अग्निपुराण अध्याय ९५
अग्निपुराण
अध्याय ९५ में प्रतिष्ठा-काल-सामग्री आदि की विधि का कथन का
वर्णन है।
अग्निपुराणम् पञ्चनवतितमोऽध्यायः
Agni puran chapter 95
अग्निपुराण पंचानबेवाँ अध्याय- प्रतिष्ठा सामग्री की विधि
अग्नि पुराण अध्याय ९५
अग्निपुराणम् अध्यायः ९५ – प्रतिष्ठासामग्रीविधानम्
अथ पञ्चनवतितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
वक्ष्ये
लिङ्गप्रतिष्ठां च प्रासादे भुक्तिमुक्तिदां ।
ताञ्चरेत्
सर्वदा मुक्तौ भुक्तौ देवदिने सति ।। १ ।।
विना चैत्रेण
माघादौ प्रतिष्ठा मासपञ्चके ।
गुरुशुक्रोदये
कार्य्या प्रथमे करणत्रये ।। २ ।।
शुक्लपक्षे
विशेषेण कृष्णे वा पञ्चमन्दिनं ।
चतुर्थी नवमीं
षष्ठीं वर्जयित्वा चतुर्दशीं ।। ३ ।।
शोभनास्तिथयः
शषाः क्रूरवारविवर्जिताः।
भगवान् शंकर
कहते हैं— स्कन्द ! अब मैं मन्दिर में लिङ्ग स्थापना की
विधि का वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्ष को देनेवाली है। यदि
मुक्ति के लिये लिङ्ग प्रतिष्ठा करनी हो तो उसे हर समय किया जा सकता है, परंतु यदि भोग-सिद्धि के उद्देश्य से लिङ्ग - स्थापना करने का विचार हो तो
देवताओं का दिन (उत्तरायण) होने पर ही वह कार्य करना चाहिये। माघ से लेकर पाँच
महीनों में, चैत्र को छोड़कर, देव स्थापना
करने की विधि है। जब गुरु और शुक्र उदित हों तो प्रथम तीन करणों (वव, बालव और कौलव ) में स्थापना करनी चाहिये। विशेषत: शुक्लपक्ष में तथा
कृष्ण- पक्ष में भी पञ्चमी तिथि तक का समय प्रतिष्ठा के लिये शुभ माना गया है।
चतुर्थी, नवमी, षष्ठी और चतुर्दशी को छोड़कर
शेष तिथियाँ क्रूर-ग्रह के दिन से रहित होने पर उत्तम मानी गयी हैं ॥ १-३अ ॥
शतभिषा
धनिष्ठाद्र्द्रा अनुराधोत्तरत्रयं ।। ४ ।।
रोहिणी
श्रवणश्चेति स्थिरारम्भे महोदयाः।
लग्नञ्च
कुम्भसिहालितुलास्त्रीवृषधन्विनां ।। ५ ।।
शस्तो जीवो
नवर्क्षेषु सप्तस्थानेषु सर्वदा ।
बुधः
षडष्टदिक्सप्ततुर्येषु विनर्तुं शितः ।। ६ ।।
सप्तर्त्तु
त्रिदशादिस्थः शशाङ्को बलदः सदा ।
सविर्दशत्रिषट्संस्थो
राहुस्त्रिदशषङ्गतः ।। ७ ।।
शतभिषा, धनिष्ठा, आर्द्रा,
अनुराधा, तीनों उत्तरा, रोहिणी
और श्रवण-ये नक्षत्र स्थिर प्रतिष्ठा आरम्भ करने के लिये महान् अभ्युदयकारक कहे
गये हैं। कुम्भ, सिंह, वृश्चिक,
तुला, कन्या, वृष - ये
लग्र श्रेष्ठ बताये गये हैं। *
बृहस्पति(तृतीय, अष्टम और द्वादश को छोड़कर शेष) नौ स्थानों में
शुभ माने गये हैं। सात स्थानों में तो वे सर्वदा ही शुभ हैं। छठे, आठवें, दसवें, सातवें और चौथे
भावों में बुध की स्थिति हो तो वे शुभकारक होते हैं। इन्हीं स्थानों में छठे को
छोड़कर यदि शुक्र हों तो उन्हें शुभ कहा गया है। प्रथम, तृतीय,
सप्तम, षष्ठ, दशम
(द्वितीय और नवम) स्थानों में चन्द्रमा सदैव बलदायक माने गये हैं। सूर्य, दसवें तीसरे और छठे भावों में स्थित हों तो शुभफल देनेवाले होते हैं।
तीसरे, छठे और दसवें में राहु को भी शुभकारक कहा गया है ॥ ४-७
॥
·
यहाँ सोमशम्भु ने अपनी कर्मकाण्ड-क्रमावली' में पिङ्गला मत के अनुसार चारों
वर्णों के लिये पृथक् पृथक् प्रतिष्ठोपयोगी प्रशस्त नक्षत्र बताये हैं- पुष्य,
हस्त, उत्तराषाढ़, पूर्वाषाढ़
और रोहिणी – ये नक्षत्र ब्राह्मण के लिये श्रेष्ठ कहे गये
हैं। क्षत्रिय के लिये पुनर्वसु, चित्रा, धनिष्ठा और श्रवण उत्तम कहे गये हैं। वैश्य के लिये रेवती, आर्द्रा, उत्तरा और अश्विनी शुभ नक्षत्र हैं तथा
शूद्र के लिये मघा, स्वाती और पूर्वाफाल्गुनी ये नक्षत्र
श्रेष्ठ हैं (श्लोक १३२४- १३२७ तक)
षट्त्रिस्थानगताः
शस्ता मन्दाङ्गारार्ककेतवः।
शुभाः
क्रूराश्च पापाश्च सर्व एकादशस्थिताः ।। ८ ।।
एषां
दृष्टिर्मुनौ पूर्णा त्वार्द्धिकी ग्रहभूतयोः।
पादिकी
रामदिक्स्थाने चतुरष्टौ पादवर्जिताः ।। ९ ।।
पादान्यूनचतुर्नाडी
भोगः स्यान्मीनमेषयोः।
वृषकुम्भौ च
भुञ्जाते चतस्रः पादवर्जिताः ।। १० ।।
मकरो मिथुनं
पञ्च चापालिहरिकर्क्कटाः।
पादोनाः
षट्तुलाकन्ये घटिकाः सार्द्धपञ्च च ।। ११ ।।
छठे और तीसरे
स्थान में स्थित होने पर शनैश्चर, मङ्गल और केतु प्रशस्त कहे गये हैं। शुभग्रह, क्रूरग्रह
और पापग्रह - सभी ग्यारहवें स्थान में स्थित होने पर श्रेष्ठ बताये गये हैं। अपनी
जगह से सप्तम स्थान पर ही इन समस्त ग्रहों की दृष्टि पूर्ण (चारों चरणों से युक्त)
होती है। पाँचवें और नवें स्थानों पर इनकी दृष्टि आधी (दो चरणों से युक्त ) बतायी
गयी है। तृतीय और दसवें स्थानों को ये ग्रह एकपाद से देखते हैं तथा चौथे एवं आठवें
स्थानों पर इनकी दृष्टि तीन चरणों से युक्त होती है। मीन और मेष राशि का भोग पौने
चार नाड़ी तक है। वृष और कुम्भ भी पौने चार नाड़ी का ही उपभोग करते हैं। मकर और
मिथुन पाँच नाड़ी, धन, वृश्चिक,
सिंह और कर्क पौने छः नाड़ी तथा तुला और कन्या राशियाँ साढ़े पाँच
नाड़ी का उपभोग करती हैं ॥ ८-११ ॥
केशरीवृषभः
कुम्भ स्थिराः स्युः सिद्धिदायकाः।
चरा
धनुस्तुलामेषा द्विः स्वभावास्तुतृतीयकाः ।। १२ ।।
शुभः
शुभग्रहैर्दृष्टः शस्तो लग्नः शुभाश्रितः ।
गुरुशुक्रबुधैर्युक्तो
लग्नो दद्याद्बलायुषी ।। १३ ।।
राज्यं
शौर्य्यं बलं पुत्रान् यशोधर्म्मादिकं बहु ।
प्रथमः
सप्तमस्तुर्य्यो दशमः केन्द्र उच्यते ।। १४ ।।
गुरुशुक्रबुधास्तत्र
सर्वसिद्धिप्रदायकाः।
त्रयेकादशचतुर्थस्था
लग्नात् पापग्रहाः शुभाः ।। १५ ।।
अतोप्यनीचकर्मार्थं
योज्यास्तिथ्यादयो बुधैः।
धाम्नः
पञ्चगुणां भूमिं त्यक्त्वा वा धानसम्मितां ।। १६ ।।
हस्ताद्
द्वादशसोपानात् कुर्य्यान्मण्डपमग्रतः।
चतुरस्रं
चतुर्द्वारं स्नानार्थन्तु तदर्द्धतः ।। १७ ।।
सिंह, वृष और कुम्भ-ये 'स्थिर'
लग्न सिद्धिदायक होते हैं। धन, तुला और मेष 'चर' कहे गये हैं। तीसरी-तीसरी संख्या के लग्न (
मिथुन, कन्या आदि) 'द्वि-स्वभाव'
कहे गये हैं। कर्क, मकर और वृश्चिक - ये
प्रव्रज्या (संन्यास) कार्य के नाशक हैं। जो लग्र शुभग्रहों से देखा गया हो,
वह शुभ है तथा जिस लग्र में शुभग्रह स्थित हों, वह श्रेष्ठ माना गया है। बृहस्पति, शुक्र और बुध से
युक्त लग्न धन, आयु, राज्य, शौर्य (अथवा सौख्य), बल, पुत्र,
यश तथा धर्म आदि वस्तुओं को अधिक मात्रा में प्रदान करता है।
कुण्डली के बारह भावों में से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम को 'केन्द्र' कहते
हैं। उन केन्द्र स्थानों में यदि गुरु शुक्र और बुध हों तो वे सम्पूर्ण सिद्धियों के
दाता होते हैं। लग्न स्थान से तीसरे, ग्यारहवें और चौथे
स्थानों में पापग्रह हों तो वे शुभकारक होते हैं। अतः इनको तथा इनसे भिन्न
शुभग्रहों तथा शुभ तिथियों को विद्वान् पुरुष प्रतिष्ठाकर्म के लिये योजित करे ।
मन्दिर के सामने उससे पाँच गुनी अथवा मन्दिर के बराबर हो या सीढ़ी से दस हाथ आगे तक
की भूमि छोड़कर मण्डप निर्माण करे ॥ १२-१७ ॥
एकास्यं
चतुरास्यं वा रौद्र्यां प्राच्युत्तरेथवा ।
हास्तिको
दशहस्तो वै मण्डपोर्ककरोऽथवा ।। १८ ।।
द्विहस्तोत्तरया
वृद्ध्या शेष स्यान्मण्डपाष्टकं ।
वेदी चतुष्करा
मध्ये कोणस्तम्भेन संयुता ।। १९ ।।
वह मण्डप
चौकोर और चार दरवाजों से युक्त हो। उसकी आधी भूमि लेकर स्नान के लिये मण्डप बनावे।
उसमें भी एक या चार दरवाजे हों यह स्नान मण्डप ईशान, पूर्व अथवा उत्तर दिशा में होना चाहिये।* [प्रथम तीन लिङ्गों लिये तीन मण्डपों का निर्माण
करे। पहले मण्डप की 'हास्तिक' संज्ञा
है। वह आठ हाथ का होता है। शेष दो मण्डप एक-एक हाथ बड़े होंगे, अर्थात् दूसरा मण्डप नौ हाथ का और तीसरा दस हाथ का होगा। इसी तरह अन्य
लिङ्गों के लिये भी प्रति- मण्डप दो-दो हाथ भूमि बढ़ा दे, जिससे
नौ हाथ बड़े नवें लिङ्ग के लिये बाईस हाथ का मण्डप सम्पन्न हो सके।] प्रथम मण्डप
आठ हाथ का, दस हाथ का अथवा बारह हाथ का होना चाहिये। शेष आठ
मण्डपों को दो-दो हाथ बढ़ाकर रखे। (इस प्रकार कुल नौ मण्डप होने चाहिये।) [पाद आदि
से वृद्धलिङ्गों की स्थापना में पादों (पायों)- के अनुसार मण्डप बनावे। बाणलिङ्ग,
रत्नजलिङ्ग तथा लौहलिङ्ग की स्थापना के अवसर पर हास्तिक (आठ
हाथवाले) मण्डप के अनुसार सब कुछ बनावे। अथवा जो देवी का प्रासाद हो, उसके अनुसार मण्डप बनावे। समस्त लिङ्गों के लिये प्रासाद- निर्माण की विधि
शैव शास्त्र के अनुसार जाननी चाहिये। घन, घोष, विराग, काश्चन, काम, राम, सुवेश, घर्मर तथा दक्ष—ये नौ लिङ्गों लिये नौ मण्डपों के नाम हैं। चारों कोणों में चार खंभे हों
और दरवाजों पर दो-दो यह सब हास्तिक – मण्डप के विषय में बताया गया है। उससे विस्तृत
मण्डप में जैसे भी उसकी शोभा सम्भव हो, अन्य खंभों का भी
उपयोग किया जा सकता है ।] * ॥ १८-१९ ॥
·
१) सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली' में यहाँ चार पंक्तियाँ अधिक उपलब्ध होती हैं, जिनका
अर्थ कोष्ठक [] में दिया गया है (देखिये श्लोक १३२९ से १३३१ तक) ।
·
२) प्रसङ्ग को ठीक से समझने के लिये 'कर्मकाण्ड -क्रमावली' से अपेक्षित अंश यहाँ भावार्थरूप में उद्धृत किया गया है। (देखिये श्लोक-सं०]
१३३३ से १३३६)
वेदीपादान्तरं
त्यक्त्वा कुण्डानि नव पञ्च वा।
एकं वा
शिवकाष्ठायां प्राच्यां वा तद्गुरोः परं ।। २० ।।
मुष्टिमात्रं
शतार्द्धे स्याच्छते चारत्निमात्रकं ।
हस्तं
सहस्रहोमे स्यान्नियुते तु द्विहास्तिकं ।। २१ ।।
लक्षे
चतुष्करं कुण्डंकोटिहोमेऽष्टहस्तकं।
भगाभमग्नौ
खण्डेन्दु दक्षे त्र्यस्रञ्च नैर्ऋते ।। २२ ।।
षडस्रं वायवे
पद्म सौम्ये चाष्टास्रकं शिवे।
तिर्य्यक्पातशिवं
खातमूद्र्ध्वं मेखलया सह ।। २३ ।।
मध्य-मण्डल में
चार हाथ की वेदी बनावे। उसके चारों कोनों में चार खंभे हों। वेदी और पायों के बीच
का स्थान छोड़कर कुण्डों का निर्माण करे। इनकी संख्या नौ अथवा पाँच होनी चाहिये ।
ईशान या पूर्व दिशा में एक ही कुण्ड बनावे। वह गुरु का स्थान है। यदि पचास आहुति
देनी हो तो मुट्ठी बँधे हाथ से एक हाथ का कुण्ड होना चाहिये । सौ आहुतियाँ देनी
हों तो कोहनी से लेकर कनिष्ठिका तक के माप से एक अरत्नि या एक हाथ का कुण्ड बनावे
एक हजार आहुतियों का होम करना हो तो एक हाथ लंबा, चौड़ा और गहरा कुण्ड हो । दस हजार आहुतियों के लिये इससे दूने
माप का कुण्ड होना चाहिये। लाख आहुतियों के लिये चार हाथ के और एक करोड़ आहुतियों के
लिये आठ हाथ के कुण्ड का विधान है। अग्निकोण में भगाकार, दक्षिण
दिशा में अर्धचन्द्राकार, नैर्ऋत्यकोण में त्रिकोण (पश्चिम
दिशा में चन्द्रमण्डल के समान गोलाकार), वायव्यकोण में
षट्कोण, उत्तर दिशा में कमलाकार, ईशानकोण
में अष्टकोण (तथा पूर्व दिशा में चतुष्कोण) कुण्ड का निर्माण करना चाहिये ॥ २० -
२३ ॥
तद्वहिर्म्मेखलास्तिस्रो
वेदवह्नियमाङ्गुलै ।
अङ्गुलैः षड्भिरेका
वा कुण्डाकारास्तु मेखलाः ।। २४ ।।
तासामुपरि
योनिः स्यान्मध्येऽश्वत्थदलाकृतिः।
उच्छ्रायेणाङ्गुलं
तस्मादिविस्तारेणाङ्गुलाष्टकं ।। २५ ।।
दैर्घ्यं
कुण्डार्द्धमानेन कुण्डकण्ठसमोऽधरः।
पूर्वाग्नियाम्यकुण्डानां
योनिः स्यादुत्तरानना ।। २६ ।।
पूर्वानना तु
शेषाणामैशान्येऽन्यतरा तयोः।
कुण्डानां
यश्चतुर्विंशो बागः सोङ्गुल इत्यतः ।। २७ ।।
कुण्ड सब ओर से
बराबर और ढालू होना चाहिये। ऊपर की ओर मेखलाएँ बनी होनी चाहिये। बाहरी भाग में
क्रमशः चार, तीन और दो
अङ्गुल चौड़ी तीन मेखलाएँ होती हैं। अथवा एक ही छः अङ्गुल चौड़ी मेखला रहे।
मेखलाएँ कुण्ड के आकार के बराबर ही होती हैं। उनके ऊपर मध्यभाग में योनि हो,
जिसकी आकृति पीपल के पत्ते की भाँति रहे। उसकी ऊँचाई एक अङ्गुल और
चौड़ाई आठ अङ्गुल की होनी चाहिये। | लंबाई कुण्डार्ध के
तुल्य हो। योनि का मध्यभाग कुण्ड के कण्ठ की भाँति हो, पूर्व,
अग्रिकोण और दक्षिण दिशा के कुण्डों की योनि उत्तराभिमुखी होनी
चाहिये, शेष दिशाओं के कुण्डों की योनि पूर्वाभिमुखी हो तथा
ईशानकोण के कुण्ड की योनि उक्त दोनों प्रकारों में से किसी एक प्रकार की
(उत्तराभिमुखी या पूर्वाभिमुखी) रह सकती है । २४ - २७ ॥
प्लक्षोदुम्बरकाश्वत्थवटजास्तोरणाः
क्रमात् ।
शान्तिभूतिबलारोग्यपूर्वाद्या
नामतः क्रमात् ।। २८ ।।
पञ्चषट्सप्तहस्तानि
हस्तकातस्थितानि च ।
तदर्द्धविस्तराणि
स्युर्युतान्याम्रदलादिभिः ।। २९ ।।
इन्द्रायुधोपमा
रक्ता कृष्णा धूम्रा शशिप्रभा ।
शुक्लाभा
हेमवर्णा च पताका स्फाटिकोपमा ।। ३० ।।
पूर्वादितोब्जजे
रक्ता नीलाऽन्न्तस्य नैर्ऋते ।
पञ्चहस्तास्तदर्द्धाञ्च
ध्वजा दीर्घाश्च विस्तराः ।। ३१ ।।
हस्तप्रदेशिता
दण्डा ध्वजानां पञ्चहस्तकाः।
वल्मीकाद्दन्तिदन्ताग्रात्तथा
वृषभश्रृङ्गतः ।। ३२ ।।
कुण्डों का जो
चौबीसवाँ भाग है, वह 'अङ्गुल' कहलाता है। इसके
अनुसार विभाजन करके मेखला, कण्ठ और नाभि का निश्चय करना
चाहिये। मण्डप में पूर्वादि दिशाओं की ओर जो चार दरवाजे लगते हैं, वे क्रमशः पाकड़, गूलर, पीपल
और बड़ की लकड़ी के होने चाहिये। पूर्वादि दिशाओं के क्रम से इनके नाम शान्ति,
भूति, बल और आरोग्य हैं। दरवाजों की ऊँचाई
पाँच, छः अथवा सात हाथ की होनी चाहिये। वे हाथ भर गहरे खुदे
हुए गड्ढे में खड़े किये गये हों। उनका विस्तार ऊँचाई या लंबाई की अपेक्षा आधा
होना चाहिये। उनमें आम्रपल्लव आदि की बन्दनवारें लगा देनी चाहिये । मण्डप की
पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः इन्द्रायुध की भाँति तिरंगी, लाल,
काली, धूमिल, चाँदनी की
भाँति श्वेत, तोते की पाँख के समान हरे रंग की, सुनहरे रंग की तथा स्फटिक मणि के समान उज्ज्वल पताका फहरानी चाहिये। ईशान
और पूर्व के मध्यभाग में ब्रह्माजी के लिये लाल रंग की तथा नैर्ऋत्य और पश्चिम के
मध्यभाग में अनन्त ( शेषनाग ) के लिये नीले रंग की पताका फहरानी चाहिये। ध्वजों की
पताकाएँ पाँच हाथ लंबी और इससे आधी चौड़ी हों। ध्वज-दण्ड की ऊँचाई पाँच हाथ की
होनी चाहिये। ध्वज की मोटाई ऐसी हो कि दोनों हाथों की पकड़ में आ जाय ॥ २८- ३२ ॥
पद्मषण्डाद्वराहाच्च
गोष्ठादपि चतुष्पथात् ।
मृत्तिका द्वादश
ग्राह्य वैकुण्ठेष्टौ पिनाकिनि ।। ३३ ।।
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थचूतजम्वुत्वगुद्भवं
।
कषायपञ्चकं
ग्राह्यमार्त्तवञ्च फलाष्टकं ।। ३४ ।।
तीर्थाम्भांसि
सुगन्धीनि तथा सर्वौषधीजलं ।
शस्तं
पुष्पफलं वक्ष्ये रत्नगोश्रृङ्गवारि च ।। ३५ ।।
स्नानायापाहरेत्
पञ्च पञ्चगव्यामृतं तथा ।
पिष्टनिर्मितवस्त्रादिद्रव्यं
निर्म्मज्जनाय च ।। ३६ ।।
सहस्रशुषिरं
कुम्भं मण्डलाय च रोचना ।
पर्वत शिखर, राजद्वार, नदीतट,
घुड़सार, हथिसार, विमौट,
हाथी के दाँतों के अग्रभाग से कोड़ी गयी भूमि, साँड़ के सींग से खोदी गयी भूमि, कमलसमूह के नीचेके स्थान,
सूअर की खोदी हुई भूमि, गोशाला तथा चौराहा-इन
बारह स्थानों से बारह प्रकार की मिट्टी लेनी चाहिये। भगवान् विष्णु की स्थापना में
ये द्वादश मृत्तिकाएँ। तथा भगवान् शिव की स्थापना में आठ प्रकार की मृत्तिकाएँ
ग्राह्य हैं। बरगद, गूलर, पीपल,
आम और जामुन की छाल से पैदा हुई पाँच प्रकार की गोंद संग्रहणीय हैं।
आठ प्रकार के ऋतुफल मँगा लेने चाहिये। तीर्थजल, सुगन्धित जल,
सर्वोषधि- मिश्रित जल, शस्य पुष्पमिश्रित जल,
स्वर्णमिश्रित, रत्नमिश्रित तथा गो-शृङ्ग के
स्पर्श से युक्त जल, पञ्चगव्य और पञ्चामृत--इन सबको देवस्नान
के लिये एकत्र करे। विघ्नकर्ताओं को डराने के लिये आटे के बने हुए वज्र आदि
आयुध-द्रव्यों को भी प्रस्तुत रखना चाहिये। सहस्र छिद्रों से युक्त कलश तथा
मङ्गलकृत्य के लिये गोरोचना भी रखे ।। ३३-३६अ ॥
शतमोषधिमूलानां
विजया लक्ष्मणा बला ।। ३७ ।
गुडूच्यतिबला
पाठा सहदेवा शतावरी ।
ऋद्धि
सुवर्चसा वृद्धिः स्नाने प्रोक्ता पृथक् पृथक ।। ३८ ।।
रक्षायै
तिलदर्भौघो भस्मस्नानन्तु केवलं ।
यवगोधूमविल्वानां
चुर्णानि च विचक्षणः ।। ३९ ।।
विलेपनं
सकर्प्पूरं स्नानार्थं कुम्भगण्डकान् ।
खट्वाञ्च
तुलिकायुग्मं सोपधानं सव स्त्रकां ।। ४० ।।
कुर्य्याद्वित्तानुसारेण
शयने लक्ष्यकल्पने ।
घृतक्षौद्रयुतं
पात्रं कुर्य्यात् स्वर्णशलाकिकां ।। ४१ ।।
वर्द्धनीं
शिवकुम्भञ्च लोकपालघटानपि ।
सौ प्रकार की
ओषधियों की जड़, विजया, लक्ष्मणा (श्वेत कण्टकारिका), बला (अथवा अभया
हर्रे), गुरुचि, अतिबला, पाठा, सहदेवा, शतावरी, ऋद्धि, सुवर्चला और वृद्धि - इन सबका पृथक् पृथक् स्नान
के लिये उपयोग बताया गया है। रक्षा के लिये तिल और कुशा आदि संग्रहणीय हैं।
भस्मस्नान के लिये भस्म जुटा ले विद्वान् पुरुष स्नान के लिये जौ और गेहूँ के आटे,
बेल का चूर्ण, विलेपन, कपूर
कलश तथा गडुओं का संग्रह कर ले। खाट, दो तूलिका (रुईभरा
गद्दा तथा रजाई ), तकिया, चादर आदि
अन्य आवश्यक वस्त्र- इन सबको अपने वैभव के अनुसार तैयार करावे और विविध चिह्नों से
सुसज्जित शयन- कक्ष में इनको रखे। घी और मधु से युक्त पात्र, सोने की सलाई, पूजोपयोगी जल से भरा पात्र, शिवकलश और लोकपालों के लिये कलश का भी संग्रह करे ।। ३८-४१अ ॥
एकं
निद्राकृते कुम्भं शान्त्यर्थं कुण्डसङ्ख्यया ।। ४२ ।।
द्वारपालादिधर्म्मादि
प्रशान्तादिघटानपि ।
वास्तुलक्ष्मीगणेशानां
कलशानपरानपि ।। ४३ ।।
धान्यपुञ्जकृताधारान्
सवस्त्रान् स्रग्विभूषितान् ।
सहिरण्यान्
समालब्धान् गन्धपानीयपूरितान् ।। ४४ ।।
पूर्णपात्रफलाधारान्
पल्लवाद्यान् सलक्षणान् ।
वस्त्रैराच्छादयेत्
कुम्भानाहरेद्गौरसर्षपान् ।। ४५ ।।
विकिरार्थन्तथा
लाजान् ज्ञानखड्गञ्च पूर्ववत् ।
सापिधानां
चरुस्थालीं दर्व्वी च ताम्रनिर्म्मितां ।। ४६ ।।
घृतक्षौद्रान्वितं
पात्रं पादाभ्यङ्गकृते तथा ।
एक कलश निद्रा
के लिये भी होना चाहिये । कुण्डों की संख्या के अनुसार उतने ही शान्ति- कलश रखे
जाने चाहिये। द्वारपाल आदि धर्म आदि तथा प्रशान्त आदि के लिये भी कलश जुटा ले।
वास्तुदेव, लक्ष्मी
और गणेश के लिये भी अन्यान्य पृथक्-पृथक् कलश आवश्यक हैं। इन कलशों के नीचे
आधारभूमि पर धान्य- पुञ्ज रखना चाहिये। सभी कलश वस्त्र और पुष्पमाला से विभूषित
किये जाने चाहिये। इनके भीतर सुवर्ण डालकर इनका स्पर्श किया जाय और इन्हें
सुगन्धित जलसे भरा जाय। सभी कलशों के ऊपर पूर्णपात्र और फल रखे जायें। उनके मुखभाग
में पञ्चपल्लव रहें तथा वे कलश उत्तम लक्षणों से सम्पन्न हों। कलशों को वस्त्रों से
आच्छादित करे। सब ओर बिखेरने के लिये पीली सरसों और लावा का संग्रह कर ले।
पूर्ववत् ज्ञान खड्ग का भी सम्पादन करे। चरु रखने के लिये बटलोई और उसका ढक्कन
मँगा ले। ताँबे की बनी हुई करछुल तथा पादाभ्यङ्ग के लिये घृत और मधु का पात्र भी
संगृहीत कर ले ॥ ४३-४६अ ॥
विष्टरांस्त्रिशतादर्भदलैर्बाहुप्रमाणकान्
।। ४७ ।।
चतुरश्चतुरस्तद्वत्
पालाशान् परिधीनपि ।
तिलपात्रं
हविः पात्रमर्धपात्रं पवित्रकं ।। ४८ ।।
पलविंशाष्टमानानि
घटो धूपप्रदानकं ।
श्रुक्श्रुवौ
पिटकं पीठं व्यजनं शुष्कमिन्धनं ।। ४९ ।।
पुष्पं पत्रं
गुग्गुलञ्च घृतैर्द्दीपांश्च धूपकं ।
अक्षतानि
त्रिसूत्रीञ्च गव्यमाज्यं यवांस्तिलान् ।। ५० ।।
कुशाः शानत्यै
त्रिमधुरं समिधो दशपर्विकाः।
बाहुमात्रं
श्रुवं हस्तम् अर्कादिग्रहशान्त्ये ।। ५१ ।।
समिधोऽर्कपलाशोत्थाः
खादिरामार्गपिप्पलाः ।
उदुम्बरशमीदूर्वाकुशोत्थाः
शतमष्ट च ।। ५२ ।।
तदभावे यवतिला
गृहोपकरणं तथा ।
कुश के तीस
दलों से बने हुए दो-दो हाथ लंबे-चौड़े चार-चार आसन एकत्र कर ले। इसी तरह पलाशों के
बने हुए चार-चार परिधि भी जुटा ले। तिलपात्र, हविष्यपात्र, अर्घ्यपात्र और पवित्रक
एकत्र करे। इनका मान बीस-बीस पल है। घण्टा और धूपदानी भी मंगा ले। स्रुक्, स्रुवा, पिटक (पिटारी एवं टोकरी), पीठ (पीढ़ा या चौकी), व्यजन, सूखी
लकड़ी, फूल, पत्र, गुग्गुल, घी के दीपक, धूप,
अक्षत, तिगुना सूत, गाय का
घी, जौ, तिल, कुशा,
शान्तिकर्म के लिये त्रिविध मधुर पदार्थ (मधु, शक्कर और घी), दस पर्व की समिधाएँ, बाँह बराबर या एक हाथ का स्रुवा, सूर्य आदि ग्रहों की
शान्ति के लिये समिधाएँ- आक, पलाश, खैर,
अपामार्ग, पीपल, गूलर,
शमी, दूर्वा और कुशा भी संग्रहणीय हैं। आक आदि
में प्रत्येक की समिधाएँ एक सौ आठ-आठ होनी चाहिये। ये न मिल सकें तो इनकी जगह जौ
और तिलों की आहुति देनी चाहिये। इनके सिवा घरेलू आवश्यकता की वस्तुओं का भी संग्रह
करे ॥ ४८- ५२अ ॥
स्थालीदर्वीपिधानादि
देवादिभ्योंऽशुकद्वयं ।। ५३ ।।
मुद्रामुकृटवासांसि
हारकुण्डलकङ्कणान् ।
कुर्य्यादाचार्यपूजार्थं
वित्तशाठ्यं विवर्जयेत् ।। ५४ ।।
बटलोई, करछुल, ढक्कन आदि
जुटा ले। देवता आदि के लिये प्रत्येक को दो-दो वस्त्र देने चाहिये। आचार्य की पूजा
के लिये मुद्रा, मुकुट, वस्त्र,
हार, कुण्डल और कङ्गन आदि तैयार करा ले। धन
खर्च करने में कंजूसी न करे॥५३-५४॥
तत्पादपादहीना
च मूत्तिभृदस्त्रजापिनां ।
पूजा
स्याज्जापिभिस्तुल्या विप्रदैवज्ञशिल्पिनां ।। ५५ ।।
वज्रार्कशान्तौ
नीलातिनाल्मुक्ताफलानि च ।
पुष्पपद्मादिशगञ्च
वैदूर्य्यं रत्नमष्टमं ।। ५६ ।।
उषीरमाधवक्रान्तारक्तचन्दनकागुरुं
।
श्रीखण्डं
सारिकङ्कुष्ठं शङ्खिनी ह्योषधीगणः ।। ५७ ।।
मूर्ति धारण
करनेवाले तथा अस्त्र-मन्त्र का जप करनेवाले ब्राह्मणों को आचार्य की अपेक्षा एक-
एक चौथाई कम दक्षिणा दे। सामान्य ब्राह्मणों, ज्योतिषियों तथा शिल्पियों को जपकर्ताओं के बराबर ही पूजा
देनी चाहिये। हीरा, सूर्यकान्तमणि, नीलमणि,
अतिनीलमणि, मुक्ताफल, पुष्पराग,
पद्मराग तथा आठवाँ रत्न वैदूर्यमणि- इनका भी संग्रह करे। उशीर (खस),
विष्णुकान्ता (अपराजिता), रक्तचन्दन, अगुरु, श्रीखण्ड, शारिवा
(अनन्ता या श्यामालता), कुष्ठ (कुट) और शङ्खिनी (श्वेत
पुत्राग) – इन ओषधियों का समुदाय संग्रहणीय है ॥ ५५ - ५७ ॥
हेमताम्रमयं
रक्तं राजतञ्च सकांस्यकं ।
शीसकञ्चेति
लोहानि हरितालं मनः शिला ।। ५८ ।।
गैरिकं
हेममाक्षीकं पारदो वह्निगैरिकं ।
गन्धकाभ्रकमित्यष्टौ
धातवो ब्रीहयस्तथा ।। ५९ ।।
गोधूमान्
सतिलान्माषान्मुद्गानप्याहरेद्यवान् ।
नीवारान्
श्यामकानेवं व्रीहयोऽप्यष्ट कीर्त्तिताः ।। ६० ।।
सोना, ताँबा, लोहा, राँगा, चाँदी, काँसी और
सीसा-इन सबकी 'लोह' संज्ञा है। इनका भी
संग्रह करे। हरिताल, मैनसिल, गेरू,
हेममाक्षीक, पारा, वह्निगैरिक,
गन्धक और अभ्रक-ये आठ धातुएँ संग्रहणीय हैं। इसी प्रकार आठ प्रकार के
व्रीहियों (अनाजों) का भी संग्रह करना चाहिये । उनके नाम इस प्रकार हैं- धान,
गेहूँ, तिल, उड़द,
मूंग, जौ, तित्री और
सावाँ ॥ ५८- ६० ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नये प्रतितष्ठासामग्री नाम पञ्चनवतितमोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'प्रतिष्ठा, काल और सामग्री आदि की विधि का वर्णन'
नामक पंचानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 96
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