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- श्रीदेवीरहस्य पटल ४
- श्रीदेवीरहस्य पटल ३
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- श्रीदेवीरहस्य पटल २
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- जानकी अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र
- जानकी सहस्रनामस्तोत्र
- यक्षिणी साधना भाग ३
- यक्षिणी साधना भाग २
- शैवरामायण
- शैव रामायण अध्याय १२
- शैव रामायण अध्याय ११
- अग्निपुराण अध्याय १००
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- अग्निपुराण अध्याय ९७
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- शैव रामायण अध्याय ७
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- अद्भुत रामायण सर्ग २६
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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शैव रामायण अध्याय ३
शैव रामायण के अध्याय ३ में राम का
विभीषण आदि नरेशों से परामर्श एवं जाबालि द्वारा सहस्रकण्ठ के पूर्वजन्म का वर्णन
है ।
शैव रामायण तिसरा अध्याय
Shaiv Ramayan chapter 3
शैवरामायणम् तृतीयोऽध्यायः
शैवरामायण तृतीय अध्याय
शैवरामायण अध्याय ३
श्रीशङ्कर उवाच
भरतोऽपि ययौ सैन्यैः संवृतः
सन्निवृत्य सः ।
प्रणम्य रामं वृत्तान्तं तुरगस्य
न्यवेदयत् ।। १ ।।
भगवन शिव बोले—भरत भी अपनी सेना के साथ वहाँ से वापस लौटकर (अयोध्यापुरी जाकर) भगवान राम
को प्रणाम करके अश्वमेधीय अश्व के अपहरण का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया ॥१॥
रामो निशम्य वचनं विस्मयाकुलचेतसा ।
किंकर्तव्यमतोऽस्माभिरित्युवाच वचस्तदा
।। २ ।।
राम भरत के वचनों को सुनकर उस समय अत्यन्त
आश्चर्य चकित एवं व्याकुल चित्त वाले हो गये, किंकर्त्तव्यविमूढ़
राम ने सभी के समक्ष कहा कि बताओ अब हमें क्या करना चाहिए ॥ २ ॥
सभामण्डपमासाद्य वसिष्ठादिमुनीश्वरैः
।
मन्त्रिभिर्भ्रातृभिः सार्द्ध रराज
रघुपुङ्गवः ।।३।।
उस समय अयोध्या की राजसभा में
वशिष्ठ आदि अन्य मुनियों के साथ-साथ मन्त्रियों और भाइयों के सहित रघुकुल श्रेष्ठ
राम राजसिंहासन में सुशोभित हो रहे थे ॥ ३ ॥
सविस्मयो दाशरथिस्तदानघः सहस्रकण्ठस्य पुरीं विजेतुम् ।
इत्येष भूपालमहीसुरान्वितः समन्त्रिवर्गः स हि
राजसत्तमः ।।४।।
आश्चर्यचकित राम ने पापी सहस्रकण्ठ
की पुरी को जीतने की इच्छा सभामण्डप में रखी और कहा कि यह अयोध्या नगरी देवताओं के
द्वारा भी वन्दित है और सभी मन्त्रीवर्ग राजसभा का सम्मान करने वाले हैं;
इसलिए राजधर्म भी यही कहता है ॥४॥
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि रामस्य
चरितं शुभम् ।
रामेण यत्कृतं कर्म
सहस्रग्रीवनाशनम् ।। ५।।
भगवान शंकर फिर पार्वती से बोले कि
हे देवी ! अब मैं भगवान राम का सुन्दर चरित (कहूँगा) या गुणगान करूँगा और यह भी
बताऊँगा कि सहस्रगीव के विनाश के लिए राम ने क्या-क्या कर्म किये ॥५॥
सिंहासनगतो रामो (मः) आनयामास तान्
ऋषीन् ।
वसिष्ठो वामेदवश्च वाल्मीकिर्नारदो
भृगुः ।। ६ ।।
अगस्त्यो रैव्यकः कण्वः कण्डुः
शौनकपर्वतौ ।
सुतीक्ष्णः शङ्खलिखितौ
मार्कण्डेयोऽत्रिगौतमौ ।।७।।
जाबालिर्जमदग्निश्च
शतानन्दोऽप्यथापरे ।
रामस्य मन्दिरं प्रापुः
विश्वामित्रादयोऽपि च ।।८।।
सिंहासन में बैठे हुए राम ने वशिष्ठ,
वामदेव, वाल्मीकि, नारद,
भृगु, अगस्त्य, रैव्यक,
कण्व, कण्डु, शौनक,
पर्वत, सुतीक्ष्ण, शङ्ख,
लिखित, मार्कण्डेय, अत्रि,
गौतम, जाबालि, जमदग्नि,
शतानन्द आदि अन्य उन सभी ऋषियों को बुलाया और विश्वामित्र सहित सभी ऋषि
मुनि राम के राजमहल में पहुँचे ॥ ६-८ ॥
समागतान् मुनीन् वीक्ष्य सहसोत्थाय
चासनात् ।
प्रणम्य दत्त्वासनानि पूजां कृत्वा
पृथक् पृथक् ।।९।।
सभी आये हुए ऋषि मुनियों को देखकर
अचानक आसन से उठकर राम ने उनको प्रणाम करके, उनको
आसन देकर, सभी का अलग-अलग पूजन (सम्मान) किया ॥ ९ ॥
स्थित्वासने चिरं ध्यात्वा प्रोवाच
मुनिसत्तमान् ।
शृणुध्वं मुनयः सर्वे मदीयं
वाक्यमुत्तमम् ।। १० ।।
सभी मुनियों को आसन में बैठाने के
बाद,
बहुत देर सोचने के बाद मुनियों को सत्कारित करने वाले भगवान राम ने
कहा कि हे सभी ऋषि मुनिगण, मेरे उत्तम वाक्य सुनिये ॥१०॥
मया विसृष्टस्तुरगो गृहीतः केन
रक्षसा ।
किंकर्तव्यं मया ह्यत्र
भवद्भिस्तद्विधीयताम् ।। ११ ।।
अश्वमेध यज्ञ करने के प्रसङ्ग में
मैंने जो विशिष्ट अश्व भेजा था, उसे किसी
राक्षस ने पकड़ लिया है, इस सन्दर्भ में मुझे अब क्या करना
चाहिए, आप सभी लोग बताइये ॥ ११ ॥
रामस्य वचनं श्रुत्वा
जाबालिर्वाक्यमब्रवीत् ।
रामचन्द्र महाबाहो शृणु मद्वचनं
हितम् ।। १२ ।।
राम के वचनों को सुनकर महर्षि
जाबालि ने कहा कि हे महाबाहुराम ! मेरे हितकारी वचन सुनो ॥ १२ ॥
कश्यपस्य सुतो दित्यां
सहस्रवदनोऽभवत् ।
स एवोग्रं तपस्तप्त्वा
सम्यग्दत्तवरः सुरैः ।।१३।।
महर्षि कश्यप एवं उनकी पत्नी दिति
से उत्पन्न सहस्रवदन (राक्षस) पैदा हुआ था। उसने उग्र तपस्या करके,
देवताओं के द्वारा अनेक वरदान प्राप्त किये हैं ॥ १३॥
जित्वा त्रिलोकान् दैत्येन्द्रो
ह्यष्टौ दिक्पालकानपि ।
मुक्तिकामस्तपश्चक्रे वत्सराणां
सहस्रकम् ।।
तदा तार्क्ष्ये समारुह्य
आविरासीद्रमापतिः ।। १४ ।।
उस दैत्यराज ने तीनों लोकों को
जीतकर,
अष्ट दिग्पालों को भी पराभूत कर दिया है। (अपनी राक्षस योनि से)
मुक्ति की कामनावश उसने हजारों वर्ष तपस्या की, तब गरुड़ में
सवार होकर रमापति विष्णु उसके पास आये ॥१४॥
विष्णुरुवाच
किमर्थं तप्यसे दैत्य ब्रूहि
सर्वमशेषतः ।
अभीष्टं तव दास्यामि तपसा
तोषितोऽस्म्यहम् ।। १५ ।।
विष्णु जी बोले –
हे दैत्यराज ! तुम इतनी बड़ी तपस्या क्यों कर रहे हो ? सम्पूर्ण तथ्यों को बताओ। तुम्हारा जो भी अभीष्ट होगा, वह मैं तुम्हें प्रदान करूँगा; क्योंकि मैं तुम्हारी
तपस्या से प्रसन्न हूँ ॥ १५ ॥
इत्युक्तो स हि दैत्येन्द्रस्तं
प्राह रघुपुङ्गवः ।
मुक्तिकामो ह्यहं विष्णो दातव्यं
त्वत्पदं मम ।। १६ ।।
हे रघुनन्दन ! विष्णु के ऐसा कहने
पर वह दैत्यराज भगवान विष्णु से बोला कि हे विष्णु जी ! मैं मोक्ष चाहता हूँ और आप
मुझे अपना पद (विष्णुगामी) विष्णुधाम दे दीजिये ॥ १६ ॥
इति तद्वचनं श्रुत्वा विष्णुः
प्राहासुरं पुनः ।
भो दैत्य मानुषो भूत्वा दास्येऽहं
तव काङ्क्षितम् ।।१७।।
दैत्यराज के ऐसे वचन सुनकर भगवान
विष्णु ने फिर उस राक्षस से कहा कि हे दैत्य ! मनुष्य बनकर ही मैं तुम्हें
तुम्हारी इप्सित वस्तु दे पाऊँगा ॥१७॥
कुले दशरथस्याशुर्मम जन्म भविष्यति
।
तस्मिन् जन्मनि ते हत्वा रणेऽहं
दैत्यवल्लभ ।। १८ ।।
शेषत्वं ते प्रदास्यामि शयन में
भविष्यसि ।
मदीयं शयनं भूत्वा मदीयं
स्थानमेष्यसि ।। १९ ।।
मेरा जन्म जब दशरथ के उत्तम कुल में
होगा,
उसी जन्म में हे दैत्यवल्लभ ! युद्ध में मैं तुम्हें मारकर, तुम्हारा शेषत्व मैं तुम्हें प्रदान करूँगा, तब तुम
मेरे शयन हेतु शय्या बनोगे। मेरे शयन का स्थान बनकर तुम मेरे स्थान को प्राप्त
करोगे ।। १८-१९॥
इतीरितस्त्वया राम दैत्येन्द्रः
स्वपुरं ययौ ।
त्वदागमनमाकांक्षन्नास्ते चित्रवतीपुरे
।। २० ॥
हे विष्णु रूपधारी राम! आपके ऐसा
कहने पर वह दैत्यराज अपनी पुरी (नगरी) चला गया और इस समय उसी चित्रवतीपुरी में
आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहा है ॥२०॥
तस्मिन् स पुष्पकरद्वीपे
शुद्धपाथोधिवेष्टिते ।
मरणार्थिनोऽस्य दूतो रक्ताक्ष इति
विश्रुतः ।। २१ ।।
शुद्ध एवं साफ सुथरे मार्गों से
युक्त उसी पुष्कर द्वीप में मरने वाले इस दैत्यराज सहस्रकण्ठ का दूत रहता है,
जो रक्ताक्ष नाम से प्रसिद्ध है ॥२१॥
चोदितो दैत्यराजेन गृहीत्वा तुरगं
ययौ ।
भवान् हि पुष्पकारूढः
सुग्रीवादिगणान्वितः ।। २२।।
गत्वा तं पुष्पकरं द्वीपं जित्वा
शत्रुं रणेऽधुना ।
देवतानां सुखं कृत्वा गृहीत्वा
तुरगं पुनः ।। २३ ।।
दैत्यराज (सहस्रग्रीव) के कहने पर
ही उनका दूत रक्ताक्ष अश्वमेध के घोड़े को पकड़ कर ले गया है। इस समय आपको पुष्पक विमान
पर आरूढ़ होकर सुग्रीव आदि सुभट योद्धाओं के साथ, उस पुष्कर द्वीप जाकर, शत्रु को युद्ध में हराकर
देवताओं को सुख देने वाले उस अश्वमेधीय अश्व को पुनः ग्रहण करना चाहिए ॥२२-२३॥
अयोध्यापुरमागत्य कुरु भूयो
महाक्रतुम् ।
सहस्रास्यस्त्व (या) सोऽपि निर्जितः
शेषतां गतः ।। २४ ।।
हे प्रभु! अयोध्यापुरी में आकर के
फिर से आप बहुत बड़ा यज्ञ करें । सहस्रों अश्वमेध यज्ञ करके,
आप शेष पृथ्वी को भी जीतें ॥२४॥
सहस्रफणवान् भूत्वा तव शय्या
भविष्यति ।
मयोक्तं सर्वमेतद्धि कुरु यत्नमतन्द्रितः
।
इत्युक्त्वा विररामाथ
जाबालिर्भगवानृषिः ।। २५ ।।
(वह दैत्यराज सहस्रकण्ठ) हजारों फनवाला होकर
(शेषनाग) आपकी शय्या बनेंगा। मेरे द्वारा जो कहा गया है,
हे आलस्य- विलीन राम ! आप सभी प्रकार का प्रयत्न कीजिये। भगवान राम
से ऐसा कहकर जाबालि ऋषि चुप हो गये ॥२५॥
शैवरामायणे पार्वतीशङ्करसंवादे
सहस्रकण्ठचरिते तृतीयोऽध्यायः ।
इस प्रकार शिवपार्वती संवाद रूप में
प्राप्त शैवरामायण का सहस्रकण्ठचरित नामक तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ।
आगे जारी.......... शैवरामायण अध्याय 4
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