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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अद्भुत रामायण सर्ग २१
अद्भुत रामायण सर्ग २१ में रावण का
राम की सेना को विक्षेप करना का वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् एकविशंति: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 21
अद्भुत रामायण इक्कीसवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण एकविंशति सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग २१ – रामसैन्यविक्षेपणं
अथ अद्भुत रामायण सर्ग २१
ततो रथं मारुततुल्यवेगमारुह्य शक्ति
निशितां प्रगा ॥
स रावणो रामबलं प्रहृष्टो विवेश
मीनो हि यथार्णवधम् ।। १ ।।
तब बडे क्षीण रथ में सवार होकर
तीक्ष्ण शक्ति को ग्रहण कर रावण राम की सेना में ऐसे प्रविष्ट हुआ जैसे मीन सागर में
प्रवेश करती है ।। १ ।।
सवानरान्हीनबलान्निरीक्ष्य प्राणेन
दीप्तेन रराज राजा ॥
एकक्षणेनेंद्ररिपुर्महात्मा
निहंतुमैच्छन्नरवानरांश्च ॥ २ ॥
तब वह वानरों को हीनबल देखकर और
राजा रावण प्राणों के दीप्त होने पर एक ही क्षण में उस वानरी सेना के मारने की
इच्छा करने लगा ।। २ ।
मनसा चिंतयामास सहस्र कंधरः स्वराट्
॥
एते क्षुद्राः समायाताः
प्राणांरस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३ ॥
वह सहस्रमुख का रावण मन में विचार
करने लगा,
यह क्षुद्र अपने प्राण और धन छोड़कर यहां आये हैं ।। ३ ।।
द्वीपांतरं महत्प्राप्य मम
युद्धाभिकांक्षिणः ॥
किं स्यान्म महतैः
क्षुर्नरराक्षसवानरैः ॥ ४ ॥
और द्वीपान्तर में प्राप्त होकर
मुझसे युद्ध की इच्छा करते हैं, इन क्षुद्र नर
राक्षस वानरों के मारने से मुझे क्या मिलेगा।।४।
यस्माद्देशात्समायातास्तं देशं
प्रापयाम्यहम् ।।
क्षुल्लकेषु शराघातं न प्रशंसंति
पंडिताः ॥५ ॥
यह जिस देश से आये हैं उसी देश में
प्राप्त किये देता हूँ क्षुद्रों में शराघात करने की पंडित जन प्रशंसा नहीं करते
हैं ।। ५ ।।
इति संचित्य धनुषावायव्यास्त्रं
युयोज ह ।।
तेनास्त्रेण नरा ऋक्षा वानरा राक्षसा
हि ते ॥ ६ ॥
यह विचार कर धनुष पर वायव्य अस्त्र
चढाया,
उस अस्त्र से राक्षस वानर जितने सेना के लोग थे ॥ ६ ॥
यस्माद्यस्मात्समायातास्तं तं देशं
प्रयापिताः ॥
गलहस्तिकया विप्र चोरान्न्राजभटा इव
॥ ७ ॥
जिस जिस देश से आये थे उस उस देश को
चले गये,
जैसे जबरदस्ती चोरों को राजसेवक गलहस्त देकर निकालते हैं॥७॥
ते सर्वे स्वगृहं प्राप्ता
अस्त्रवेगेन विस्मिताः ।।
क्व स्थिताः क्व समायातामन्यंत
स्वप्न एव तैः ॥ ८ ॥
वे अस्त्रवेग से अपने अपने घर आकर
आश्चर्य करने लगे, हम कहां थे कहां आ
गये इस प्रकार स्वप्न देखने लगे॥८॥
प्रलयानिलवेगेन अस्त्रेण वंचिता
भृशम् ।।
भरतो लक्ष्मणश्चापि शत्रुघ्नो
हनुमांस्तथा ।। ९ ।।
प्रलय की पवन के वेग से अत्यन्त आहत
हुए भरत,
शत्रुघ्न, हनुमान् ॥ ९ ॥
सुग्रीवनलनीलाद्या हरयोऽनिलरंहस ॥
विभीषणपुरोगाश्च राक्षसाः
क्रूरविक्रमाः ॥ १० ॥
सुग्रीव,
नल, नीलादि वानर पवनवेग से विभीषणादि सम्पूर्ण
राक्षस जो बड़े पराक्रमी थे ।। १० ।।
वानराश्च नरा ऋक्षा राक्षसा अक्षता
गृहम् ॥
प्राप्यातिविस्मिताः सर्वे शोचंतो
राममेवपि ।। ११ ।।
वानर, नर, रीछ, राक्षस सब अक्षत अपने
घर प्राप्त हो महाविस्मययुक्त रामचन्द्र के निमित्त सोच करने लगे ।। ११ ।।
पुष्करे पुष्पके तिष्ठन्ससीतो राघवः
परम् ।।
आस्ते स्म नास्त्रवेगोऽयं रामं
चालयितुं क्षमः ।। १२ ।।
केवल सीता सहित रामचन्द्र पुष्पक
विमान में स्थित रहे, वह अस्त्र राम को
चलायमान करने को समर्थ न हुआ ।। १२ ।।
महर्षयोऽपि तत्रासन्किमेतदिति
विस्मिताः ॥
सापि सीता महा- भागा तत्रास्ते स्म
शुचिस्मिता ॥ १३ ॥
जो महर्षि थे वे भी यह क्या हुआ,
इस प्रकार आश्चर्य में भरकर सोचने लगे; वह
महाभागा मनोहर हास्ययुक्त जानकी भी वहीं स्थित रही ।। १३ ।।
गन्धर्वनगराकारं दृष्ट्वा रागबलं महत्
।।
स्वस्तीतिवादिनः सौम्यशांति
जेपुर्महर्षयः ॥ १४ ॥
गन्धर्वनगर के समान वह राम की बडी
भारी सेना को देख स्वस्ति कहकर ऋषिजन शांति का जप करने लगे ।। १४ ।
अन्तरिक्षचराः सर्वे हाहाकारं
प्रचक्रिरे ॥
देवा अग्निमुखा विप्र किं कृतं
रावणेन हि ।। १५ ।।
अन्तरिक्षचारी जीव हाहाकार करने लगे,
अग्निमुखादि देवता कहने लगे यह रावण ने क्या किया ।। १५ ।।
गरुडस्थो यदा विष्णू रावणं हंतुमागत
।।
लीलया लवणांभोधौ क्षिप्तो विष्णुः
सनातनः ।। १६ ।।
जिस समय गरुड पर स्थित विष्णु रावण के मारने को आये थे तो इसने लीला से ही सागर की ओर क्षिप्त कर दिया था ।
साट्टहासं विनद्योच्चै रक्षसा
वामपाणिना ।
ततः प्रभृति देवाश्च गंधर्वाः
किन्नरा नराः ।। १७ ।।
और हँसकर वाँये हाथ से ही यह कार्य
इसने किया था; उस दिन से देवता गन्धर्व किन्नर
अप्सरा ।। १७ ।।
गन्धमस्य न गृह्णन्ति शार्दूलस्येव
जंबुकाः ॥
सोऽयं विष्णुर्वशरथाज्जातो देवः
सनातनः ॥ १८ ॥
इसकी गन्ध तक ग्रहण नहीं करते हैं,
जैसे शार्दूल की गन्ध को जंबुक नहीं ग्रहण करते हैं, वही यह सतातन विष्णु दशरथ से उत्पन्न हुए हैं ।। १८ ।।
अस्माकं भागधेयेन रामो जयतु रावणम्
॥
परस्परं सुराः सर्वे वदतोऽन्तर्हिता
स्थिताः ॥ १९ ॥
हमारे भाग्य से राम रावण को जीतें,
इस प्रकार अन्तर में स्थित हुए सब देवता परस्पर कहने लगे ।। १९ ।।
ननई च सहवास्याः क्षुद्रं मत्वा स
राघवम् ॥
विसिष्मिये च रामोऽपि तद्दृष्ट्वा
कर्म दुष्करम् ॥२०॥
और रामचन्द्र को क्षुद्र मानकर रावण
गर्जने लगा, उसका यह दुष्कर कर्म देखकर
रामचन्द्र को आश्चर्य हुआ।।२०।।
क्रोधमाहारयामास रावणस्य वधं प्रति
॥
ततः किलकिलाशब्द चक्रू
राक्षसपुंगवाः ।। २१ ।।
और रावण के वध करने को बडा क्रोध
किया,
तब राक्षस किलकिला शब्द करने लगे ।। २१ ।।
स राघवः पद्मपलाशलोचनो जज्वाल कोपेन
द्विषज्जयेषणः ॥
रामं प्रहुतु न शशाक भेदिनी चकंपिरे
वारिधयो ग्रहा अपि ॥ २२ ॥
तब कमललोचन रामचन्द्र शत्रु को
जीतने के निमित्त क्रोध से जल उठे, तब
इधर राम के प्रहार करने को समर्थ न हुआ तब पृथ्वी, सागर और
सब ग्रह कंपित हो गये ।। २२ ।।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायण वाल्मीकीये
आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे राजसैन्यविक्षेपणं नामेकविंशतितमः सर्गः ॥२१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में राम की सेना में विक्षेप वर्णन नामक
इक्कीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 22
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