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- श्रीदेवीरहस्य पटल ४
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- श्रीदेवीरहस्य पटल २
- देवीरहस्य पटल १
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- जानकी अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र
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- यक्षिणी साधना भाग ३
- यक्षिणी साधना भाग २
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- अग्निपुराण अध्याय १००
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शैव रामायण अध्याय ६
शैव रामायण के अध्याय ६ में राम एवं
सहस्रकंठ का युद्ध वर्णन, ऋषियों द्वारा
सहस्रकण्ठ को अश्व लौटाने का परामर्श एवं उसके न मानने का वर्णन है।
शैव रामायण छटवाँ अध्याय
Shaiv Ramayan chapter 6
शैवरामायणम् षष्ठोऽध्यायः
शैवरामायण षष्ठ अध्याय
शैवरामायण अध्याय ६
शिव उवाच
शृणु प्रिये कथामेतां सहस्रग्रीवराक्षसः
।
श्रोतॄणां परमाश्चर्यकारिणीं
शुभदायिनीम् ।। १ ।।
भगवान शङ्कर ने पार्वती से कहा कि
हे प्रिये ! सहस्रग्रीव (सहस्रकण्ठ) राक्षस की यह कथा सुनने वाले के लिए परम
आश्चर्य दायिनी होने के साथ-साथ सुख देने वाली भी है ॥ १ ॥
सहस्रकण्ठो दैत्येन्द्रः कोटीनां
कोटिभिर्वृतः ।
राक्षसानां च मुख्यानां युद्धे
विजयकाङ्क्षिणाम् ।। २ ।।
तब दैत्यराज सहस्रकण्ठ करोड़ों
राक्षसों एवं प्रमुख राक्षस योद्धाओं के साथ विजय की आकाङ्क्षा से युद्ध में आया ॥
२ ॥
पताकाध्वजमुख्यैश्च
मौक्तिकछत्रचामरैः ।
बन्दिमागधसूतैश्च तूर्यघोषैरलङ्कृतः
।। ३।।
भेरीमृदङ्गनादैश्च चतुर्वाद्यविघोषितैः
।
नागाश्वरथपादातैःनिर्ययौ नगरात्ततः
।।४।।
उस समय उसके आगे-आगे राक्षसी
पताकाएँ एवं ध्वजवाहक, चल रहे थे। उसके
ऊपर मोती के छत्र तने थे, चामर हिल रहे थे, बन्दीजन, मागध एवं सूतों के द्वारा उसकी प्रशंसा की
जा रही थी, युद्ध में बजने वाले तूर्य का घोष सब जगह
परिव्याप्त हो रहा था। भेरी एवं मृदङ्ग के नाद के साथ-साथ चारों प्रकार के विशिष्ट
वाद्य बज रहे थे, ऐसा वह राक्षसराज हाथी, घोड़े, रथ, एवं पैदल सैनिकों
(से घिरा हुआ) के साथ नगर (चित्रवतीपुरी) से बाहर निकला ।। ३-४ ॥
उल्लङ्घय सप्तप्राकारान् योजनानां
शतोन्नतान् ।
हस्तान् प्रसार्य संगृह्य
सुग्रीवादीनभक्षयत् ।। ५ ।।
उसके बाद वह सहस्रकण्ठ सप्त
प्राकारों को पार कर, सैकड़ों योजन अपना
विस्तार करके, अपने हाथों को फैला करके सुग्रीव आदि वानरों
को पकड़-पकड़ कर खाने लगे ॥५॥
वदनेषु – प्रविश्यैते कर्णेभ्यः
कपिकुञ्जराः ।
नासिकाभ्यश्च निर्गत्य
रामसन्निधिमाययुः ।। ६।।
वानरों का समूह उसके मुख एवं कानों
से प्रवेश करके नासिका (नाक) से निकल-निकल कर राम के समीप पहुँचे ॥६॥
एतस्मिन्नन्तरे देवाः
यक्षविद्याधरोरगाः ।
किन्नराः गुह्यकाः सिद्धाः साध्याः
किम्पुरुषास्तदा ।। ७ ।।
ब्रह्मर्षयो महर्ष्याद्याः पिशाचाः
दैत्यराक्षसाः ।
द्रष्टुं समागताः युद्धं
रामसाहस्रकण्ठयोः ।।८।।
इसी बीच सभी देवतागण,
यक्ष, विद्याधर, नाग,
किन्नर, गुह्यक, सिद्ध
एवं साध्यगण किम्पुरुष (नुपंसक, हिजड़े), ब्रह्मर्षि, महर्षियों आदि के साथ-साथ पिशाच,
दैत्य एवं राक्षस भी राम एवं सहस्रकण्ठ के बीच होने वाले युद्ध को
देखने के लिए आ पहुँचे ॥ ७-८ ॥
दृष्ट्वा तस्याहवं घोरं बबु (भू)
वुर्भयविह्वलाः ।
न शक्नुस्तत्र ते स्थातुं रणभूमिं
विहाय वै ।।९।।
उस वीर राक्षस के भयंकर युद्ध को
देखकर,
रामपक्षीय सेना अत्यधिक व्याकुल हो गयी थी, लेकिन
फिर भी रणभूमि को छोड़कर वे लोग (दर्शकगण) वहाँ से जाने में समर्थ नहीं हो पा रहे
थे, अर्थात् वे वहाँ से जाना नहीं चाहते थे ॥ ९ ॥
विमानेष्वपि चारुह्य ह्याकाशे दूरतः
स्थिताः ।
सहस्रकण्ठदैत्येन्द्रो गगने ददृशे च
तान् ।। १० ।।
वह दैत्यराज सहस्रकण्ठ विमान में
चढ़कर भी,
कभी दूर आकाश में खड़ा दिखायी पड़ता था, तो
कभी गगन (आकाश) में उन लोगों को नजदीक दिखायी पड़ता था ॥ १० ॥
एतेऽपि शत्रवो मे वै प्रहरामि
समागतान् ।
एवं विचार्य मनसि दुष्टो
राक्षससत्तमः ।।११।।
रणभूमिं विहायाशु गतोड्डीय
क्षणात्ततः ।
उड्डीयोड्डीय संगृह्य विमानानि
तदासुरः ।। १२ ।।
चिक्षेप भूतले दैत्यो क्रुधा
तानहनत्प्रिये ।
ऋषीन् दृष्ट्वा मुमोचान्
ब्रह्मर्षीननलप्रभान् ।। १३ ।।
सहस्रकण्ठ बोला ! ये सभी मेरे शत्रु
हैं और आये हुए मैं सभी लोगों को मार डालूँगा। ऐसा मन में सोचकर वह राक्षसवीर, तुरन्त रणभूमि को छोड़कर ऊपर उड़ जाता, कभी तुरन्त
नीचे आ जाता। ऊपर ही ऊपर उड़ करके वह राक्षस विमानों को इकट्ठा कर लेता। हे प्रिये!
(भगवान शंकर पार्वती से कहते हैं) इसके बाद क्रोधित होकर उन्हें पृथ्वी में फेंक
देता, जिससे बहुत से वानर मर जाते। ऋषियों और ब्रह्मर्षियों
को देखकर उसने अग्नि- बाण छोड़ा ।।११-१३॥
तदा ह्यनर्थमूलं च राक्षसं भीमविक्रमम्
।
अवोचन् ऋषयस्तत्र निर्भयाः
गतसाध्वसाः ।। १४ ।।
शृणु राक्षस दैत्येन्द्र वदामस्ते
प्रियं हितम् ।
रामो राक्षसनाशार्थं
ह्यवतीर्णोऽस्ति भूतले ।। १५ ।।
इसके बाद उस भयंकर राक्षस को अनर्थ
का मूल समझकर ऋषियों ने कहा कि अब साधु (सज्जन) लोग निर्भय हो जाये। हे
दैत्येन्द्र सहस्रकण्ठ ! सुनो, हम तुम्हें
प्रिय एवं हितकर बातें कह रहे हैं कि राम ने राक्षसों का विनाश करने के लिए पृथ्वी
में अवतार लिया है ।।१४-१५॥
दशग्रीवस्य हननं सपुत्रं सहबान्धवम्
।
कृतं रामेण च पुरा श्रुतं
वाल्मीकिनोदितम् ।। १६ ।।
दशग्रीव (रावण) का वध,
उसके पुत्र (मेघनाद) एवं भाई (कुम्भकर्ण) सहित राम के द्वारा पहले
किया गया है, ऐसा सुना जाता है और महर्षि वाल्मीकि ने इस
प्रसंग को रामायण में कहा (बताया) भी है ॥ १६ ॥
शतग्रीवस्य मरणं यस्यानुचरहस्ततः ।
पाताललङ्के यज्जातं वसिष्ठस्य
मुखाच्छुतम् ।। १७ ।।
उसके बाद शतग्रीव का उसके अनुचरों
सहित मरण एवं पाताल लङ्का में जो (अहिरावण का वध ) कुछ हुआ,
उसे वशिष्ठ के मुख से सुना भी गया है ॥१७॥
शाकद्वीपनिवासी च रावणो शतकन्धरः ।
नाशितः सीतया पल्या अगस्त्येनोदितं
पुरा ।। १८ ।।
शाकद्वीप का निवासी शतकन्धर रावण,
राम की पत्नी सीता के द्वारा विनाश को प्राप्त हुआ, ऐसा प्राचीनकाल में अगस्त्य ऋषि ने बतलाया है ॥ १८ ॥
रामायणेऽद्भुते जातो रावणस्य
वधोद्यमः ।
एवं विधाश्च बहवो राक्षसाः
पिशिताशनाः ।। १९ ।।
रामायण में
रावण को मारने के लिए बहुत से उद्यमों का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार बहुत से
राक्षस एवं पापी लोग मारे जा चुके हैं ॥ १९ ॥
नाशित (T:)
(ते) न रामेण तस्मात् त्वं सङ्गरं त्यज ।
यज्ञीयाश्वं तस्य देहि यदि
जीवितुमिच्छसि ।। २० ।।
इति ते ह्यब्रुवन् सर्वे ऋषयश्च
तपोधनाः ।
ऋ (षी) णां वचनं श्रुत्वा प्रोवाच
वचनं तदा ।। २१ ।।
हे सहस्रकण्ठ ! तुम भगवान राम के द्वारा
न मारे जाओ, इसलिए तुम युद्ध करना छोड़ दो
और यदि तुम जीना चाहते हो, तो वह अश्वमेधीय यज्ञ उस (राम) को
दे दो। ऐसा सभी तपस्वियों एवं ऋषियों ने कहा, तब ऋषियों के
वचन सुनकर सहस्रकण्ठ ने कहा ॥ २०-२१ ॥
शृणुध्वम् ऋषयः सर्वे यद्यसौ
निहनिष्यति ।
न मेऽस्ति भीश्च मरणे यदि हन्ता
ममास्तु वै ।। २२ ।।
हे सभी ऋषियों सुनो ! यदि आज वह
(राम) मुझे मार डालेगा, तो मुझे मरने का
कोई भय नहीं है, भले ही आज वह मेरा हन्ता बन जाये ॥ २२ ॥
विनाशी (शो) विग्रहोऽस्तीह
तस्यार्थे किं विलापनम् ।
वीराणां च स्वभावो हि न पश्चात्
परिवर्तनम् ।। २३ ।।
यह शरीर तो विनाशी एवं विग्रहशील
(मरणशील) है ही, उसके लिए विलाप ही क्यों किया
जाये ? वीरों का तो यह स्वभाव ही है कि वह अपने कार्य से
परिवर्तित नहीं होते अर्थात् यदि युद्ध में आ गये, तो फिर
पीछे नहीं मुड़ते या मुड़कर नहीं देखते ॥ २३ ॥
इति सहस्रकण्ठवचो निशम्य मुनयो
विमला विचार्य मानसे ।
न समर्था भवितव्यनिवारणे कथनं विफलं
च चास्मदीयानाम् ।। २४ ।।
सहस्रकण्ठ के ऐसे वचनों को सुन करके
स्वच्छ मन वाले मुनियों ने अपने मन में विचार किया कि हम लोग भवितव्यता रोकने में
समर्थ नहीं हैं, तब अब हमारा कथन विफल नहीं होगा
॥२४॥
इति श्रीशैवरामायणे
शिवपार्वतीसंवादे सहस्रकण्ठ- ऋषिप्रस्तावे षष्ठोऽध्यायः ।
इस प्रकार शिवपार्वती संवाद रूप में
प्राप्त शैवरामायण का सहस्रकण्ठ ऋषि प्रस्ताव नामक छठा अध्याय समाप्त हुआ।
आगे जारी.......... शैवरामायण अध्याय 7
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