्येष्यमाणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा ॥ ॥ १३८ ॥
त्रिराचामेदपः
पूर्वं द्विः प्रमृज्यात् ततो मुखम् ।
शरीरं
शौचमिच्छन् हि स्त्री शूद्रस्तु सकृत् सकृत् ॥ ॥१३९॥
मल और मूत्र
का त्याग करने पर लिङ्ग और योनि को एक बार, गुदा को तीन बार, वाम हाथ को दस बार फिर
दोनों हाथों को सात बार मिट्टी से धोना चाहिए। यह आचार- शौच, गृहस्थ के लिए हैं। ब्रह्मचारियों को इससे दुगना शौच करना चाहिए, वानप्रस्थ आश्रमवालों को तीन गुना और संन्यासियों को चार गुना करना चाहिए
। मल-मूत्र करने के पीछे शुद्ध होकर आचमन करें और नेत्र वगैरह का जल से स्पर्श करे
। वेदपाठ के आरम्भ में और भोजन के समय में आचमन करे। प्रहले तीच बार, आचमन फिर दो बार मुख धोए। स्त्री और शूद्र एक बार ही जल से आचमन करें। इस
प्रकार शरीरशुद्धि होती है ॥ १३६-१३९ ॥
शूद्राणां
मासिकं कार्यं वपनं न्यायवर्तिनाम् ।
वैश्यवत्शौचकल्पश्च
द्विजोच्छिष्टं च भोजनम् ॥ ॥ १४० ॥
नोच्छिष्टं
कुर्वते मुख्या विप्रुषोऽङ्गं न यान्ति याः ।
न श्मश्रूणि
गतान्यास्यं न दन्तान्तरधिष्ठितम् ॥ ॥ १४१ ॥
स्पृशन्ति
बिन्दवः पादौ य आचामयतः परान् ।
भौमिकैस्ते
समा ज्ञेया न तैराप्रयतो भवेत् ॥ ॥ १४२ ॥
उच्छिष्टेन तु
संस्पृष्टो द्रव्यहस्तः कथं चन ।
अनिधायैव तद्
द्रव्यमाचान्तः शुचितामियात् ॥ ॥१४३॥
वान्तो विरिक्तः
स्नात्वा तु घृतप्राशनमाचरेत् ।
आचामेदेव
भुक्त्वाऽन्नं स्नानं मैथुनिनः स्मृतम् ॥ ॥१४४॥
सुप्त्वा
क्षुत्वा च भुक्त्वा च निष्ठीव्यौक्त्वाऽनृतानि च ।
पीत्वाऽपोऽध्येष्यमाणश्च
आचामेत् प्रयतोऽपि सन् ॥ ॥ १४५ ॥
एषां शौचविधिः
कृत्स्नो द्रव्यशुद्धिस्तथैव च ।
उक्तो वः
सर्ववर्णानां स्त्रीणां धर्मान्निबोधत ॥ ॥ १४६ ॥
न्यायानुसार
चलनेवाला शूद्र महीने में बालों को बनवावे, मृत्युसूतक और जन्मसूतक में वैश्य के समान व्यवहार करे और
ब्राह्मण का जूठा अन्न खावे । मुख से शरीर पर जो छीटें पड़ती हैं मैं शरीर को झूठा
नहीं करती। मुख में गया मूंछ का बाल और दांतों की झिरियों में रहा अन्न भी झूठा
नहीं करता। दूसरे को कुल्ला करानेवाले के पैर पर जो छीटें पड़ती हैं उनको भूमि के
जल बिन्दु समान मानना चाहिए। उनसे कोई अशुद्ध नहीं होता। हाथ में अन्न वगैरह हो और
जूठे अपवित्र वस्तु का स्पर्श हो जाये तो वह बिना भूमि में रखते ही केवल आचमन से
पवित्र हो जाता है। वमन और दस्त होने पर, स्नान करके घी का
आचमन करे, भोजन करके कुल्ला करे और मैथुन के बाद स्नान करे
तब शुद्धि होती हैं। सोकर, छींककर, खाकर,
थूककर झूठ बोलकर, जल पीकर और पढ़ने के समय
पवित्र होने पर भी आचमन करना चाहिए। यह सब संपूर्ण वर्णों की शौचविधि कही गई है,
अब स्त्रियों के धर्म सुनो ॥ १४०-१४६ ॥
मनुस्मृति
अध्याय ५- स्त्री धर्म
बाया वा
युवत्या वा वृद्धया वाऽपि योषिता ।
न
स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किं चिद् कार्यं गृहेष्वपि ॥ ॥ १४७॥
बाल्ये
पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने ।
पुत्राणां
भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम् ॥ ॥ १४८ ॥
पित्रा
भर्त्रा सुतैर्वाऽपि नेच्छेद् विरहमात्मनः ।
एषां हि
विरहेण स्त्री ग कुर्यादुभे कुले ॥ ॥ १४९ ॥
सदा प्रहृष्टा
भाव्यं गृहकार्ये च दक्षया ।
सुसंस्कृतोपस्करया
व्यये चामुक्तहस्तया ॥ ॥ १५०॥
यस्मै दद्यात्
पिता त्वेनां भ्राता वाऽनुमते पितुः ।
तं शुश्रूषेत
जीवन्तं संस्थितं च न लङ्घयेत् ॥ ॥१५१॥
स्त्री चाहे
बालक, युवती अथवा वृद्ध हों, उनको घर में कोई काम स्वतन्त्रता से नहीं करना चाहिए। स्त्री बालकपन में
पिता की आज्ञा में, जवानी में पति की आज्ञा में और पति के
बाद पुत्र की आज्ञा में रहे परन्तु स्वतन्त्रता का भोग कभी न करे । स्त्री,
पिता, पति वा पुत्रों से अलग रहने की इच्छा न
करें। अलग रहने से पिता और पति दोनों कुलदोषी होते हैं । सदा प्रसन्नचित्त और घर
के काम में चतुर रहें, घर के सामान को पवित्र रखे और खर्च
संभाल कर करे। पिता या पिता की सम्मति से भाई जिसके साथ विवाह कर दे, उस पति की सेवा जीवन भर स्त्री को करनी चाहिए और उसके मृत्यु होनेपर
ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए ॥ १४७-१५१ ॥
मङ्गलार्थं
स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः ।
प्रयुज्यते
विवाहे तु प्रदानं स्वाम्यकारणम् ॥ ॥१५२॥
अनृतावृतुकाले
च मन्त्रसंस्कारकृत् पतिः ।
सुखस्य नित्यं
दातैह परलोके च योषितः ॥ ॥ १५३ ॥
विशीलः
कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः ।
उपचार्यः
स्त्रिया साध्या सततं देववत् पतिः ॥ ॥ १५४॥
विवाह में जो
प्रजापति यज्ञ किया जाता है वह स्त्रियों के मङ्गलार्थ हैं। और पति होने में
वाग्दान ही कारण हैं। मन्त्रों में विवाह - संस्कार करनेवाला पति, ऋतुकाल में या उससे भिन्न काल में सदा
स्त्री को सुख देनेवाला है। पति लोक-परलोक दोनों में सुखदाता है । पति चाहे कुशील
हो, मन माना हो, अच्छे गुणों से रहित
हो तब भी उसकी सेवा देवता के समान करनी चाहिए ॥ १५२ -१५४ ।।
नास्ति
स्त्रीणां पृथग् यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।
पतिं
शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते ॥ ॥ १५५ ॥
पाणिग्राहस्य
साध्वी स्त्री जीवतो वा मृतस्य वा ।
पतिलोकमभीप्सन्ती
नाचरेत् किं चिदप्रियम् ॥ ॥ १५६ ॥
कामं तु
क्षपयेद् देहं पुष्पमूलफलैः शुभैः ।
न तु नामापि
गृह्णीयात् पत्यौ प्रेते परस्य तु ॥ ॥ १५७ ॥
सीतामरणात्
क्षान्ता नियता ब्रह्मचारिणी ।
यो धर्म
एकपत्नीनां काङ्क्षन्ती तमनुत्तमम् ॥ ॥ १५८ ॥
स्त्रियों के
लिए अलग यज्ञ, व्रत या
उपवास कुछ भी नहीं हैं, उनके लिए पति की सेवा ही स्वर्ग
देनेवाली है। जो पतिव्रता स्त्री अपने पतिलोक की इच्छा करे, वह
पति के जीवन में, या मरण में उसके विरुद्ध कोई आचरण न करे ।
विधवा स्त्री को फूल, फल खाकर शरीर क्षीण, करना चाहिए। पति के मरने पर, व्यभिचार के खयाल से पर
पुरुष का नाम भी नहीं लेना चाहिए। एक पति की सेवा करनेवाली स्त्री को विधवा होने
पर भी अपनी मनकामनाओं को छोड़ देना चाहिए, मरणकाल तक
ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और पतिसेवा के फल की इच्छा रखनी चाहिए ॥१५५-१५८॥
अनेकानि
सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् ।
दिवं गतानि
विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम् ॥ ॥ १५९ ॥
मृते भर्तरि
साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता ।
स्वर्गं
गच्छत्यपुत्राऽपि यथा ते ब्रह्मचारिणः ॥ ॥ १६० ॥
अपत्यलोभाद्
या तु स्त्री भर्तारमतिवर्तते ।
सेह
निन्दामवाप्नोति परलोकाच्च हीयते ॥ ॥ १६१ ॥
नान्योत्पन्ना
प्रजाऽस्तीह न चाप्यन्यपरिग्रहे ।
न द्वितीयश्च
साध्वीनां क्व चिद् भर्तोपदिश्यते ॥ ॥ १६२॥
हज़ारों लाख
बालब्रह्मचारी, ब्राह्मण
कुल की वृद्धि के लिए, बिना संतान के ही स्वर्ग को प्राप्त
हो गए हैं। पति की मृत्यु के बाद, जो स्त्रियाँ ब्रह्मचर्य
से रहती हैं, वह पुत्रहीन भी स्वर्ग को प्राप्त करती हैं।
जैसे ब्रह्मचारियों को मिला है। परन्तु जो स्त्रियाँ पुत्र की लालसा से व्यभिचार
करती हैं, वह लोक में निन्दा पाकर, अन्त
में पतिलोक से भ्रष्ट हो जाती हैं। पति के सिवा दूसरे से उत्पन्न सन्तान, उस स्त्री की सन्तान नहीं गिनी जाती । पतिव्रता स्त्रियों के लिए दूसरे
पति की व्यवस्था कही नहीं है। अर्थात् विवाहित पति ही उसको सच्चा सुख और
स्वर्गलोंक देने में समर्थ होता है ॥१५६-१६२॥
पतिं
हित्वाऽपकृष्टं स्वमुत्कृष्टं या निषेवते ।
निन्द्यैव सा
भवेल्लोके परपूर्वेति चौच्यते ॥ ॥ १६३ ॥
व्यभिचारात्
तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् ।
शृगालयोनिं
प्राप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते ॥ ॥१६४॥
पतिं या
नाभिचरति मनोवाग्देहसंयुता ।
सा भर्तृलोकमाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते ॥ ॥१६५॥
अनेन नारी
वृत्तेन मनोवाग्देहसंयता ।
इहाग्र्यां
कीर्तिमाप्नोति पतिलोकं परत्र च ॥ ॥ १६६ ॥
जो स्त्री रूप, धन आदि से रहित अपने पति को छोड़कर दूसरे
पुरुष की सेवा करती है वह संसार में निन्दा पाती है और इसका अमुक पति पहला है अमुक
दूसरा है इस प्रकार लोग कहते हैं। जो स्त्री पति को छोड़कर व्यभिचार करती है वह
जगत् में, निंदा पाती है और मृत्यु उपरांत शृगाल की योनि में
जन्म लेती है । पाप रोग कोढ़ इत्यादि से पीड़ित होती है। और जो स्त्री शरीर,
वाणी और मन को वश में रखकर पतिसेवा करती है । वह पतिलोक पाती है और
संसार में पतिव्रता कहलाती है। मन, वाणी और शरीर से नियम और
सदाचार से रहनेवाली स्त्री साध्वी कहलाती है और उत्तम कीर्ति और स्वर्ग को प्राप्त
होती है ॥ १६३ - १६६ ॥
एवं वृत्तां
सवर्णां स्त्रीं द्विजातिः पूर्वमारिणीम् ।
दाहयेदग्निहोत्रेण
यज्ञपात्रैश्च धर्मवित् ॥ ॥ १६७ ॥
भार्यायै
पूर्वमारिण्यै दत्त्वाऽग्नीनन्त्यकर्मणि ।
पुनर्दारक्रियां
कुर्यात् पुनराधानमेव च ॥ ॥ १६८ ॥
अनेन विधिना
नित्यं पञ्चयज्ञान्न हापयेत् ।
द्वितीयमायुषो
भागं कृतदारो गृहे वसेत् ॥ ॥१६९ ॥
इस प्रकार
साध्वी, सवर्णा स्त्री पति से पूर्व मर जाय तो उसका
दाह अग्निहोत्र की अग्नि और यज्ञपात्रों के साथ करना चाहिए। पति से पूर्व स्त्री
को मरण होने पर, उसकी अन्त्येष्टि क्रियापूर्वक दाह देकर,
फिर विवाह करके, स्मार्त अग्नि या श्रौताग्नि
का धारण करना चाहिए। द्विजातियों को उक्त विधि के अनुसार, नित्य
पञ्चमहायज्ञ करना और विवाह करके आयु का दूसरा भाग गृहस्थाश्रम में बिताना चाहिए ॥
१६७-१६९ ॥
॥ इति मानवे
धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः॥५॥
॥ महर्षि भृगु
द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का पाँचवाँ अध्याय समाप्त ॥
आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 6
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