अग्निपुराण अध्याय १०४
अग्निपुराण
अध्याय १०४ में मंदिर प्रासाद के लक्षण का वर्णन है।
अग्निपुराणम् चतुरधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 104
अग्निपुराण एक सौ चार अध्याय- प्रासाद लक्षण
अग्नि पुराण अध्याय १०४
अग्निपुराणम् अध्यायः १०४ – सामान्यप्रासादलक्षणं
अथ चतुरधिकशततमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
वक्ष्ये
प्रासादसामान्यलक्षणं ते शिखध्वज ।
चतुर्भागीकृते
क्षेत्रे भित्तेर्भागेन विस्तरात् ॥१॥
अद्रिभागेन
गर्भः स्यात्पिण्डिका पादविस्तरात् ।
पञ्चभागीकृते
क्षेत्रेन्तर्भागे तु पिण्डिका ॥२॥
सुषिरं भागविस्तीर्णं
भित्तयो भागविस्तरात् ।
भागौ द्वौ
मध्यमे गर्भे ज्येष्ठभागद्वयेन तु ॥३॥
त्रिभिस्तु
कन्यसागर्भः शेषो भित्तिरिति क्वचित् ।
भगवान् शंकर
कहते हैं- ध्वजा में मयूर का चिह्न धारण करनेवाले स्कन्द ! अब मैं प्रासाद-
सामान्य का लक्षण कहता हूँ। चौकोर क्षेत्र के चार क्षेत्र के भाग करके एक भाग में
भित्तियों (दीवारों ) - का विस्तार हो । बीच के भाग गर्भ के रूप में रहें और एक
भाग में पिण्डिका हो। पाँच भागवाले भीतरी भाग में तो पिण्डिका हो, एक भाग का विस्तार छिद्र (शून्य या खाली
जगह) के रूप में हो तथा एक भाग का विस्तार दीवारों के उपयोग में लाया जाय। मध्यम
गर्भ में दो भाग और ज्येष्ठ गर्भ में भी दो ही भाग रहें। किंतु कनिष्ठ गर्भ तीन
भागों से सम्पन्न होता है; शेष आठवाँ भाग दीवारों के उपयोग में
लाया जाय, ऐसा विधान कहीं-कहीं उपलब्ध होता है ॥१-३अ॥
षोढाभक्येथवा
क्षेत्रे भित्तिर्भागैकविस्तरात् ॥४॥
गर्भो भागेन
विस्तीर्णो भागद्वयेन पिण्डिका ।
विस्ताराद्द्विगुणो
वापि सपादद्विगुणोऽपि वा ॥५॥
अर्धार्धद्विगुणो
वापि त्रिगुणः क्वचित्त्रिदुच्छ्रयः ।
जगती
विस्तरार्धेन त्रिभागेन क्वचिद्भवेत् ॥६॥
नेमिः
पादोनविएस्तीर्णा प्रासादस्य समन्ततः ।
परिधिस्त्रयं
शको मध्ये रथकांस्तत्र कारयेत् ॥७॥
चामुण्डं
भैरवं तेषु नाट्येशं च निवेशयेत् ।
प्रासादार्धेन
देवानामष्टौ वा चतुरोऽपि वा ॥८॥
प्रदक्षिणां
वहिः कुर्यात्प्रासादादिषु वा नवा ।
छः भागों द्वारा
विभक्त क्षेत्र में एक भाग का विस्तार दीवार के उपयोग में आता है, एक भाग का विस्तार गर्भ है और दो भागों में
पिण्डिका स्थापित की जाती है। कहीं-कहीं दीवारों की ऊँचाई उसकी चौड़ाई की अपेक्षा
दुगुनी, सवा दो गुनी, ढाई गुनी अथवा
तीन गुनी भी होने का विधान मिलता है। कहीं-कहीं प्रासाद (मन्दिर) - के चारों ओर
दीवार के आधे या पौने विस्तार की जगत होती है और चौथाई विस्तार की नेमि । बीच में
एक तृतीयांश की परिधि होती है। वहाँ रथ बनवावे और उनमें चामुण्ड भैरव तथा नाट्येश की
स्थापना करे। प्रासाद के आधे विस्तार में चारों ओर बाहरी भाग में देवताओं के लिये
आठ या चार परिक्रमाएँ बनवावे। प्रासाद आदि में इनका निर्माण वैकल्पिक है। चाहे
बनवावे, चाहे न बनवावे ॥ ४-८अ ॥
आदित्याः
पूर्वतः स्थाप्याः स्कन्दोग्निर्वायुगोचरे ॥९॥
एवं यमादयो
न्यस्याः स्वस्याः स्वस्यां दिशि स्थिताः ।
चतुर्धा शिखरं
कृत्वा शुकनासा द्विभागिका ॥१०॥
तृतीये वेदिका
त्वग्नेः सकण्ठो मलसारकः ।
वैराजः
पुष्पकश्चान्यः कैलासो मणिकस्तथा ॥११॥
त्रिविष्ठपञ्च
पञ्चैव मेरुमूर्धनि संस्थिताः ।
आदित्यों की
स्थापना पूर्व दिशा में और स्कन्द एवं अग्नि की प्रतिष्ठा वायव्यदिशा में करनी
चाहिये। इसी प्रकार यम आदि देवताओं की भी स्थिति उनकी अपनी-अपनी दिशा में मानी गयी
है। शिखर के चार भाग करके नीचे के दो भागों की 'शुकनासिका' (गुंबज) संज्ञा है। तीसरे भाग
में वेदी की प्रतिष्ठा है। इससे आगे का जो भाग है, वही 'अमलसार' नाम से प्रसिद्ध 'कण्ठ'
है। वैराज, पुष्पक, कैलास,
मणिक और त्रिविष्टप- ये पाँच ही प्रासाद मेरु के शिखर पर विराजमान
हैं। ( अतः प्रासाद के ये ही पाँच मुख्य भेद माने गये हैं ।। ९ – ११अ ॥
चतुरस्रस्तु
तत्राद्यो द्वितीयोपि तदायतः ॥१२॥
वृत्तो
वृत्तायतश्चान्यो ह्यष्टास्रश्चापि पञ्चमः ।
एकैको
नवधाभेदैश्चत्वारिंशच्च पञ्च च ॥१३॥
प्रासादः
प्रथमो मेरुर्द्वितियो मन्दरस्तथा ।
विमानञ्च तथा
भद्रः सर्वतोभद्र एव च ॥१४॥
चरुको नन्दिको
नन्दिर्वर्धमानस्तथापरः ।
श्रीवत्सश्चेति
वैराज्यान्ववाये च समुत्थिताः ॥१५॥
इनमें पहला 'वैराज' नामवाला
प्रासाद चतुरस्र (चौकोर ) होता है। दूसरा (पुष्पक) चतुरस्रायत है। तीसरा (कैलास) वृत्ताकार
है। चौथा (मणिक) वृत्तायत है तथा पाँचवाँ (त्रिविष्टप) अष्टकोणाकार है। इनमें से
प्रत्येक के नौ-नौ भेद होने के कारण कुल मिलाकर पैंतालीस भेद हैं। पहला प्रासाद
मेरु, दूसरा मन्दर, तीसरा विमान, चौथा भद्र, पाँचवाँ सर्वतोभद्र, छठा रुचक, सातवाँ नन्दक (अथवा नन्दन), आठवाँ वर्धमान नन्दि अर्थात् नन्दिवर्द्धन और नवाँ श्रीवत्स ये नौ प्रासाद
'वैराज' के कुल में प्रकट हुए हैं ॥
१२-१५ ॥
बलभी
गृहराजश्च शालागृहञ्च मन्दिरं ।
विशालश्च समो
ब्रह्म मन्दिरं भुवनन्तथा ॥१६॥
प्रभवः शिविका
वेश्म नवैते पुष्पकोद्भवाः ।
बलयो दुन्दुभिः
पद्मो महापद्मक एवच ॥१७॥
वर्धनी वान्य
उष्णीषः शङ्खश्च कलसस्तथा ।
स्ववृक्षश्च
तथाप्येते वृत्ताः कैलाससम्भवाः ॥१८॥
गजोथ वृषभो
हंसो गरुत्मान्नृक्षनायकः ।
भूषणो
भूधरश्चान्न्ये श्रीजयः पृथवीधरः ॥१९॥
वृत्तायतात्समुद्भूता
नवैते मणिकाह्वयात् ।
वज्रं
चक्रन्तथा चान्यत्स्वस्तिकं वज्रस्वस्तिकं ॥२०॥
चित्रं
स्वस्तिकखड्गञ्च गदा श्रीकण्ठ एव च ।
विजयो
नामतश्चैते त्रिविष्टपसमुद्भवाः ॥२१॥
वलभी, गृहराज, शालागृह,
मन्दिर, विशाल- चमस, ब्रह्म-मन्दिर,
भुवन, प्रभव और शिविकावेश्म – ये नौ प्रासाद 'पुष्पक' से
प्रकट हुए हैं। वलय, दुंदुभि, पद्म,
महापद्म, वर्धनी, उष्णीष,
शङ्ख, कलश तथा खवृक्ष-ये नौ वृत्ताकार प्रासाद
'कैलास' कुल में उत्पन्न हुए हैं। गज,
वृषभ, हंस, गरुत्मान्,
ऋक्षनायक, भूषण, भूधर,
श्रीजय तथा पृथ्वीधर – ये नौ वृत्तायत प्रासाद
'माणिक' नामक मुख्य प्रासाद से प्रकट
हुए हैं। वज्र, चक्र, स्वस्तिक,
वज्रस्वस्तिक (अथवा वज्रहस्तक), चित्र,
स्वस्तिक खड्ग, गदा, श्रीकण्ठ
और विजय – ये नौ प्रासाद 'त्रिविष्टप
से प्रकट हुए हैं ॥ १६- २१ ॥
नगराणामिमाः
सञ्ज्ञा लाटादीनामिमास्तथा ।
ग्रीवार्धेनोन्नतञ्चूलम्पृथुलञ्च
विभागतः ॥२२॥
दशधा वेदिकाङ्कृत्वा
पञ्चभिः स्कन्धविस्तरः ।
त्रिभिः कण्ठं
तु कर्तव्यं चतुर्भिस्तु प्रचण्डकं ॥२३॥
ये नगरों की
भी संज्ञाएँ हैं। ये ही लाट आदि की भी संज्ञाएँ हैं। शिखर की जो ग्रीवा (या कण्ठ)
है, उसके आधे भाग के बराबर ऊँचा चूल(चोटी) हो। उसकी मोटाई कण्ठ के तृतीयांश के बराबर हो। वेदी के दस भाग करके
पाँच भागों द्वारा स्कन्ध का विस्तार करना चाहिये, तीन भागों
द्वारा कण्ठ और चार भागों द्वारा उसका अण्ड (या प्रचण्ड) बनाना चाहिये ॥ २२-२३ ॥
दिक्षु
द्वाराणि कार्याणि न विदिक्षु कदाचन ।
पिण्डिका
कोणविस्तीर्णा मध्यमान्ता ह्युदाहृता ॥२४॥
क्वचित्पञ्चमभागेन
महताङ्गर्भपादतः ।
उच्छ्राया
द्विगुणास्तेषामन्यथा वा निगद्यते ॥२५॥
षष्ट्याधिकात्समारभ्य
अङ्गुलानां शतादिह ।
उत्तमान्यपि
चत्वारि द्वाराणि दशहानितः ॥२६॥
त्रीण्येव
मध्यमानि स्युस्त्रीण्येव कन्यसान्यतः ।
उच्छ्रायार्धेन
विस्तारो ह्युच्छ्रायोऽभ्यधिकस्त्रिधा ॥२७॥
चतुर्भिरष्टभिर्वापि
दशभिरङ्गुलैस्ततः ।
उच्छ्रायात्पादविस्तीर्णा
विशाखास्तदुदुंवरे ॥२८॥
विस्तरार्धेन
बाहुल्यं सर्वेषामेव कीर्तितम् ।
द्विपञ्चसप्तनवभिः
शाखाभिर्द्वारमिष्टदं ॥२९॥
पूर्वादि
दिशाओं में ही द्वार रखने चाहिये, कोणों में कदापि नहीं। पिण्डिका-विस्तार कोण तक जाना चाहिये, मध्यम भाग तक उसकी समाप्ति हो ऐसा विधान है। कहीं-कहीं द्वारों की ऊँचाई
गर्भ के चौथे या पाँचवें भाग से दूनी रखनी चाहिये । अथवा इस विषय को अन्य प्रकार से
भी बताया जाता है। एक सौ साठ अङ्गुल की ऊँचाई से लेकर दस-दस अङ्गुल घटाते हुए जो
चार द्वार बनते हैं, वे उत्तम माने गये हैं (जैसे १६०,
१५०, १४० और १३० अङ्गुल तक ऊँचे द्वार उत्तम
कोटि में गिने जाते हैं)। एक सौ बीस, एक सौ दस और सौ अङ्गुल
ऊँचे द्वार मध्यम श्रेणी के अन्तर्गत हैं तथा इससे कम ९०, ८०
और ७० अङ्गुल ऊँचे द्वार कनिष्ठ कोटि के बताये गये हैं। द्वार की जितनी ऊँचाई हो,
उससे आधी उसकी चौड़ाई होनी चाहिये। ऊँचाई उक्त माप से तीन, चार, आठ या दस अङ्गुल भी हो तो शुभ है। ऊँचाई से एक
चौथाई विस्तार होना चाहिये, दरवाजे की शाखाओं ( बाजुओं) का
अथवा उन सबकी ही चौड़ाई द्वार की चौड़ाई से आधी होनी चाहिये- ऐसा बताया गया है।
तीन, पाँच, सात तथा नौ शाखाओं द्वारा
निर्मित द्वार अभीष्ट फल को देनेवाला है ॥ २४-२९ ॥
अधःशाखाचतुर्थांशे
प्रतीहारौ निवेशयेत् ।
मिथुनैः
पादवर्णाभिः शाखाशेषं विभूषयेत् ॥३०॥
स्तम्भबिद्धे
भृत्यता स्यात्वृक्षबिद्धे त्वभूतिता ।
कूपबिद्धे भयं
द्वारे क्षेत्रबिद्धे धनक्षयः ॥३१॥
नीचे की जो
शाखा है उसके एक चौथाई भाग में दो द्वारपालों की स्थापना करे। शेष शाखाओं को
स्त्री-पुरुषों के जोड़े की आकृतियों से विभूषित करे। द्वार के ठीक सामने खंभा
पड़े तो 'स्तम्भवेध' नामक दोष
होता है। इससे गृहस्वामी को दासता प्राप्त होती है। वृक्ष से वेध हो तो ऐश्वर्य का
नाश होता है, कूप से वेध हो तो भय की प्राप्ति होती है और
क्षेत्र से वेध होने पर धन की हानि होती है ॥ ३०-३१ ॥
प्रासादगृहशिलादिमार्गविद्धेषु
बन्धनं ।
सभाबिद्धे न दारिद्र्यं
वर्णबिद्धे निराकृतिः ॥३२॥
उलूखलेन
दारिद्र्यं शिलाबिद्धेन शत्रुता ।
छायाबिद्धेन
दारिद्र्यं बेधदोषो न जायते ॥३३॥
छेदादुत्पाटनाद्वापि
तथा प्राकारलक्षणात् ।
सीमाया
द्विगुणत्यागाद्बेधदोषो न जायते ॥३४॥
प्रासाद, गृह एवं शाला आदि के मार्गों से द्वारों के
विद्ध होने पर बन्धन प्राप्त होता है, सभा से वेध प्राप्त
होने पर दरिद्रता होती है तथा वर्ण से वेध हो तो निराकरण (तिरस्कार) प्राप्त होता
है। उलूखल से वेध हो तो दारिद्र्य, शिला से वेध हो तो
शत्रुता और छाया से वेध हो तो निर्धनता प्राप्त होती है। इन सबका छेदन अथवा
उत्पाटन हो जाने से वेध दोष नहीं लगता है। इनके बीच में चहारदीवारी उठा दी जाय तो
भी वेध दोष दूर हो जाता है। अथवा सीमा से दुगुनी भूमि छोड़कर ये वस्तुएँ हों तो भी
वेध दोष नहीं होता है । ३२-३४ ॥
इत्याग्नेये
महापुराणे सामान्यप्रासादलक्षणं नाम चतुरधिकशततमोऽध्यायः॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'सामान्य प्रासादलक्षण-वर्णन' नामक एक सौ चारवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥१०४॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 105
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