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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय १०२

अग्निपुराण अध्याय १०२   

अग्निपुराण अध्याय १०२ में ध्वजारोपण की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १०२

अग्निपुराणम् द्व्यधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 102  

अग्निपुराण एक सौ दो अध्याय- ध्वजारोपण

अग्नि पुराण अध्याय १०२           

अग्निपुराणम् अध्यायः १०२ – ध्वजारोपणम्

अथ द्व्यधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

चूलके ध्वजदण्डे च ध्वजे देवकुले तथा ।

प्रतिष्ठा च यथोद्दिष्टा तथा स्कन्द वदामि ते ॥१॥

तडागार्धप्रवेशाद्वा यद्वा सवार्धवेशनात् ।

ऐष्टके दारुजः शूलः शैलजे धाम्नि शैलजः ॥२॥

वैष्णवादौ च चक्राढ्यः कुम्भः स्यान्मूर्तिमानतः ।

स च त्रिशूलयुक्तस्तु अग्रचूलाभिधो मतः ॥३॥

भगवान् शंकर कहते हैं- स्कन्द ! देव- मन्दिर में शिखर, ध्वजदण्ड एवं ध्वज की प्रतिष्ठा जिस प्रकार बतायी गयी है, उसका तुमसे वर्णन करता हूँ। शिखर के आधे भाग में शूल का प्रवेश हो अथवा सम्पूर्ण शूल के आधे भाग का शिखर में प्रवेश कराकर प्रतिष्ठा करनी चाहिये। ईंटों के बने हुए मन्दिर में लकड़ी का शूल होना चाहिये और प्रस्तर निर्मित मन्दिर में प्रस्तर का विष्णु आदि के मन्दिर में कलश को चक्र से संयुक्त करना चाहिये । वह कलश देवमूर्ति की माप के अनुरूप ही होना चाहिये। कलश यदि त्रिशूल से युक्त हो तो 'अग्रचूल' या अगचूड नाम से प्रसिद्ध होता है ॥ १-३ ॥

ईशशूलः समाख्यातो मूर्ध्नि लिङ्गसमन्वितः ।

वीजपूरकयुक्तो वा शिवशास्त्रेषु तद्विधः ॥४॥

चित्रो ध्वजश्च जङ्घातो यथा जङ्गार्धतो भवेत् ।

भवेद्वा दण्डमानस्तु यदि वा तद्यदृच्छया ॥५॥

महाध्वजः समाख्यातो यस्तु पीठस्य वेष्टकः ।

शक्रैर्ग्रहै रसैवापि हस्तैर्दण्डस्तु सम्भितः ॥६॥

उत्तमादिक्रमेणैव विज्ञेयः शूरिभिस्ततः ।

वंशजः शालजातिर्वा स दण्डः सर्वकामदः ॥७॥

यदि उसके मस्तक भाग में शिवलिङ्ग हो तो उसे 'ईश शूल' कहते हैं। अथवा शिरोभाग में बिजौरे नीबू की आकृति से युक्त होने पर भी उसका यही नाम है। शैव शास्त्रों में वैसे शूल का वर्णन मिलता है। जिसकी ऊँचाई जङ्घावेदी के बराबर अथवा जङ्घावेदी के आधे माप की हो, वह 'चित्रध्वज' कहा गया है। अथवा उसका मान दण्ड के बराबर या अपनी इच्छा के अनुसार रखे। जो पीठ को आवेष्टित कर ले, वह 'महाध्वज' कहा गया है। चौदह, नौ अथवा छः हाथों के माप का दण्ड क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम माना गया है- यह विद्वान् पुरुषों द्वारा जानने के योग्य है। ध्वज का दण्ड बाँस का अथवा साखू आदि का हो तो सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला होता है ॥ ४-७ ॥

अयमारोप्यमाणस्तु भङ्गमायाति वै यदि ।

राज्ञोनिष्टं विजानीयाद्यजमानस्य वा तथा ॥८॥

मन्त्रेण बहुरूपेण पूर्ववच्छान्तिमाचरेत् ।

द्वारपालादिपूजाञ्च मन्त्राणान्तर्प्यणन्तथा ॥९॥

विधाय चूलकं दण्डं स्नापयेदस्त्रमन्त्रतः ।

अनेनैव तु मन्त्रेण ध्वजं सम्प्रोक्ष्य देशिकः ॥१०॥

मृदु कषायादिभिः स्नानं प्रासादङ्कारयेत्ततः ।

विलिप्य रसमाच्छाद्य शय्यायां न्यस्य पूर्ववत् ॥११॥

चूडके लिङ्गवणन्यासो न च ज्ञानं न च क्रिया ।

विशेषार्था चतुर्थी च न कुण्डस्य कल्पना ॥१२॥

यह ध्वज आरोपण करते समय यदि टूट जाय तो राजा अथवा यजमान के लिये अनिष्टकारक होता है-ऐसा जानना चाहिये। उस दशा में बहुरूप- मन्त्र द्वारा पूर्ववत् शान्ति करे। द्वारपाल आदि का पूजन तथा मन्त्रों का तर्पण करके ध्वज और उसके दण्ड को अस्त्र-मन्त्र से नहलावे । गुरु इसी मन्त्र से ध्वज का प्रोक्षण करके मिट्टी तथा कसैले जल आदि से मन्दिर को भी स्नान करावे। चूलक ( ध्वज के ऊपरी भाग)- में गन्धादि का लेप करके उसे वस्त्र से आच्छादित करे। फिर पूर्ववत् उसे शय्या पर रखकर उसमें लिङ्ग की भाँति न्यास करना चाहिये। परंतु चूलक में ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का न्यास न करे। वहाँ विशेषार्थ-बोधि का चतुर्थी भी वाञ्छित नहीं है और न उसके लिये कुम्भ या कुण्ड की ही कल्पना आवश्यक है ॥ ८- १२ ॥

दण्डे तयार्थतत्त्वञ्च विद्यातत्त्वं द्वितीयकं ।

सद्योजातानि वक्राणि शिवतत्त्वं पुनर्ध्वजे ॥१३॥

निष्कलञ्च शिवन्तत्र न्यस्याङ्गानि प्रपूजयेत् ।

चूडके च ततो मन्त्रो सान्निध्ये सहिताणुभिः ॥१४॥

होमयेत्प्रतिभागञ्च ध्वजे तैस्तु फडन्तिकैः ।

अन्यथापि कृतं यच्च ध्वजसंस्कारणं क्वचित् ॥१५॥

अस्त्रयागविधावेवं तत्सर्वमुपदर्शितं ।

दण्ड में आत्मतत्त्व का विद्यातत्त्व का तथा सद्योजात आदि पाँच मुखों का न्यास करे। फिर ध्वज में शिवतत्त्व का न्यास करे। वहाँ निष्कल शिव का न्यास करके हृदय आदि अङ्गों की पूजा करे। तदनन्तर मन्त्रज्ञ गुरु ध्वज और ध्वजाग्रभाग में संनिधीकरण के लिये फडन्त संहिता मन्त्रों द्वारा प्रत्येक भाग में होम करे। किसी और प्रकार से भी कहीं जो ध्वज- संस्कार किया गया है, वह भी इस प्रकार अस्त्र- याग करके ही करना चाहिये । ये सब बातें मनीषी पुरुषों ने करके दिखायी हैं ॥ १३ १५अ ॥

प्रासादे कारिते स्थाने स्रग्वस्त्रादिविभूषिते ॥१६॥

जङ्घा वेदी तदूर्ध्वे तु त्रितत्त्वादि निवेश्य च ।

होमादिकं विधायाथ शिवं सम्पूज्य पूर्ववत् ॥१७॥

सर्वतत्त्वमयं ध्यात्वा शिवञ्च व्यापकं न्यसेत् ।

अनन्तं कालरुद्रञ्च विभाव्य च पदाम्बुजे ॥१८॥

कुष्माण्डहाटकौ पीठे पातालनरकैः सह ।

भुवनैर्लोकपालैश्च शतरुद्रादिभिर्वृतं ॥१९॥

ब्रह्माण्दकमिदं ध्यात्वा जङ्घाताञ्च विभावयेत् ।

मन्दिर को नहलाकर, पुष्पहार और वस्त्र आदि से विभूषित करके, जङ्घावेदी के ऊपरी भाग में त्रितत्त्व आदि का न्यास, होम आदि का विधान एवं शिव का पूर्ववत् पूजन करके, उनके सर्वतत्त्वमय व्यापक स्वरूप का ध्यान करते हुए व्यापक- न्यास करे। भगवान् शिव के चरणारविन्द में अनन्त एवं कालरुद्र की भावना करके पीठ में कूष्माण्ड, हाटक, पाताल तथा नरकों की भावना करे। तदनन्तर भुवनों, लोकपालों तथा शतरुद्रादि से घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड का ध्यान करके जङ्घावेदी में स्थापित करे ।। १६-१९अ ॥

वारितेजोनिलव्योमपञ्चाष्टकसमन्वितं ॥२०॥

सर्वावरणसञ्ज्ञञ्च वृद्धयोन्यवृकान्वितं ।

योगाष्टकसमायुक्तं नाशाविधि गुणत्रयं ॥२१॥

पटस्थं पुरुषं सिंहं वामञ्च परिभावयेत् ।

मञ्जरीवेदिकायाञ्च विद्यादिकचतुष्टयं ॥२२॥

कण्ठे मायां सरुद्राञ्च विद्याश्चामलसारके ।

कलसे चेश्वरं विन्दुं विद्येश्वरसमन्वितं ॥२३॥

जटाजूटञ्च तं विद्याच्छूलं चन्द्रार्धरूपकं ।

शक्तित्रयं च तत्रैव दण्डे नादं विभाव्य च ॥२४॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाशरूप पञ्चाष्टक, सर्वावरणसंज्ञक, बुद्धियोन्यष्टक, योगाष्टक, प्रलय- पर्यन्त रहनेवाला त्रिगुण, पटस्थ पुरुष और वाम सिंह - इन सबका भी जङ्घावेदी में चिन्तन करे; किंतु मञ्जरी वेदिका में विद्यादि चार तत्वों की भावना करे। कण्ठ में माया और रुद्र का, अमलसार में विद्याओं का तथा कलश में ईश्वर-बिन्दु और विद्येश्वर का चिन्तन करे। चन्द्रार्धस्वरूप शूल में जटाजूट की भावना करे। उसी शूल में त्रिविध शक्तियों की तथा दण्ड में नाभि की भावना करके ध्वज में कुण्डलिनी शक्ति का चिन्तन करे। इस प्रकार मन्दिर के अवयवों में विभिन्न तत्वों की भावना करनी चाहिये ॥ २० - २४ ॥

ध्वजे च कुण्डलीं शक्तिमिति धाम्नि विभावयेत् ।

जगत्या वाथ सन्धाय लिङ्गं पिण्डिकयाथवा ॥२५॥

समुत्थाप्य सुमन्त्रैश्च विन्यस्ते शक्तिपङ्कजे ।

न्यस्तरत्नादिके तत्र स्वाधारे विनिवेशयेत् ॥२६॥

जगती से धाम (प्रासाद या मन्दिर) - का तथा पिण्डिका से लिङ्ग का संधान करके शेष सारा विधान यहाँ भी पूर्ववत् करना चाहिये। इसके बाद गुरु वाद्यों के मङ्गलमय घोष तथा वेदध्वनि के साथ मूर्तिधरों सहित शिवरूप मूल वाले ध्वज- दण्ड को उठाकर जहाँ मन्त्रोच्चारणपूर्वक शक्तिमय कमल का न्यास हुआ है तथा रत्नादि-पञ्चक का भी न्यास हो गया है, वहाँ आधार भूमि में उसे स्थापित कर दे ॥ २५-२६ ॥

यजमानो ध्वजे लग्ने बन्धुमित्रादिभिः सह ।

धाम प्रदक्षिणीकृत्य लभते फलमीहितं ॥२७॥

गुरुः पाशुपतं ध्यायन् स्थिरमन्त्राधिपैर्युतं ।

अधिपान् शस्त्रयुक्तांश्च रक्षणाय निबोधयेत् ॥२८॥

न्यूनादिदोषशान्त्यर्थं हुत्वा दत्वा च दिग्बलिं ।

गुरवे दक्षिणां दद्याद्यजमानो दिवं व्रजेत् ॥२९॥

जब प्रासाद-शिखर पर ध्वज लग जाय, तब यजमान अपने मित्रों और बन्धुओं आदि के साथ मन्दिर की परिक्रमा करके अभीष्ट फल का भागी होता है। गुरु को चाहिये कि वह अस्त्र आदि के साथ पाशुपत का चिरकाल तक चिन्तन करते हुए उन सबके शस्त्रयुक्त अधिपतियों को मन्दिर की रक्षा के लिये निवेदन करे। न्यूनता आदि दोष की शान्ति के लिये होम, दान और दिग्बलि करके यजमान गुरु को दक्षिणा दे। ऐसा करके वह दिव्य धाम में जाता है । २७ - २९ ॥

प्रतिमालिङ्गवेदीनां यावन्तः परमाणवः ।

तावद्युगसहस्राणि कर्तुर्भोगभुजः फलं ॥३०॥

प्रतिमा, लिङ्ग और वेदी के जितने परमाणु होते हैं, उतने सहस्र युगों तक मन्दिर का निर्माण एवं प्रतिष्ठा करनेवाला यजमान दिव्यलोक में उत्तम भोग भोगता है। यही उसका प्राप्तव्य फल है ॥ ३० ॥

इत्याग्नेये महापुराणे ध्वजारोहणादिविधिर्नाम द्व्यधिकशततमोऽध्यायः॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'ध्वजारोपणादि की विधि का वर्णन' नामक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०२ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 103 

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