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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
जानकी अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र
श्रीकिशोरीजी के इस जानकी
अष्टोत्तरशतनामस्तोत्र का नित्य प्रति श्रद्धापूर्वक पाठ करने से सभी कामना की सिद्धि
होती है ।
श्रीजानकी अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
Janaki Ashtottar shat naam stotra
श्रीजानकीचरितामृते अथाष्टाशीतितमोऽध्यायःश्रीजानकी अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
श्रीजानकीचरितामृत अध्याय ८८
श्रीजनक उवाच -
अष्टोत्तरशतं नाम्नामपीदानीं तदुच्यताम्
।
भवद्भिः सानुकम्पं मे सर्वज्ञाः
श्रुतिमङ्गलम् ॥ १॥
श्रीजनकजी-महाराज बोले - हे सर्वज्ञ
महर्षियों ! अब आप लोग श्रवणमात्र से मङ्गल करनेवाले श्रीललीजी के अष्टोत्तरशतनामों
को भी मुझे बतलाने की कृपा करें ॥ १॥
श्रीहरिरुवाच ।
साधुं पृष्टं त्वया राजन्
श्रव्यमेकाग्रचेतसा ।
अष्टोत्तरशतं वक्ष्ये नाम्नां परमपावनम्
॥ २॥
श्रीहरिनाम के योगेश्वर बोले -हे
राजन् ! आपका प्रश्न बहुत अच्छा है अत एव मैं श्रीललीजी के परमपावन
अष्टोत्तरशतनामों का वर्णन करता हूँ आप उसका एकाग्रचित्त से श्रवण कीजिये ॥ २॥
अथ श्रीजानकी
अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
सीरध्वजसुता सीता स्वाश्रिताभीष्टदायिनी
।
सहजानन्दिनी स्तव्या सर्वभूताशयस्थिता ॥
३॥
१ सीरध्वजसुता - श्रीसीरध्वजमहाराज
के सुख का विस्तार करनेवाली ।
२ सीता - अपने आश्रित चेतनों के
समस्त दुःख शोकों की मूल आसुरी सम्पत्ति का विनाश करके दया,
क्षमा, वात्सल्य, सौशील्य
आदि दैवी सम्पत्ति के विस्तार द्वारा अनायास संसार-सागर से पार उतारनेवाली ।
३ स्वाश्रिताभीष्टदायिनी - अपने आश्रितों की हितकर इच्छाओं को पूर्ण
करनेवाली ।
४ सहजानन्दिनी - अपने शीलस्वभाव और
गुणरूप आदि से सभी, जड़ चेतनों को
स्वाभाविक आनन्द प्रदान करनेवाली।
५ स्तव्या – सभी के द्वारा सब
प्रकार से स्तुति करने योग्या ।
६ सर्वभूताशयस्थिता - सम्पूर्ण
प्राणियों के हृदयों में निवास करनेवाली ॥ ३॥
ह्लादिनी क्षेमदा क्षान्तिः
षडर्द्धाक्षहृदिस्थिता ।
श्रीनिधिः श्रीसमाराध्या श्रियः श्रीः
श्रीमदर्चिता ॥ ४॥
७ ह्लादिनी - सम्पूर्ण चेतना के
हृदय में आह्लाद प्रदान करनेवाली ।
८ क्षेमदा - कल्याण प्रदान करनेवाली ।
९ क्षान्ति - सहनशीलता-स्वरूपा ।
१० षडर्द्धाक्षहृदिस्थिता - त्रिनेत्रधारी (भगवान् शिवजी) के हृदय में
निवास करनेवाली ।
११ श्रीनिधिः - सम्पूर्ण शोभा
कान्ति तथा धन की भण्डार-स्वरूपा ।
१२ श्रीसमाराध्या – श्रीलक्ष्मीजी के
द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवित होने योग्य ।
१३ श्रियः श्रीः – कान्ति की कान्ति
और शोभा की शोभा-स्वरूपा ।
१४ श्रीमदच्चिता - तेज और
सम्पत्तिशाली ब्रह्मादि देव वृन्दों से पूजित ॥
शरण्या वेदनिःश्वासा वैदेही विबुधेश्वरी
।
लोकोत्तराम्बा लोकादी रघुनन्दनवल्लभा ॥
५॥
१५ शरण्या - सभी प्राणियों की सब
प्रकार से रक्षा करने में पूर्ण समर्थ ।
१६ वेदनिःश्वासा - वेदमय श्वासवाली ।
१७ वैदेही –श्रीविदेहकुल की
सर्वोत्कृष्ट राजदुलारी ।
१८ विबुधेश्वरी - ब्रह्मा, विष्णु,
महेश, अग्नि, सूर्य,
पवन, यम, कुबेर, इन्द्रादि सभी देवताओं पर शासन करनेवाली ।
१९ लोकोत्तराम्बा - सम्पूर्ण प्राणियों की अपाञ्चभौतिक (दिव्य) माता ।
२० लोकादिः - समस्त लोकों की कारण-स्वरूपा ।
२१ रघुनन्दनवल्ल्भा – रघुकुल को
वात्सल्य जनित आनन्द प्रदान करनेवाले भगवान् श्रीरामजी की परम प्यारी ॥ ५॥
रम्यरम्यनिधी रामा योगेश्वरप्रियात्मजा ।
यज्ञस्वरूपा यज्ञेशी योगिनां परमा गतिः ॥
६॥
२२ रम्यरम्यनिधिः - सभी सुन्दरों
में सुन्दर (भगवान् श्रीरामचन्द्र सरकार) की निधि-स्वरूपा (भण्डार-स्वरूपा)।
२३ रामा - आकाश तत्त्व सहस्र गुणा
अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण सम्पूर्ण प्राणियों को अपनी गोद में खेलानेवाली और
स्वयं विविध प्रकार के स्थूल सूक्ष्मादि रूपों के द्वारा सबके साथ खेलनेवाली भगवान
श्रीरामजी की प्राणवल्लभा ।
२४ योगीश्वरप्रियात्मजा - योगियों पर शासन करनेवाले श्रीमिथिलेशजी महाराज
की प्यारी पुत्री ।
२५ यज्ञस्वरूपा - यज्ञ स्वरूपवाली ।
२६ यज्ञेशी - समस्त यज्ञों की रक्षा करनेवाली ।
२७ योगिनां परमा गतिः - भगवत्-प्राप्ति के साधकों का सब प्रकार से
सम्हाल करनेवाली ॥ ६॥
मृदुस्वभावा मृदुला मैथिली मधुराकृतिः ।
मनोरूपा महेज्येज्या महासौभाग्यदायिनी ॥
७॥
२८ मृदुस्वभावा - अत्यन्त कोमल स्वभाववाली ।
२९ मृदुला - कोमल स्वभाव तथा अति
कोमल अङ्गोवाली ।
३० मैथिली - मिथिवंश में सबसे अधिक प्रख्यात
श्रीमिथिलेशराज-दुलारीजी ।
३१ मधुराकृतिः - अत्यन्त मनोहर तथा
सर्वानन्दप्रदायक सुन्दर स्वरूपवाली ।
३२ मनोरूपा - मन के स्वरूपवाली ।
३३ महेज्येज्या - महान पूजनीय श्रीब्रह्मा,
विष्णु, महेशादि देव तथा उमा, रमा ब्रह्माणी आदि महाशक्तियों के द्वारा भी पूजने योग्य ।
३४ महासौभाग्यदायिनी – भक्तों को
सर्वोत्तम सौभाग्य प्रदान करनेवाली ॥ ७॥
भूमिजा बुधमृग्याङ्घ्रिकमला बोधवारिधिः ।
फलस्वरूपा तपसां फणीन्द्रवर्ण्यवैभवा ॥
८॥
३५ भूमिजा - पृथ्वी से प्रकट होनेवाली श्री
मिथिलेशराज-दुलारी जी ।
३६ बुधमृग्याङ्घ्रिकमला - ज्ञानियों
के खोजने योग्य जिनके एक श्रीचरण-कमल ही है ।
३७ बोधवारिधिः - समुद्र के समान अथाह ज्ञानवाली ।
३८ फलस्वरूपा तपसाम् - सम्पूर्ण
तपों के फल (भगवत्प्राप्ति) स्वरूपवाली ।
३९ फणीन्द्रवर्ण्यवैभवा -
सहस्रमुखवाले (दो हजार जिह्वा) श्रीशेषजी द्वारा भी जिनका ऐश्वर्य वर्णन करने
असम्भव है ॥ ८॥
नमस्या प्रियदृष्टिश्च धरारत्नं धरासुता
।
दिव्यात्मा दीप्तमहिमा तत्त्वात्मा
जनकात्मजा ॥ ९॥
४० नमस्या - समस्त प्राणियों के
लिये एकमात्र नमस्कार भाजन ।
४१ प्रियदृष्टिः - प्रियदर्शनवाली
४२ धरारत्नम् - पृथ्वी की सर्वोत्कृष्ट रत्न-स्वरूपा ।
४३ धरासुता - पृथिवी के सुखसमूह का विस्तार करनेवाली ।
४४ दिव्यात्मा - अलौकिक बुद्धिवाली
।
४५ दीप्तमहिमा - विख्यात प्रभाववाली
।
४६ तत्त्वात्मा - तत्त्व (ब्रह्म) स्वरूपवाली ।
४७ जनकात्मजा - श्रीजनक वंश में
सर्वोत्तम महिमावाली, श्रीसिरध्वजराजकुमारीजी
॥ ९॥
जगदीशपरप्रेष्ठा ज्ञानिनां परमायनम् ।
जगन्मङ्गलमाङ्गल्या जरामृत्युभयातिगा ॥
१०॥
४८ जगदीशपरप्रेष्टा - सचराचर
प्राणियों पर शासन करनेवाले ब्रह्मा,
विष्णु, महेश, इन्द्र, यम आदि से उत्कृष्ट दिव्यधामाधिप भगवान् श्रीरामजी की परम प्यारी ।
४९ ज्ञानिनां परमायनम् - ज्ञानियों
के चित्त वृत्ति के लिये सर्वोत्तम स्थान-स्वरूपा ।
५० जगन्मङ्गलमाङ्गल्या - चर-अचर प्राणियों के मङ्गल का भी मङ्गल-स्वरूपा
।
५१ जरामृत्युभयातिगा - बुढ़ापा और मृत्यु के भय से पार करनेवाली ॥ १०॥
चन्द्रकलामुखासाद्या
चिदानन्दस्वरूपिणी ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहा
चन्द्रबिम्बोपमानना ॥ ११॥
५२ चन्द्रकलामुखासाद्या - रूपेश्वरी
श्रीचन्द्रकलाओं के द्वारा सुखपूर्वक प्राप्त होने के योग्य ।
५३ चिदानन्दस्वरूपिणी- जिसका सब कुछ चेतन एवं आनन्दमय है,
उस ब्रह्म की साकार स्वरूपवाली ।
५४ चतुरात्मा - मन,
बुदि, चित्त और अहंकार - इन चार स्वरूपोवाली ।
५५ चतुर्व्यूहा - श्रीभरत,
लक्ष्मण, शतृघ्न इन तीनों भाइयों के समेत चार
शरीरवाले श्रीराम-चन्द्र सरकार की पटरानीजी।
५६ चन्द्रबिम्बोपमानना - शरद ऋतु के पूर्णचन्द्र के बिम्ब के समान
उज्ज्वल प्रकाशमय, परम आह्लादकारी
श्रीमुख-छटावाली ॥ ११॥
घनश्यामात्मनिलया गोप्त्री गुप्ता
गुहेशया ।
गेयोदारयशःपङ्क्तिर्गतैश्वर्यकृतस्मया ॥
१२॥
५७ घनश्यामात्मनिलया - सजल मेघों के
सदृश श्यामवर्ण श्रीराघवेन्द्र सरकार के हृदय में निवास करनेवाली ।
५८ गोप्त्री - समस्त चर-अचर प्राणियों की रक्षा करनेवाली ।
५९ गुप्ता - भक्तों के हृदय रूपी कुञ्ज में छिपी हुई ।
६० गुहेशया - प्राणियों के हृदय रूपी गुफा में परमात्मस्वरूप
से शयन करनेवाली ।
६१ गेयोदारयशः पंक्तिः - गान करने योग्य यश-समूहवाली ।
६२ गतैश्चर्यकृतस्मया - अपने अनुपम ऐश्वर्य के अभिमान से अछूती ॥ १२॥
गमनीयपदासक्तिः खलभावनिवारिणी ।
कृपापीयूषजलधिः कृतज्ञा कृतिसाधनम् ॥ १३॥
६३ गमनीयपदासक्तिः - आसक्ति प्राप्त
करने योग्य श्रीचरण कमलवाली ।
६४ खलभावनिवारिणी - अहित कर भावना को भगा देनेवाली ।
६५ कृपापीयूषजलधिः – समुद्र के समान
अथाह कृपा रूपी अमृतवाली ।
६६ कृतज्ञा – जीवों के कभी के भी
किये हुये किञ्चित भी पूजन, वन्दन स्मरण तथा
अर्पण आदि कर्म को, कभी भी न भूलनेवाली ।
६७ कृतिसाधनम् - भगवत् प्राप्ति के
पुरुषार्थ की साधनस्वरूपा ॥ १३॥
कल्याणप्रकृतिः काम्या कल्याणी
कामवर्षिणी ।
कारुण्यार्द्रविशालाक्षी कम्बुकण्ठी
कलानिधिः ॥ १४॥
६८ कल्याणप्रकृतिः - मङ्गलकारी
स्वभाववाली ।
६९ काम्या - पूर्ण कामों के लिये भी,
प्राप्ति की इच्छा करने योग्य ।
७० कल्याणी - कल्याण-स्वरूपा ।
७१ कामवर्षिणी – भक्तों की हितकर
इच्छाओं की वर्षा करनेवाली ।
७२ कारुण्यार्द्रविशालाक्षी -
दया-भाव से द्रवित कमल के समान विशाल नेत्रोंवाली ।
७३ कम्बुकण्ठी – शंख के समान रेखाओं
से युक्त मनोहर कण्ठवाली ।
७४ कलानिधिः - समस्त विद्याओं की
भण्डार-स्वरूपा ॥ १४॥
केलिप्रिया कलाधारा कल्मषौघनिवारिणी ।
ॐ शब्दवाच्या
ह्योजोऽब्धिरुदितश्रीरुदारधीः ॥ १५॥
७५ केलिप्रिया - भक्त-सुखद लीलाओं में
प्रेम रखनेवाली ।
७६ कलाधारा - समस्त विद्याओं की
आधार-स्वरूपा ।
७७ कल्मषौघनिवारिणी - स्मरण
करनेवालों के पापसमूहों को भगा देनेवाली ।
७८ ॐ शब्दवाच्या - ॐ शब्द से वर्णन
करने योग्य ।
७९ ओजोऽब्धिः – समुद्र के समान अथाह
बल पराक्रमवाली ।
८० उदितश्रीः - जो वेदशास्त्रों के
द्वारा गाई हुई है एवं कण-कण पत्ती पत्ती से जिनकी स्वयं शोभा कान्ति तथा ऐश्वर्य
प्रकट है ।
८१ उदारधीः - जिनकी बुद्धि,
किसी भी असम्भव को सम्भव करने में कभी संकोच को प्राप्त नहीं होती ॥
१५॥
उदारकीर्त्तिरुदिता
ह्युदारातुल्यदर्शना ।
इष्टप्रदेभगमना आदिजाऽऽह्लादिनी परा ॥
१६॥
८२ उदारकीर्त्तिः - सर्वाभीष्टदायक
यशवाली ।
८३ उदिता - सभी वेद शास्त्र,
पुराण संहिताओं के द्वारा जिनका वर्णन किया गया है ।
८४ उदारातुल्यदर्शना - धर्म,
अर्थ, काम, मोक्षदायक
अनुपम मनोहर दर्शनवाली ।
८५ इष्टप्रदा – भक्तों को
मनोवाञ्छित सिद्धि प्रदान करनेवाली ।
८६ इभगमना – गजराज के समान मनोहर
चाल से चलनेवाली ।
८७ आदिजा - सबसे पहिले प्रकट
होनेवाली ।
८८ आह्लादिनी परा - आह्लाद
प्रदायिका सभी शक्तियों में सर्वोत्तम ॥ १६॥
आश्रितवत्सलाऽऽराध्या
ह्यनिर्देश्यस्वरूपिणी ।
अद्वितीयसुखाम्भोधिरव्याजकरुणापरा ॥ १७॥
८९ आश्रितवत्सला - अपने आश्रितों के
अपराधों पर ध्यान न देकर उनके हित में सदैव तत्पर रहनेवाली ।
९० आराध्या - सब प्रकार से,
सभी के उपासना करने योग्य ।
९१ अनिर्देश्यस्वरूपिणी - इदमित्थ
(ऐसा ही है यह) निश्चय न कर सकने योग्य स्वरूपवाली ।
९२ अद्वितीयसुखाम्भोधिः - समुद्र के
समान अनुपम, असीम अथाह सुखवाली।
९३ अव्याजकरुणापरा - प्रत्येक
प्राणी के प्रति विना किसी स्वार्थ भावना के ही कृपा करने में तत्पर रहनेवाली ॥
१७॥
अनवद्याऽप्रमत्तात्मा
अनन्तैश्वर्यमण्डिता ।
अमानाऽयोनिजाऽकोपा अविचिन्त्याऽनघस्मृतिः
॥ १८॥
९४ अनवद्या - सब प्रकार प्रशंसा
योग्य ।
९५ अप्रमत्ता – भक्तों की सुरक्षा में
सदा पूर्ण सावधान रहनेवाली ।
९६ अनन्तैश्वर्यमण्डिता - असीम
(ब्रह्म के) ऐश्वर्य से विभूषित ।
९७ अमाना - आदि,
अन्त, मध्य आदि ताप-तोल से रहित ।
९८ अयोनिजा - विना किसी कारण अपनी
भक्त-भाव पूरिणी इच्छा से प्रकट होनेवाली ।
९९ अकोपा - वध योग्य अपराधी जीवों
पर भी क्रोध न करनेवाली ।
१०० अविचिन्त्या - भगवान श्रीरामजी के
स्वयं चिन्तन करने योग्य ।
१०१ अनघस्मृतिः - पुण्यमय
सुमिरणवाली ॥ १८॥
अनीहाऽनियमाऽनादिमध्यान्ताद्भुतदर्शना
।
अजेयाऽकल्मषाऽकारवाच्येत्यवनिपोत्तम ! ॥
१९॥
१०२ अनीहा - पूर्ण काम होने के कारण
सभी प्रकार की चेष्टाओं से रहित ।
१०३ अनियमा - भाव-गम्य होने के कारण
किसी भी जप, तप, आदि
साधन से प्राप्त न होनेवाली तथा भगवद्-प्राप्तिकारक साधन-स्वरूपा ।
१०४ अनादिमध्यान्ता - आदि,
मध्य, अन्त से रहित पूर्ण ब्रह्म-स्वरूपा ।
१०५ अद्भुतदर्शना - परम आश्चर्यमय
दर्शनवाली ।
१०६ अजेया - कभी भी किसीके द्वारा न
जीती जा सकनेवाली ।
१०७ अकल्मषा - समस्त पाप दोषों से
रहित ।
१०८ अकारवाच्या - भगवान्
श्रीराघवेन्द्र सरकार के ही वर्णन करने योग्य ॥ १९॥
श्रीजानकी अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र महात्म्यम्
अष्टोत्तरशतं नाम प्रोच्यतेऽस्या
महर्षिभिः ।
पठतां प्रत्यहं भक्त्या काऽपि सिद्धिर्न
दुर्लभा ॥ २०॥
हे राजाओं में श्रेष्ठ
श्रीमिथिलेशजी महाराज! इस प्रकार महर्षियों ने इन श्रीललीजी के १०८ नामों का वर्णन
किया है,
जिनका नित्य प्रति श्रद्धापूर्वक पाठ करनेवालों के लिये इस त्रिलोक में
कोई भी सिद्धि दुर्लभ नहीं है ॥ २० ॥
इति श्रीजानकी अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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