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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
मातंगी स्तोत्र
जो भक्त नित्य माँ मातंगी के इस
स्तोत्र का पाठ करता है उसे धन कि कमी नहीं होता और उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण होती है
।
मातङ्गी स्तोत्रम्
Matangi stotra
मातंगी स्तव
ईश्वर उवाच -
आराध्य मातश्चरणाम्बुजे ते
ब्रह्मादयो विस्तृतकीर्तिमापः ।
अन्ये परं वा विभवं मुनीन्द्राः
परां श्रियं भक्तिपरेण चान्ये ॥ १॥
हे मातः ! ब्रह्मादि देवताओं ने
तुम्हारे चरणकमलों की आराधना करके विश्रुत कीर्तिलाभ की है। दूसरे मुनीन्द्र भी
परम विभव को प्राप्त हुए हैं। और अपर अनेकों ने भक्तिभाव से तुम्हारे चरणकमलों की आराधना
करके अत्यन्त श्री लाभ की है।
नमामि देवीं
नवचन्द्रमौलेर्मातङ्गिनीं चन्द्रकलावतंसाम् ।
आम्नायप्राप्तिप्रतिपादितार्थं
प्रबोधयन्तीं प्रियमादरेण ॥ २॥
जिनके माथे में चन्द्रमा की कला
शोभा पाती है, जो वेद प्रतिपादित अर्थ को
सर्वदा आदर से हृदय में प्रबोधित करती हैं। उन्हीं मातंगिनी देवी को नमस्कार है ।
विनम्रदेवासुरमौलिरन्तैर्विराजितन्ते
चरणारविन्दम् ।
अकृत्रिमाणां वचसां विगुल्फं
पादात्पदं सिञ्जित नूपुराभ्याम् ॥ ३॥
कृतार्थयन्तीं पदवीं
पदाभ्यामास्फालयन्तीं कुचवल्लकीन्ताम् ।
मातङ्गिनीं मद्धृदयान्धिनोमि
लीलांशुकां शुद्धनितम्बबिम्बाम् ॥ ४॥
हे देवी! तुम्हारे चरणकमल शिर
झुकाये देवासुरों के शिरों के रत्न द्वारा विराजित हैं। तुम अकृत्रिम वाक्य के
अनुकूल हो, तुम्हीं शब्दायमान नुपुरयुक्त
अपने दोनों चरणों से इस पृथ्वीमण्डल को कृतार्थ करती हो, तुम्हीं
सदा बीणा बजाती हो, तुम्हारे नितम्बबिम्ब अत्यन्त 'शुद्ध हैं, मैं तुम्हारी हृदय में चिन्ता करता हूं ।
तालीदलेनार्पितकर्णभूषां
माध्वीमदोद्घूर्णितनेत्रपद्माम् ।
घनस्तनीं शम्भुवधून्नमामि
तडिल्लताकान्तिमनर्घ्यभूषाम् ॥ ५॥
तुमने तालीदल (ताल) का करों में
विभूषण धारण किया है। माध्वीक मद्यपान से तुम्हारे नेत्रकमल विघूर्णित होते हैं,
तुम्हारे स्तन अत्यन्त कठिन हैं, तुम महादेवजी
की वधू हो, तुम्हारी कान्ति विद्युल्लता की समान मनोहर है,
तुमको नमस्कार है ।
चिरेण लक्ष्यान्नवलोमराज्यां
स्मरामि भक्त्या जगतामधीशे ।
बलित्रयाढ्यन्तव मध्यमम्ब नीलोत्पलांशुश्रियमावहन्तीम्
॥ ६॥
हे मातः! मैं भक्तिसहित तुमको स्मरण
करता हूं,
तुम चिरनष्ट अर्थात् बहुतकाल का नष्ट हुआ राज्य प्रदान करती हो,
तुम्हारे देह का मध्यभाग तीन वलियों से अंकित है, तुमने नीलोत्पल की समान श्री धारण की है ।
कान्त्या कटाक्षैर्जगतां त्रयाणां
विमोहयतीं सकलान् सुरेशि ।
कदम्बमालाञ्चितकेशपाशं मातङ्गकन्यां
हृदि भावयामि ॥ ७॥
हे सुरेश्वरी ! तुम कांति और कटाक्ष
द्वारा त्रिजगत्वासी मनुष्यों को मोहित करती हो, तुम्हारे केशपाश कदम्बमाला से बंधे हुए हैं। तुम्हीं मातंग कन्या हो,
मैं तुम्हारी हृदय में भावना करता हूं ।
ध्यायेयमा रक्तकपोलबिम्बं
बिम्बाधरन्यस्तललाम वश्यम् ।
अलोललीलाकमलायताक्षं मन्दस्मितं ते
वदनं महेशि ॥ ८॥
हे देवि ! तुम्हारे जिस मुखकपोल तट पर
रक्तवर्ण बिम्बाधर परम सुन्दरता से पूर्ण है, जिसमें
चञ्चल अलकावली विराजमान है, नेत्र बड़े और जिस मुख में मंद
मंद हास्य शोभा पाता है, उसी मुखकमल का ध्यान करता हूं।
मातंगी स्तोत्र महात्म्य
स्तुत्याऽनया शंकरधर्मपत्नी मातंगिनीं
वागधिदेवतांताम ।
स्तुवन्ति ये भक्तियुता मनुष्याः
परां श्रियं नित्यमुपाश्रयन्ति ॥ ९॥
जो पुरुष भक्तिमान् होकर शंकर की धर्मपत्नी
वाणी की अधिष्ठात्री मातंगिनी की इस स्तव द्वारा स्तुति करता है,
वह सर्वदा परम श्री को प्राप्त करता है ।
इति रुद्रयामले मातङ्गीस्तोत्रं समाप्तम् ॥
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