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- श्रीदेवीरहस्य पटल २
- देवीरहस्य पटल १
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- यक्षिणी साधना भाग २
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अद्भुत रामायण सर्ग १६
अद्भुत रामायण सर्ग १६ में रामचन्द्र का रावण को मार राज्य पाना का वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् षोडश: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 16
अद्भुत रामायण सोलहवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण षोडश सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग १६ – रामराज्य स्थापना
अथ अद्भुत रामायण सर्ग १६
रामः प्रत्याह च पुनर्हनूमन्तं
महाद्युतिः ।
रक्षसा मे हृता भार्या रावणेन
दुरात्मना ॥ १ ॥
तब फिर रामचन्द्रजी महावीर से कहने
लगे,
कि हे महावीर ! दुरात्मा रावण ने हमारी भार्या को हरण कर लिया है।।१।।
सुग्रीवेण रामं सख्यं कारयाद्य
प्लवङ्गम ।
हसित्वा मधुरं वीरो
हनूमानब्रवीद्वचः ॥ २ ॥
हे वानरश्रेष्ठ! सुग्रीव के साथ
हमारी मित्रता करा दो, तब मधुर हँसकर
महावीरजी कहने लगे ॥ २ ॥
तव भार्या महाभाग रावणेन हृतेति यत्
।
विश्वं यथेदमाभाति तथेदं प्रतिभाति
मे ।। ३ ।।
हे महाभाग ! आपकी भार्या को रावण ने
हरण किया है जैसा यह विश्व विदित होता है इसी प्रकार से हो ।। ३ ।।
तथापि प्रभुण। दिष्टं कार्यमेव हि किंकरैः ॥
इत्युक्त्वा हनुमांस्तूर्णं प्रसन्नेनांतरात्मना ॥। ४ ॥
तो भी जो आपने आज्ञा दी है वह दासों
को अवश्य करनी चाहिये, यह कह प्रसन्न हो शीघ्रता
से महावीर ॥ ४ ॥
आरोप्य स्कंधयोर्वीरौ
सुग्रीवांतिकमानयत् ॥
तौ दृष्ट्वा पुरुष- व्याघ्र
सुग्रीवो वानरोत्तमः ॥ ५ ॥
दोनों को कंधे पर चढाकर सुग्रीव के
समीप ले आये, वानरोत्तम सुग्रीव उन दोनों को
देखकर ।। ५ ।।
वालिनं तं जितं मेने प्राप्त मेने
रुमां स्त्रियम् ॥
सख्यं चकाररामेण दिष्ट्यादिष्टयेति
चा ब्रवीत् ॥ ६ ॥
अपनी रुमास्त्री को प्राप्त और वाली
को जीता हुआ मानने लगा, और अपने भाग्य की
सराहना कर राम के साथ मित्रता की ॥ ६ ॥
वालिनो विलयं कृत्वाराज्यं चास्मै
निवेद्य च ।
नानादेश्यान्वा नश्च आनाय्य
रघुनन्दनौ ॥ ७ ॥
वाली को मार सुग्रीव को राज्य दे,
देश-देशान्तरों से वानरों को बुलाया ।। ७ ।।
हनूमदंग दारूढौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ
॥
सिंधौस्तटं तौ ययतुः सुग्रीवेण सह
प्रभुः ॥ ८ ॥
हनुमान् और अंगद के ऊपर राम लक्ष्मण
चढकर सुग्रीव के साथ सागर के तटपर गये ।। ८ ।
पारेसमुद्रं लंकांच निरूप्याह रघू
तमः ॥
वानरा हि यथा यांति लंकांलक्ष्मण
तत्कुरु ॥ ९ ॥
सागर के पार लंकापुरी को देखकर
रामचन्द्र कहने लगे, हे लक्ष्मण ! जिस
प्रकार से हम लंका के निकट पहुँचे तैसा करो ।। ९ ।।
रामस्य वचनं श्रुत्वा समुद्रं प्राह
लक्ष्मणः ।
सिंधो त्वं स्तभ यात्मानं यथा
यास्यति वानराः ॥ १० ॥
रामचन्द्र के वचन सुनकर लक्ष्मण
समुद्र से कहने लगे, हे सागर ! अपनी
आत्मा को स्तंभित कर तो तेरे ऊपर वानर चले जायेंगे ।। १० ।
सिन्धुस्तु प्रभुणादिष्टं न शुश्राव
यदा ।
तदा लक्ष्मणः क्रोधसंदीप्तः
पपाताब्धेर्जलांतरे ॥ ११ ॥
जब सागर प्रभु के वचनों को न सुनता
हुआ तब लक्ष्मणजी क्रोधकर सागर में कूद पडे ।। ११ ।।
तद्देहवह्निशिखया शुशोष जलधेर्जलम् ।
यादांसि स्थलभाजीनि देवा भीत
दिशोऽद्रवन् ॥ १२ ॥
और अपने देह की ज्वाला से सागर का
जल सोखने लगे, सब जलजीव व्याकुल हो गये और
देवता भयभीत हो दिशाओं के अन्त में पलायन कर गये ।। १२ ।।
तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं वानरा
विस्मयं गताः ।
हाहाकारं प्रचुस्ते लोकाः सर्व
चराचराः ।। १३ ।।
उस महा आश्चर्य को देखकर वानर
आश्चर्य को प्राप्त हुए और सब चराचर लोक हाहाकार करने लगे ।। १३ ।।
ऋषयो भूतसंघाश्च स्वस्तिस्वस्तीति
चाब्रुवन् ।
राघवो लक्ष्मणं प्राह नैतद्युक्तं
त्वया कृतम् ॥ १४ ॥
ऋषि और दूसरे प्राणी स्वस्ति २ कहने
लगे तब राम लक्ष्मण से कहने लगे यह तुमने अच्छा नहीं किया ।। १४ ।।
पुनरेनं पूरयाम सीताविरहजेन वै ।
अभुणेति प्रतिज्ञाय तं
तथापूरयत्प्रभुः ।। १५ ।।
अब सीता के वियोग से उत्पन्न हुए
आंसुओं से फिर इसको पूर्ण करूँगा तब यह कहकर प्रभु ने उसको पूर्ण कर दिया।।१५।।
रामोपरि तदाकाशात्पुष्पवृष्टिः पपात
ह ।
लोकाश्च सुस्थिता आसंश्चिन्तयित्वा
पुनः पुनः ॥ १६ ॥
तब आकाश से रामचन्द्र के ऊपर फूलों की
वर्षा होने लगी, लोक स्वस्थ हुए और वारम्वार
विचार करने लगे ।। १६ ॥
सिंधुना संस्तुतो रामः सेतु सिंधौ
वबंध ह ।
लंकायां रावणं हत्वा सगणं मधुसूदनः
।। १७ ।।
फिर सिंधु से स्तुति को प्राप्त हो
रामचन्द्र ने सागर में सेतु बांधा और लंकापुरी जाय गणोंसहित रावण को मारकर।।१७।।
आरोप्य पुष्पके सीतां
विभीषणसहायवान् ।
अयोध्यामगमद्रामः
सुग्रीवहनुमदादिभिः ॥ १८ ॥
विभीषण को साथ ले पुष्पक विमान में
सीता को बैठाया सुग्रीव हनुमदादि के सहित रामचन्द्र अयोध्या को चले ।।१८।।
आनंदे योजयामास भ्रातृन्मातृश्च
बांधवान् ।
राजा सर्वस्य लोकस्य
प्रजानामनुरंजनः ॥ १९ ॥
भ्राता माता और बांधवों को आनन्द में
युक्त किया, वह सब लोक के राजा प्रजा के
आनन्द देनेवाले हुए ।। १९ ।।
रामं राजानमासाद्य तिर्यञ्चोऽपि
ययुर्मुदम् ।
देवदुन्दुभयो नेदुः सर्वदा हि
नभस्तले ।
ववृषुर्जलदाः काले पुष्पवृष्टिः
पपात च ॥ २० ॥
रामचन्द्र राजा को प्राप्त होकर पशु
पक्षी भी प्रसन्न हुए, सर्वदा आकाश में
देवदुन्दुभी बजने लगी, समय पर मेघवर्षा और फूलों की वर्षा
होने लगी ॥ २० ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायण वाल्मीकीये
आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे रामराज्योपलंभनं नाम षोडशः सर्गः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में रामराज्य स्थापना नामक सोलहवाँ सर्ग समाप्त
हुआ ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 17
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