जानकी सहस्रनामस्तोत्र

जानकी सहस्रनामस्तोत्र

जगत् में मुमुक्षुओं के लिये कौन सर्वोपास्य और कौन सर्वोपरि पूज्य तथा ध्यान करने योग्य है ? श्रीमिथिलेशजीमहाराज के इस प्रश्न के उत्तर में, श्रीयोगेश्वरकवि द्वारा वर्णितं श्रीजानकीसहस्रनामस्तोत्र को दिया गया है ।

जानकी सहस्रनामस्तोत्र

जानकी सहस्रनामस्तोत्रम्

Janaki sahastra naam stotra

श्रीजानकीचरितामृते सप्ताशीतितमोऽध्यायः - जानकी सहस्रनामस्तोत्रम्

श्रीजानकीचरितामृत अध्याय ८७

अथ जानकी सहस्रनामस्तोत्रम्

      श्रीकविरुवाच ।

      नीलेन्दीवरलोचनां जनकजां विस्मेरबिम्बाधरां

      ब्रह्माविष्णुमहेशसेव्यचरणां दीव्यत्सुवर्णप्रभाम् ।

      सव्ये श्रीमिथिलेशितुः सुनयनाक्रोडे मुदा राजितां

      वन्दे बन्धुगणान्वितामनुचरीवृन्दैः समाराधिताम् ॥ १॥

नीले कमल के समान जिनके विशाल नेत्र, एव पूर्णचन्द्र के समान जिनका आह्लादकारी श्रीमुखारविन्द है, मुस्कान युक्त बिम्बाफल के सदृश जिनके अधर और ओठ है, ब्रह्मा, विष्णु, महेशों को भी जिनकी सेवा करना कर्तव्य है, प्रकाशयुक्त सुवर्ण के समान जिनकी गौर कान्ति है, जो श्रीमिथिलेशजी महाराज के बायें भाग में श्रीसुनयनाअम्बाजी की गोदी में प्रसन्नतापूर्वक विराज रही हैं, अनुचरियां (बहिने) अपनी अपनी सेवा के द्वारा जिन्हें प्रसन्न करने में तत्पर है; उन श्रीलक्ष्मीनिधिजी आदि भाइयों से युक्त श्री मिथिलेशराज दुलारीजी को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १॥

      ॐ अकल्पाऽकल्मषाऽकामा अकायाऽकारचर्चिता ।

      अकारणाऽकोपपूज्या अक्रूरैकाऽक्षणाऽक्षरा ॥ २॥

१ अकल्पा - जिनकी तुलना नहीं की जा सकती तथा जो '' सर्वव्यापक प्रभु श्रीरामजी को अपने वश में करने को समर्थ है ।

२ अकल्मषा - जो अविद्या (माया) रूपी मल से रहित है ।

३ अकामा - जिन्हें एक भगवान श्रीरामजी को छोड़्कर और कोई इच्छा नहीं है ।

४ अकाया - जिनका ब्रह्म ही शरीर है अर्थात् ब्रह्म में रहनेवाली उसकी शक्ति स्वरूपा है ।

५ अकारचर्चिता - भगवन् श्रीरामजी के जो चन्दन आदि से खौर करती है ।

६ अकारणा - जो स्वयं कारणस्वरूपा  है ।

७ अकोपपूज्या - जो अपराधी जनो पर भी क्षमा गुण की विशेषता के कारण त्रिलोकी में पूजित हैं ।

८ अक्रूरैका - जो समस्त प्राणियों के अनुकूल सौम्य स्वरूपवालियों में अकेली है ।

९ अक्षणा - जो भगवन् श्रीरामजी के आनन्द की मूर्त्ति है ।

१० अक्षरा - जो कभी क्षीणता को न प्राप्त होकर सदा एक रस बनी रहती है ॥ २॥

      अगदाऽगुणाऽग्रगण्या अचलापुत्रिकाऽचला ।

      अच्युताऽजाऽजेयबुद्धिरज्ञातगतिसत्तमा ॥ ३॥

११ अगदा - जो आश्रितजीवों को प्रभु प्राप्ति कारक भागवत धर्म (नवधा भक्ति) को प्रदान करती है अथवा जो समस्त रोगों से अछूती सञ्जीविनी बूटी स्वरूपा है ।

१२ अगुणा - जो सत्व, रज, तम इन तीनों गुणों से परे हैं ।

१३ अग्रगण्या - जो सभी लक्ष्मी, सरस्वती, गिरिजादि शक्तियों का द्वारा पूजने योग्य है ।

१४ अचलापुत्रिका - जो विविध प्रकार के अवतारो को ग्रहण करके अनेक सङ्कटों से पृथ्वी देवी की रक्षा करती है ।

१५ अचला - जो ब्रह्म श्रीरामजीमें पूर्ण स्थिर है तथा जो अपनी सुन्दर उक्तियो के द्वारा पतित जीवों को कर्मानुसार दण्ड देने के विपरीत उनपर कृपा करने को चलायमान (उद्यत) कर देती है ।

१६ अच्युता - जो अपने दयालु स्वभाव से कभी नहीं दिगती ।

१७ अजा - जिनका जन्म कभी होता ही नही ।

१८ अजेयबुद्धि - जो अपनी बुद्धि भगवन् श्रीरामजी को जीत लेनेवाली है अथवा जिनकी बुद्धि को कोई जीत नहीं सकता ।

१९ अज्ञातगतिसत्तमा - जिनके सर्वोत्तम विचारों को भगवन् श्रीरामजी ही समझते है तथा जो भगवन् श्रीरामजी के विचारों को समझनेवाली शक्तियों में सर्वोत्कृष्टा अर्थात् सब से बढ़् कर है ॥ ३॥ 

      अणोरणीयस्यतर्क्या अतीन्द्रियचयाऽतुला ।

      अदभ्रमहिमाऽदृश्या अद्वितीयक्षमानिधिः ॥ ४॥

२० अणोरणीयसी - जो आँकों से न देखने योग्य अणु से भी सहस्रो गुण सूक्ष्म है ।

२१ अतर्क्या - जिनके गुण, रूप, लीला, स्वभाव, आदि अनुमान या वादविवाद के द्वारा समझे नहीं जा सकते ।

२२ अतीन्द्रियचया - जो पाणी, मन, बुद्धि चित्त आदि इन्द्रिय समूह से परे हैं ।

२३ अतुला - जो सब प्रकार से ब्रह्म के समान हैं अर्थात् जिनकी तुलना एक ब्रह्म से ही की जा सकती, है किसी दूसरे से नहीं ।

२४ अदभ्रमहिमा - जिनकी बहुत बड़ी महिमा है ।

२५ अदृश्या - जिनके वास्तविक सर्वव्यापक स्वरुप का दर्शन किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं किया जा सकता और जिनके देखने की वस्तु एक प्रभु श्रीराम ही है ।

२६ अद्वितीयक्षमानिधिः - जो ब्रह्म की क्षमा की भण्डारस्वरूप है ॥ ४॥

      अद्वितीयदयामूर्तिरद्वितीयानहङ्कृतिः ।

      अदीनवुद्धिरद्वैता अधृताऽधोक्षजाऽनघा ॥ ५॥

२७ अद्वितीयदयामूर्ति - जो बह्म के दया गुण की स्वरुपा है ।

२८ अद्वितीयानहङ्कृतिः - जो सर्वज्ञ सर्वशक्तिमन् ब्रह्म की परम अमानिता की मूर्ति हैं ।

२९ अदीनबुद्धि - किसी भी विषय की निश्चय करनेमें जिनकी बुद्धि असमर्थ नहीं होती ।

३० अद्वैता - जिनमें किसी के भी प्रति भेद भाव नहीं है तथा जिन से संयुक्त होने से ब्रह्म युगलसरकार कहा जाता है ।

३१ अधृता - जिन्हें भगवन् श्रीरामजी श्रीवत्सरूप से सदैव अपने वक्षः स्थल पर धारण करते हैं तथा जिन्हें कभी भी किसीने अपने वशमें नही कर पाया है ।

३२ अधोक्षजा - जो अपने स्वभाव से कभी भी क्षीण नहीं होती अथवा जो इन्द्रियों को अपने वशमें, रखनेवाले भक्तों के ही हृदय में प्रत्यक्ष होती है ।

३३ अनघा - जो समस्त दुःखों तथा पापों से रहित हैं ॥ ५॥

      अनन्तविग्रहाऽनन्ता अनन्तैश्वर्यसंयुता ।

      अनन्यभावसन्तुष्टा अनर्थौघनिवारिणी ॥ ६॥

३४ अनन्तविग्रहा - जो असीम तत्त्व ब्रह्म की साकार मूर्त्ति है अथवा जिनके स्वरूपी का पार नही है अर्थात जो समस्त चराचरप्राणि स्वरूपा है ।

३५ अनन्ता - जिनके रूप व  गुणों का कोई अन्त (पार) नहीं है ।

३६ अनन्तैश्वर्यसंयुता - जिनके ऐश्वर्य अनन्त अर्थात् भगवन् श्रीरामजी है अथवा जो अपार ऐश्चर्यवाली है ।

३७ अनन्यभावसन्तुष्टा - जिनकी पूर्ण प्रसन्नता अनन्य भाव से होती है अर्थात् जिसकी आसक्ति पञ्च विषयों के समेत सबओर से हटकर एक उन्हीमें दृढ् हो जाती है, उसी पर जो प्रसन्न होती है ।

३८ अनर्थौघनिवारिणी - जो आश्रित चेतनों की दुर्भाग्य जनित सम्पूर्ण आपत्तियों को दूर करती है ॥ ६॥

      अनवद्याऽनामरूपा अनिर्देश्यस्वरूपिणी ।

      अनिर्वाच्यसुखाम्भोधिरनिर्वाच्याङ्घ्रिमार्दवा ॥ ७॥

३९ अनवद्या - जो समस्त दोषों से अछूती है ।

४० अनामरूपा - वस्तुतः जिनका कोई एक नाम या रूप नहीं है ।

४१ अनिर्देश्यस्वरूपिणी - जिनकै लक्षण बतलायै नहीं जा सकते अर्थात् जो मन वाणी से परे ज्ञानस्वरूपा है ।

४२ अनिर्वाच्यसुखाम्भोधिः - जिसको वर्णन करना वाणी की शक्ति से परे (बाहर) है, उस ब्रह्म के सुख की जो समुद्रस्वरूपा हैं ।

४३ अनिर्वाच्याङ्घ्रिमार्दवा - जिनके श्रीचरणकमलों की कोमलता वर्णन शक्ति से बाहर है ॥ ७॥

      अनिर्विण्णाऽनुकूलैका अनुकम्पैकविग्रहा ।

      अनुत्तमाऽनुत्तमात्मा अनुरागर्भराञ्चिता ॥ ८॥

४४ अनिर्विण्णा - जो पूर्ण काम होने के कारण सदा प्रसन्न रहती है ।

४५ अनुकूलैका - जो अपनी अनुपम दयालुता वश, अपराधी प्राणियों को भी भगवान श्रीरामजी के अनुकूल (दयापात्र) बना देती है तथा अपनी अमोघ प्रार्थना के द्वारा उन चेतनों के प्रति प्रभु श्रीरामजी को भी अनुकूल (दयान्वित) बना देती है ।

४६ अनुकम्पैकपूर्णविग्रहा - जिनका स्वरूप ही दया से परिपूर्ण है ।

४७ अनुत्तमा - जिन से बढ़्कर कोई भी शक्ति नहीं है तथा जो सभी विशिष्ट उमा, रमा, ब्रह्माणी आदि शक्तियों के द्वारा उपासना करने योग्य हैं ।

४८ अनुत्तमात्मा - जिन से बढ़्कर किसी की बुद्धि नहीं है ।

४९ अनुरागभराञ्चिता - जो अनुराग के भार (अतिशयता) से सुशोभित है ॥ ८॥

      अपारमहिमाऽपारभववारिधितारिणी ।

      अपूर्वचरिताऽपूर्वसिद्धान्ताऽपूर्वसौभगा ॥ ९॥

५० अपारमहिमा - दुष्टप्राणियों के प्रति दयाभाव को लेकर जिनकी महिमा भगवन् श्रीरामजी से भी बढ़्कर है ।

५१ अपारभववारिधितारिणी - जो अपने आश्रितोंकोअपार संसार सागर से पार उतार देती है अर्थात् दिव्य धामवासी बना लेने की कृपा करती है ।

५२ अपूर्वचरिता - जिनके सभी चरित अनोखे है ।

५३ अपूर्वसिद्धान्ता - जिनका सिद्धान्त (हार्दिकनिश्चय) ऐसा है जैसा कि आज तक किसी का हुआ ही नहीं, यथा ``पापानां वा शुभानां वा बधार्हाणां प्लवङ्गम । कार्य कारुण्यमार्गेण न कश्चिन्नापराध्यति'' । अर्थः- चाहे पुण्यात्मा हो चाहे पापी या वध (प्राणदण्ड) के योग्य ही क्यों न हो, पर श्रेष्ठ पुरुष को उसपर भी कृपा ही करनी चाहिये अर्थात् उसका हित ही सोचना चाहिये अहितकर दण्ड नही, क्योंकि त्रिलोकीमें कोई ऐसा न तो है और न होगा, वो अपराधों से अछूता हो ।

५४ अपूर्वसौभगा - जिनके समान आज तक किसी का सौभाग्य ही नहीं हुआ ॥ ९॥

      अप्रकृष्टाऽप्रतिद्वन्द्वविक्रमाऽप्रतिमद्युतिः ।

      अप्रतिमाऽप्रमत्तात्मा अप्रमेयसुखाकृतिः ॥ १०॥

५५ अप्रकृष्टा - जो अपने निरुपम दयापूर्ण सिद्धान्त में भगवान श्रीरामजी से भी बढकर हैं, क्योंकि अपराधो पर ध्यान न  देकर दया ही करना आप का सिद्धान्त है और भगवन् श्रीरामजी का सिद्धान्त है, कि जीव एकबार भी यदि निष्कपट भाव से कह दे कि ``प्रभो ! मैं आप का हूँ मेरी रक्षा कीजिये'' तो मैं उसे समस्त प्राणियों से अभय कर दू, विशेषता प्रत्यक्ष ही है ।

५६ अप्रतिद्वन्द्वविक्रमा - जिनके पराक्रममें कोई बाधक नहीं बन सकता तथा जो पराक्रममें भगवन् श्रीरामजी के ही समान है ।

५७ अप्रतिमद्युतिः - जिनके समान और अधिक किसी का तेज है ही नहीं, अर्थात् जो ब्रह्म के तेजवाली है ।

५८ अप्रतिमा - जो ब्रह्मस्वरूपा है अथवा जिनकी समता करनेवाला कोई नहीं है ।

   अप्रमत्तात्मा -

५९ अप्रमेयसुखाकृतिः - जिसे वाणी वर्णन, मन मनन और बुद्धि निश्चय नहीं कर सकती, उस ब्रह्म के सुख की जो स्वरूपा  है अर्थात् जो असीम सुख स्वरूपा है ॥ १०॥

      अप्राकृतगुणैश्वर्यविश्वमोहनविग्रहा ।

      अभिवाद्याऽमलाऽमाना अमिताऽमृतरूपिणी ॥ ११॥

६० अप्राकृतगुणैश्वर्यविश्वमोहनविग्रहा - जिनका स्वरूप दिव्य गुण और दिव्य ऐश्वर्य के द्वारा समस्त विश्व को मुग्ध करनेवाला है ।

६१ अभिवाद्या - सभी भावों के द्वारा सभी चर अचर प्राकृत-अप्राकृत प्राणियों को जिन्हें प्रणाम करना ही उचित है ।

६२ अमला - जो अविध्या (माया) रूपी मल से रहित शुद्ध ब्रह्म स्वरूपा है ।

६३ अमाना - जो ब्रह्म के समान नाप, तोल (आदि, मध्य, अन्त) से रहित, स्वजातीय, विजातीय भेद तथा गुण, रूप शक्ति के अभिमान से अछूती है ।

६४ अमिता - जो सब प्रकार से असीम है ।

६५ अमृतरूपिणी - जिनका स्वरूप कमी भी नहीं नष्ट होता तथा जो अमृत स्वरूपा  है ॥ ११॥

      अमृताऽमृतदृष्टिश्च अमृताशाऽमृतोद्भवा ।

      अयोनिसम्भवाऽरौद्रा अलोलाऽवनिपुत्रिका ॥ १२॥

६६ अमृता - जो जन्म मरण से रहित है ।

६७ अमृतदृष्टि - जिनकी चितवन अमृत के समान समस्त दुःखों को हरण करके आश्रितों को अमर धना देनेवाली है तथा जो सभी रूपोंमें एक भगवान श्रीरामजी का ही दर्शन करनेवाली है ।

६८ अमृताशा - जो स्वयं एक भगवान श्रीरामजी का अनुभव करती हुई अपने आश्रित चेतनो  को भी उनका अनुभव कराने की कृपा करती है ।

६९ अमृतोद्भवा - जो अमृत की कारण हैं ।

७० अयोनिसम्भवा - जो विना कारण केवल अपनी भक्तभाव पूरिणी इच्छा से प्रकट होती है ।

७१ अरौद्रा - जिनका स्वरूप भयानक न होकर समुद्र के समान अपरिमित माधुर्य सम्पन्न है ।

७२ अलोला - जो कमी अपने सिद्धान्त से चलायमान नहीं होती ।

७३ अवनिपुत्रिका - जो अपने आश्रितजनों को रक्षण आदि दिव्य गुणों की भूमि का भली भाँति विस्तार करती है, अथवा जो पृथ्वी से प्रकट हुई है ॥ १२॥

      अवराऽवर्ण्यमाधुर्य्या अवर्ण्यकरुणावधिः ।

      अविचिन्त्याऽविशिष्टात्मा अव्यक्ताऽव्ययशेमुषी ॥ १३॥

७४ अवरा - जिनके दूलह सरकार पूर्णब्रह्म भगवन् श्रीरामजी है और जिन से बढ़्कर कोई है ही नही ।

७५ अवर्ण्यमाधुर्य्या - जिनकी हृदयमोहिनी सुन्दरता, पूर्ण ब्रह्म श्रीरामजी के द्वाराभी प्रशंसा करने योग्य है ।

७६ अवर्ण्यकरुणावधिः - जिनकी दया की सीमा वर्णन शक्ति से परे है ।

७७ अविचिन्त्या - भगवन् श्रीरामजी के जो विशेष स्मरण करने योग्य है अथवा अवि जो(सूर्य) भगवान के उपासना करने योग्य हैं ।

७८ अविशिष्टात्मा - जिनको बुद्धि भगवन् श्रीरामजी से बढ़्कर है अथवा जिनकी बुद्धि एक प्रभु श्रीराघवेन्द्रसरकार की ही प्रधानता को ग्रहण करती है ।

७९ अव्यक्ता - जो नास्तिक तथा अभक्तों के लिये सदा परोक्ष (अप्रकट) है ।

८० अव्ययशेमुषी - जिनकी बुद्धि कभी क्षीणता को नहीं प्राप्त होती, सदा एक रस रहती है ॥ १३॥

      अव्याजकरुणामूर्तिरशोकाऽसङ्ख्यकाऽसमा ।

      असम्मिताऽऽप्तसङ्कल्पा आत्मज्ञानविभाकरी ॥ १४॥

८१ अव्याजकरुणामूर्तिः - जो स्वार्थ रहित कृपा की स्वरूपा है ।

८२ अशो का - जो अविद्याजनित समस्त शोकों से रहित आनन्द घन स्वरूपा है ।

८३ असङ्ख्य का - जिनमें गिनती न कर सकने योग्य दया, सौशील्यादि समस्त दिव्य गुण भरे है ।

८४ असमा - जो ब्रह्म के समान सम्पूर्ण महिमावाली है तथा जिनकी समता कोई नहीं कर सकता ।

८५ असम्मिता - जिनके पास सेवको को देने के लिये सेवा के फल गिनती के नहीं है अर्थात् अनन्त है ।

८६ आप्तसङ्कल्पा - जिनका कोई भी सङ्कल्प अपूर्ण नहीं है अर्थात् जिनके सङ्कल्पमात्र से ही सब कुछ हो जाता है ।

८७ आत्मज्ञानविभाकरी - जो परमात्मा भगवन् श्रीरामजी के स्वरूप की पहिचान करानेवाले दिव्यज्ञान को हृदयमें प्रकाशित करनेवाली है ॥ १४॥

      आत्मोद्भवाऽऽत्ममर्मज्ञा आत्मलाभप्रदायिनी ।

      आत्मवत्यादिकर्त्र्यादिराधारपरमालया ॥ १५॥

८८ आत्मोद्भवा - जो ब्रह्म से उत्पन्न होनेवाली उनकी इच्छाशक्ति है ।

८९ आत्ममर्मज्ञा - जो भगवन् श्रीरामजी के सभी प्रकार रहस्यों को भली भाँति जानती है ।

९० आत्मलाभप्रदायिनी - जो अपने आश्रितों को भगवत्-प्राप्ति का लाभ प्रदान करती है ।

९१ आत्मवति - जो अपने मन की अपने इच्छानुसार चलाने में समर्थ है तथा जो सर्वश्रेष्ठ बुद्धिस्वरूपा है ।

९२ आदिकर्त्री - जो महत्तत्त्व और तन्मात्रादि का की उत्पत्ति करनेवाली है ।

९३ आदिः - जो आदि काल की तथा सभी की आदि कारण स्वरूपा है ।

९४ आधापरमालया - जो विश्व के सभी प्रकार के समस्त आधारा के रहने की सब से उत्तमगृह स्वरूपा है, अर्थात् जिनमें सभी प्रकार के सम्पूर्ण आधार निवासकरते है ॥ १५॥

      आध्येयाङ्घ्रिसरोजाङ्का आनन्दामृतवर्षिणी ।

      आम्नायवेद्यचरणा आश्रितत्राणतत्परा ॥ १६॥

९५ आध्येयाङ्घ्रिसरोजाङ् का - जिनके श्रीचरणकमलों के चिन्ह सभी सकाम, निष्काम प्राणियों के ध्यान करने योग्य है ।

९६ आनन्दामृतवर्षिणी - जो भक्तों के लिये आनन्द रूपी अमृत की वर्षा करनेवाली है ।

९७ आम्नायवेद्यचरणा - वेदों के द्वारा जिनकी महिमा जानने योग्य है ।

९८ आश्रितत्राणतत्परा - जो आश्रितों की रक्षामें लगी हुई है ॥ १६॥

      आसक्त्यपहृतासक्तिरास्यस्पर्द्धिविधुव्रजा ।

      आह्लादसूपमासिन्धुरिनवंश्यपरप्रिया ॥ १७॥

९९ आसक्त्यपहृतासक्तिः - जिनमें प्राप्त हुई आसक्ति अन्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध तथा स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति आदि सभी प्रकार की आस्क्तियों को हरण कर लेती है ।

१०० आस्यस्पर्द्धिविधुव्रजा - जो अपने श्रीमुखारविन्द की कान्ति तथा आह्लादक गुण से चन्द्र समूहों को लज्जित करती है ।

१०१ आह्लादसूपमासिन्धुः - जिनमें आह्लाद तथा निरतिशय सौन्दर्य समुद्र के समान आथाह है ।

१०२ इनवंश्यपरप्रिया - जो सूर्यवंश में सर्वोत्कृष्ट श्रीचक्रवर्तीकुमार, श्रीरघुनन्दन प्यारे की प्राणवल्मभा है ॥ १७॥

      इन्दुपूर्णोल्लसद्वक्त्रा इभराजसुतागतिः ।

      इयत्त्वरहितेर्वाल्वी प्रपन्नसकलापदाम् ॥ १८॥

१०३ इन्दुपूर्णोल्लसद्वक्त्रा - जिनका श्रीमुखारविन्द पूर्णचन्द्रमा के समान प्रकाश युक्त तथा आह्लादप्रदायक है ।

१०४ इभराजसुतागतिः - ऐरावत हाथीकीवालि का के समान जिनकी अत्यन्त मनोहर चाल है ।

१०५ इयत्त्वरहिता - जो सभी प्रकार से असीम है ।

१०६ ईर्वाल्वी प्रपन्नसकलापदाम् - जो शरणागत चेतनों की (सभी प्रकारकी) आपत्तियों को नाश करती है ॥ १८॥

      इष्टा समस्तदेवानामीप्सितार्थप्रदायिनी ।

      ईश्वरी सर्वलोकानामुच्छिन्नाश्रित्तसंशया ॥ १९॥

१०७ इष्टा समस्तदेवानां - जो ब्रह्मादि सभी देवताओं की इष्ट हैं ।

१०८ ईप्सितार्थप्रदायिनी - जो आश्रितों को सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है ।

१०९ ईश्वरी सर्वलोकानाम् - जो चराचर प्राणीयों के सहित ब्रह्मा, विष्णु, शिवादि सभी विश्व के  शासकों पर शासन करनेवाली है ।

११० उच्छिन्नाश्रितसंशया - जो आश्रितों की सम्पूर्णशङ्काओं को जड़्से नष्ट कर देती है ॥ १९॥

      उज्ज्वलैकसमाराध्या उत्फुल्लेन्दीवरेक्षणा ।

      उत्तरोत्तानहस्ताब्जा उत्तमोत्सङ्गभूषणा ॥ २०॥

१११ उज्ज्वलैकसमाराध्या - जिन्हें केवल एक अनुराग से ही प्रसन्न किया जा सकता है ।

११२ उत्फुल्लेन्दीवरेक्षणा - पूर्णखिले नीले कमल के समान मनोहर जिनके विशाल नेत्र है ।

११३ उत्तरा - जो सभी शक्तियों में उत्तम है तथा अपने कर्तव्यसागर को जो भली भाँति पार कर रही है ।

११४ उत्तानहस्ताब्जा - जिनका हस्तकमल उदारता तथा आश्रितवत्सलता के कारण सदा ऊँचा उठा रहता है ।

११५ उत्तमा - जो सब से उत्तम है ।

११६ उत्सङ्गभूषणा - जो श्रीसुनयना अम्बाजी की गोद को भूषण के समान सुशोभित करनेवाली है ॥ २०॥

      उदारकीर्त्तनोदारचरितोदारवन्दना ।

      उदारजपपाठेज्या उदारध्यानसंस्तवा ॥ २१॥

११७ उदारकीर्तना - जिनका कीर्तन, उदार (सभी सिद्धियों को देनेवाला) है ।

११८ उदारचरिता - जिनके चरित मार अर्थात् हृदय को आदर्श प्रदान करनेमें सर्वोत्तम हैं ।

११९ उदारवन्दना - जिनका प्रणाम उदार (दिव्यधाम की प्रदान करनेवाला) है ।

१२० उदारजपपाठेज्या - जिनका जप, पाठ, यज्ञ सब उदार (अभीष्ट प्रदापक) है ।

१२१ उदारध्यानसंस्तया - जिनका ध्यान तथा स्तोत्र उदार अर्थात् चारो पदार्थों को प्रदान करनेवाला है ॥ २१॥

      उदारवल्लभोदारवीक्षणस्मितभाषिता ।

      उदारश्रीनामरूपलीलाधामगुणव्रजा ॥ २२॥

१२२ उदारवल्लभा - जिनके प्राणप्यारे उदार अर्थात अत्यन्त मनोहर हैं ।

१२३ उदारवीक्षणस्मितभाषिता - जिनकी चितवन, मन्द मुस्कान तथा कोकिल वाणी उदार ।(मनो मुग्धकारी) है ।

१२४ उदारश्रीनामरूपलीलाधामगुणव्रजा - जिनकी कान्ति नाम, रूप, लीला, धाम एवम् अन्य गुण समूह, सब उदार अर्थात परमप्रिय, अनन्त फलदायक तथा परम हितकारी है ॥ २२॥

      उदारालिगणोदारोपासका ॠतरूपिणी ।

      ॠभुवन्द्याङ्घ्रिरॄकारा लॄपुत्री लॄस्वरूपिणी ॥ २३॥

१२५ उदारालिगणा - जिनकी सस्त्रियाँ भी अत्यन्त उदार हैं ।

१२६ उदारोपासका - जिनके उपासक भी बड़े उदार है ।

१२७ ॠतरूपिणी - जो ज्ञानस्वरूपा है ।

१२८ ॠभुवन्द्याङ्घ्रिः - जिनके श्रीचरणकमल ब्रह्मादि देवताओं से भी प्रणाम करने योग्य हैं ।

१२९ ॠकारा - जो दया तथा स्मृति स्वरूपा है ।

१३० लॄपुत्री - जो सरस्वतीजी की कारण स्वरूपा है तथा जिनका प्राकृत्य पृथ्वी से हुआ है ।

१३१ लॄस्वरूपिणी - जो देवमाता अदिति स्वरूपा है ॥ २३॥

      एकैकशरणं पुंसामैक्यभावप्रसादिता ।

      ओकःप्रधानिकौजोऽव्धिरौदार्यौत्कर्ष्य विश्रुता ॥ २४॥

१३२ एका - जो अपने समान आप ही है ।

१३३ एकशरणं पुंसा - जिन से बढ़्कर कोई भी प्राणियों का न हितकरनेवाला है न रक्षा करनेमें ही समर्थ है, तथा जो समस्त प्राणियों की पूर्ण शान्ति प्रदायक मुख्य निवासस्य स्वरूपा है, अन्य नहीं ।

१३४ ऐक्यभावप्रसादिता - जो समस्त प्राणियोंमें भगवद्भावना करने से प्रसन्न होती है अथवा जिनकी प्रसन्नता केवल अनन्य भाव से होती है ।

१३५ ओकःप्रधानिका - जो समस्त प्राणियों की प्रमुख निवासस्थान स्वरूपा है अर्थात् पूर्ण ब्रह्म मयी हैं, अत एव जिस प्रकार प्राणी जब तक अपने मुख्य घरमें नीहीं पहुँचता, तब तक वह पूर्ण निश्चिन्त नहीं हो पाता, उसी प्रकार विना जिनको प्राप्त हुये जीव कभी भी पूर्ण शान्ति को नहीं प्राप्त कर सकता ।

१३६ ओजोऽब्धिः - जिनकी सामर्थ्य अन्य सभी शक्तियों के सामने समुद्र के समान अधाह है ।

१३७ औदार्यौत्कर्ष्य विश्रुत - जो अपनी सर्वोत्तम उदारता से विश्वमें विख्यात है, इसमें इन्द्र के पुत्र जयन्त की कथा ज्वलन्त प्रमाण है । जहाँ भगवन् श्रीरामजी उसे कर्म का उचित फल देने के लिये बाण का प्रयोग कर चु के और पिता इन्द्र तथा ब्रह्मादि देव वृन्दने भी जिसका बहिष्कार कर दिया, वहाँ प्यारे के सामने पैर करके पड़े हुये तुरत वध कर देने योग्य उसी जयन्त के चरणों को, अपने करकमलों के द्वारा सामने से हटा कर उसका शिर चरणोंमें रख कर, विनय पूर्वक प्रार्थना करती है, हेप्पारे । इसकी रक्षा करो रक्षा करो । भला इस से बढ़्कर और दयालुता की पराकाष्टा ही क्या हो सकती है ? (पद्मपुराण्) ! ॥ २४॥

      कमला कमलाराध्या करणं कलभाषिणी ।

      कलाधारा कलाभिज्ञा कलामूर्तिः कलावधिः ॥ २५॥

१३८ कमला - जो श्रीलक्ष्मी स्वरूपा है अर्थात् जो समस्त सुख और ऐश्वर्य से परिपूर्ण है ।

१३९ कमलाराध्या - जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्रादि के भी आराधना करने योग्य है, अथवा श्रीकमलाजी जिन्हें प्रसन्न करने में समर्थ है क्योंकि वे सखी व नदी आदि अनेक रूपों से सेवामें विराज मान है ।

१४० करणं - जो जगत् की कारण स्वरूपा है ।

१४१ कलभाषिणी - जो स्पष्ट, मधुर, और श्रवणसुखद वाणी बोलनेवाली है ।

१४२ कलाधारा - जो समस्त कला (विद्या) ओं की आधारस्वरूपा है अर्थात् जिन से सभी विद्याओं का प्राकृष्ट हुवा है ।

१४३ कलाभिज्ञा - जो समस्त कलाओं की ज्ञानस्वरूपा है अर्थात् उन्हें भली भाँति जानती है ।

१४४ कलामूर्तिः - जो सम्पूर्ण कलाओं की स्वरूप ही है ।

१४५ कलावधिः - जो सभी विद्याओं की सीमा है ॥ २५॥

      कल्पवृक्षाश्रया कल्प्या कल्मषौघनिवारिणी ।

      कल्याणदात्री कल्याणप्रकृतिः कामचारिणी ॥ २६॥

१४६ कल्पवृक्षाश्रया - जो कल्प वृक्ष की कारण स्वरूपा है, अर्थात् कल्पवृक्ष में जो सभी सङ्कल्पों को पूर्ण करने की शक्ति प्रदान करती है ।

२४७ कल्प्या - जो सम्भव को असम्भव और असम्भव को सम्भव करनेमें पूर्ण समर्थ है ।

१४८ कल्षौघनिवारिणी - जो पाप समूहों को पूर्ण रूप से भगा देनेवाली है ।

१४९ कल्याणदात्री - जो प्राणीमात्र की मङ्गल प्रदान करनेवाली है ।

१५० कल्याणप्रकृतिः - जो प्राणियों के दोषो (अपराधोका) विचार छोडकर उनका हित ही सोचती रहती है ।

१५१ कामचारिणी - जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के कर्तव्यों में नियुक्त करनेवाली है ॥ २६॥

      कामदा काम्यसंसक्तिः कारणाद्वयकारणम् ।

      कारुण्यार्द्रविशालाक्षी कालचक्रप्रवर्तिका ॥ २७॥

१५२ कामदा - जो आश्रितों के सभी अभीष्ट मनौरथो को पूर्ण करनेवाली है ।

१५३ काम्यसंसक्तिः - जिनके प्रति पूर्ण आसक्ति चाहना, प्राणीमान का कर्नव्य है ।

१५४ कारणाद्वयकारणम् - जो समस्त कारणों की उपमा रहित कारण स्वरूपा है अर्थात् जिन सर्वोत्कृष्ट कारण स्वरूपाजी से जगत् के सभी कारणो (उत्पादको) की उत्पत्ति होती है ।

१५५ कारुण्यार्द्रविशालाक्षी - जिनके कमल के समान मनोहर विशाल नेत्र स्नेह से भरे है ।

१५६ कालचक्रप्रवर्ति का - जो सत्य, त्रेता द्वापर, कलि, इन चारो युगो को चक्र के समान चलाती रहती है अर्थात् जिनकी इच्छा से ये चारो युग नाचते हुये पहियामें जड़े हुये के समान क्रमशः आते जाते रहते हैं ॥ ।२७॥

      कीनाशभयमूलघ्नी कुञ्जकेलिसुखप्रदा ।

      कुञ्जराधीशगतिका कृतज्ञार्च्या कृतागमा ॥ २८॥

१५७ कीनाशभयमूलघ्नी - जो यमराज के द्वारा प्राप्त होनेवाले समस्त भयो के कारण स्वरूप भक्तों के किये हुये पापों को नाश कर देती है ।

१५८ कुञ्जकेलिसुखप्रदा - जो अपने अनन्य भक्तों को कुञ्जो की रहस्यमयी क्रीडाओं का सुख प्रदान करती है ।

१५९ कुञ्जराधीशगति का - जो ऐरावत हाथी के समान मस्त चालवाली है अर्थात् जैसे गजराज जब चलता है तब वह कुत्ता आदि किसी भी दुष्ट प्राणी की की परवाह नहीं करता, उसी प्रकार जो किसी के आक्षेपो की परवाह न करके अपने कर्तव्य मार्ग सदैव अग्रसर रहती है ।

१६० कृतज्ञार्च्या - जो समस्त प्राणियों के किये हुये शुभ कर्मों के जाननेवाले इन्द्रियो पर विराजमान सूर्य, चन्द्र, ब्रह्मा, शिव, बृहस्पति, इन्द्र, विष्णुभगवान आदि देवताओ के द्वारा भी पूजने योग्य है, क्योंकि ये देववृन्द अपनी २ केवल इन्द्रियों के कर्मो को पृथक्पृथक् जाननेवाले हैं और वे सभी इन्द्रियो के द्वारा किये हुये कर्मों की अकेली ही जानती है । अथवा जो अपने निमित्त की हुई सेवा का उपकार माननेवालो में सर्वोत्कृष्ट है ।

१६१ कृतागमा - जो सभी वेद और शास्त्रा की रचनेवाली है ॥ २८॥

      कृपापीयूषजलधिः कोमलार्च्यपदाम्बुजा ।

      कौशल्याप्रतिमाम्भोधिः कौशल्यासुतवल्लभा ॥ २९॥

१६२ कृपापीयूषजलाधिः - जिनकी कृपा अमृत के समान असम्भव को सम्भव करनेवाली समुद्र के सदृश अधाह है ।

१६३ कोमलार्च्यपदाम्बुजा - जिनके दोना श्रीचरण, कमल के समान कोमल, सुगन्धमय, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र के द्वारा पूजने योग्य हैं ।

१६४ कौशल्याप्रतिमाम्भोधिः - जो चतुराई को उपमा रहित सागर स्वरूपा है अर्थात् समुद्र में रत्नो के समान जिनमें सब प्रकार की चतुराई भरी है ।

१६५ कौशल्यासुतवल्लभा - जो कौशल्यानन्दन श्रीराम भद्रजू की प्राण प्यारी है ॥ २९॥

      खरारिहृदयातुल्यपरमोत्सवरूपिणी ।

      खलान्यमतिसन्दात्री खवासीशादिवन्दिता ॥ ३०॥

१६६ खरारिहृदयातुल्यपरमोत्सवरूपिणी - जो भगवन् श्रीरामजी के हृदय को अनुपम महान उत्सव के समान सुख देनेवाली है ।

१६७ खलान्यमतिसन्दात्री - जो अपने आश्रितों को वास्तविक हित करनेवाली सज्जनता की वृद्धि प्रदान करती है।

१६८ खवासीशादिवन्दिता - जिन्हे देवराज इन्द्र आदि के प्रणाम करते है ॥ ३०॥

      खेलमात्रजगत्सृष्टिर्गणनाथार्च्चिता गतिः ।

      गतैश्वर्यस्मयश्रेष्ठा गभीरा गम्यभावना ॥ ३१॥

१६९ खेलमात्रजगत्सृष्टिः - समस्त चराचर मय अनन्त ब्रह्माण्डौं के प्राणियों की सृष्टि करना जिनका एक खेल मात्र है ।

१७० गणनाथार्च्चिता - जिनकी पूजा श्रीगणेशजी करते हैं ।

१७१ गतिः - जो सभी प्राणियों को प्राप्य स्थान स्वरूपा, सभी की रक्षा करनेवाली, और सभी के कल्याण का उपाय सोचनेवाली है ।

१७२ गतैश्वर्यस्मयश्रेष्ठा - अपनी प्रभुता के अभिमानरहितोंमें जो सब से बढ़्कर हैं ।

१७३ गभीरा - जिनका स्वभाव और हृदय अत्यन्त गम्भीर है ।

१७४ गम्यभावना - जिनके श्रीचरण कमलों की भक्ति प्राप्त करना मनुष्य मात्र के जीवन का परम लक्ष्य है ॥ ३१॥

      गहनाग्रया गीर्गीर्वाणहितसाधनतत्परा ।

      गुप्ता गुहेशया गुह्या गेयोदारयशस्ततिः ॥ ३२॥

१७५ गहनाग्र्या - अत्यन्त विलक्षण स्वरूप, सामर्थ्य और लीलाओं के कारण जिन्हे पहिचानना सब से अधिक असम्भव है ।

१७६ गीः - जो श्रीसरस्वती स्वरूपा हैं ।

१७७ गीर्वाणहितसाधनतत्परा - जो देवताओं का हित साधन करनेमें सदैव तत्पर रहती है ।

१७८ गुप्ता - जो स्वयं अपनी शक्ति से सुरक्षति हैं अथवा जो भक्तों के हृदयमें छिपी रहती है ।

१७९ गुहेशया - जो समस्त प्राणियों की हृदप रूपी गुफा में परमात्मरूप से सदैव निवासकरती है ।

१८० गुह्या - उपासक भक्तों को जिन्हे अपने हृदयमन्दिरमें सदा छिपाकर रखना चाहिये ।

१८१ गेयोदारयशस्ततिः - जिनका उदार यश समूह सदा ही गान करने योग्य है ॥ ३२॥

      गोपनीयपदासक्तिर्गोप्त्री गोविदनुत्तमा ।

      ग्रहणीयशुभादर्शा ग्लौपुञ्जाभनखच्छविः ॥ ३३॥

१८२ गोपनीयपदासक्तिः - उपासकों को, जिनके श्रीचरणकमलों की प्राप्त हुई आसक्ति को काम, क्रोध, लोभ्, मोह, राग द्वेष, मानप्रतिष्टा आदि लुटेरों से छिपाकर सुरक्षित सदा रखना चाहिये ।

१८३ गोप्त्री - जो भक्तों को सभी ओर सब प्रकार की आपत्तियों से सुरक्षित रखती है ।

१८४ गोविदनुत्तमा - जो अन्तर्यामिनी होने के कारण समस्त इन्द्रियों की सभी क्रियायों का ज्ञान सब से अधिक रखती है ।

१८५ ग्रहणीयशुभादर्शा - जिनका हितकर मङ्गलमय आदर्श सभी मनुष्यों को अपने जीवन की सफलता के लिये ग्रहण करने योग्य है ।

१८६ ग्लौपुञ्जाभनखच्छविः - चन्द्र समूहों के समान प्रकाशमय जिनके श्रीचरण कमलों के नखों की सुन्दरता है ॥ ३३॥

      घनश्यामात्मनिलया घर्मद्युतिकुलस्नुषा ।

      घृणालुका ङस्वरूपा चतुरात्मा चतुर्गतिः ॥ ३४॥

१८७ घनश्यामात्मनिलया - जो सजल मेधोंकि समान श्याम वर्ण श्रीरघुनन्दन प्यारेजू के हृदय में विराजनेवाली है ।

१८८ घर्मद्युतिकुलस्नुषा - जो सूर्य वंश की पतोहू है ।

१८९ घृणालु का - जो दया की मूर्त्ति हैं ।

१९० डस्वरूपा - जो ड कार स्वरूपा हैं ।

१९१ चतुरात्मा - जो श्रीसीताजी श्रीऊर्मिलाजी श्रीमाण्डवीजी श्रीश्रुतिकीर्तिजी इन चार स्वरूपवाली है अथवा जो मन, बुद्धि, अहङ्कार और चित्त इन चार अन्तः करणवाली है ।

२९२ चतुर्गतिः - जो सालोक्य, सामीप्य, सारूप्प, सायुज्य रूप चार परम गतिस्वरूपा हैं ॥ ३४॥

      चतुर्भावा चतुर्व्यूहा चतुर्वर्गप्रदायिनी ।

      चतुर्वेदविदां श्रेष्ठा चपलासत्कृतद्युतिः ॥ ३५॥

१९३ चतुर्भावा - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चारो ही पुरुषार्थ जिन से उत्पन्न होते हैं ।

१९४ चतुर्व्यूहा - श्रीलक्ष्मणजी, श्रभरतजी, श्री शत्रुध्नजी, इन तीनों भाइयों के सहित चार शरीरवाले भगवान श्रीरामजी की जो प्राण वल्लभा है ।

१९५ चतुर्वर्गप्रदायिनी - जो अपने आश्रितों को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षस्वरूप अपना दिव्य धाम प्रदान करनेवाला है ।

१९६ चतुर्वेदविदां श्रेष्ठा - जो चारों वेदों का मर्म समझनेवालोमै सब से उत्कृष्ट (बढ़्कर) हैं ।

१९७ चपलासत्कृतद्युतिः - जिनके श्रीअङ्ग की कान्ति बिजुली के द्वारा सत्कार को प्राप्त है ॥ ३५॥

      चन्द्रकलासमाराध्या चन्द्रबिम्बोपमानना ।

      चारुशीलादिभिः सेव्या चारुसम्पावनास्मिता ॥ ३६॥

१९८ चन्द्रकलासमाराध्या - जिन्हे श्रीचन्द्रकलाजी पूर्ण रूप से प्रसन्न कर सकती है अथवा श्रीचन्द्रकलाजी के द्वारा जिनकी पूर्ण प्रसन्नता की प्राप्ति सम्भव है ।

१९९ चन्द्रबिम्बोपमानना - जिनके प्रकाशमान, परमाह्लादकारी श्रीमुखारविन्द के उपमा योग्य, एक चन्द्रबिम्बा ही है ।

२०० चारुशीलादिभिः सेव्या - श्रीचारुशीलाजी आदि अष्ट सखियों ही जिनको पूर्ण सेवा करसकती है ।

२०१ चारुसम्पावनास्मिता - जिनकी मुस्कान सुन्दर और सब प्रकार से पवित्र करनेवाली है ॥ ३६॥

      चारुरूपगुणोपेता चारुस्मरणमङ्गला ।

      चार्वङ्गी चिदलङ्कारा चिदानन्दस्वरूपिणी ॥ ३७॥

२०२ चारुरूपगुणोपेता - जो विश्वविमोहनस्वरूप और दया, क्षमा, वात्सल्य, सौशील्य, औदार्य आदि समस्त दिव्य मङ्गल गुणों से युक्त है ।

२०३ चारुस्मरणमङ्गला - जिनका चिन्तन सुन्दर और मङ्गल कारी है ।

२०४ चार्वङ्गी - जिनके सभी अङ्ग परममनोहर है ।

२०५ चिदलङ्कारा - जिनके सभी भूषण चैतन्य मय है ।

२०६ चिदानन्दस्वरूपिणी - जो चैतन्य एवं आनन्दघन (ब्रह्म) को स्वरूप हैं ॥ ३७॥

      छविक्षुब्धरतिः छिन्नप्रणताशेषसंशया ।

      जगत्क्षेमविधानज्ञा जगत्सेतुनिबन्धिनी ॥ ३८॥

२०७ छविक्षुब्धरतिः - जिनकी सहजसुन्दरता से रति क्षोभ को प्राप्त है ।

२०८ छिन्नप्रणताशेषसंशया - जो अपने भक्तों की समस्त शङ्खाओं को दूर करनेवाली है ।

२०९ जगत्क्षेमविधानज्ञा - जो चराचर समस्त प्राणियों के कल्याण का पूर्ण उपाय जानती है ।

२१० जगत्सेतुनिबन्धिनी - जो जगत् की मर्यादा घाँघनेवाली है अर्थात् जो प्राणीयों की हितसिद्धि के लिये, उन्हें यथोचित नियमोंम बान्धनेवाली है ॥ ३८॥

      जगदादिर्जगदात्मप्रेयसी जगदात्मिका ।

      जगदालयवृन्देशी जगदालयसङ्घसूः ॥ ३९॥

२११ जगदादिः - जो जगत की कारण स्वरूपा है ।

२१२ जगदात्मप्रेयसी - जो चराचर समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप भगवान श्रीरामजी की प्राणवल्लभा है ।

२१३ जगदात्मि का - जो समस्त स्थावर जङ्गम प्राणियों के रूपमें सर्वत्र प्रकट है ।

२१४ जगदालयवृन्देशी - जो अनन्त ब्रह्माण्डों पर शासन करती है ।

२१५ जगदालयसङ्घसूः - जो अपने सङ्कल्प मात्र से चराचर चेतन मय ब्रह्माण्ड समूहों को उत्पन्न करती है अर्थात् जो अनन्त ब्रह्माण्डौ की सृष्टि करनेवाली है ॥ ३९॥

      जगदुद्भवादिकर्त्री जगदेकपरायणम् ।

      जगन्नेत्री जगन्माता जगन्माङ्गल्यमङ्गला ॥ ४०॥

२१६ जगदुद्भवादिकर्त्री - जो जगत की उत्पति, पालन, संहार करनेवाली है ।

२१७ जगदेकपरायणम् - जो सभी चराचर प्राणियों की अनुपम निवासस्थान स्वरूपा है ।

२१८ जगन्नेत्री - जो समस्त चराचर प्राणियों को उन्ही के कर्मानुसार चलाती है ।

२१९ जगन्माता - जो सभी चराचर प्राणियों की वास्तविक (असली) माता है ।

२२० जगन्माङ्गल्यमङ्गला - जगत्में जितने भी मङ्गलवाचक शब्द, नाम, रूपादि पदार्थ हैं, उन सभी का जो मङ्गल करनेवाली है ॥ ४०॥

      जगन्मोहनमाधुर्यमनोमोहनविग्रहा ।

      जतुशोभिपदाम्भोजा जनकानन्दवर्धिनी ॥ ४१॥

२२१ जगन्मोहनमाधुर्यमनोमोहनविग्रहा - जो अपने माधुर्य से समस्त चराचर प्राणियों को मुग्ध कर लेते हैं, उन विश्वविमोहन, कन्दर्पदर्य  दलनपटीयान भगवन् श्रीरामजी के भी मन को मुग्ध कर लेनेवाला जिनका विग्रह अर्थात् (दिव्य स्वरूप) है ।

२२२ जतुशोभिपदाम्भोजा - जिनके श्रीचरणकमल महावर के श‍ृङ्गार से सुशोभित हैं ।

२२३ जनकानन्दवर्धिनी - जो वासल्य सुखप्रदान करके श्रीजनकजी महाराज के आनन्द को बढ़ानेवाली है ॥ ४१॥

      जनकल्याणसक्तात्मा जननी सर्वदेहिनाम् ।

      जननीहृदयानन्दा जनबाधानिवारिणी ॥ ४२॥

२२४ जनकल्याणसक्तात्मा - जिनका चित अपने आश्रितों का हित चिन्तन करने में सदैव आसक्त रहता है ।

२२५ जननीसर्वदेहिनाम् - जो समस्त देहधारियों को माता के समान पालनपोषण पूर्वक सुरक्षा करनेवाली है ।

२२६ जननीहृदयानन्दा - जो विश्वमोहन शिशुरूप को धारण करके अपनी मनोहर लीला, मनोहर तोतली वाणी, मनोहर मुस्कान, तथा मनोहर चितवन, मनहरण चाल, परम आह्लादकारी स्पर्श आदि के द्वारा अपनी श्रीअम्भाजी के हृदय के आनन्द की स्वरूप ही है ।

२२७ जनबाधानिवारिणी - जो वास्तविक हितकर कर्तव्य में तत्पर हुये, अपने आश्रितों के सभी उपस्थित विघ्नों को दूर करनेवाली है ॥ ४२॥

      जनसन्तापशमनी जनित्री सुखसम्पदाम् ।

      जनेश्वरेड्या जन्मान्तत्रासनिर्णाशचिन्तना ॥ ४३॥

२२८ जनसन्तापशमनी - जो शरणागत भक्तों के दैहिक (बीमारी के कारण) दैविक (देवताओं के कोपसे) आध्यात्मिक (मन की चिन्तासे) प्राप्त होनेवाले तीनों प्रकार के तापों को पूर्णरुप से नष्ट कर देती है ।

२२९ जनित्री सुख सम्पदां - जो सुखस्वरूप भगवान श्रीरामजी की सम्पत्ति ज्ञान, वैराग्य, अनुराग आदि को भक्तों के हृदय में उत्पन्न कर देनेवाली है ।

२३० जनेश्वरेड्या - जो भक्तों के शासन (आज्ञा) में रहनेवाले प्रभु श्रीरामजी के द्वारा भी दया गुणमें प्रशंसा के योग्य हैं ।

२३१ जन्मान्तत्रासनिर्णाशचिन्तना - जिनका सुमिरण प्राणियों के जन्ममरण के कष्ट को पूर्ण नष्ट कर देता है अर्थात् जन्म मरण के चक्कर से छुडाकर सीधे दिव्यधाम वासी बना देता है ॥ ४३॥

      जपनीया जयघोषाराध्यमाना जयप्रदा ।

      जया जयावहा जन्मजरामृत्युभयातिगा ॥ ४४॥

२३२ जपनीया - जो जन्म (प्रारब्ध् काल) से ही प्रशंसा के योग्य तथा विष्णुभगवान को भी जिनकी स्तुति करना कर्तव्य है, अथवा प्राणियों को अपने लौकिक, पारलौकिक हितसाधन के लिये जिनके मन्त्रराज का जप सदैव करना उचित है ।

२३३ जयघोषाराध्यमाना - जो जयकार घोष के द्वारा सदा ही प्रसन्न की जारही है अर्थात् जिनको प्रसन्न करने के लिये, सब समय किसी न किसी के द्वारा, कही न कहीं जयकार बोला ही जा रहा है ।

२३४ जयप्रदा - जो अपने आश्रितों को जय प्रदान करनेवाली है ।

२३५ जया - जो साक्षात् जय स्वरूपा है ।

२३६ जयावहा - जो भक्तों के पास विजय विभूति को स्वयं ढोकर पहुञ्चानेवाली है ।

२३७ जन्मजरामृत्युभयातिगा - जिन्हें जन्म, बुढ़ापा व मृत्यु आदि शारीरिक परिवर्तन का भी भय नहीं है अर्थात् जो अजर-अमर व अजन्मवाली ह ॥ ४४॥

      जलकेलिमहाप्राज्ञा जलजासनवन्दिता ।

      जलजारुणहस्ताङ्घ्रिर्जलजायतलोचना ॥ ४५॥

२३८ जलकेलिमहाप्राज्ञा - जो जल क्रीडा की कला जाननेवाली श्रीचन्द्रकलाजी श्रीचारुशीलाजी आदि सखियोंमें भी सब से बढ़्कर हैं । अथवा जो जगत् की उत्पत्ति और प्रलय की लीला करने में सब से अधिक बुद्धि मती है ।

२३९ जलजासनवन्दिता - जिन्हे जगत्पितामह श्रीब्रह्माजी भी प्रणाम करते हैं ।

२४० जलजारुणहस्ताङ्घ्रिः - लाल कमल के समान जिनके लालिमा युक्त दोनो श्रीहस्त एवं पद कमल है ।

२४१ जलजायतलोचना - जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और मनोहर है ॥ ४५॥

      जवानतमनोवेगा जाड्यध्वान्तनिवारिणी ।

      जानकी जितमायैका जितामित्रा जितच्छविः ॥ ४६॥

२४२ जवानतमनोवेगा - सर्वत्र व्यापक होने के कारण जो अपनी शीघ्रगामिता से समस्त चेतनों के मन की तीव्र गमन शक्ति को लज्जित कर देती है ।

२४३ जाड्यध्वान्तनिवारिणी - जो जप परायण भक्तों के हृदय की जड़ता रुपी अन्धकार को दूर कर देती है ।

२४४ जानकी - ब्रह्मा पर्यन्त समस्त जीव जिनकी स्तुति करते हैं, उन भगवन् श्रीरामजी के ही परतत्त्व को अपने मन, वचन, काय से जो सदैव प्रतिपादन (सिद्ध) करती है अथवा श्रीजनकजी महाराज के तप और अनेक जन्मो के सञ्चित पुण्य विषेष से उदित हुई दया के वशीभृत होकर, उनके मनोभिलाप की पूति के लिये उनके गृहमें प्रकट हुई है ।

२४५ जितमायैका - जो अपने आश्रितो की अज्ञान शक्ति तथा दुष्टा के इन्द्रजाल (जादूगरि) का विनाश करनेवाली सभी शक्तियाम अनुपम है ।

२४६ जितामित्रा - सभी प्राणियमात्र का पालन पोषण तथा रक्षण करनेवाली होने के कारण जिनका, कोई शत्रु नहीं है, तथा सर्वशक्तिमती होने के कारण जो अपने आश्रितों को काम, क्रोध, लोभ मोह आदि सभी शत्रुवों पर विजय प्राप्त करनेवाली है ।

२४७ जितच्छविः - जो उमा, रमा, ब्रह्माणी, रति आदि समस्त शोभानिधि शक्तियों की शोभा को विजय करनेवाली हैं, अर्थात् अपरिमित शोभा की स्थान है ॥ ४६॥

      जितद्वन्द्वा जितामर्षा जीवमुक्तिप्रदायिनी ।

      जीवानां परमाराध्या जीवेशी जेतृसद्गतिः ॥ ४७॥

२४८ जितद्वन्द्वा - जो राग द्वेष आदि सभी द्वन्दों से रहित है ।

२४९ जितामर्षा - जो जगज्जननी होने के कारण जीवों के इजारो अपराधों को जानती हुई भी उनपर अहित कर क्रोध नही करती, बल्कि उनका हित करने के लिये दया करना ही अपना कर्त्तव्य समझती हैं, यथा श्रीवाल्मीकीयरामयणे ``पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणां प्ल्वङ्गम कार्यं कारुण्यमार्गेण न कश्चिन्नापराध्यति ।''

२५० जीवमुक्तिप्रदापिनी - जो अविद्या (बन्धनकारिणी) और विद्या (बन्धन मोचिनी)  दोनों शक्तियों को स्वामिनी होने के कारण आश्रित जीवों को मोक्षस्वरूप अपना दिव्य धाम प्रदान करनेवाली है ।

२५१ जीवानां परमाराध्या - जीवों को आराधना के लिये जिन से बढ़्कर एवं समान ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, सुरेश, दिनेश (सूर्य) दुर्गादि कोई भी नही है ।

२५२ जीवेशी - जो समस्त जीवों के प्राणोंकि अपने वश में रखनेवाली है अथवा सभी जीवों को कर्मानुसार अनेक प्रकार का जो फल प्रदान करती है ।

२५३ जेतृसद्गतिः - जो समस्त शक्तियों की सञ्चारि का होने के कारण लौकिक पारलौकिक विजय चाहनेवाले सभी प्राणियो की विजय प्राप्ति का उपाप तथा उसकी सर्वोत्तम फल स्वरूपा है, क्योंकि यदि कोई उनकी प्रदान की हुई शक्ति से विश्वविजयी भी होकर उनको भूल गया, तो फिर उससे (विजयाभिमानी) को यमयातना पूर्वक चौरासी लक्ष योनिया का दुःख अवश्य उठाना पड़ेगा, उसी प्रकार पारलौकिक विजय चाहनेवाला उनकी दी हुई शक्ति से काम, क्रोध, लोभ, मौह आदि शत्रुवों तथा लौकिक शब्द, स्पर्श, रूप, गन्ध आदि के सहित मन और प्राण पर भी विजय प्राप्त करके यदि उनको भूल गया, तो उसे भी त्रिलोकोंमें भटकने से अवकाश न मिलेगा, अत एव पूर्ण विजय की सफलता उन सर्वशक्तिमती की प्राप्ति में ही है ॥ ४७॥

      जेत्री ज्ञानदा ज्ञानपाथोधिर्ज्ञानिनां गतिः ।

      ज्ञेयाऽऽत्महितकामानां ज्येष्ठा ज्योत्स्नाधिपानना ॥ ४८॥

२५४ जेत्री - जो सभी पर विजय प्राप्त करनेवाली है ।

२५५ ज्ञानदा - जो सभी प्राणियों के अन्तः करणमें कर्म करते समय निर्भयता के रूपमें हितकर और भय के रूपमें अहितकर का ज्ञान, प्रदान करती है अथवा अपने आश्रित भक्तों को स्वस्वरूप, पर स्वरूप जगत्स्वरूप, प्राप्य स्वरूप और प्राप्य प्राप्ति-साधक तथा प्राप्ति बाधक स्वरूप का ज्ञान प्रदान करनेवाली है ।

१५६ ज्ञानपाथोधिः - जिनका ज्ञान समुद्र के समान अथाह है ।

२५७ ज्ञानिनां गतिः - जो आत्मतत्त्व को जान लेनेवालो की परम प्राप्य स्थान स्वरूपा है, अर्थात् जिन्हें अपने तथा उनके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया है, उन्हें अपने मन, बुद्धि, चित्त को ठहराने के लिये एक जिनको छोड़् कर और कोई आधार ही नहीं है ।

२५८ ज्ञेयाऽऽत्महितकामानां - अपना कल्याण चाहनेवालों को जिनके स्वरूप, गुण और ऐश्वर्य आदि का ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक है, अन्यों का नहीं, क्योंकि अन्य शक्तियाँ उनकी अंश होने से जीव ही हुई, अतः उपासना के लिपे वे ज्ञेय नहीं है ।

२५९ ज्येष्ठा - जो सभी शक्तियों में बडी है ।

२६० ज्योत्स्नाधिपानना - जिनका श्रीमुखारविन्द शरदऋतु के पूर्ण चन्द्र के समान परम आह्लादकारी तथा प्रकाशपुञ्ज है ॥ ४८॥

      ज्वरातिगा ज्वलत्कान्तिर्ज्वालामालासमाकुला ।

      झणन्नूपुरपादाब्जा झम्पाकेशप्रसादिता ॥ ४९॥

२६१ ज्वरातिगा - जो भक्तों को शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार के ज्वरों को दूर करने में समर्थ हैं ।

२१२ ज्वलत्कान्तिः - जिनके श्रीअङ्ग की कान्ति प्रकाशयुक्त है ।

२६३ ज्वालामालासमाकुला - जो प्रकाशपुञ्ज से परिपूर्ण है ।

२६४ झणन्नूपुरपादाब्जा - जिनके श्रीचरणकमलोंमें नूपुर बज रहे हैं ।

२६५ झम्पाकेशप्रसादिता - वानरराज श्रीहनुमानजीने जिन्हें प्रसन्न कर लिया है ॥ ४९॥

      झपकेतुप्रियायूथसञ्चितच्छविमोहिनी ।

      झाटवाटोत्सवाधारा ञरूपा टुण्टुकेतरा ॥ ५०॥

२६६ झपकेतुप्रियायूथसञ्चितच्छविमोहिनी - जो अपने सहजसौन्दर्य से रतिसमूहों की छबि राशि को मुग्ध कर लेनेमें विशेषता रखती है ।

२६७ झाटवाटोत्सवाधारा - जो कुञ्जस्थलियों के विविध प्रकार के उत्सवों की आधारस्वरूपा है अर्थात् जिनकी कृपा से ही सखियों को कुञ्ज की क्रीडाओं का सुख प्राप्त होता है ।

२६८ अरूपा - जो गानविद्या की स्वरूपा है ।

२६९ टुण्टुकेतरा - जो सब से बड़ी और परमदयालु हृदय बाली है ॥ ५०॥

      ठात्मिका डम्बरोत्कृष्टा दामराधीशगामिनी ।

      ढुण्ढीष्टदेवता ढक्कामञ्जुनादप्रहर्षिता ॥ ५१॥

२७० ठात्मि का - जो सूर्य-चन्द्र मण्डल स्वरूपा है ।

२७१ डम्बरोत्कृष्टा - जो उमा, रमा, ब्रह्माणी रति आदि सभी विश्वविख्यात महाशक्तियोंमें भी सब से बढ़्कर है ।

२७२ दामराधीशगामिनी - जिनकी मनोहर चाल राजहंसके समान है ।

२७३ ढुण्ढीष्टदेवता - जो श्रीगणेशगी की आराध्यदेवता हैं ।

२७४ ढक्कामञ्जुनादप्रहर्षिता - जो बड़ी ढोल के मनोहर नाद से विशेष हर्ष को प्राप्त होती है ॥ ५१॥

      णकारा तडिदोघाभदीप्ताङ्गी तत्त्वरूपिणी ।

      तत्त्वकुशला तत्त्वात्मा तत्त्वादिस्तनुमध्यमा ॥ ५२॥

२७५ णकारा - जो सर्वज्ञान स्वरूपा है ।

२७६ तडिदोघाभदीप्ताङ्गी - बिजुली की राशि के समान चमकते हुये जिनके श्रीअङ्ग हैं ।

२७७ तत्त्वरूपिणी - जो (दश इन्द्रिय, चतुष्टय अन्तःकरण, पञ्च प्राण, पञ्च तन्मात्रा) २४ तत्त्वों की स्वरूप हैं ।

२७८ तत्त्वकुशला - जो तत्त्व (सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके) स्वरूप को भली भाँति जानती है ।

२७९ तत्त्वात्मा - जिनकी बुद्धिमें एक पूर्ण तत्त्व भगवान श्रीरामजी ही सदा निवासकरते हैं ।

२८० तत्त्वादिः - जो समस्त तरवों की आदि कारण है ।

२८१ तनुमध्यमा - जिनकी कमर सिंह के समान सुन्दर और पतली है ॥ ५२॥

      तन्तुप्रवर्द्धिनी तन्वी तपनीयनिभद्युतिः ।

      तपोमूर्तिस्तपोवासा तमसः परतः परा ॥ ५३॥

२८२ तन्तुप्रवर्द्धिनी - जो अपने उपासकों के वंश को वृद्धि करती है ।

२८३ तन्वी - जिनका शरीर अत्यन्त कोमल है ।

२८४ तपनीयनिभद्युतिः - जिनकी कान्ति तपाये सुवर्ण के समान गौर है ।

२८५ तपोमूर्तिः - जो सर्व तपस्वरूपा है ।

२८६ तपोवासा - जो सभी प्रकार के तपो की भण्डार हैं ।

२८७ तमसः परतः परा - जो पूर्ण सत् स्वरूपा है ॥ ५३॥

      तमोघ्नी तापशमनी तारिणी तुष्टमानसा ।

      तुष्टिप्रदायिका तृप्ता तृप्तिस्तृप्त्येककारिणी ॥ ५४॥

२८८ तमोघ्नी - जो आश्रिती के मै, मेरा रूप अज्ञान को दूर करनेवाली है ।

२८९ तापशमनी - जो अपने भक्तों की दैहिक, दैविक तथा मानसिक तीनों प्रकार की तापों को नष्ट कर देती है ।

२९० तारिणी - जो अपने शरणागत भक्तों को अनायास ही संसार रूपी सागर से पार उतार देती है अर्थात् दिव्य धाम पहुँचा देती है ।

२९१ तुष्टमानसा - जिनका मन सदा प्रसन्न रहता है ।

२९२ तुष्टिप्रदायि का - जो अपने भक्तों को पूर्ण प्रसन्नता प्रदान करती है ।

२९३ तृप्ता - जो पूर्ण काम है ।

२९४ तृप्ति - जो तृप्ति स्वरूपा है ।

२९५ तृप्त्येककारिणी - जो आश्रितो को अपानी छवि-माधुरी के रसास्वादन द्वारा सदैव छकापे रहती है अर्थात पूर्ण निष्काम बना देती है ॥५४॥

      तेजःस्वरूपिणी तेजोवृषा तोयभवार्चिता ।

      त्रिकालज्ञा त्रिलोकेशी थै थै शब्दप्रमोदिनी ॥ ५५॥

२९६ तेजःस्वरूपिणी - जो सम्पूर्ण तेजसमूह की मूर्ति है ।

२९७ तेजोवृषा - जो सर्वत्र अपने तेज की वर्षा करती है ।

२९८ तोयभवार्चिता - जिनकी श्रीकमला (लक्ष्मी) जी सदैव पूजा करती है ।

२९९ त्रिकालज्ञा - जो भूत, भविष्य वर्तमान तीनो काल के सभी प्राणियोंकि कायिक वाचिक, मानसिक प्रत्येक क्रियाओ को जानती है ।

३०० त्रिलोकेशी - जो तीनों लोकों पर शासन करती है ।

३०१ थै थै शब्दप्रमोदिनी - जो रासादि लीला के समय थै थै शब्द से विशेष प्रसन्नता को प्राप्त होती है ॥ ५५॥

      दक्षा दनुजदर्पघ्नी दमिताश्रितकण्टका ।

      दम्भादिमलमूलघ्नी दयार्द्राक्षी दयामयी ॥ ५६॥

३०२ दक्षा - जो भक्तों की सुरक्षा करने में परम चतुर है ।

३०३ दनुजदर्पघ्नी - जो अभिमान रूपी दैत्य का सहार करनेवाली है अथवा जो दानवों (पर हित हनन-कारियों) के अभिमान को नष्ट करनेवाली है ।

३०४ दमिताश्रितकण्ट का - जो अपने आश्रितों के काँटा रूपी सभी बाधाओं को शान्त करती है ।

३०५ दम्भादिमलमूलघ्नी - जो आश्रितों के छल, कपट, काम क्रोध लोभ मोहादि विकारा की अज्ञानरूपी जड को नष्ट कर देती है ।

३०६ दयार्द्राक्षी - जिनके दोनों नेत्र रूपी कमल दया से तर है ।

३०७ दयामयी - जो दया की स्वरूप ही है ॥ ५६॥

      दशस्यन्दनजप्रेष्ठा दाक्षिण्याखिलपूजिता ।

      दान्ता दारिद्र्यशमनी दिव्यध्येयशुभाकृतिः ॥ ५७॥

३०८ दशस्यन्दनजप्रेष्ठा - जो दशरथनन्दन श्रीरामभद्रजी की प्राणप्रियतमा है ।

३०९ दाक्षिण्याखिलपूजिता - जो सृष्टि की उत्पत्ति, पालन, संहार कार्य की चतुराई में, सभी शक्तियों के द्वारा पूजित हैं ।

३१० दान्ता - जो मन के समेत सभी इन्द्रियों को अपनी इच्छानुसार चलाती है ।

३११ दारिद्र्यशमनी - जो आश्रितो को दरिद्रता का नाश कर देती है ।

३१२ दिव्यध्येयशुभाकृतिः - जिनके मङ्गलमय स्वरूप का ध्यान दिव्य (शब्द, स्पर्श, रूपादि विषयोंकी, आसक्ति से रहित भक्त जन) ही कर सकते हैं ॥ ५७॥

      दिव्यात्मा दिव्यचरिता दिव्योदारगुणान्विता ।

      दिव्या दिव्यात्मविभवा दीनोद्धरणतत्परा ॥ ५८॥

३१३ दिव्यात्मा - जिनकी बुद्धि लोक से परे है ।

३१४ दिव्यचरिता - जिनकी सभी लीलायों अप्राकृत अर्थात् मायिक सत्व, रज, तम इन तीनों गुणों से परे है ।

३१५ दिव्योदारगुणान्विता - जो भक्तों को इच्छा से अधिक फल प्रदान करनेवाले आप्रकृत दया, क्षमा, वात्सल्य, सौशील्यादि दिव्य गुणों से युक्त है ।

३१६ दिव्या - जो शब्द, स्पर्श, रूप-रसादिक विषयों के सहित आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पञ्च तत्त्वों से रहित सच्चिदानन्दघन शरीरवाली है ।

३१७ दिव्यात्मविभवा - जिनकी ज्ञानशक्ति लोक से परे है ।

३१८ दीनोद्धरणतत्परा - जो अभिमानरहित प्राणियों का उद्धार करने में तत्पर हैं ॥ ५८॥

      दीप्ताङ्गी दीप्तमहिमा दीप्यमानमुखाम्बुजा ।

      दुरासदा दुराराध्या दुरितघ्नी दुर्मर्षणा ॥ ५९॥

३१९ दीप्ताङ्गी - जिनके सभी अङ्ग परम प्रकाशमय है ।

३२० दीप्तमहिमा - जिनकी महिमा इस दृश्य जगत् रूप में चमक रही है ।

३२१ दीप्यमानमुखाम्बुजा - जिनका श्रीमुखारविन्द अनन्त चन्द्रमाओं के सदृश आह्लादकारी प्रकाशयुक्त है ।

३२२ दुरासदा - जो अभक्तों को महान कष्ट से भी नहीं प्राप्त होती ।

३२३ दुराराध्या - अनन्य प्रेम से साध्या होने के कारण जिन्हें योग, यज्ञ, तप आदि विशेष कष्ट कर साधनो के द्वारा भी कोई प्रसन्न नहीं कर सकता ।

३२४ दुरितघ्नी - जो भक्तों के समस्त पापजनित दुःखों का नाश करनेवाली है ।

३२५ दुर्मर्षणा - जो भक्तों के प्रति किसी के किये हुये अपराध को दुःख से भी सहन नहीं कर पाती अर्थात् उसे अपने सर्वेश्वरी रूपानुसार अवश्य उचित दण्ड प्रदान करती है ॥ ५९॥

      दुर्ज्ञेया दुष्प्रकृतिघ्नी दुःस्वप्नादिप्रणाशिनी ।

      द्युतिर्द्युतिमति देवचूडामणिप्रभुप्रिया ॥ ६०॥

३२६ दुर्ज्ञेया - जो असीम होने के कारण अत्यन्तसीमित बुद्धिवाले प्राणियों के जप, तप पूजा यज्ञादि के द्वारा भी समझ में नहीं आती ।

३२७ दुष्प्रकृतिघ्नी - जो आश्रितों के खोटे स्वभाव को नष्ट कर देती है ।

३२८ दुःस्वप्नादिप्रणाशिनी - जो भक्तों के स्वप्न में देखे हुवे, अनिष्ट कारक स्वप्नों के फल को भली भाँति से एक ही नाश करनेवाली है ।

३२९ द्युतिः - जो प्रकाशस्वरूपा है ।

३३० द्युतिमती - जो अपने आप सहज प्रकाश युक्त हैं ।

३३१ देवचूडामणिप्रभुप्रिया - जो समस्त देवताओं में शिरोमणि भगवन् विष्णु के नियामक श्रीराघवेन्द्रसरकार की प्राण वल्लभा है ॥ ६०॥

      देवताहितदा दैन्यभावाचिरसुतोषिता ।

      धराकन्या धरानन्दा धरामोदविवर्धिनी ॥ ६१॥

३३२ देवताहितदा - जो दैवी सम्पत्ति से युक्त अपने भक्तों को हित स्वयं प्रदान करती है ।

३३३ दैन्यभावाचिरसुतोषिता - जो अभिमान रहित भाव से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाती है ।

३३४ धराकन्या - जो भूमि से प्रकट होने के कारण भूमिकन्या कहाती है ।

३३५ धरानन्दा - जो पृथ्वी देवी के आनन्द की स्वरूप है ।

३३६ धरामोदविवर्धिनी - जो अपने क्षमा गुण की सर्वोत्कृष्टता के द्वारा श्रीपृथ्वीदेवी के आनन्द की विशेष वृद्धि करनेवाली है ॥ ६१॥

      धरारत्नं धर्मनिधिर्धर्म सेतुनिबन्धिनी ।

      धर्मशास्त्रानुगा धामपरिभूततडिद्द्युतिः ॥ ६२॥

३३७ घरारत्नं - जो पृथिवी में रत्न स्वरूपा है ।

३३८ धर्मनिधिः - जो सम्पूर्ण धर्मो की भण्डार स्वरूपा है ।

३३९ धर्म-सेतुनिबन्धिनी - जो धर्म की मर्यादा वाँघनेवाली है ।

३४० धर्मशास्त्रानुगा - जो लोकमै श्रीमनु महाराज आदि के रचित धर्मशास्त्रों के अनुसार आचरण करने करानेवाली है ।

३४१ धामपरिभूततडिद्द्युतिः - जो अपने श्रीअङ्ग की चमक से बिजुली की चमक को तुच्छ कर रही है ॥ ६२॥

      धृतिर्ध्रुवा नतिप्रीता नयशास्त्रविशारदा ।

      नामनिर्धूतनिरया निगमान्तप्रतिष्ठिता ॥ ६३॥

३४२ धृतिः - जो सात्विक धारणाशक्ति स्वरूपा है ।

३४३ ध्रुवा - जिनका नाम, रूप लीला, धाम, सुमिरण, भजन सब अटल (अविनाशी) है ।

३४४ नतिप्रीता - जो पूर्ण काम होने के कारण केवल प्रणाम भाव से प्रसन्न हो जाती है यथा श्रीवाल्मीकीयरामायणे सुमेरुकाण्डे ``प्रणिपातप्रसन्ना हि मैथिली जनकात्मजा''

३४५ नयशास्त्रविशारदा - जो नीतिशास्त्र को  भली भाँति जानती है ।

३४६ नामनिर्धूतनिरया - जिनका नाम लेतेही नरक की यातना (दण्ड) नष्ट हो जाती है ।

३४७ निगमान्तप्रतिष्ठिता - जिन्हें वेदान्तशास्त्रने प्रतिष्ठा प्रदान की है अर्थात् जिनकी महिमा को स्वयं वेदान्तशास्त्र गान करता है ॥ ६३॥

      निगमैर्गीतचरिता नित्यमुक्तनिषेविता ।

      निधिर्निमिकुलोत्तंसा निमित्तज्ञानिसत्तमा ॥ ६४॥

३४८ निगमैर्गीतचरिता - जिनके आदर्श पूर्ण, समस्त विश्वहितकर चरितो को चारोवेद गान करते हैं ।

३४९ नित्यमुक्तनिषेविता - जो नित्य मुक्त जीवों के द्वारा सदा सेवित हैं ।

३५० निधिः - जो सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण वैराग्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण यश की भन्डार स्वरूपा है ।

३५१ निमिकुलोत्तंसा - जो निमिकुल की भूषण के समान सुशोभित करनेवाली है ।

३५२ निमित्तज्ञानिसत्तमा - जो समस्त प्राणियों के तन, मन, वाणी द्वारा किये हुये प्रत्येक कर्म के उद्देश्य (मतलब) को समझनेवाली सम्पूर्ण शक्तियोंमें सर्वोत्तमा है, क्योंकि अन्य देवशक्तियाँ केवल अपने २ एक २ अङ्ग की चेष्टाओं का कारण जानती हैं, सभी इन्द्रियों की नहीं किन्तु सर्व व्यापक होने के कारण जिन से किसी भी इन्द्रिय की कोई भी चेष्टा का कारण गुप्त नहीं रह सकता ॥ ६४॥

      नियतेन्द्रियसम्भाव्या नियतात्मा निरञ्जना ।

      निराकारा निरातङ्का निराधारा निरामया ॥ ६५॥

३५३ नियतेन्द्रियसम्भाव्या - जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त् किये हुये साधकों के ही ध्यानमें भली भाँति आने योग्य हैं ।

३५४ नियतात्मा - जिनका मन पूर्ण रूप से अपने वशमें रहता है अथवा भगवन् श्रीरामजीमें लीन है ।

३५५ निरञ्जना - जो सभी प्रकार के विकारों से अछूती है ।

३५६ निराकारा - जो सर्वस्वरूपा होने के कारण किसी एक सीमित स्वरूपवाली नहीं है ।

३५७ निरातङ् का - जिन्हें जन्म मृत्यु, जरा, व्याधि आदि किसीभी बात का भय नहीं है ।

३५८ निराधारा - जिनका आधार कोई नहीं है तथा जो समस्त आधारो की आधार स्वरूपा है ।

३५९ निरामया - जिन्हें शारीरिक या मानसिक कोई रोग होता ही नही ॥ ६५॥

      निर्व्याजकरुणामूर्तिनीतिः पङ्केरुहेक्षणा ।

      पतितोद्धारिणी पद्मगन्धेष्टा पद्मजार्च्चिता ॥ ६६॥

३६० निर्व्याजकरुणामूर्तिः - जो किसी प्रकार के साधन आदि के बहाना की अपेक्षा न रखनेवाली कृपा की स्वरूपा है ।

३६१ नीतिः - जो नीति स्वरूपा हैं ।

३६२ पङ्केरुहेक्षणा - जिनके नेत्रकमल के समान विशाल तथा मनोहर है ।

३६३ पतितोद्धारिणी - जो अभिमान रहित, लोक  दृष्टि में गिरे हुये प्राणियों का उद्धार करनेवाली है ।

३६४ पद्मगन्धेष्टा - जो श्रीपद्मगन्धाजी की इष्ट है ।

३६५ पद्मजार्च्चिता - जो श्रीब्रह्माजी के द्वारा पूजित है ॥ ६६॥

      पद्मपादा पद्मवक्त्रा पद्मिनी परमेश्वरी ।

      परब्रह्म परस्पष्टा पराशक्तिः परिग्रहा ॥ ६७॥

३६६ पद्मपादा - जिनके दोनों चरणकमल के समान तथा मधुर (आनन्दप्रद) सुगन्धवाले हैं ।

३६७ पद्मवक्त्रा - जिनका श्रीमुखचन्द्रकमल के समान प्रफुल्लित तथा सुगन्धमय है ।

३६८ पद्मिनी - जिनके सर्वाङ्ग कमलवत् सुकोमल है तथा जो पतिव्रता और साम्राज्ञी चिन्हों से युक्त है ।

३६९ परमेश्वरी - जो सभी हरिहरादि शासकोंपर भी शासन करती है, अर्थात् जिनके शासनानुसार ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शेष, इन्द्र, यम, कुबेर, वरुण, वायु, चन्द्र, सूर्य अग्नि, मृत्यु आदि सब पूर्ण सावधानता पूर्वक अपने अपने कर्तव्य में सदैव तत्पर घने रहते हैं ।

३७० परब्रह्म - जो सब से बड़ी और सूक्ष्म होने के कारण सभी को अपनेमें बढ़्ने का अवकाश (स्थान) देनेवाले आकाशादि सभी पञ्च महातत्त्वों से उत्कृष्टा है ।

३७१ परस्पष्टा - जो अपने अनन्य प्रेमी भक्तों के लिये सदैव प्रत्यक्ष रहती है ।

३७२ पराशक्तिः - जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार करनेवाली ब्रह्माणी, रमा उमा आदि शक्तियों से श्रेष्ठ अर्थात् उनको अपनी इच्छा से प्रकट करनेवाली है ।

३७३ परिग्रहा - जो सभी ओर से भक्तों के भावों को ग्रहण करती है ॥ ६७॥

      परित्रात्री परिश्लाघ्या परेप्टा पर्यवस्थिता ।

      पवित्रं पाटवाधारा पातिव्रत्यधुरन्धरा ॥ ६८॥

३७४ परित्रात्री - जो अपने आश्रितों की सब ओर से सुरक्षा करती है ।

३६५ परिश्लाघ्या - जो सब प्रकार से प्रशंसा करने योग्य है ।

३७६ परेप्टा - जो ब्रह्मादि देवों की भी इष्ट (उपास्य) देवता है ।

३७७ पर्यवस्थिता - जो सर्वव्यापि का होने के कारण सभी ओर सर्वत्र विराजमान है ।

३७८ पवित्र - जिनका नाम सङ्कीर्तन वज्रादि अमोघ अस्त्रों से भी रक्षा करनेवाला है ।

३७९ पाटवाधारा - जो सम्पूर्ण चतुराई का आधार (केन्द्र) स्वरूपा है ।

३८० पातिव्रत्यधुरन्धरी - जो पति व्रताओं के धर्म का पालन करनेवाली स्त्रियों में अग्रगण्या है ॥ ६८॥

      पापिपापौघसंहर्त्री पारिजातसुमार्च्चिता ।

      पावनानुत्तमादर्शा पावनी पुण्यदर्शना ॥ ६९॥

३८१ पापिपापौघसंहर्त्री - जो शरणागत पापियाँ के पापसमूहो को सब प्रकार से हरणकर लेती है ।

३८२ पारिजातसुमार्च्चिता - इन्द्रादि देव कल्पवृक्षपुष्पो के द्वारा जिनकी पूजा करते है ।

३८३ पावनानुत्तमादर्शा - जिनका आदर्श सर्वोत्तम तथा प्राणियों को स्वभाविक पवित्र बनानेवाला है ।

३८४ पावनी - जिनका नाम, रूप, लीला, धाम सब कुछ, प्राणियों के काम, क्रोध, लोभादि  विकार रूपी अपवित्रता को दूर करके निर्विकारिता रूपी पवित्रता प्रदान करनेवाला है ।

३८५ पुण्यदर्शना - जिनका दर्शन हृदय में अत्यन्त परित्रता को प्रदान करनेवाला पुण्य के उदय से प्राप्त होता है ॥ ६९॥

      पुण्यश्रवणचरिता पुण्यश्लोकवरीयसी ।

      पुष्पालङ्कारसम्पन्ना पुष्टिः पुष्टिप्रदायिनी ॥ ७०॥

३८६ पुण्यश्रवणचरिता - जिनके मङ्गल मय चरितो को श्रवण करने से अन्तःकरण में स्वाभाविक पवित्रता उदय होती है ।

३८७ पुण्यश्लोकवरीयसी - जो पवित्रतम यशवाली सभी महाशक्तियों में सब से उत्कृष्ट हैं ।

३८८ पुष्पालङ्कारसम्पन्ना - जो फूलो के श‍ृङ्गार्से युक्त है ।

३८९ पुष्टिः - जो पुष्टि शक्ति स्वरूपा है अर्थात् जिनकी उस शक्ति से ही सभी प्राणिया को पुष्टि की प्राप्ति होती है।

३९० पुष्टिदायिनी - जो भक्तों के लिये शारीरिक तथा हार्दिक पुष्टि (दृढता) प्रदान करती है ॥ ७०॥

      पूतात्मा पूतसर्वेहा पूज्यपादाम्बुजद्वया ।

      पूर्णा पूर्णेन्दुवदना प्रकृतिः प्रकृतेः परा ॥ ७१॥

३९१ पूतात्मा - जिनकी बुद्धि परम पवित्र है ।

३९२ पूतसर्वेहा - जिनकी समस्त चेष्टायें परम पवित्र हैं ।

३९३ पूज्यपादाम्बुजद्वया - जिनके कमलवत् सुकोमल दोनों श्रीचरण सभी के पूजने योग्य हैं ।

३९४ पूर्णा - जिन्हें अपनी किसी भी इच्छा की पूर्ति करना शेष नहीं है तथा जो भूत भविष्य, वर्तमान तीनो कालमें सर्वत्र पूर्ण रूप से विराजमान हैं ।

३९५ पूर्णेन्दुवदना - जिनका श्रीमुखारविन्द पूर्ण चन्द्रमा के सदृश शीतल प्रकाशमय तथा परम आह्लादकारी है।

३९६ प्रकृतिः - जो ब्रह्मा की इच्छा स्वरूपा हैं ।

३९७ प्रकृतेः परा - जो विधा अविध्या रूपी माया से पूरे है ॥ ७१॥

      प्रकृष्टात्मा प्रणम्याङ्घ्रिः प्रणयातिशयप्रिया ।

      प्रणतातुल्यवात्सल्य प्रणतध्वस्तसंसृतिः ॥ ७२॥

३९८ प्रकृष्टात्मा - जिनकी बुद्धि सब से बढ़् कर है ।

३९९ प्रणम्याङ्घ्रिः - जिनके श्रीचरण कमल प्रणाम करने के ही योग्य है ।

४०० प्रणयातिशयप्रिया - जिन्हें प्रेम सब से अधिक प्रिय है ।

४०१ प्रणतातुल्यवात्सल्य - भक्तों के प्रति जिनके वात्सल्य की उपमा नहीं दी जा सकी ।

४०२ प्रणतध्वस्तसंसृतिः - जो अपने आश्रितो के जन्म मरणरूपी आवागमन को नष्ट कर देती है ॥ ७२॥

      प्रणविनी प्रतिष्ठात्री प्रथमा प्रथिता प्रधीः ।

      प्रपन्नरक्षणोद्योगा प्रवित्तं प्रविशारदा ॥ ७३॥

४०३ प्रणविनी - जो ॐकार वाच्य भगवन् श्रीरामजी की प्राणप्यारी है ।

४०४ प्रतिष्ठात्री - जो वात्सल्य भाव की परा काष्टा के कारण अपने भक्तोंकों विशेष सम्मान देती है ।

४०५ प्रथमा - जो सब से आदि की है ।

४०६ प्रथिता - जो अपनी महिमा के द्वारा सर्वत्र तीनो काल में प्रसिद्ध है ।

४०७ प्रधीः - जिनका ज्ञान सब से उत्कृष्ट है ।

४०८ प्रपन्नरक्षणोद्योगा - शरणागत जीवों की रक्षा करना ही जिनका मुख्य धन्धा है ।

४०९ प्रवित्तं - जो भक्तों की सब से बढकर सम्पति (धन) है ।

४१० प्रविशारदा - जो भक्तों की रक्षा करने में सब से अदिक चतुरा है ॥ ७३॥

      प्रह्वी प्राणप्रदा प्राणनिलया प्राणवल्लभा ।

      प्राणात्मिका प्रार्थनीया प्रियमोहनदर्शना ॥ ७४॥

४११ प्रह्वी - जिनका स्वभाव अत्यन्त नम्र है ।

४१२ प्राणप्रदा - जो समस्त शरीरोंमें पञ्च प्राणों का सञ्चार करनेवाली है ।

४१३ प्राणनिलया - जो समस्त प्राणो के निवास स्थान स्वरूपा है ।

४१४ प्राणवल्लभा - जो प्राणो को अत्यन्त प्रिय हैं ।

४१५ प्राणात्मि का - जो पञ्च प्राणो में विराज रही है अथवा जो पञ्च प्राणस्वरूपा है ।

४१६ प्रार्थनीया - सभी (ब्रह्मादि देवताओ) को भी जिन से याचना करना उचित है ।

४१७ प्रियमोहनदर्शना - जो ज्ञान की पराकष्ठा से अपने प्यारे भगवन् श्रीरामजी को मी मुग्ध रख्ती है ॥ ७४॥

      प्रियार्हा प्रीतितत्त्वज्ञा प्रीतिदा प्रीतिवर्धिनी ।

      प्रेज्या प्रेमरता प्रेमवल्लभातीववल्लभा ॥ ७५॥

४१८ प्रियार्हा - जो गुण, रूप, ऐश्वर्य आदि को दृष्टि से प्यारे श्रीरामभद्रजी के योग्य दुलहिन तथा श्रीराघवेन्द्र सरकारजी सब प्रकार से जिनके दूलह होने के योग्य हैं, अथवा जो संसार की प्यारी से प्यारी वस्तुये अर्पण करने के योग्य पात्र स्वरूपा हैं ।

४१९ प्रीतितत्त्वज्ञा - जो प्रेम के रहस्य को हर प्रका से समझती है ।

४२० प्रीतिदा - जो अपने आश्रितों को संसार के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि पाँचो विषयों से वैराग्य कराने के लिये भगवान के श्रीचरण कमलोंमें अनुराग प्रदान करती है ।

४२१ प्रीतिवर्धिनी - जो भगवदानन्द की अनुभूति कराने के लिये भक्तों के हृदयमें उत्तरोत्तर अनुराग की वृद्धि करती रहती है ।

४२२ प्रेज्या - जो सभी देव, मुनि, सिद्ध, परमहंसो के द्वारा भी सब से बढ़्कर पूजने योग्य हैं ।

४२३ प्रेमरता - जो भक्तों के सहित भगवान श्रीराघवेन्द्रसरकार के प्रेममें सदैव आसक्त बनी रहती है ।

४२४ प्रेमवल्लभातीववल्लभा - जिन्हे गुण, रूप, वैभव आदि प्रियतम होकर एक प्रेम ही प्रिय है उन श्रीरघुनन्दनप्यारेजी की जो सब से अधिक प्यारी है ॥ ७५॥

      प्रेमवारां निधिः प्रेमविग्रहा प्रेमवैभवा ।

      प्रेमशक्त्येकविवशा प्रेमसंसाध्यदर्शना ॥ ७६॥

४२५ प्रेमवारां निधिः - जो प्रेम की समुद्र है अर्थात् जिनमें समुद्र के समान अपाह प्रेम भरा हुआ है ।

४२६ प्रेमविग्रहा - जो प्रेम की स्वरूप ही है ।

४२७ प्रेमवैभवा - जिनकी प्यारी सम्पत्ति एक प्रेम ही है ।

४२८ प्रेमशक्त्येकविवशा - जी अनुपम प्रेम शक्ति सम्पन्न प्रभु श्रीरामजी के अधीन है ।

४२९ प्रेमसंसाध्यदर्शना - जिनके दर्शनोङ् का अमोघ उपाय एक प्रेम ही है ॥ ७६॥

      प्रेमैकहाटकागारा प्रेमैकाद्भुतविग्रहा ।

      फणीन्द्रावर्ण्यविभवा फलरूपा सुकर्मणाम् ॥ ७७॥

४३० प्रेमैकहाटकागारा - जिनके निवासके लिये प्रेम ही मुख्य श्री कनक भवन है ।

४३१ प्रेमैकाद्भुतविग्रहा - जो प्रेम की आश्चर्यमयी अनुपम मूर्ति हैं ।

४३२ फणीन्द्रावर्ण्यविभवा - सहस्र मुखवाले शेषजी भी जिनके ऐश्वर्य का वर्णन करने में असमर्थ है ।

४३३ फलरूपा सुकर्मणां - जो समस्त हितकर कर्मो की फलस्वरूपा है ॥ ७७॥

      बुद्धिदा बुधमृग्याङ्घ्रिकमला बोधवारिधिः ।

      ब्रह्मलेखातिगा ब्रह्मवेत्त्री ब्रह्माण्डवृन्दसूः ॥ ७८॥

४३४ बुद्धिदा - जो प्रत्येक भले पूरे कर्ममें तत्पर होने के प्रारम्भमें सभी प्राणियों को निर्भयता, प्रसन्नता और भयचिन्ता के रूपमें हित और अहित का ज्ञान स्वयं प्रदान करती है ।

४३५ बुधमृग्याङ्घ्रिकमला - ज्ञानियों के खोजने योग्य एक जिनके श्रीचरणकमल है ।

४३६ बोधवारिधिः - जिन में ज्ञान शक्ति समुद्र के समान अथाह है ।

४३७ ब्रह्मलेखातिगा - जो भक्तों के मस्तक में श्रीब्रह्माजी की लिखी हुई - रेखाओं को भी टाल (मिट) देती है अर्थात् सौभाग्यजनित सद्भावना, सद्विचार, परहितेषा आदि (मन, बुद्धि चित्त्) में भर देती है ।

४३८ ब्रह्मवेत्त्री - जो ब्रह्म भगवन् श्रीरामजी अथवा वेद के रहस्य को हर प्रकार से जानती है ।

४३९ ब्रह्माण्डवृन्दसूः - जो अनन्त ब्रह्माण्डो की जन्म दात्री है ॥ ७८॥

      भक्तत्राणविधानज्ञा भक्तिसंसाध्यदर्शना ।

      भजनीयगुणोपेता भयघ्नी भवतारिणी ॥ ७९॥

४४० भक्तत्राणविधानज्ञा - जो भक्तों की रक्षा का उपाय भली भाँति  जानती है ।

४४१ भक्तिसंसाध्यदर्शना - जिनका दर्शन केवल पूर्ण प्रेमाभक्ति से सुलभ है ।

४४२ भजनीयगुणोपेता - जो उपासना करने योग्य सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमता, सर्वव्यापकता तथा भगवता, क्षमा, वात्सल्य, सौशील्य, कारुण्य, उदारता आदि अनेक दिव्य मङ्गल गुणों से परिपूर्ण है ।

४४३ भयघ्नी - जो अपनी महिमा पर विश्वास दिलाकर भक्तों के सम्पूर्ण भयो को नष्ट कर देती है ।

४४४ भयतारिणी - जो अपने श्रीचरणकमलों की आसक्ति रूपी जहाज के द्वारा आश्रित भक्तों को संसारसागर से पार कर देती है अर्थात् दिव्यधाममें बुला लेती है ॥ ७९॥

      भवपूज्या भवाराध्या भवोत्पत्यादिकारिणी ।

      भाग्यैकसंशोधयित्री भावैकपरितोषिता ॥ ८०॥

४४५ भवपूज्या - श्रीभोलेनाथजी को भी जिनकी पूजा कर्तव्य है ।

४४६ भवाराध्या - जो भगवान श्रीभोलेनाथजी के द्वारा भी उपासित होने योग्य हैं । अथवा जिनकी आराधना वास्तवमै भली भाँति भगवन् श्रीशङ्करजी ही कर पाते है ।

४४७ भवोत्पत्यादिकारिणी - जो अपने सत्व, रज, वम त्रिगुणमय आकारों से जगत् की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करनेवाली है ।

४४८ भाग्यैकसंशोधयित्री - जो अपने आश्रितो के बिगड़े हुये भाग्य को  भली भाँति सुधार देती है ।

४४९ भावैकपरितोषिता - जिन्हें अनन्य भाववाले भक्त ही पूर्ण प्रसन्न कर पाते हैं ॥ ८०॥

      भूतप्रसूतिर्भूतात्मा भूतादिर्भूतिदायिनी ।

      भूतिमत्समुपास्याङ्घ्रिर्भूसुता भ्रान्तिहारिणी ॥ ८१॥

४५० भूतप्रसूतिः - जो सम्पूर्ण प्राणियो की उत्पत्ति करनेवाली है ।

४५१ भूतात्मा - सम्पूर्ण चराचर प्राणी ही जिनके शरीर है अथवा जो सभी प्राणियों की आत्मस्वरूपा हैं ।

४५२ भूतादिः - जो आकाशादि पञ्चमहाभूतो की आदि कारण स्वरूपा है ।

४५३ भूतदायिनी - जो आश्रितो को अनेक प्रकार का सौभाग्य प्रदान करती है ।

४५४ भूतिमत्समुपास्याङ्घ्रिः - भगवान की प्रसन्नता प्राप्ति के लिये ऐश्वर्यशाली ब्रह्मा, विष्णु, शिवादिकों को भी जिनके श्रीचरणकमलों की आराधना करना परम आवश्यक है ।

४५५ भूसुता - जो पृथ्वी से प्रकट होने के कारण भूमि पुत्री कहाति है ।

१५६ भ्रान्तिहारिणी - जो आश्रितो की सभी प्रकार की शङ्काओ को दूर कर देती है ॥ ८१॥

      मङ्गलाशेषमाङ्गल्या मङ्गलैकमहानिधिः ।

      मधुरा मधुराकारा मननीयगुणावलिः ॥ ८२॥

४५७ मङ्गलाशेषमाङ्गल्या - जो सम्पूर्णमङ्गलो में सब से उत्कृष्टमङ्गल स्वरूपा है ।

४५८ मङ्गलैकमहानिधिः - जो समस्तमङ्गलों की सब से बड़ी निधि (भण्डार) स्वरूपा हैं ।

४५९ मधुरा - जो अपने आश्रित चेतनो को भगवदाननन्द प्रदान करती रहती है ।

४६० मधुराकारा - जिनका मङ्गल मयविग्रह महान आनन्द दायक है ।

४६१ मननीयगुणावलिः - जिनके क्षान्ति, वात्सल्य सौशील्य, कारुण्यादि गुणसमूह सतत, मनन करने योग्य हैं ॥ ८२॥

      मनोजवा मनोज्ञाङ्गी मनोरमगुणान्विता ।

      मनः स्वरूपा महती महनीयगुणाम्बुधिः ॥ ८३॥

४६२ मनोजवा - जिनकी सर्वत्र पहुँचने की शक्ति, मन से भी अधिक तीव्र है ।

४६३ मनोज्ञाङ्गी - जिनके श्रीचरणकमल आदि के सभी अङ्ग, बड़े ही मनोहर हैं ।

४६४ मनोरमगुणान्विता - जो सभी मनोहर गुण समूहों से परिपूर्ण है ।

४६५ मनःस्वरूपा - जो सम्पूर्ण इन्द्रिया में मन स्वरूपा है ।

४६६ महती - जो शक्तियो में सब से बड़ी महिमावाली है ।

४६७ महनीयगुणाम्बुधिः - जो पूजने योग्य क्षमा, वात्सल्य उदारता आदि सभी गुणो की समुद्रस्वरूपा है ॥ ८३॥

      महद्ध्र्येका महाकीर्तिर्महाकोशा महाक्रतुः ।

      महाक्रमा महागर्ता महाछविर्महाद्युतिः ॥ ८४॥

४६८ महद्ध्र्ये का - जो अनुपम महान ऐश्वर्यवाली है ।

४६९ महाकीर्तिः - जो ब्रह्म की कीर्तिस्वरूपा है अथवा जिन से बढ़्कर किसी की कीर्ति है ही नहि ।

४७० महाकोशा - जो ब्रह्म के सभी गुण, शक्ति, सौन्दर्य, ऐश्वर्य आदि की भण्डार है ।

४७१ महाक्रतुः - जो महान यज्ञस्वरूपा है ।

४७२ महाक्रमा - जिनकी गमन शक्ति सब से अधिक तीव्र है ।

४७३ महागर्ता - जो माया रूपी महान गर्त (गढे)वाली है ।

४७४ महाछविः - जिन से बढ़्कर किसी का सौन्दर्य है ही नहीं अर्थात् जो ब्रह्म के सौन्दर्य की मूर्ति हैं ।

४७५ महाद्युतिः - जो ब्रह्म की कान्तिस्वरूपा है अथवा जिन से बढ़्कर किसी की कान्ति नहीं है ॥ ८४॥

      महादृष्टिर्महाधाम्नी महानन्दस्वरूपिणी ।

      महानायकसम्मात्या महानैपुण्यवारिधिः ॥ ८५॥

४७६ महादृष्टिः - जिनकी दृष्टि ब्रह्म के समान सर्वव्यापक है ।

४७७ महाधाम्नी - जिनका धाम श्रीमिथिलाजी सर्वोत्कृष्ट है अथवा जो ब्रह्म की तेजःस्वरूपा है ।

४७८ महानन्दस्वरूपिणी - जो ब्रह्म के आनन्द की मूर्ती है अथवा जिनका स्वरूप महान आनन्द प्रदापक है ।

४७९ महानायकसम्मात्या - जो सर्वेश्वर प्रभु श्रीरामजी के द्वारा भी सम्मान पाने योग्य है ।

४८० महानैपुण्यवारिधिः - जो महान चतुराई की सागरस्वरूपा है अर्थात् जैसे सागरमें अथाह जल भरा हुआ है, उसी प्रकार जिनमें अथाह महान चतुराई भरी हुई है ॥ ८५॥

      महापूज्या महाप्राज्ञा महाप्रेज्या महाफला ।

      महाभागा महाभोगा महामतिमतां वरा ॥ ८६॥

४८१ महापूज्या - जिन से बढ़्कर कोई भी शक्ति पूजने योग्य नहीं है अथवा जो श्रीलक्ष्मणजी श्रीभरतजी श्रीशत्रुघ्नजी आदि के द्वारा पूजने योग्य है ।

४८२ महाप्राज्ञा - जो अत्यन्त बुद्धिमती है ।

४८३ महाप्रेज्या - जो सब से बदकर उपासना के योग्य है ।

४८४ महाफला - जिनकी प्राप्ति ही समस्त सत्कर्मों का सब से उत्कृष्ट फल है ।

४८५ महाभागा - जिनका सौभाग्य प्रशंसनीय है अर्थात् जिन से बढकर किसी का सौभाग्य है ही नहीं ।

४८६ महाभोगा - जो सर्वोत्कृष्ट भोगवाली है ।

४८७ महामतिमतां वरा - जो समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ट हैं ॥ ८६॥

      महामाधुर्यसम्पन्ना महामायास्वरूपिणी ।

      महायोगप्रसाध्यैका महायोगेश्वरप्रिया ॥ ८७॥

४८८ महामाधुर्यसम्पन्ना - जो महान मनो मुग्धकारी सौन्दर्य से परिपूर्ण है ।

४८९ महामायास्वरूपिणी - जो महमाया की कारण स्वरूपा हैं ।

४९० महायोगप्रसाध्यैका - जो चित्तवृत्ति की महान आसक्ति से प्राप्त होनेवाली सभी शक्तियों में मुख्य हैं ।

४९१ महायोगेश्वरप्रिया - जो महायोगेश्वर भगवन् श्रीरामजी की प्राणवल्लभा हैं ॥ ८७॥

      महारतिर्महालक्ष्मीर्महाविद्यास्वरूपिणी ।

      महाशक्तिर्महाश्रेष्ठा महाश्लाघ्ययशोऽन्विता ॥ ८८॥

४९२ महारतिः - जो भगवत् सम्बन्धी परम आसक्ति अथवा अनन्त रतियों की कारणस्वरूपा हैं ।

४९३ महालक्ष्मी - जी अपने अंश से अनन्त लक्ष्मियों को प्रकट करती है ।

४९४ महाविद्यास्वरूपिणी - जो समस्त विद्याओं की आधार भूता हैं ।

४९५ महाशक्तिः - जो समस्त शक्तियों की कारणस्वरूपा है ।

४९६ महाश्रेष्ठा - जो सभी श्रेष्ठ सञ्जन पुरुषों की श्रेष्ठता को आधार स्वरूपा है ।

४९७ महाश्लाघ्ययशोऽन्विता - जो भगवन् श्रीरामजी के द्वारा प्रशंसनीय यश से युक्त है ॥ ८८॥

      महासिद्धिर्महासेव्या महासौभाग्यदायिनी ।

      महाहविर्महार्हार्हा महिष्टात्मा महीयसी ॥ ८९॥

४९८ महासिद्धिः - जिनकी प्राप्ति से बढ़्कर कोई सिद्धि नहीं है अर्थात् जो सर्वोत्कृष्ट सिद्धिस्वरूपा  है ।

४९९ महासेव्या - जो श्रीचन्द्रकलाजी श्रीचारुशीलाजी आदि नित्य, दिव्य महाशक्तियों के द्वारा ही नित्य सेवित होने योग्य हैं, अथवा जिन से बढ़्कर कोई भी आराधना का पात्र नहीं है ।

५०० महासौभाग्यदायिनी - जो प्रसन्न होकर भक्तों को नित्य असीम सौभाग्य सम्पन्न सच्चिदानन्द-धन विग्रह प्रभु श्रीरामजी को भी, दे डालती है ।

५०१ महाहविः - जो यज्ञ में हवन के लिये दी जाती हुई महा (उत्कृष्ट) हवि स्वरूपा है । अथवा जिनकी शरणरूपी अग्निमें जीव ही हवि स्वरूप बनता है ।

५०२ महार्हार्हा - जो परम पूजनीया उमा, रमा, ब्रह्माणी आदि महाशक्तियों के द्वारा भी पूजने योग्य है ।

५०३ महिष्टात्मा - अनेक भक्तों के विभिन्न प्रकार के भावों की पूर्ति के लिये अत्यन्तभक्त वत्सलता के कारण, जो अपने मङ्गलमय विग्रह से इस पृथ्वी तल पर विराजमान होती है ।

५०४ महीयसी - जो जगत् में सब से बड़े पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि पञ्च तत्त्वों से भी बहुत बड़ी है ॥ ८९॥

      महीशजा महोत्कर्षा महोत्साहा महोदया ।

      महोदारा महेशादिसमालभ्व्याङ्घ्रिपङ्कजा ॥ ९०॥

५०५ महीशजा - जो पृथ्वीपति श्रीमिथिलेशजी-महाराज की यज्ञभूमि से प्रकट होने के नाते उनकी पुत्री कहाती है ।

५०६ महोत्कर्षा - जिनकी महिमा सब से बढ़्कर है ।

५०७ महोत्साहा - जो आश्रित रक्षणमें सब से अधिक उत्साह गुण युक्ता हैं ।

५०८ महोदया - लोककल्याणार्थ जिनके वात्सल्य, औदार्य (उदारता) क्षमा भादि गुणों की सब से अधिक उन्नति है ।

५०९ महोदारा - जिनके समान कोई उदार नहीं है ।

५१० महेशादिसमालभ्व्याङ्घ्रिपङ्कजा - भगवत् प्राप्ति के लिये जिनके श्रीचरणकमलों का अवलम्बन लेना भगवन् शङ्करजी आदि महायोगियों के लिये भी परम आवश्यक है, फिर इतर प्राणियो के लिये कहना ही क्या ॥ ९०॥

      माता समस्त जगतां माधुरीजितमाधुरी ।

      मान्यपरमसम्मान्या मा मितकोकिलस्वना ॥ ९१॥

५११ माता समस्तजगतां - जो समस्त चराचर प्राणियों को वास्तविक (असली) माता हैं ।

५१२ माधुरीजितमाधुरी - जो अपने सौन्दर्य से सुन्दरता को भी लज्जित करती है ।

५१३ मान्यपरमसम्मान्या - मान्य देव, ऋषि, योगि, सिद्ध आदियों से उत्कृष्ट, इन्द्र, रुद्र, ब्रह्मा, विष्णु आदि के द्वारा भी जो परम सम्मान पाने के योग्य हैं ।

५१४ मा - जो श्रीलक्ष्मी स्वरूपा है ।

५१५ मितकोकिलस्वना - जिनकी बोली कोयल के समान सुरीली और प्रयोजन मात्र है ॥ ९१॥

      मिथिलेशक्रतूद्भूता मिथिलेश्वरनन्दिनी ।

      मीनाक्षी मुक्तिवरदा मुनिसेव्यपदाम्बुजा ॥ ९२॥

५१६ मिथिलेशक्रतूद्भूता - जो श्रीमिथिलेशजी महाराज के यज्ञ से प्रकट हुई है ।

५१७ मिथिलेश्वरनन्दिनी - जो अपनी बाललीलाओं के द्वारा श्रीमिथलेशजी महराज को परम आनन्द देनेवाली है।

५१८ मीनाक्षी - जिनके विशाल नेत्र भक्तों को भावपूर्ण चेष्टाओं को देखने के लिये मछली के नेत्रों के समान चञ्चल बने रहते हैं ।

५१९ मुक्तिवरदा - जो अपने आश्रित चेतनों को पञ्च (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) विषयों से निवृत्तिरूपा मुक्ति का वर देनेवाली है ।

५२० मुनिसेव्यपदाम्बुजा - जिनके श्रीचरण कमलों की सेवा करना मुनियों का भी कर्तव्य है ॥ ९२॥

      मुनीन्द्रावर्ण्यमहिमा मूलप्रकृतिसंज्ञिता ।

      मृगनेत्रा मृगाङ्काभवदना मृदुभाषिणी ॥ ९३॥

५२१ मुनीन्द्रावर्ण्यमहिमा - जिनकी महिमा को भगवन् श्रीव्यासजी, श्रीवाल्मीकिजी, श्रीअगस्त्यजी, श्रीलोमशजी  श्रीनारदजी आदि बड़े बड़े मुनिराज भी वर्णन करने को समर्थ नहीं है ।

५२२ मूलप्रकृतिसञ्ज्ञिता - जिनका नाम मूलप्रकृति भी है ।

५२३ मृगनेत्रा - जिनके नेत्र हरिणकै नेत्रों के समान विशाल और हृदयाकर्षक है ।

५२४ मृगाङ्काभवदना - जिनका श्रीमुखारविन्द पूर्णचन्द्रमा के समान शीतल प्रकाश युक्त परम आह्लादकारी है।

५२५ मृदुभाषिणी - जो बडी ही कोमल वाणी बोलती है ॥ ९३॥

      मृदुला मूदुलाचारा मृदुसमोहनेक्षणा ।

      मृदुस्वभावसम्पन्ना मृद्वी मेधसमुद्भवा ॥ ९४॥

५२६ मृदुला - जो अपने उपासको में भी कोमलता भर देती है ।

५२७ मृदुलाचारा - जिनके सभी आचरण  (व्यवहार) अत्यन्त कोमल हैं ।

५२८ मृदुसमोहनेक्षणा - जिनके दर्शना से कोमलता भी परम मूर्छा को प्राप्त होती है ।

५२९ मृदुस्वभावसम्पन्ना - जो आश्रितों के अपराधा को नहीं देखती अर्थात् जिनका स्वभाव अत्यन्त कोमल है ।

५३० मृद्वी - जिनका सब कुछ अत्यन्त कोमल है अर्थात् जो कोमलता का स्वरूप ही है ।

५३१ मेधसमुद्भवा - जो श्रीमिथिलेशजी महाराज की यज्ञ भूमि से प्रकट हुई है अथवा जो समस्त  यज्ञों की कारण स्वरूपा हैं ॥ ९४॥

      मेधेशी मैथिली मोदवर्षिणी मौढ्यभञ्जिका ।

      यतचित्तेन्द्रियग्रामा युक्ता युक्तात्मभाषिता ॥ ९५॥

५३२ मेधेशी - जो समस्त यज्ञों की स्वामिनी हे ।

१३३ मैथिली - जो मिथिवंश उजागरी तथा श्रीमिथिलेशजी महाराज की राजदुलारी है ।

५३४ मोदवर्षिणी - जो भक्तों के लिये निरन्तर आनन्द की वर्षा करनेवाली है ।

५३५ मौढ्यभञ्जि का - जो आश्रितो की मूढता को नष्ट कर देती है ।

५३६ यतचित्तेन्द्रियग्रामा - जो भक्तों के भरण, पोषण, तथा सुरक्षा के लिये चित्त और इन्द्रियों को सदैव अपने अधीन रखती है ।

५३७ युक्ता - जो परम निपुण और सब प्रकार से सम्पन्न है ।

५३८ युक्तात्मभाषिता - अपने मन को पूर्णस्वाधीन रखनेवाले योगिजन जिनकाध्यान करते हैं ॥ ९५॥

      योगदा योगनिलया योगस्था योगिनां गतिः ।

      योगिनां समुपालभ्या योगिराजप्रियात्मजा ॥ ९६॥

५३९ योगदा - जो आश्रित जीवों को अपनी निर्हेतु की कृपा द्वारा प्रभु से मिलन करा देती है ।

५४० योगनिलया - जो सम्पूर्ण योगो की आधारस्वरूपा हे ।

५४१ योगस्था - जो, जीवों को भगवत् प्राप्ति के उपायमै लगाती रहती है ।

५४२ योगिनां गतिः - जो भगवत् सम्बन्धी चेतना के प्राप्त करने योग्य है अथवा जो प्रभु से मिलने के लिये चल पड़े है , उन सौभाग्यशाली जीवों की जो एकमात्र उपाय स्वरूपा हैं ।

५४३ योगिनां समुपालभ्या - भगवन् प्राप्ति चाहनेवाले चेतनों को जिनकी कृपा का आश्रय लेना नितान्त आवश्यक है ।

५४४ योगिराजप्रियात्मजा - जो योगिराज श्रीमिथिलेशजी महाराज की प्राणप्यारी पुत्री है ॥ ९६॥

      रक्तोत्पललसद्धस्ता रघुनन्दनवल्लभा ।

      रघुनाथस्वभावज्ञा रघुवीरसुखे रता ॥ ९७॥

५४५ रक्तोत्पललसद्धस्ता - जिनके ह्स्तारविन्दम लालकमल सुशोभित है अर्थात् जो प्रफुल्लित कमल को अपने इस्त कमल में लेकर, उसी के समान प्रत्येक अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में भक्तों को, खिले रहने का ही मौन-उपदेश प्रदान कर रहीं हैं ।

५४६ रघुनन्दनवल्लभा - जो रघुवंशियों को वात्सल्य जनित विशेष आनन्द प्रदान करनेवाले प्राणप्यारे श्रीराघवेन्द्र सरकार की प्राणप्रियतमा है ।

५४७ रघुनाथस्वभावज्ञा - जो समस्त जीवा के स्वामी श्रीरामभद्रजी के स्वभाव को भली भाँति जानती है ।

५४८ रघुवीरसुखे रता - जो प्राणप्यारे रघुकुलवीर श्रीरामभद्रजी को सुख पहुञ्चाने में सदैव संलग्न रहती है ॥ ९७॥

      रतिसौन्दर्यदर्पघ्नी रतीशेहाहरस्मृतिः ।

      रविमण्डलध्यस्था रविवंशेन्दुहृत्स्थिता ॥ ९८॥

५४९ रतिसौन्दर्यदर्पघ्नी - जो अपने सौन्दर्यबिन्दु से रति के महान सुन्दरता-जनित अभिमान की दूर् करती है ।

५५० रतीशेहाहरस्मृतिः - जिनके स्मरण भाव से कामचेष्टा लुट जाती है ।

५५१ रविमण्डलध्यस्था - जो सूर्यमण्डल में भगवन् श्रीरामजी के सहित विराज रही है ।

५५२ रविवंशेन्दुहृत्स्थिता - जो सूर्यवंश रूपी चकोर को पूर्णचन्द्र के समान परमाह्लादित करनेवाले प्रभु श्रीरामजी के हृदयकमल में विराज रही है ॥ ९८॥

      रसज्ञा रसभावज्ञा रसानन्दविवर्धिनी ।

      रमणीयगुणग्रामा रमाराध्या रमालया ॥ ९९॥

५५३ रसज्ञा - जो सभी रसो की पूर्ण जानकारी रखती है अथवा सभी भक्त अपनी अपनी इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार से जिसका आस्वादन करते हैं, उस रस (सच्चिदानन्दघन ब्रह्म) को जो हर प्रकार से जानती है ।

५५४ रसभावज्ञा - जो रसरूप भगवान श्रीरामजी की (सभी चेष्टाओंके) भावों का तात्पर्य जानती है ।

५५५ रसानन्दविवर्धिनी - जो अपने श्रीचरणस्पर्श, बाललीला, तथा क्षमादि लोकोत्तर गुणों के द्वारा पृथ्वी के आनन्द को बढ़ाती रहती है ।

५५६ रमणीयगुणग्रामा - जिनके सभी गुण समूह अत्यन्त मनोहर है ।

५५७ रमाराध्या - श्रीलक्ष्मीजीकोभी जिनकी उपासना करना कर्तव्य है ।

५५८ रमालया - जिनमें अनन्त ब्रह्माण्डों की सभी लक्ष्मियाँ निवासकरती है ॥ ९९॥

      रम्यरम्यनिधी रम्याशेषा रसमयाकृतिः ।

      रसापुत्री रसासक्ता रसिकानां परागतिः ॥ १००॥

५५९ रम्यरम्यनिधी - जो मनोहर से मनोहर, सुन्दर से सुन्दर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि की भण्डार है ।

५६० रम्याशेषा - जिनका नाम, रूप, लीला, धाम तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध सब कुछ मनोहर है ।

५६१ रसमयाकृतिः - जिनका आकार रस (सच्चिदानन्दघन ब्रह्म) मय है अथवा सभी रसो की जो साकार विग्रह है ।

५६२ रसापुत्री - जो पृथिवी से प्रकट होने के नाते उसकी पुत्री कही जाती है ।

५६३ रसासक्ता - जो रसस्वरूप भगवन् श्रीरामजी में पस्म आसक्त है अथवा जिनके प्रति भगवान श्रीराघवेन्द्र सरकार भी परम आसक्ति रखते हैं ।

५६४ रसिकानां परागतिः - जो रसस्वरूप भगवन् श्रीरामजी के उपासको की परम आधार तथा रक्षा करनेवाली है ॥ १००॥

      रसिकेन्द्रप्रिया राकाधिपपुञ्जनिभानना ।

      राघवेन्द्रप्रभावज्ञा राधा रासरसेश्वरी ॥ १०१॥

५६५ रसिकेन्द्रप्रिया - जो भक्तों को अपना स्वामी माननेवाले भगवन् श्रीरामजी की प्राणप्यारी है ।

५६६ राकाधिपपुञ्जनिभानना - जिनका श्रीमुखारविन्द शरद् ऋतु के पूर्णचन्द्रमा के समान शीतल प्रकाशमय, परम आह्लादकारी है ।

५६७ राघवेन्द्रप्रभावज्ञा - जो श्रीराघवेन्द्र सरकार की महिमा को हर प्रकार से जानती है ।

५६८ राधा - जो आश्रितों के लौकिक तथा पारलौकिक सभी प्रकार के हितकर मनोरथोङ् को पूर्ति करती है ।

५६९ रासरसेश्वरी - जो भगवान श्रीरामजी के आनन्द-भण्डार की स्वामिनी है अर्थात् जिनकी कृपा से ही प्राणियों को भगवत् चिन्त, मनन, श्रवण, कीर्तन, सेवादि जनित आनन्द की अनुभूति प्राप्त होती है ॥ १०१॥

      रासलीलाकलापज्ञा रासानन्दप्रदायिनी ।

      रासेशी रूपदाक्षिण्यमण्डिता लक्ष्मणार्च्चिता ॥ १०२॥

५७० रासलीलाकलापज्ञा - जो भगवान् श्रीरामजी की लीलाओ का यथार्थ तात्पर्य जानती है ।

५७१ रासानन्दप्रदायिनी - जो अपने आश्रितो को रसस्वरूप भगवन् श्रीरामजी के दिव्य धाम-निवासी भक्तों का आनन्द प्रदान करती है ।

५७२ रासेशी - जो वात्सल्य भाव की पराकाष्टा के कारण भक्तों के शासन में रहती है ।

५७३ रूपदाक्षिण्यमण्डिता - जो निरतिशय (सब से बढकर) सौन्दर्य तथा चतुराई से विभूषित हैं ।

५७४ लक्ष्मणार्च्चिता - जो यूथेश्वरी सखी श्रीलक्ष्मणजी से पूजित हैं अथवा श्रीलखनलालजी जिनका नित्यपूजन करते है ॥ १०२॥

      ललनादर्शचरिता ललनाधर्मदीपिका ।

      ललामैकनामरूपलीलाधामगुणादिका ॥ १०३॥

५७५ ललनादर्शचरिता - जिनके चरित पतिव्रता स्त्रियों के लिये आदर्श रूप हैं ।

५७६ ललनाधर्मदीपि का - जो स्त्रियो के (पातिव्रत्य) धर्मपर दीपक के समान प्रकाश डालनेवाली है ।

२७७ ललामैकनामरूपलीलाधामगुणादि का - जिनका नाम रूप, लीला, धाम, गुण समूहादि सब कुछ निरुपम सुन्दर है ॥ १०३ ।

      ललिताम्भोजपत्राक्षी ललिताशेषचेष्टिता ।

      लावण्यजितपाथोधिर्लाकृतिर्लीनरक्षिका ॥ १०४॥

५७८ ललिताम्भोजपत्राक्षी - कमलदल के समान जिनके विशालनेत्र हैं ।

५७९ ललिताशेषचेष्टिता - जिनकी सभी चेष्टायें अत्यन्त मनोहर हैं ।

५८० लावण्यजितपाथोधिः - जो अपनी सुन्दरता की अगाधता से समुद्र को जीत लिये हैं ।

५८१ लाकृतिः - जो सगस्त ऐश्वर्यशाली भगवन् श्रीरामजी की लक्ष्मी स्वरूपा है ।

५८२ लीनरक्षि का - जो भावमग्न भक्तों की स्वयं रक्षा करती है ॥ १०४॥

      लीलाभूमाधवप्रेष्ठा लोककल्याणतत्परा ।

      लोकत्रयमहाराज्ञीलोकमृग्याङ्घ्रिपङ्कजा ॥ १०५॥

५८३ लीलाभूमाधवप्रेष्ठा - जो श्री, भू, लीलादेवी के पति भगवन् श्रीरामजी की परमप्यारी है ।

५८४ लोककल्याणतत्परा - जो प्राणियों के वास्तविक कल्याण साधनमें तत्पर रहती है ।

५८५ लोकत्रयमहाराज्ञी - जो तिनों लोकों की महारानी है ।

५८६ लोकमृग्याङ्घ्रिपङ्कजा - ब्रह्मा, विष्णु, महेशो को भी जिनके श्रीचरणकमलों की खोज करना आवश्यक कर्तव्य है ॥ १०५॥

      लोकज्ञा लोकशरणं लोकपावनपावनी ।

      लोकप्रगीतमहिमा लोकानुत्तमदर्शना ॥ १०६॥

५८७ लोकज्ञा - जो तीनों लोकों का ज्ञान रखती है ।

५८८ लोकशरणम् - जो सभी की वास्तविक रक्षा करनेवाली है ।

५८९ लोकपावनपावनी - जो लोक को पवित्र करनेवाले तीर्था को भी अपने भक्तों के चरणस्पर्श से पवित्र बनानेवाली है ।

५९० लोकप्रगीतमहिमा - ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी उत्कर्षता पूर्वक जिनकी महिमा का गान करते हैं ।

५९१ लोकानुत्तमदर्शना - प्राणियों के लिये जिनका दर्शन सब से बढकर है ॥ १०६॥

      लोकालयकलापाम्बा लोकोत्पत्यादिकारिणी ।

      लोकेशकान्ता लोकेशी लोकैकप्रियकाङ्क्षिणी ॥ १०७॥

५९२ लोकालयकलापाम्बा - जो ब्रह्माण्ड समूहो की माता है ।

५९३ लोकोत्पत्यादिकारिणी - जो लीला की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करनेवाली है ।

५९४ लोकेशकान्ता - जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नियामक भगवन् श्रीरामजी की प्राणप्यारी है ।

५९५ लोकेशी - जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा तीनो लो को पर शासन करनेवाली है ।

५९६ लोकैकप्रियकाङ्क्षिणी - जो प्राणियों का सब से बढ कर भला चाहती है ॥ १०७॥

      लोचनादीन्द्रियव्रातशक्तिसञ्चारकारिणी ।

      लोपयित्री लोभहरा लोमशादिकभाविता ॥ १०८॥

५९७ लोचनादीन्द्रियव्रातशक्तिसञ्चारकारिणी - जो नेत्रादि सभी इन्द्रियों में शक्ति का सञ्चार करती है अर्थात् जिनके शक्तिसञ्चार करने से ही नेत्रोमें देखने की श्रवणों में सुनने की, मनमें मनन करने की, बुद्धिमें निश्चय करने की शक्ति प्राप्त होती है, जिस इन्द्रियमें शक्तिसञ्चार नहीं किया जाता या बन्द कर दिया जाता है, वह व्यर्थ ही रहती है ।

५९८ लोपयित्री - जो आश्रितों के सभी पाप और दुःखों को लोप (गायब) कर देती है ।

५९९ लोभहरा - जो भक्तों के हृदय से सार्वभौम (चक्रवर्ती) इन्द्र, ब्रह्मा आदि के पद का तथा अष्ट सिद्धि, नव निधियों की प्राप्ति का भी लोभ हरण कर लेती है ।

६०० लोमशादिकभाविता - चिरञ्जीवी श्रीलोमशजी आदि महर्षि गण जिनका ध्यान करते हैं ॥ १०८॥

      वत्सरा वत्सलोत्कृष्टा वदान्या वनजेक्षणा ।

      वनमालाञ्चिता वभ्व्री वरणीयपदाश्रया ॥ १०९॥

६०१ वत्सरा - जिनमें सभी चराचर प्राणियों का निवास है ।

६०२ वत्सलोत्कृष्टा - जो अपराधों को हृदयमें न रखकर, केवल हितचाहनेवाली शक्तियों में, सब से बढ़्कर है ।

६०३ वदान्या - जिनके समान कोई उदार नहीं है ।

६०४ वनजेक्षणा - जिनके नेत्र कमल दल के समान विशाल तथा मनोहर हैं ।

६०५ वनमालाञ्चिता - जो वन के पुष्पों से गुथी हुई माला को धारण करती है ।

६०६ वभ्व्री - जो समस्त जीवों का भरण (पालन) करनेवाली है ।

६०७ वरणीयपदाश्रया - जिनके श्रीचरणारविन्द का आधार ग्रहण करना ही समस्त देह धारियों के लिये कर्तव्य है ॥ १०९॥

      वरदाधिराजकान्ता वरदा वरवर्णिनी ।

      वरबोधा वरारोहाभूषिता वर्णनातिगा ॥ ११०॥

६०८ वरदाधिराजकान्ता - जो अभीष्ट प्रदायक सभी देवों के सम्राट् (शाहंशाह) की पटरानी है ।

६०९ वरदा - जो आश्रितों के सभी अभीष्ट को प्रदान करती है ।

६१० वरवर्णिनी - जो स्त्रियों में लक्ष्मी स्वरूपा है ।

६११ वरबोधा - जिनका ज्ञान ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है ।

६१२ वरारोहाभूषिता - यूथेश्वरी वरारोहाजीने चिन को श‍ृङ्गार धारण कराया है ।

६१३ वर्णनातिगा - जो वर्णन से परे है अर्थात् चाहे जितना भी वर्णन किया जाय पर जो उससे भी परे ही रहती है ॥ ११०॥

      वर्णाभावा वर्णश्रेष्ठा वर्णाश्रमविधायिनी ।

      वर्ण्यानवद्यचित्केलिर्वर्द्धिनी सुखसम्पदाम् ॥ १११॥

६१४ वर्णाभावा - जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि चारो वर्णों की कारणस्वरूपा है ।

६१५ वर्णश्रेष्ठा - जो चारो वर्णों में श्रेष्ठ ब्राह्मण (ब्रह्मोपासक) स्वरूपा है ।

६१६ वर्णाश्रमविधायिनी - जिन्होन्ने लोक व्यवहार की सुलभता के लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार आश्रमों को बनाया है ।

६१७ वर्ण्यानवद्यचित्केलिः - जिनकी प्रशंसा योग्य, तथा सभी दोषों से रहित चित् (ब्राह्मण स्वरुप) लीला वर्णन करने योग्य हैं ।

६१८ वर्धिनी सुखसम्पदां - जो भक्तों के वास्तविक सुख-सम्पत्ति की वृद्धि करती रहती है ॥ १११॥

      वशकृद्वशगश्रेष्ठा वश्या वसुप्रदायिनी ।

      बहुश्रुतो वाच्यकीर्तिर्वारिजासनवन्दिता ॥ ११२ ॥

६१९ वशकृत् - जो अपने अगाध प्रेम तथा अनुपम निर्हैतु की कृपादि दिव्यगुणों के द्वारा प्यारे श्रीरामजी को वश में कर चु की है ।

६२० वशगश्रेष्ठा - जो निष्कपट भाव के द्वारा भक्तों के वशमें हो जाती है ।

६२१ वश्या - जिन्हें केवल भाव से ही वशमें किया जा सकता है ।

६२२ वसुप्रदायिनी - जो भक्तों को सब प्रकार की हित कर सम्पत्ति प्रदान करती है ।

६२३ बहुश्रुता - जो अपनी स्वाभाविक महिमा के कारण पूर्ण विख्यात है ।

६२४ वाच्यकीर्तिः - जिनका सुन्दर याश वर्णन ही करने योग्य है ।

६२५ वारिजासनवन्दिता - जिन्हें श्रीब्रह्माजी भी प्रणाम करते हैं ॥ ११२॥

      विकल्मषा विक्षरात्मा विगतेहा विजेतृका ।

      विज्ञानदात्री विज्ञानमयाप्राकृतविग्रहा ॥ ११३॥

६२६ विकल्मषा - जो सब प्रकार के पापों से अछूती है ।

६२७ विक्षरात्मा - जिनकी बुद्धि कभी भी क्षीण नहीं होती ।

६२८ विगतेहा - पूर्ण काम होने के कारण जो सब प्रकार की चेष्टाओं से रहित है ।

६२९ विजेतृ का - जिन्हें अपने बल-बुद्धि से कोई जीत नहीं सकता ।

६३० विज्ञानदात्री - जो आश्रित-चेतनों को भगवत्-सम्बन्धी विशिष्ट ज्ञान प्रदान करती है ।

६३१ विज्ञानमयाप्राकृतविग्रहा - जिनका सुन्दरस्वरूप पञ्चभूतों से न बना हुआ (दिव्य) विज्ञान-मय है ॥ ११३॥

      विज्ञा विज्वरा विदिता विदिशा विद्ययाऽन्विता ।

      विद्यावत्पुङ्गवोत्कृष्टा विधात्री विधिकेतना ॥ ११४ ॥

६३२ विज्ञा - जो समस्त प्राणियो के मन, बुद्धि, चित्त की क्रियाओं का भी विशेष ज्ञान रखती है ।

६३३ विज्वरा - जो दैहिक, दैविक तथा मानसिक ज्वरों से परे हैं ।

६३४ विदिता - जो अपने शक्ति, स्वरूप कीर्ती के द्वारा सभी को ज्ञात हैं ।

६३५ विदिशा - जो प्राणियो को उनके कर्मानुसार नाना प्रकार का फल देनेवाली है ।

६३६ विद्ययाऽन्विता - जो ब्रह्म विद्या से परिपूर्ण हैं ।

६३७ विद्यावत्पुङ्गवोत्कृष्टा - जो श्रेष्ठ विद्वानों में भी सब से बढकर हैं ।

६३८ विधात्री - जो सम्पूर्ण सृष्टि का नियम बनानेवाली है ।

६३९ विधिकेतना - जो समस्त हितकर विधियोंमें और सम्पूर्ण विधियाँ जिनमें निवास-करती है ॥ ११४॥

      विधिदुर्ज्ञेयमहिमा विधुपूर्णमुखाम्बुजा ।

      विनयार्हा विनीतात्मा विपक्वात्मा विपद्धरा ॥ ११५॥

६४० विधिदुर्ज्ञेयमहिमा - जिनकी महिमा को चारो वेदों के द्वारा भी समझना कठिन है अथवा जगत्-पितामह ब्रह्मा को भी जिनकी महिमा का ज्ञान प्राप्त होना कटिन है ।

६४१ विधुपूर्णमुखाम्बुजा - जिनका श्रीमुखारविन्द पूर्ण चन्द्रमा के समान, हृदयताप-निवारक, परम आह्लादकारी है ।

६४२ विनयार्हा - जो सभी देव, मुनि, सिद्ध तथा साधकों के द्वारा विनय ही करने योग्य हैं ।

६४३ विनीतात्मा - जिनका स्वभाव बहुत ही नम्र है ।

६४४ विपक्वात्मा - जिनका ज्ञान पूर्ण परिपक्व है ।

६४५ विपद्धरा - जो आश्रितों की सम्पूर्ण आपत्तियों को हरण कर लेती है ॥ ११५॥

      विमत्सरा विमलार्च्या विमुक्तात्मा विमुक्तिदा ।

      विमोहिनी वियन्मूर्तिर्विरतिप्रदचिन्तना ॥ ११६॥

६४६ विमत्सरा - जिन्हें किसी की उन्नति को देखकर ईर्ष्या(डाइ) नहीं होती ।

६४७ विमलार्च्या - जो यूथेश्वरी सखी श्रीविमलाजी के द्वारा पूजने योग्य हैं ।

६४८ विमुक्तात्मा - जिनका हृदय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि पञ्चविषयों से रहित है ।

६४९ विमुक्तिदा - जो अपने आश्रितो को उपर्युक्त विषयों से निवृत्ति  प्रदान करती है ।

६५० विमोहिनी - जो अनायास ही अपने शील स्वभाव से चेतनों को पूर्ण मुग्ध कर लेती है ।

६५१ वियन्मूर्तिः - जिनका मङ्गलमय विग्रह आकाशतत्त्व के समान सर्वत्र व्यापक है ।

६५२ विरतिप्रदचिन्तना - जिनका चिन्तन (स्मरण) वैराग्य को प्रदान करता है ॥ ११६॥

      विरामा विलसत्क्षान्तिर्विबुधर्षिगणार्चिता ।

      विवेकपरमाधारा विवेकवदुपासिता ॥ ११७॥

६५३ विरामा - जो समस्त प्राणियों का विश्रामस्थान है अर्थात् जिनको प्राप्त करके प्राणी सब प्रकार से निश्चिन्त हो जाता है और जब तक नहीं प्राप्त होता भटकता ही रहता है ।

६५४ विलसत्क्षान्तिः - जिनकी क्षमा समस्त ब्रह्माण्ड में लहलहा रही है ।

६५५ विबुधर्षिगणार्चिता - देवता तथा ऋषि वृन्द जिनकी पूजा करते है ।

६५६ विवेकपरमाधारा - जो ज्ञान की सब से श्रेष्ठ (मुख्य) आधारस्वरूपा है ।

६५७ विवेकवदुपासिता - वास्तविक ज्ञानी जिनकी उपासना करते हैं ॥ ११७॥

      विशदश्लोकसम्पूज्या विशालेन्दीवरेक्षणा ।

      विशिष्टात्मा विशेषज्ञा विश्वलीलाप्रसारिणी ॥ ११८॥

६५८ विशदश्लोकसम्पूज्या - जो पवित्र यशवाले भाग्यवानो के द्वारा सब प्रकार से पूजनेयोग्य हैं ।

६५९ विशालेन्दीवरेक्षणा - श्याम कमल दल के समान जिनके विशाल एव मनोहर नेत्र हैं ।

६६० विशिष्टात्मा - जिनके मन बुद्धि और चित्तमें एक भगवन् श्रीरामभद्रजी ही सदा निवासकरते है अथवा जिनकी बुद्धि सब से बढकर है ।

६६१ विशेषज्ञा - जिनका ज्ञान सब से बढ़्कर है ।

६६२ विश्वलीलाप्रसारिणी - जो विश्वरूपी लीला को फैलानेवाली है ॥ ११८॥

      विश्वतः पाणिपादास्या विश्वमात्रैकधारिणी ।

      विश्वभरणी विश्वात्मा विश्वालयव्रजेश्वरी ॥ ११९॥

६६३ विश्वतः पाणिपादास्या - जिनके हाथ, पैर, मुख श्रवण आदि इन्द्रियाँ चारो ओर हैं अर्थात्, जो सब ओर भक्तों की रक्षा, भरण-पोषण करती हैं, उनके भक्तिपूर्वक समर्पण किये हुये पदार्थों को सभी ओर से ग्रहण करती है तथा उनकी भाव पूर्ति के लिये पूजा तथा प्रणामादि स्वीकार करती हैं, उनकी की हुई प्रार्थना को जो सभी ओर से श्रवण करती है ।

६६४ विश्वमात्रैकधारिणी - जो शेष रूप से विश्वमात्र को सब से मुख्य धारण करनेवाली है ।

६६५ विश्वभरणी - जो विश्व के समस्त प्राणियों का पालन करती है ।

६६६ विश्वात्मा - जो समस्त विश्व की आत्मा है अथवा सारा विश्वही जिनका शरीर है ।

६६७ विश्वालयव्रजेश्वरी - जो ब्रह्माण्ड समूहो पर शासन करनेवाली है ॥ ११९॥

      विश्वासरूपा विश्वेषां साक्षिणी विस्तृतोत्तमा ।

      वीणावाणी वीतभ्रान्तिः वीतरागस्मयादिका ॥ १२०॥

६६८ विश्वासरूपा - जो विश्वास स्वरूप से प्राणियो के हृदयमें प्रकट होकर पूर्ण निर्भयता प्रदान करती है ।

६६९ विश्वेषां साक्षिणी - जो समस्त प्राणियों के कायिक, वाचिक, मानसिक कर्मो की साक्षिणी (गवाह) स्वरूपा है ।

६७० विस्तृतोत्तमा - जो सभी आकाश, वायु आदि व्यापक तत्त्वों से उत्तम है ।

६७१ वीणावाणी - जिनकी बोली वीणा के शब्द के समान सुमधुर है ।

६७२ वीतभ्रान्तिः - जिन्हें कभी भी किसी प्रकार का धोखा नहीं होता ।

६७३ वीतरागस्मयादि का - जिनमें किसी प्रकार की आसक्ति और अभिमान आदि कोई भी विकार नहीं हैं ॥ १२०॥

      वीतशङ्कासमाराध्या वीतसम्पूर्णसाध्वसा ।

      बुधाराध्याङ्घ्रिकमला वृपपा वेदकारणम् ॥ १२१॥

६७४ वीतशङ्कासमाराध्या - जो अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाने के कारण समस्त शङ्काओं से रहित साध को द्वारा ही भली-भाँति सेवित होने को सुलभ है ।

६७५ वीतसम्पूर्णसाध्वसा - सब विकारों से रहित और पूर्णकाम होने के कारण जिन्हें किसी का किसी प्रकार का भी कोई भय नहीं है ।

६७६ बुधाराध्याङ्घ्रिकमला - आत्मज्ञानियों के लिये जिनके श्रीचरण-कमल ही एक उपासना के योग्य है ।

६७७ वृपपा - जो सनातन धर्म की रक्षा करनेवाली है ।

६७८ वेदकारणम् - जो चारों वेदों की कारण स्वरूपा है ॥ १२१॥

      वेदगा वेदनिःश्वासा वेदप्रणुतवैभवा ।

      वेदप्रतिपाद्यतत्त्वा वेदवेदान्तकोविदा ॥ १२२॥

६७९ वेदगा - जो सम्पूर्ण वेदोंमें व्याप्त है अथवा जो सामवेद का गान करनेवाली है ।

६८० वेदनिःश्वासा - वेद जिनके श्वास स्वरूप है ।

६८१ वेदप्रणुतवैभवा - वेद भगवन् जिनके ऐश्वर्य की स्तुति करते हैं ।

६८२ वेदप्रतिपाद्यतत्त्वा - जिनके तत्त्व को वर्णन करने में कुछ वेद भगवन् ही समर्थ हैं अथवा वेदों के वर्णन करने योग्य एक जिनका परतत्त्व ही है ।

६८३ वेदवेदान्तकोविदा - जो वेद और वेदान्त (उपनिषदों) के तात्पर्य को भली भाँति जानती है ॥ १२२॥

      वेदरक्षाविधानज्ञा वेदसारमयाकृतिः ।

      वेदान्तवेद्या वेदान्ता वैदेही वैभवार्णवा ॥ १२३॥

६८४ वेदरक्षाविधानज्ञा - जो वेदों की रक्षा का उपाय स्वयं जानती है ।

६८५ वेदसारमयाकृतिः - जो वेदसार (ब्रह्मविद्या) स्वरूपा है ।

६८६ वेदान्तवेद्या - जिन्हे वेदान्त के द्वारा ही कुछ समझा जा सकता है ।

६८७ वेदान्ता - जो वेदान्त स्वरूपा है ।

३८८ वैदेही - जो ब्रह्मलीनता के कारण देह की सुधि युधि रहित श्रीविदेह महाराज के वंशमें जिनका प्राकट्य है।

६८९ वैभवार्णवा - जिनका ऐश्वर्य समुद्र के समान अथाह है ॥ १२३॥

      वङ्कचिकुरा वङ्कभ्रूर्वङ्काकर्षणवीक्षणा ।

      शक्तिव्रजेश्वरी शक्तिः शतमूर्तिः शतोदिता ॥ १२४॥

६९० वङ्कचिकुरा - जिनके मनोहर घुंघुराले केश हैं ।

६९१ वङ्कभ्रूः - जिनकी भृहें काम धनुष के समान मनोहर और टेढी है ।

६९२ वङ्काकर्षणवीक्षणा - जिनकी कृपापूर्ण कटाक्ष सभी प्राणियों के हृदय को सहजही में आकम्पित कर लेती है ।

६९३ शक्तिव्रजेश्वरी - जो अपने इच्छानुसार श्क्ति-समूहों को विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों में नियुक्त करनेवाली है ।

६९४ शक्तिः - जो ब्रह्मा की पूर्णशक्ति-स्वरूया है ।

६९५ शतमूर्तिः - जिनके स्वरूप इजारों है अर्थात् जो चराचर के सम्पूर्ण आकारवाली है ।

६९६ शतोदिता - असंख्यौ भक्त जिनकी महिमा का निरन्तर वर्णन करते हैं ॥ १२४॥

      शब्दब्रह्मातिगा शब्दविग्रहा शमदायिनी ।

      शमिताश्रितसङ्क्लेशा शमिभक्त्याशुतोषिता ॥ १२५॥

६९७ शब्दब्रह्मातिगा - जो वेदों से परे है अर्थात् जिनका यथार्थ वर्णन भगवान वेद भी नही कर सकते ।

६९८ शब्दविग्रहा - जो सम्पूर्ण शब्द स्वरूपा है ।

६९९ शमदायिनी - जो आश्रितो के मन को शान्ति (स्थिरता) प्रदान करनेवाली है ।

७०० शमिताश्रितसङ्क्लेशा - जो आश्रितो के समस्त कष्टो को निवृत कर देती है ।

७०१ शमिभक्त्याशुतोषिता - जो एकाग्र चित्तवाले भक्तों की आसक्ति से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाती है ॥ १२५॥

      शम्पादामोल्लसत्कान्तिः शम्प्रदध्यानसंस्तवा ।

      शम्मयाशेषकैङ्कर्य्या शरणं सर्वदेहिनाम् ॥ १२६॥

७०२ शम्पादामोल्लसत्कान्तिः - बिजुली की माला के समान चमकती हुई जिनके श्रीअङ्ग की कान्ति है ।

७०३ शम्प्रदध्यानसंस्तवा - जिनका ध्यान तथा स्तोत्र दोना ही परम मङ्गलदायी है ।

७०४ शम्मयाशेषकैङ्कर्य्या - जिनकी सभी प्रकार की सेवा मङ्गलमयी है ।

७०५ शरणं सर्वदेहिनाम् - जो समस्त देहधारियों की रक्षा करने को समर्थ हैं तथा जो सब की मुख्य निवास स्थान है ॥ १२६॥

      शरणागतसन्त्रात्री शरण्यैकाऽसुधारिणाम् ।

      शबरीमानदप्रेष्ठा शान्ता शान्तिप्रदायिनी ॥ १२७॥

७०६ शरणागतसन्त्रात्री - जो शरण में आये हुवे प्राणियों की पूर्ण रक्षा करनेवाली है ।

७०७ शरण्यैकाऽसुधारिणां - जो प्राणियों की सब से बढ़्कर रक्षा करने में पूर्ण समर्थ है ।

७०८ शबरीमानदप्रेष्ठा - जो शबरी मैया को प्रतिष्टा देनेवाले प्रभु श्रीरामजी की परम प्यारी है ।

७०९ शान्ता - जो परम शान्ति स्वरूपा हैं ।

७१० शान्तिप्रदायिनी - जो उपासको की निष्कामता प्रदान करके परम शान्ति प्रदान करती है ॥ १२७॥

      शाश्वतचिन्तनीयाङ्घ्रिकमला शाश्वतस्थिरा ।

      शाश्वती शासिकोत्कृष्टा शिरोधार्यकराम्बुजा ॥ १२८॥

७११ शाश्वतचिन्तनीयाङ्घ्रिकमला - प्राणियों को जिनके श्रीचरणकमलों का चिन्तन निरन्तर ही करना चाहिये।

७१२ शाश्वतस्थिरा - जो अपने वास्तविक (ब्रह्म) स्वरूप से सदा ही स्थिर रहती है अर्थात् कभी परिवर्त्तनों को नहीं प्राप्त होती ।

७१३ शाश्वती - जो सदा ही एकरस रहनेवाली है ।

७१४ शासिकोत्कृष्टा - जो शासन करनेवाली सभी शक्तियो में उत्तम है ।

७१५ शिरोधार्यकराम्बुजा - मनुष्य जीवन की सफलता के लिये, जिनके हस्त-कमल शिर पर घारण करने का सौभाग्य प्राप्त कर लेना परम आवश्यक कर्तव्य है ॥ १२८॥

      शिशिरा शीलसम्पन्ना शुचिगम्याङ्घ्रिचिन्तना ।

      शुचिप्राप्यपदासक्तिः शुद्धान्तःकरणालया ॥ १२९॥

७१६ शिशिरा - जो भक्तों के दैहिक, दैविक तथा मानसिक तापोकों हरण करने के लिये शिशिर ऋतु (माघ फाल्गुन) के समान है ।

७१७ शीलसम्पन्ना - जिनका स्वभाव अत्यन्त सुन्दर है ।

७१८ शुचिगम्याङ्घ्रिचिन्तना - जिनके श्रीचरणकमलों का चिन्तन विकार रहित साधकों के लिये ही सुलभ है ।

७१९ शुचिप्राप्यपदासक्तिः - जिनके श्रीचरण-कमलों की आसक्ति विकार रहित साधककों ही प्राप्त होती है ।

७२० शुद्धान्तःकरणालया - जो शुद्ध (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की आसक्ति रूपी मलिनता से रहित भाग्यशालियो) के ही अन्तः करण (मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार) में सदा निवासकरती है ॥ १२९॥

      शुद्धा शुद्धिप्रदध्याना शूलत्रयनिवारिणी ।

      शैलराजसुतादीष्टा शोभासागर सत्कृता ॥ १३०॥

७२१ शुद्धा - जो माया (अज्ञान) रूपी मल से रहित हैं ।

७२२ शुद्धिप्रदध्याना - जिनका ध्यान हृदयमें निर्विकारिता अर्थात्  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध में वैराग्य प्रदान करता है ।

७२३ शूलत्रयनिवारिणी - जो दैहिक दैविक तथा मानसिक तीनों प्रकार की शूल (पीडाओंकी) भगा देती है ।

७२४ शैलराजसुतादीष्टा - जो भगवती श्रीपार्वतीजी आदि महाशक्तियों की इष्ट देवता है ।

७२५ शोभासागरसस्कृता - श्रीअङ्ग की असीम, अकथनीय सुन्दरता से मुग्ध हो भगवान श्रीरामजी भी जिनका पूर्ण सत्कार करते हैं ॥ १३०॥

      शौर्यपाथोनिधिः श्यामा श्रयणीयपदाम्बुजा ।

      श्रवणीययशोगाथा श्रीकरी श्रीप्रदायिनी ॥ १३१॥

७२६ शौर्यपाथोनिधिः - जिनका बल-पराक्रम समुद्र के समान अथाह है ।

७२७ श्यामा - जो भक्तों के सुखार्थ सदैव बारह वर्ष की अवस्थामै रहती है ।

७२८ श्रयणीयपदाम्बुजा - अपने पूर्ण कल्याण के लिये जिनके श्रीचरणकमलों का सहारा लेना ही प्राणियों का परम कर्तव्य है ।

७२९ श्रवणीययशोगाथा - इष्ट-प्राप्ति के निमित्त त्याग का आदर्श लेने के लिये जिनके चरित श्रवण करने योग्य है।

७३० श्रीकरी - जो भक्तों की समृद्धि (उन्नति) करनेवाली है ।

७३१ श्रीप्रदायिनी - जो उपासकों को सात्विक सम्पत्ति प्रदान करती है ॥ १३१॥

      श्रीमदुत्तंसमहिता श्रीमयी श्रीमहानिधिः ।

      श्रीलक्ष्म्यादिभिः सेव्या श्रीवासा श्रीसमुद्भवा ॥ १३२॥

७३२ श्रीमदुत्तंसमहिता - जो ऐश्वर्यवालो में श्रेष्ठ ब्रह्मा, हरि, हरादिकों के द्वारा पूजित है ।

७३३ श्रीमयी - जो सम्पूर्ण शोभा मयी है ।

७३४ श्रीमहानिधिः जो राजसी सम्पत्ति की सब से बड़ी भण्डार है ।

७३५ श्रीलक्ष्म्यादिभिः सेव्या - श्रीलक्ष्मीजी आदि महाशक्तियों को भी जिनकी उपासना कर्तव्य है ।

७३६ श्रीवासा - जिनमें सम्पूर्ण सुन्दरता निवासकरती है ।

७३७ श्रीसमुद्भवा - जिनके अंश से सम्पूर्ण शोभा, सम्पत्ति और गौरव आदिरी उत्पत्ति होती है ॥ १३२॥

      श्रीः श्रुतिगीतचरिता श्रुत्यन्तप्रतिपादिता ।

      श्रेयोगुणेरणा श्रेयोनिधिः श्रेयोमयस्मृतिः ॥ १३३॥

७३८ श्रीः - जो ब्रह्म की सम्पूर्ण श्री स्वरूपा है ।

७३९ श्रुतिगीतचरिता - भगवन् वेद जिनके चरितों का गान करते हैं ।

७४० श्रुत्यन्तप्रतिपादिता - जिनके स्वरूप की व्याख्या वेदान्तमें की गयी है ।

७११ श्रेयोगुणेरणा - जिनका गुण-गान मङ्गलमय है ।

७४२ श्रेयोनिधिः - जो सम्पूर्ण कल्याण की भण्डार हैं ।

७४३ श्रेयोमयस्मृतिः - जिनका सुमिरण मङ्गलमय है ॥ १३३॥

      श्रोत्रियैकसमाराध्या श्लक्ष्णसूनृतभाषिणी ।

      श्लाघनीयमहाकीर्तिः श्लीलचारित्र्यविश्रुता ॥ १३४॥

७४४ श्रोत्रियैकसमाराध्या - जो वेद का यथार्थ अर्थ समझनेवाले विद्वानों के लिये, सब से बढ़्कर उपासना के योग्य हैं ।

७४५ श्लक्ष्णसूनृतभाषिणी - जो मधुर और यथार्थ बोलती है ।

७४६ श्लाघनीयमहाकीर्तिः - जिनकी कीर्ति सब से अधिक प्रशंसा के योग्य है ।

७४७ श्लीलचारित्र्यविश्रुता - जो अपने मङ्गलकारी चरितों से त्रिलोकीमें विख्यात है ॥ १३४॥

      श्लोकलोकार्चिताब्जाङ्घ्रिः श्वसनाधीशसत्कृता ।

      श्वेतधामोल्लसद्वक्त्रा षट्चतुर्वस्विलोदिता ॥ १३५ ॥

७४८ श्लोकलोकार्चिताब्जाङ्घ्रिः - जिनके श्रीचरण-कमल पुण्यशाली लोगों के द्वारा सदैव पूजित है ।

७४९ श्वसनाधीशसत्कृता - जो उञ्चासो वायुवों के पति देवराज इन्द्र के द्वारा सत्कार को प्राप्त है ।

७५० श्वेतधामोल्लसद्वक्त्रा - जिनका श्रीमुखारविन्द चन्द्रमा के समान परमाह्लादकारी तथा मनोहर है ।

७५१ षट्चतुर्वस्विलोदिता - जिनका वर्णन छेः शास्त्र, चारो वेद और अठारह पुराणों द्वारा किया गया है ॥ १३५॥

      षडतीता षडाधारा षडर्द्धाक्षहृदिस्थिता ।

      सखीमण्डलमध्यस्था सगुणा सङ्क्षयोज्झिता ॥ १३६॥

७५२ षडतीता - जो षट् (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) विकारों से रहित हैं ।

७५३ षडाधारा - जो सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्णयश को भली भाँति धारण करनेवाली है ।

७५४ षडर्द्धाक्षहृदिस्थिता - जो त्रिनेत्रधारी भगवन् श्रीभोलेनाथजी के हृदय में इष्ट रूप से विराज रही है ।

७५५ सखीमण्डलमध्यस्था - जो अपनी सखियों के मण्डलमें मध्यस्थ (निष्पक्ष) रूप से विराजती है ।

७५६ सगुणा - जो भक्त-सुखार्थ अपनी परम-पावनी कीर्ति का विस्तार करने के लिये सम्पूर्ण गुणों को ग्रहण करती है ।

७५७ सङ्क्षयोज्झिता - जिनके रूप, गुण, शक्ति, ऐश्वर्य, ज्ञान आदि कभी भी क्षीणता को प्रात नहीं होते अर्थात् सदैव एक रस अखण्ड बने रहते हैं ॥ १३६॥

      सङ्ख्यातीतगुणा सङ्गमुक्ता सङ्गीतकोविदा ।

      सङ्गीर्णप्रणतत्राणा सङ्ग्रहानुग्रहे रता ॥ १३७॥

७५८ सङ्ख्यातीतगुणा - जिनके गुण संख्या (गणनासे) परे अर्थात् अनन्त हैं ।

७५९ सङ्गमुक्ता - जिनकी किसी विषयमें आसक्ति नहीं है ।

७६० सङ्गीतकोविदा - जो सङ्गीत शास्त्र को भली प्रकार से जानती है ।

७६१ सङ्गीर्णप्रणतत्राणा - प्रणाम मान करनेवाले भक्तों की भी रक्षा करने के लिये जिनकी प्रतिज्ञा है ।

४६२ सङ्ग्रहानुग्रहे रता - जो कर्मानुसार प्राणियों को दण्ड तथा अनुग्रह रूपी पुरस्कार प्रदान करने में तत्पर रहती है ॥ १३७॥

      सख्यशीघ्रसमासाद्या सज्जनोपासिताङ्घ्रिका ।

      सतताराध्यचरणा सतीत्वादर्शदायिनी ॥ १३८॥

७६३ सख्यशीघ्रसमासाद्या - जो मित्रता के भाव द्वारा प्रसन्न होने में शीघ्र ही सुलभ है ।

७६४ सज्जनोपासिताङ्घ्रि का - जिनके श्रीचरण-कमलों की उपासना सन्त जन करते हैं ।

७६५ सतताराध्यचरणा - जिनके श्रीचरण-कमलों की उपासना निरन्तर ही करना चाहिये ।

७६६ सतीत्वादर्शदायिनी - जो पतिव्रताओं के आचरण का आदर्श प्रदान करती है ॥ १३८॥

      सतीवृन्दशिरोरत्नं सतीशाजस्रभाविता ।

      सत्तमा सत्यधर्मैकपालिका सत्यरूपिणी ॥ १३९॥

७६७ सतीवृन्दशिरोरत्नं - जो पतिव्रताओं में सब से मुख्य है ।

७६८ सतीशाजस्रभाविता - भगवन् श्रीभोलेनाथजी जिनका निरन्तर ध्यान करते हैं ।

७६९ सत्तमा - जिन से बढकर कोई है ही नही ।

७७० सत्यधर्मैकपालि का - जो सत्य तथा धर्म पालन करनेवाली शक्तियो में सब से बढ़्कर है ।

७७१ सत्यरूपिणी - जो सत्य (ब्रह्म) का स्वरूप ही  है ॥ १३९॥

      सत्यसञ्चिन्तना सत्यसन्धा सत्यापतिस्नुषा ।

      सत्या सत्रधरागर्भोद्भूता सत्ववदग्रणीः ॥ १४०॥

७७२ सत्यसञ्चिन्तना - जिनका ध्यान ही वस्तुतः सत्य (सार) है और सब असार ।

७७३ सत्यसन्धा - जिनकी प्रतिज्ञा कभी झूठी होती ही नही ।

७७४ सत्यापतिस्नुषा - जो अयोध्या नरेश श्रीदशरथजी महाराज की पुत्रवधु (पतीहू) है ।

७७५ सत्या - जो भूत, भविष्य, वर्तमान तीनो कालमै सत्य है ।

७७६ सत्रधरागर्भोद्भूता - जो श्रीमिथिलेशजी महाराज की यज्ञभूमि के  गर्भ से प्रकट हुई है ।

७७७ सत्ववदग्रणीः - जो पराक्रमियो में सब से बढ़्कर है ॥ १४०॥

      सदाचारा सदासेव्या सदृशातीतशेमुषी ।

      सनातनी सदानम्या सन्तोषैकप्रदायिनी ॥ १४१॥

७७८ सदाचारा - जिनके सभी आचरण सत् है ।

७७९ सदासेव्या - जिनकी निरन्तर सेवा करना ही प्राणियों का कर्तव्य है ।

७८० सदृशातीतशेमुषी - जिनके समान किसी की भी विशाल बुद्धि नहीं है ।

७८१ सनातनी - जो आदि-काल की है ।

७८२ सदानम्या - जो निरन्तर प्रणाम करने योग्य है ।

७८३ सन्तोषैकप्रदायिनी - जो दर्शनादि के द्वारा आश्रितों को सब से बढकर सन्तोष प्रदान करती है ॥ १४१॥

      सन्देहापहरा सन्धिः सन्निषेव्यसमाश्रिता ।

      सन्नुत्याशेषचरिता सभ्यलोकसभाजिता ॥ १४२॥

७८४ सन्देहापहरा - जो आश्रिता के हृदय में उदित हुई सभी शङ्काओं को हरण कर लेती है ।

७८५ सन्धि - जो सन्धि (अवकाश्) स्वरूपा है ।

७८६ सन्निषेव्यसमाश्रिता - जिनके पाश्रितजन भी तन, मन, धन आदि के द्वारा सब प्रकार से सेवा करने योग्य है।

७८७ सन्नुत्याशेषचरिता - जिनके सम्पूर्ण चरित सब प्रकार से स्तुति (प्रशंसा) करने योग्य हैं ।

७८८ सभ्यलोकसभाजिता - सज्जनवृन्द जिन्हें सदैव प्रणाम करते हैं ॥ १४२॥

      समग्रज्ञानवैराग्यधर्मश्रीर्यशोनिधिः ।

      समग्रैश्वर्यसम्पन्ना समतीतगुणोपमा ॥ १४३॥

७८९ समग्रज्ञानवैराग्यधर्मश्रीर्यशोनिधिः - जो सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण वैराग्य, सम्पूर्ण र्धम सम्पूर्ण श्रीः (सुन्दरतातेज) , सम्पूर्ण यश की भण्डार है ।

७९० समग्रैश्वर्यसम्पन्ना - जो सम्पूर्ण ऐश्वर्य की भण्डार है ।

७९१ समतीतगुणोपमा - जिनके गुणो की उपमा नहीं है ॥ १४३॥

      समदृष्टिः समर्च्यैका समर्थाग्रा समर्धका ।

      समविश्वमनोज्ञाङ्गी समवेक्ष्याङ्घ्रिलाञ्छना ॥ १४४॥

७९२ समदृष्टिः - जिनकी दृष्टि में सदैव प्राणप्पारे ही विराजते हैं अथवा समस्त प्राणियों के प्रति जिनकी समान हितकर दृष्टि है ।

७९३ समर्च्यैका - जिन से बढ़्कर कोई पूजने योग्य है ही नही ।

७९४ समर्थाग्रा - जिन से बढ़्कर कोई समर्थ नही ।

७९५ समर्ध का - जिन से बढ़्कर कोई अभीष्ट पूर्ण करनेवाला नहीं है ।

७९६ समविश्वमनोज्ञाङ्गी - जिनके सभी श्रीअङ्ग विश्वभरमें सब से अधिक मनोहर और सुडौल है अर्थात् जहाँ जिस प्रकार होने चाहिये वहाँ उसी प्रकार के हैं ।

७९७ समवेक्ष्याङ्घ्रिलाञ्छना - जिनके श्रीचरण-कमलो के स्वस्तिक, ऊर्ध्व रेखा, कमल, वज्र वुलिश छन, चामर, हल, मुशल सिंहासन, दिवली अमृत कुण्ड, सरयू लक्ष्मी, पृथ्वी आदि सभी चिन्ह, वश दर्शन ही करने के योग्य है ॥ १४४॥

      समाकर्ण्ययशोगाथा समाहर्त्री समाहिता ।

      समानात्मा समाराध्या समालम्ब्याङ्घ्रिपङ्कजा ॥ १४५॥

७९८ समाकर्ण्ययशोगाथा - मनुष्य जीवन की सफलता केलिये जिनका पशगान भली भाँति सुनने योग्य है ।

७९९ समाहर्त्री - जो भक्तों के सम्पूर्ण कष्टो को पूर्ण रूप से हरण कर लेती है अथवा महाप्रलय में सारी सृष्टि को सर्मेट कर जो अपने आपमें लीन कर लेती है ।

८०० समाहिता - हित साधन पूर्वक भक्तों की सुरक्षा के लिये जो सदैव सावधान रहती है ।

८०१ समानात्मा - जो सभी भले बुरे, चर अचर प्राणियों के लिये समान निराकार ब्रह्म की आत्म स्वरूपा हैं ।

८०२ समाराध्या - पूर्णसुख शान्ति के लिये भली भाँति जिनकी उपासना करना ही प्राणियों का अमोघ-साधन है।

८०३ समालम्ब्याङ्घ्रिपङ्कजा - संसार रूपी अथाह सागर से पार होने के लिये जिनके श्रीचरण-कमल रुपी नौका का ही सहारा लेने योग्य है ॥ १४५॥

      समावर्ता समासेव्या समार्हा समितिञ्जया ।

      समीक्ष्याव्याजकरुणा सविभाव्यसुविग्रहा ॥ १४६॥

८०४ समावर्ता - जो संसार रूपी चक्र को भली भाँति घुमाती रहती है ।

८०५ समासेव्या - जो जगज्जननी और परमहितकारिणी होने के कारण, प्राणियों के लिये सम्यक प्रकार से सेवा (उपासना) करने योग्य हैं ।

८०६ समार्हा - जो अन्तर्यामिनी रूप से सभी के लिये समान है तथा भगवान श्रीरामजी ही जिनके योग्य वर और जो उनके योग्य दुलहिन हैं ।

८०७ समितिञ्जया - जिन्हे सर्वत्र विजय प्राप्त है ।

८०८ समीक्ष्याव्याजकरुणा - भगवदानन्द सागरमें गीना लगाने के लिये, सभी प्रकार की प्रिय-अप्रिय, उपस्थित परिस्थितिया (हालत)  में जिनकी अहैतु की कृपा का ही उत्तम प्रकार से अनुसन्धान करना चाहिये ।

८०९ सविभाव्यसुविग्रहा - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पाञ्चो पिषयो पर विजय पाने के लिये जिनके मङ्गलमय सुन्दर विग्रह का ही भली भाँति सदैव ध्यान करना कर्तव्य है ॥ १४६॥

      सरयूपुलिनाक्रीडा सरला सरसेक्षणा ।

      सर्गस्थित्यन्तप्रभवा सर्वकामप्रदायिनी ॥ १४७॥

८१० सरयूपुलिनाक्रीडा - जो श्रीसरयूनदी के किनारे भक्त-सुखद लीला करती है ।

८११ सरला - जिन में किसी प्रकार को भी कुटिलता नहीं है अर्थात् जो अत्यन्त सीधे स्वभाववाली है ।

८१२ सरसेक्षणा - जिनके कमलवत् नेत्र दयालुता रूपी रस से रसीले हैं ।

८१३ सर्गस्थित्यन्तप्रभवा - जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति, तथा संहार की सब से मुख्य कारण हैं ।

८१४ सर्वकामप्रदायिनी - जो अपने आश्रितों की सभी हितकर इच्छाओं को पूर्ण करती है ॥ १४७॥

      सर्वकार्यबुधा सर्वच्छद्मज्ञा सर्वजन्मदा ।

      सर्वजीवहिता सर्वज्ञानिनां ज्ञेयसत्तमा ॥ १४८॥

८१५ सर्वकार्यबुधा - जो सभी प्रकार के कर्तव्यों का ज्ञान रखती है ।

८१६ सर्वच्छद्मज्ञा - जो सब के कपट को भली भाँति से जान लेती है ।

८१७ सर्वजन्मदा - जो सभी जीवों को जन्म देनेवाली है ।

८१८ सर्वजीवहिता - जो सभी जीवमात्र का हित करनेवाली है ।

८१९ सर्वज्ञानिनां ज्ञेयसत्तमा - समस्त ज्ञानियों के लिये भी, जिनके रहस्य को समझना परमावश्यक है ॥ १४८॥

      सर्वज्ञाननिधिः सर्वज्ञानवद्भिरुपासिता ।

      सर्वज्ञा सर्वज्येष्ठादिः सर्वतीर्थमयस्मृतिः ॥ १४९॥

८२० सर्वज्ञाननिधिः जो सम्पूर्ण ज्ञान की निधि (भण्डार) है ।

८२१ सर्वज्ञानवद्भिरुपासिता - समस्त ज्ञानी जन, जिनका भजन करते हैं ।

८२२ सर्वज्ञा - जो सभी प्राणियों के भूत, भविष्य, वर्तमान के कायिक, वाचिक, मानसिक कर्म तथा उनके अनिवार्य फल सुख-दुःख रूप पुरस्कार एवं दण्ड को भली भाँति जानती है ।

२२३  सर्वज्येष्ठादिः - अवस्था में, जिन से बड़ा कोई है ही नहीं ।

८२४ सर्वतीर्थमयस्मृतिः - जिनका सुमिरण साढे तीन करोड़् तीर्थों से अधिक पुण्य दायक है ॥१४९॥

      सर्वतोऽक्ष्यास्यहस्ताङ्घ्रिकमला सर्वदर्शना ।   

      सर्वदिव्यगुणोपेता सर्वदुःखहरस्मिता ॥ १५०॥

८२५ सर्वतोऽक्ष्यास्यहस्ताङ्घ्रिकमला - विराट रूप होने के कारण जिनके नेत्र, मुख, हस्त, चरण-कमल आदि सभी ओर है ।

८२६ सर्वदर्शना - जो सब जीवों की सभी चेष्टाओं की  प्रत्येक समय देखती रहती है ।

८२७ सर्वदिव्यगुणोपेता - में जो सम्पूर्ण दया, क्षमा, सौशील्य, वात्सल्य, गाम्भीर्य औदार्य, आदि दिव्य (अप्राकृत) गुणों से युक्त है ।

८२८ सर्वदुःखहरस्मिता - जिनकी मन्द मुस्कान सम्पूर्ण दुःखों को हरण कर लेती है ॥ १५०॥

      सर्वदेवनुता सर्वधर्मतत्त्वविदां वरा ।

      सर्वधर्मनिधिः सर्वनायकोत्तमनायिका ॥ १५१॥

८२९ सर्वदेवनुता - जिनकी सभी देवता स्तुति करते हैं ।

८३० सर्वधर्मतत्त्वविदां वरा - जो सम्पूर्ण धर्मों का रहस्य समझनेवाली तथा सभी शक्तियों में श्रेष्ठ है ।

८३१ सर्वधर्मनिधिः - जो सम्पूर्ण धमों की भण्डार हैं ।

८३२ सर्वनायकोत्तमनायि का - जो सम्पूर्ण नायकों (नेताओं) में सर्वश्रेष्ठ भगवन् श्रीरामभद्रजी की पटरानी है ॥ १५१॥

      सर्वनीतिरहस्यज्ञा सर्वनैपुण्यमण्डिता ।

      सर्वपापहरध्याना सर्वपावनपावनी ॥ १५२॥

८३३ सर्वनीतिरहस्यज्ञा - जो सब प्रकार की नीतियों का रहस्य (तात्पर्य) भली भाँति जानती है ।

८३४ सर्वनैपुण्यमण्डिता - जो सब प्रकार की चतुराई से अलंकृत है ।

८३५ सर्वपापहरध्याना - जिनका ध्यान सम्पूर्ण पापों को छीन लेता है ।

८३६ सर्वपावनपावनी - जो पवित्र कारी तीर्थों को अपने भक्तों के चरण-स्पर्श द्वारा पवित्र कर देती है ॥ १५ २॥

      सर्वभक्तावनाभिज्ञा सर्वभक्तिमतां गतिः ।

      सर्वभावपदातीता सर्वभावप्रपूरिका ॥ १५३॥

८३७ सर्वभक्तावनाभिज्ञा - जो सभी भक्तों की रक्षा का उपाय भली भाँति जानती है ।

८३८ सर्वभक्तिमतां गतिः - जो समस्त भक्तों की रक्षा करनेवाली है ।

८३९ सर्वभाव-पदातीता - जो सभी भावों के पद से परे है ।

८४० सर्वभाव-प्रपूरि का - जो आश्रितों के सभी हितकर मार्गों की पूर्ति करती है ॥१५३।

      सर्वभक्तिप्रदोत्कृष्टा सर्वभूतहिते रता ।

      सर्वभूताशयाभिज्ञा सर्वभृतसुधारिणी ॥ १५४॥

८४१ सर्वभक्तिप्रदोत्कृष्टा - हितकर भोगों को प्रदान करने शक्तियों में जो सब से बढकर है ।

८४२ सर्वभूतहिते रता - जो समस्त प्राणियों के वास्तविक साधन में सदैव तत्पर रहती  है ।

८४३ सर्वभूताशयाभिज्ञा - जो सभी देहधारियों की समस्त चेष्टाओं को भली भाँति से जानती है ।

८४४ सर्वभृतसुधारिणी - जो सम्पूर्ण प्राणियों के प्राणों को धारण करनेवाली है ॥ १५४॥

      सर्वमङ्गलमाङ्गल्या सर्वमण्डनमण्डना ।

      सर्वमेधाविनां श्रेष्ठा सर्वमोदमयेक्षणा ॥ १५५॥

८४५ सर्वमङ्गलमाङ्गल्या - जो सम्पूर्ण मङ्गलो की मङ्गलस्वरूपा है ।

८४६ सर्वमण्डनमण्डना - जो सम्पूर्ण सजावट को सुसज्जित करनेवाली है ।

८४७ सर्वमेधाविनां श्रेष्ठा - जो बुद्धिमानों में सब से बढ़्कर हैं ।

८४८ सर्वमोदमयेक्षणा - जिनकी चितवन तथा दर्शन सम्पूर्ण आनन्द-मय है ॥ १५५॥

      सर्वमोहच्छिदासक्तिः सर्वमोहनमोहिनी ।

      सर्वमौलिमणिप्रेष्ठा सर्वयज्ञफलप्रदा ॥ १५६॥

८४९ सर्वमोहच्छिदासक्तिः - जिनके श्रीचरणों की आसक्ति-सम्पूर्ण आसक्तियों को समाप्त कर देती है अर्थात् जिनके प्रति आसक्ति प्राप्त कर लेने पर, संसार के किसी भी शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की आसक्ति हृदय में ही रह नहीं जाती है ।

८५० सर्वमोहनमोहिनी - सभी जढ-चेतनों को मुग्ध करलेनेवाले, भगवान श्रीरामजी को भी जो अपने दयालु स्वभाव की पराकाष्ठा से मुग्ध कर लेती है ।

८५१ सर्वमौलिमणिप्रेष्ठा - जो सब के शिरमौर भगवन् श्रीराघवेन्द्र सरकार की प्राणप्यारी है ।

८५२ सर्वयज्ञफलप्रदा - जो सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्रदान करनेवाली है ॥ १५६॥

      सर्वयज्ञव्रतस्नाता सर्वयोगविनिःसृता ।

      सर्वरम्यगुणागारा सर्वलक्षणलक्षिता ॥ १५७॥

८५३ सर्वयज्ञव्रतस्नाता - जो सम्पूर्ण यज्ञों को कर चु की है ।

८५४ सर्वयोगविनिःसृता - शास्त्रोक्त नाना प्रकार के साधनों द्वारा ही जिन्हें समझा जा सकता है अथवा जिन से समस्त योगों का प्राकट है ।

८५५ सर्वरम्यगुणागारा - सम्पूर्ण सुन्दर गुण-तमूहों का जिनमें निवास है ।

८५६ सर्वलक्षणलक्षिता - जो समस्त दिव्य (अलौकिक) लक्षणों से युक्त हैं ॥ १५७॥

      सर्वलावण्यजलधिः सर्वलीलाप्रसारिणी ।

      सर्वलोकनमस्कार्या सर्वलोकेश्वरप्रिया ॥ १५८॥

८५७ सर्वलावण्यजलधिः - जो सम्पूर्ण सुन्दरता की समुद्र है ।

८५८ सर्वलीलाप्रसारिणी - जो जगत् की सम्पूर्ण लीलाओं को फैलानेवाली है ।

८५९ सर्वलोकनमस्कार्या - जो अनन्त ब्रह्माण्डो के सभी ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिकों के द्वारा नमस्कार करने योग्य है ।

८६० सर्वलोकेश्वरप्रिया - जो समस्त ब्रह्मा विष्णु शिवादिकों का नियामक श्रीसाकेताधीश प्रभु श्रीराम की प्यारी है ॥ १५८॥

      सर्वलोकेश्वरी सर्वलौकिकेतरवैभवा ।

      सर्वविद्याव्रतस्नाता सर्ववैभवकारणम् ॥ १५९॥

८६१ सर्वलोकेश्वरी - जो सम्पूर्ण लोकों की स्वामिनी है ।

८६२ सर्वलौकिकेतरवैभवा - जिनका सम्पूर्ण ऐश्वर्य अलौकिक (दिव्य) है ।

८६३ सर्वविद्याव्रतस्नाता - जो विधिपूर्वक सम्पूर्ण विद्याओं को पढ चु की है ।

६४ सर्ववैभवकारणम् - जो सम्पूर्ण ऐश्वर्य सम्पत्ति की कारणस्वरूपा है ॥ १५९॥

      सर्वशक्तिमतामिष्टा सर्वशक्तिमहेश्वरी ।

      सर्वशत्रुहरा सर्वशरणं सर्वशर्मदा ॥ १६०॥

८६५ सर्वशक्तिमतामिष्टा - जो सर्वशक्तिमान ब्रह्मा, शिवादिकों की इष्टदेवता हैं ।

८६६ सर्वशक्तिमहेश्वरी - जो सम्पूर्ण शक्तियों की सब से मुख्य स्वामिनी है ।

८६७ सर्वशत्रुहरा - जो आश्रितों के बाहरी तथा भीतरी (काम, क्रोधादि) शत्रुवों को गुम कर देती है ।

८६८ सर्वशरणं - जो चराचर सम्पूर्ण प्राणियों की रक्षा करनेवाली है ।

८६९ सर्वशर्मदा - जो भक्तों को सब प्रकार का हितकर-सुख प्रदान करती है ॥ १६०॥

      सर्वश्रेयस्करी सर्वसहा सर्वसदर्चिता ।

      सर्वसद्भावनाधारा सर्वसद्भावपोषिणी ॥ १६१॥

८७० सर्वश्रेयस्करी - जो भक्तों का सब प्रकार का कल्याण करती है ।

८७१ सर्वसहा - जो प्राणियों के किये हुये सभी प्रकार के अपराधों को सहन करती है ।

८७२ सर्वसदर्चिता - सभी सन्त जिनका पूजन करते हैं ।

८७३ सर्वसद्भावनाधारा - जो सम्पूर्ण सद्भावनाओं की आधार अर्थात् हर प्रकार से धारण करने योग्य केन्द्र स्वरूपा है ।

८७४ सर्वसद्भावपोषिणी - जो प्राणियो के सभी सद्भाओं की पुष्टि करती है ॥ १६१॥

      सर्वसौख्यप्रदा सर्वसौभाग्यैकप्रदायिनी ।

      साकेतपरमस्थाना साकेतपरमोत्सवा ॥ १६२॥

८७५ सर्वसौख्यप्रदा - जो सभी चराचर प्राणियों को स्वाभाविक सुख प्रदान करनेवाली है ।

८७६ सर्वसौभाग्यैकप्रदायिनी - जो आश्रितों को सब प्रकार का हितकर सौभाग्य प्रदान करनेवाली महाशक्तियों में  उपमा रहित है ।

८७७ साकेतपरमस्थाना - श्रीसाकेतधाम जिनका सब से उत्कृष्ट स्थान है ।

८७८ साकेतपरमोत्सवा - जो श्रीसाकेतधाम निवासी भक्तों को महान उत्सव के सदृश आनन्द देनेवाली है ॥ १६२॥

      साकेताधिपतिप्रेष्ठा साकेतानन्दवर्षिणी ।

      साक्षान्छ्रीः साक्षिणी सर्वदेहिनां सर्वकर्मणाम् ॥ १६३॥

८७९ साकेताधिपतिप्रेष्ठा - जो साकेताधीश भगवन् श्रीरामजी की परम प्यारी है ।

८८० साकेतानन्दवर्षिणी - जो श्रीशाकेत धाममै आनन्द की वर्षा करती रहती है ।

८८१ साक्षान्छ्रीः - जो सच्चिदानदघन ब्रह्म की साक्षात् श्री (सुन्दरता, तेज और सम्पत्ति इत्यादि) हैं ।

८८२ सर्वदेहिनां सर्वकर्मणां साक्षिणी - जो समस्त प्राणियों के सभी कर्मों की साक्षिणी स्वरूपा है ॥ १६३॥

      साघप्राणिजनारुष्टा सातपत्रोत्तमासना ।

      साधनातीतसम्प्राप्तिः साध्या साध्वीजनप्रिया ॥ १६४॥

८८३ साघप्राणिजनारुष्टा - जो अपराधी जीवों पर भी कभी अहित कर क्रोध नहीं करती ।

८८४ सातपत्रोत्तमासना - जिनका उत्तम सिंहासन मनोहर छव से युक्त है ।

८८५ साधनातीतसम्प्राप्तिः - जिनकी प्राप्ति सब साधनों से परे है अर्थात् जो केवल कृपा साध्य है ।

८८६ साध्या - जो अनन्य आसक्ति से प्राप्त होने योग्य है ।

८८७ साध्वीजनप्रिया - जिन्हें सती स्त्रियाँ प्रिय हैं ॥ १६४॥

      सामगा सामगोद्गीता साफल्यैकप्रदायिनी ।

      सामर्थ्यजगदाधारमोहिनी साम्यदायिनी ॥ १६५॥

८८८ सामगा - जो सामवेद का गान करनेवाली है ।

८८९ सामगोद्गीता - सामवेद का गान करनेवाले जिनकी महिमा का विशेष रूप से गान करते हैं ।

८९० साफल्यैकप्रदायिनी - जीवन की सफलता दान करने में जो एक ही (सर्वोत्कृष्ट) है ।

८९१ सामर्थ्यजगदाधारमोहिनी - जो अपने पराक्रम के द्वारा समस्त जगत् के आधार भगवन् श्रीरामजी को भी मुग्ध कर लेती है ।

८९२ साम्यदायिनी - जो अपनी अद्भुत, अनुपम उदारता से आश्रितों को अपनी समता प्रदान करदेती है अर्थात् अपने समान ही पूज्य बना देती है ॥ १६५॥

      सारज्ञा सिद्धसङ्कल्पा सिद्धसेव्यपदाम्बुजा ।

      सिद्धार्था सिद्धिदा सिद्धिरूपिणी सिद्धिसाधनम् ॥ १६६ ।

८९३ सारज्ञा - जो समस्त विश्व के सारस्वरूप भगवन् श्रीरामजी की महिमा को भली भाँति से जानती है ।

८९४ सिद्धसङ्कल्पा - जिनका सङ्कल्प सिद्ध है अर्थात् इच्छा करते ही तत्क्षण सब कुछ उपस्थित हो जाता है ।

८९५ सिद्धसेव्यपदाम्बुजा - जिनके श्रीचरणकमल, भगवत्प्राप्ति रूपी सिद्धि को प्राप्त कर चु के सिद्धों के द्वारा, सेवन करने योग्य हैं ।

८९६ सिद्धार्था - जो पूर्ण काम हैं ।

८९७ सिद्धिदा - जो आश्रितों को भगवत्प्राप्ति रूपी सिद्धि प्रदान करती है ।

८९८ सिद्धिरूपिणी - जो भगवत् प्राप्ति का स्वरूप ही है ।

८९९ सिद्धिसाधनम् - जो भगवत्-प्राप्ति की साधन स्वरूपा है ॥ १६६॥

      सीता सीमन्तिनीश्रेष्ठा सीरध्वजनृपात्मजा ।

      सुकटाक्षा सुकीर्तीड्या सुकृतीनां महाफला ॥ १६७॥

९०० सीता - जो भक्तों के समस्त दुःख और पापों को नष्ट करके सुख शान्तिरूपी सम्पत्ति का विस्तार करती है ।

९०१ सीमन्तिनीश्रेष्ठा - जो सौभाग्यवती माताओं में सब से श्रेष्ठ हैं ।

९०२ सीरध्वजनृपात्मजा - जो श्रीगोरध्वज महाराज को राजदुलारी है ।

९०३ सुकटाक्षा - जिनकी चितवन परम मङ्गलमय तथा मनोहर है ।

९०४ सुकीर्तीड्या - जो अपनी सुन्दर (आदर्श) कीर्ति के द्वारा तीनों लोकोंमें प्रशंसा करने योग्य हैं ।

९०५ सुकृतीनां महाफला - जो समस्त जप, तप, यज्ञ, दानादि सत्कमों का सर्वोत्कृष्ट फल भगवत्प्राप्ति स्वरूपा है ॥ १६७॥

      सुकेशीसुखमूलैका सुखसन्दोहदर्शना ।

      सुगमा सुघनज्ञाना सुचार्वी सुजवोत्तमा ॥ १६८॥

९०६ सुकेशी - जिनके अत्यन्त कोमल सघन, सूक्ष्म, घुँघुराले, काले केश है ।

९०७ सुखमूलैका - जो सम्पूर्ण सुखों की सर्वोत्तम कारणस्वरूपा है ।

९०८ सुखसन्दोहदर्शना - जिनके दर्शनों से ही समस्त सुख प्राप्त होते हैं ।

९०९ सुगमा - जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धादि विषयों से रहित अपने अनन्य उपासकों के लिये ही सुलभ हैं ।

९१० सुघनज्ञाना - जिनका घन (नित्य त्रिकालस्थायी) ज्ञान, सब से सुन्दर है ।

९११ सुचार्वी - जो अत्यन्त सुन्दरी है ।

९१२ सुजवोत्तमा - आश्रितों की रक्षा आदि के लिये जिनका वेग सब से बढ़्कर है ॥ १६८॥

      सुज्ञा सुतन्वी सुदती, सुदाननिरताश्रया ।

      सुधावाणी सुधीरात्मा सुधीश्रेष्ठा सुधेक्षणा ॥ १६९॥

९१३ सुज्ञा - जिनका ज्ञान सब से सुन्दर है ।

९१४ सुतन्वी - जो आकाशादि महा तत्त्वों से भी अत्यन्त सूक्ष्म है ।

९१५ सुदती - जिनकी दन्तपङ्क्ति अनार के दानों के समान सुन्दर है ।

९१६ सुदाननिरताश्रया - जो वास्तविक हितकर दान (भगवच्चरणानुरागिणी बुद्धि को प्रदान) करनेवालो की आधार सरूपा ।

९१७ सुधावाणी - जिनकी बोली अमृत के समान मृतक जियापनी अर्थात् सम्पूर्ण दुःखों को हरण कर लेनेवाली है ।

९१८ सुधीरात्मा - जिनकी बुद्धि अतिशय धैर्यवती है ।

९१९ सुधीश्रेष्ठा - जो उत्तम बुद्धिमानों में सब से श्रेष्ठ है ।

९२० सुधेक्षणा - जिनकी चितवन अमृत के समान समस्त दुःखों को हरण कर लेती है ॥ १६९॥

      सुनयनाक्रोडरत्नं सुनयनाप्रपोषिता ।

      सुनयनामहाराज्ञीहृदयानन्दवर्द्धिनी ॥ १७०॥

९२१ सुनयनाक्रोडरत्नं - जो श्रीसुनयनाअम्बाजी की गोद को रत्न के समान सुशोभित करनेवाली है ।

९२२ सुनयनाप्रपोषिता - महारानी श्रीसुनयना अम्बाजीने जिनका पालन पोषण किया है ।

९२३ सुनयनामहाराज्ञीहृदयानन्दवर्द्धिनी - जो अपनी शिशु लीला के द्वारा श्रीसुनयना महारानी के हृदय का आनन्द बढ़ानेवाली है ॥ १७०॥

      सुनासा सुनिदिध्यास्या सुनीतिः सुप्रतिष्ठिता ।

      सुप्रसादा सुभगायाः करपल्लवचर्चिता ॥ १७१॥

९२४ सुनासा - जिनकी नासि का तोते की नाक के समान सुन्दर है ।

९२५ सुनिदिध्यास्या - जिनका भली भाँति एकाग्रतापूर्वक वारंवार ध्यान करना चाहिये ।

९२६ सुनीतिः - जिनकी नीति सब से सुन्दर है ।

९२७ सुप्रतिष्ठिता - जो अपनी महिमामें हर प्रकार से स्थित हैं ।

९२८ सुप्रसादा - जिनकी प्रसन्नता सब से बढ़्कर सुखद एवं मङ्गलकारिणी है ।

९२९ सुभगायाः करपल्लवचर्चिता - यूथेश्वरी श्रीसुभगाजी अपने कर कमलो के द्वारा जिनके मस्तक आदिमें चन्दन की खौर इत्यादि करती है ॥ १७१॥

      सुभगा सुभुजा सुभ्रूः सुमुखी सुरपूजिता ।

      सुराध्यक्षा सुरानम्या सुराधीशजरक्षिका ॥ १७२॥

९३० सुभगा - जिनके समान कोई सौभाग्यवती नहीं ।

९३१ सुभुजा - जिनकी भुजायें ऊपर से नीचे की ओर हाथों की सूढ के समान पतली, चिकनी तथा गोल है ।

९३२ सुभ्रूः - कामधनुष के समान जिनकी मनोहर भैहि है ।

९३३ सुमुखी - जिनका परम मनोहर तथा मङ्गलमय श्रीमुखारविन्द है ।

९३४ सुरपूजिता - समस्त देवता जिनका पूजन करते हैं ।

९३५ सुराध्यक्षा - जो सभी देवताओ की देख रेख करनेवाली है ।

९३६ सुरानम्या - जो सभी देवताओं के द्वारा प्रणाम करने योग्य है ।

९३७ सुराधीशजरक्षि का - जो अपने साथ महान अपराध करनेवाले, वध योग्य, देवराज इन्द्र के पुत्र जयन्त की भगवान श्रीरामजी के अग्नि बाण से रक्षा करनेवाली है ॥ १७२॥

      सुरेश्वरी च सुलभा सुवर्णाभाङ्गशोभना ।

      सुवेद्यैका सुशरणं सुश्रीः सुश्लोकसत्तामा ॥ १७३॥

९३८ सुरेश्वरी च - जो समस्त देवताओं की स्वामिनी है ।

९३९ सुलभा - जो विशुद्ध हृदय और अनन्यभाववाले भक्तों को सुलभता से प्राप्त हो जाती है ।

९४० सुवर्णाभाङ्गशोभना - जिनके सुवर्ण के समान गौर वर्णमय अङ्ग परम सुहावन हैं ।

९४१ सुवेद्यैका - प्राणियों को अपने कल्याण के लिये भली भाँति जिनका जानना परमावश्यक है ।

९४२ सुशरणं - जो समस्त विश्व की भली भाँति से सुरक्षा करनेवाली है ।

९४३ सुश्रीः - जिनकी सम्पत्ति, सुन्दरता तथा कान्ति सब सुन्दर तथा असीम है ।

९४४ सुश्लोकसत्तामा - जो सब से बढकर सुन्दर और पवित्र यशवाली है ॥ १७३॥

      सृष्टदीनहितोपाया सृष्टिजन्मादिकारिणी ।

      सेव्या सैरध्वजीज्येष्ठा सोमवत्प्रियदर्शना ॥ १७४॥

९४५ सृष्टदीनहितोपाया - जोअभिमान रहित प्राणियों के हित का उपाय रच लेती है ।

९४६ सृष्टिजन्मादिकारिणी - सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करनेवाली है ।

९४७ सेव्या - भगवत् प्राप्ति के लिये जिनकी आराधना करना आवश्यक है ।

९४८ सैरध्वजीज्येष्ठा - जो श्रीसीरध्वज महाराज की यज्ञभूमि से प्रकट हुई बड़ी पुत्री है ।

९४९ सोमवत्प्रियदर्शना - जिनका दर्शन शरद् ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान परम प्रिय है ॥ १७४॥

      सौभाग्यजननी सौम्या स्थानं सर्वासुधारिणाम् ।

      स्थिरा स्थूलदया चैव स्थूलसूक्ष्मविलक्षणा ॥ १७५॥

९५० सौभाग्यजननी - जो सभी प्रकार के सौभाग्य का उदय करनेवाली है ।

९५१ सौम्या - जो परम शान्त तथा मनोहर दर्शनवाली है ।

९५२ स्थानं सर्वासुधारिणां - जिनमें चराचर सम्पूर्ण प्राणी निवासकरते हैं ।

९५३ स्थिरा - जो सदा से है और सदा रहेंगी (कभी स्व स्वरूप से प्रचलित नहीं होनेवाली) ।

९५४ स्थूलदया चैव - जिनकी दया मोटी तगड़ी है ! (कमजोर नही !)

९५५ स्थूलसूक्ष्मविलक्षणा - जो स्थूल, सुक्ष्म से परं कारण स्वरूपा है ॥ १७५॥

      स्रष्टृपात्रन्तकर्तॄणामीश्वरी स्वगतिप्रदा ।

      स्वङ्घ्रिका स्वच्छहृदया स्वच्छन्दा स्वजनप्रिया ॥ १७६॥

९५६ स्रष्टृपात्रन्तकर्तॄणामीश्वरी - जो उत्पति पालन और संहार करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु महेशों को भी तत्तत् कार्यों में नियुक्त करनेवाली है ।

९५७ स्वगतिप्रदा - जो आश्रितों को अपना निवासस्थान साक्षात् श्रीसाकेतधाम प्रदान करनेवाली है ।

९५८ स्वङ्घ्रि का - जिनके श्रीचरणकमल बड़े ही सुन्दर मङ्गलमय हैं ।

९५९ स्वच्छहृदया - जिनका हृदय अत्यन्त पवित्र (निर्विकार) भगवान श्रीरामजी का निवास स्थान है ।

९६० स्वच्छन्दा - जो केवल एक भगवन् श्रीरामजी के अधीन रहती है ।

९६१ स्वजनप्रिया - जिनको अपने भक्त विशेष प्रिय है ॥ १७६॥

      स्वजनानन्दनिवहा स्वतर्क्या स्वधरस्मिता ।

      स्वधर्माचरणाख्याता स्वधर्मावनपण्डिता ॥ १७७॥

९६२ स्वजनानन्दनिवहा - जो अपने आश्रितों के आनन्द की पुञ्ज है ।

९६३ स्वतर्क्या - जिनके विषयमें किसी प्रकार का भी तर्क (अनुमान) नहीं किया जा सकता ।

९६४ स्वधरस्मिता - जिनके अधरों (होठों) की मन्द मुस्कान बड़ी ही मनोहर तथा मङ्गलकारीहै ।

९६५ स्वधर्माचरणाख्याता - जो अपने धर्म मय आचरणों के द्वारा त्रिलो की में विख्यात हैं ।

९६६ स्वधर्मावनपण्डिता - जो अपने भागवत धर्म की रक्षा करने बड़ी ही चतुर हैं ॥ १७७॥

      स्वधास्वरूपा स्वधृता स्वभावाघहरस्मिता ।

      स्वभावापास्तनार्शस्या स्वभावावर्ण्यमार्दवा ॥ १७८॥

९६७ स्वधास्वरूपा - जो स्वधा स्वरूपा है ।

९६८ स्वधृता - जिन्हें भगवन् श्रीरामजी कौस्तुभमणि के रूप में अपने वक्षस्स्थलपर धारण करते हैं ।

९६९ स्वभावाघहरस्मिता - जिनकी मन्द मुस्कान स्वाभाविक समस्त पाप व ताखो को हरण करनेवाली है ।

९७० स्वभावापास्तनार्शस्या - जो स्वाभाविक कठोरता से रहित (परम दयामयी) हैं ।

९७१ स्वभावावर्ण्यमार्दवा - जिनके अङ्ग की स्वभाविक कोमलता वर्णन से परे है अथवा जिनके सहज कोमल स्वभाव का वर्णन वाणी से नहीं हो सकता ॥ १७८॥

      स्वभावावाच्यवात्सल्या स्ववशा स्वस्तिदक्षिणा ।

      स्वस्तिदा स्वस्तिरूपा च स्वामिनीसर्वदेहिनाम् ॥ १७९॥

९७२ स्वभावावाच्यवात्सल्या - जिनका स्वभाविक वात्सल्य कथन शक्ति से परे है ।

९७३ स्ववशा - जो भगवन् श्रीरामजी के ही एक वश में रहती है ।

९७४ स्वस्तिदक्षिणा - जिन्हें यज्ञ में अर्पण की हुई दक्षिणा मङ्गलमय होती है ।

९७५ स्वस्तिदा - जो आश्रितों की मङ्गल प्रदान करती है ।

९७६ स्वस्तिरूपा च - जो सम्पूर्ण मङ्गल स्वरूपा है ।

९७७ स्वामिनीसर्वदेहिनाम् - जो सम्पूर्ण प्राणियों की स्वामिनी (शासन करनेवाली) है ॥ १७९॥

      स्वास्या स्वाश्रितसर्वेष्टदायिनी स्विष्टदेवता ।

      स्वेच्छाचारेणरहिता हरिणोत्फुल्ललोचना ॥ १८०॥

९७८ स्वास्या - जिनका मुखारविन्द परम मनोहर तथा मङ्गलकारी है ।

९७९ स्वाश्रितसर्वेष्टदायिनी - जो अपने आश्रितों की सभी हितकर इच्छाओं को पूर्ण करती है ।

९८० स्विष्टदेवता - जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सब से श्रेष्ठ इष्ट देवता है ।

९८१ स्वेच्छाचारेणरहिता - जिनके सभी आचरण शास्त्र मर्यादानुकूल हैं, अवमानी नहीं ।

९८२ हरिणोत्फुल्ललोचना - हरिण के नेत्रो के समान खिले हुये जिनके नेत्र कमल हैं ॥ १८०॥

      हारसम्भूषिता हास्यस्पर्द्धिचन्द्रकरव्रजा ।

      हितैका सर्वजगतां हृदयानन्दवर्द्धिनी ॥ १८१॥

९८३ हारसम्भूषिता - जो विविध प्रकार के हारो का श‍ृङ्गार धारण किये हुई है ।

९८४ हास्यस्पर्द्धिचन्द्रकरव्रजा - जो अपनी मन्द मुस्कान से चन्द्रमा के किरण समूहों को लज्जित कर रही है ।

९८५ हितैका सर्वजगतां - जो सम्पूर्ण जगत् (चराचर) प्राणियों का सब से अधिक हित करनेवाली है ।

९८६ हृदयानन्दवर्द्धिनी - जो अपने अनुपं गुण, स्वभाव कीर्ति से समस्त प्राणियों के ह्र्दय में आनन्द को बढाती रहती है ॥ १८१॥

      हृदयेशी च हृद्यैका हेमागारनिवासिनी ।

      हेमासेव्यपदाम्भोजा हेयपादाब्जविस्मृतिः ॥ १८२॥

९८७ हृदयेशी - जो मन बुद्धि चित्त्, अहङ्काररूपी समस्त इन्द्रियों पर शासन करती है ।

९८८ हृद्यैका - जो सब से बढकर मनोहर है ।

९८९ हेमागारनिवासिनी - जो दिव्य (अपाञ्चभौतिक) श्रीसाकेतधाम के श्रीकनकमयनिय में निवासकरती है ।

९९० हेमासेव्यपदाम्भोजा - जिनके श्रीचरणकमल यूथेश्वरी श्रीहेमाजी के द्वारा विशेष सेवित होने योग्य हैं ।

९९१ हेयपादाब्जविस्मृतिः - संसारमै सब से अधिक त्याग करने योग्य जिनके श्रीचरणकमलों का विस्मरण (भूलजाना) ही है ॥ १८२॥

      ह्लादिनी ह्रीमतां श्रेष्ठा क्षमाध्वस्तधरास्मया ।

      क्षमास्वरूपा क्षमिणां क्षमेशी क्षान्तिविग्रहा ॥ १८३॥

९९२ ह्लादिनी - जो सभी प्राणियों के हृदय में आह्लादरूप से विराजती है ।

९९३ ह्रीमतां श्रेष्ठा - जो शास्त्रमर्यादा विरुद्ध कर्माङ् को करने में सब से अधिक लज्जा रखती है ।

९९४ क्षमाध्वस्तधरास्मया - जो अपने क्षमागुण से पृथिवी देवी के अभिमान को दूर करती है ।

९९५ क्षमास्वरूपा क्षमिणां - जो क्षमा शीलों में क्षमा (सहनशीलता) रूपमें विराजती है ।

९९६ क्षमेशी - जिनके शासनानुसार क्षमा सर्वत्र प्रकट होती है ।

९९७ क्षान्तिविग्रहा - जो क्षमा की साक्षात् मूर्ति है ॥ १८३॥

      क्षितीशतनया क्षेमदायिनी क्षेमयाऽर्चिता ।

      सुता तवैषा कल्याणी सर्वोपास्येति  में मतम् ॥ १८४॥

९९८ क्षितीशतनया - जो पृथ्वीपति श्रीमिथिलेशजी महाराज की राजदुलारी है ।

९९९ क्षेमदायिनी - जो भक्तों के लिये सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करती है ।

१००० क्षेमयाऽर्चिता - जो यूथेश्वरी श्रीक्षेमा सखी के द्वारा पूजित हैं । हे राजन् ! आप की (येही) कल्याणस्वरूपा श्रीललीजी सभी (देहधारियों) के लिये उपासना करने योग्य हैं ॥ १८४॥

      इयं हि राजन् ! मृगपोतलोचना वागीश्वरीशैलसुतारमादिभिः ।

      निषेव्यमाणाड्घ्रिसरोरुहद्वया विराजते पूर्णसुधाकरानना ॥ १८५॥

हे राजन् । आप की मृग शिशु के समान सुन्दर नेत्रवाली चन्द्रमुखी से श्रीललीजी के चरण कमल श्रीसरस्वतीजी, श्रीपार्वतीजी, श्रीलक्ष्मीजी आदि महाशक्तियो के द्वारा पूजित है, अतः सर्वोत्कर्ष को प्राप्त है ॥ १८५॥

      महामुनीनां यतिपुङ्गवानां योगेश्वराणां सुरसत्तमानाम् ।

      सिद्धीश्वराणां विगतैषणानां भोगार्थिनां मोक्षपदेच्छुकानाम् ॥ १८६॥

      हानीतरोत्सुक्यसमन्वितानां स्वजन्मनो भूमिपतेऽखिलानाम् ।

      सम्भावनीया समुपासनीया ज्ञेयाऽनुगेया तनया तवेयम् ॥ १८७॥

हे राजन् ! कहाँ तक कहें ? जितने भी सकाम, निष्काम, मोक्षाभिलाषी महामुनि, यतिशिरोमणि, योगी राज, देवश्रेष्ठ, सिद्धप्रवर, अपने मानवजीवन की सफलता चाहनेवाले हैं, उन सभी के लिये सब प्रकार से भावना करने योग्य, उपासना करने योग्य, तथा ज्ञान प्राप्त करने योग्य और वारम्वार गान करने योग्य आप की ये ही श्रीललीजी है ॥ १८६, १८७॥

      अनन्तनामानि तवात्मजायाः सन्ति क्षितीशप्रवराद्य तेषाम् ।

      मया सहस्रेण मुदा प्रगीता तनोतु शं सेयमयोनिजा नः ॥ १८८॥

हे भूमिनाथों में परमश्रेष्ठ श्रीमिथिलेशजी महाराज ! आप की श्रीललीजी के असंख्य नाम हैं उनमें से केवल इस समय मैने जिनका सहस्रनाम से वर्णन किया है, वे अयोनिसम्भवा अर्थात् अपनी इच्छा से प्रकट हुई आप की ये श्रीललीजी हम सबों का कल्याण करे ॥ १८८॥

      भक्त्याऽनुरक्त्या पठतामजस्र ध्यानान्वितानां तनया धरण्या ।

      दृग्गोचरी वञ्छितसिद्धिदात्री भूयाद्द्रुतं नाम सहस्रमेतत् ॥ १८९॥

इस सहस्र नाम को ध्यान पूर्व के अनुराग के साथ नित्य पाठ करनेवालों को, अभीष्ट सिद्धि प्रदान करनेवाली ये श्रीललीजी शीघ्र ही प्रत्यक्ष दर्शन प्रदान करे ॥ १८९॥

      श्रीशिव उवाच ।

      नृणां चतुर्वर्गविलोलचेतसां पाट्यं सङ्कल्पमिदं शुभावहम् ।

      गिरीन्द्रकन्ये ! मधुराक्षरान्विते श्रीजानकीनामसहस्रमन्वहम् ॥ १९०॥     

भगवन् शिवजी बोले - हे पार्वती । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के लिये जिनका चित्त अचल हो रहा है उन्हें, मधुर भावों से युक्त, मङ्गलता से इस श्रीजानकी सहस्रनाम का पाठ सङ्कल्पपूर्वक प्रतिदिन करना चाहिये ॥ १९०॥

इति श्रीजानकी सहस्रनामस्तोत्रम् नाम सप्ताशीतितमोऽध्याया ॥८७॥

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