अद्भुत रामायण सर्ग २४
अद्भुत रामायण सर्ग २४ में ब्रह्मादि
देवताओं द्वारा जानकीजी का स्तुति करना तथा देवों का राम को आश्वासन करना का वर्णन
किया गया है।
अद्भुत रामायणम् चतुर्विंशंति: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 24
अद्भुत रामायण चौबीसवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण चतुर्विंशति सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग २४– रामाश्वासन
अथ अद्भुत रामायण सर्ग २४
संरंभवेगं सीताया वीक्ष्य
ब्रह्मपुरो गमाः ।।
सलोकपालास्त्रिदशा ऋषिभिः पितृभिः
सह ॥ १ ॥
तब सीता का इस प्रकार वेग और क्रोध
देखकर लोकपाल देवता और पितर तथा ब्रह्माजी ।। १ ।।
प्रसादयितुमुद्युक्ताः सीतां ते
तुष्टुवुः सुराः ॥
कृताञ्जलिपुटा देवाः प्रणम्य च पुनः
पुनः ॥ २ ॥
वे सीता के प्रसन्न करने को युक्त
हो उन्हें सन्तुष्ट करने लगे, देवता हाथ जोड
बारंबार प्रणाम कर ।। २ ।।
अद्भुत रामायण सर्ग २४
इससे आगे श्लोक ३ से २१ तक देवों द्वारा
माँ भद्रकाली सीताजी की स्तुति दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
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अद्भुत रामायण सर्ग २४
एतच्छ्रुत्वाविशालाक्षी
ब्रह्मणोऽभ्यर्थनं वचः ॥
प्रीता सीता तदा प्राह ब्रह्माणं
सहदैवतम् ॥ २२ ॥
वह विशाला श्रीब्रह्माजी- की यह
प्रार्थना सुनकर प्रसन्न हो ब्रह्मादि देवतों से कहने लगी ।। २२ ।।
पतिर्मे पुंडरीकाक्षः पुष्पकोपरि
राघवः ।।
विद्धः क्षुरप्रेण हृदि शेते
मृतकवत्प्रभुः ।। २३ ।।
हमारे पति कमललोचन राम पुष्पक विमान
पर तीक्ष्ण बाण से विद्ध हुए मृतक के समान सोते हैं ।। २३ ।।
तस्मिन्नेव स्थिते देवा: छ
जगद्धितम् ॥
ग्रासमेकं करिष्यामि जगदेतच्चराचरम्
।। २४ ॥
हे देवताओ ! उनके ऐसे होने में
जगत्के हित की किस प्रकार इच्छा कर सकती हूं, इस
चराचर जगत्का एक ही ग्रास कर जाऊंगी ।। २४ ॥
श्रुत्वैतद्वचनं देव्याः संरंभसहित
सुराः ।
हाहाकारं प्रचक्रस्ते संचचाल च
मेदिनी ।। २५ ।।
संरम्भ सहित देवता देवी के यह वचन
सुनकर हाहाकार करने लगे, और पृथ्वी चलायमान
हो गई ।। २५ ।।
ततो ब्रह्मा सुरैः सार्द्धं पुष्पकं
रथमास्थितम् ॥
श्रीरामं ग्राहयामास स्मृति
स्पृष्ट्वा स्वपाणिना ॥ २६ ॥
तब ब्रह्माजी ने देवताओं सहित
पुष्पक में स्थित श्रीराम को हाथ से स्पर्श कर स्मृति दिलाई ॥ २६ ॥
उत्तस्थौ च महाबाहू रामः कमललोचनः
।।
रे रावण सुदुष्टस्त्वमद्य
मद्बाणभेदितः ।। २७ ।।
तव तत्काल महाबाहु राम उठ बैठे,
और बोले अरे रावण ! तू आज मेरे वाण से भेदित होकर ।। २७ ।।
द्रक्ष्यस्याशु यमस्यास्यं भ्रकुटीभीषणाकृति
॥
ब्रुवन्नेवं धनुगृह्य
ह्यपश्यत्रिदशान्पुरः ।। २८ ।।
अवश्य भयंकर भौंवाले यमराज का मुख
देखेगा,
जब यह कहकर धनुष ग्रहण किया तब देवताओं को अपने सम्मुख स्थित देखा
।। २८ ।।
नापश्यज्जानकों तत्र प्राणेभ्योपि
गरीयसीम् ॥
नृत्यती चापरां कालीमपश्यच्च
रणांगणे ॥ २९ ॥
परन्तु प्राण प्यारी जानकी को वहां
नहीं देखा युद्धस्थल में नृत्य करती हुई महाकाली को देखा ।। २९ ।।
चतुर्भुजां चलज्जिह्वां
खङ्गर्खपरधारिणीम् ॥
शवरूपमहादेवहृत्संस्थां च दिगंबराम्
॥ ३० ॥
और स्थिति के निमित्त शवरूपधारी महादेव
को देखा चार भुजा चलजिह्वा खङ्गखर्परधारिणी जानकी को देखा।।३०।।
पिबन्तीं रुधिरं भीमां कोटराक्षीं
क्षुधातुराम् ॥
जगद्ग्रासे कृतोत्साहां
मुण्डमालाविभूषणाम् ।। ३१ ।।
वह कोटराक्षी महाभयंकर खड्ग खर्पर
धारण किये दिगम्बर जगत् के ग्रास में उत्साह करती मुण्डमाला के गहना पहरे
।। ३१ ।।
भीमाकाराभिरन्याभिः क्रीडंतीं
रणमूर्द्धनि ॥
मुण्डे राक्षसराजस्य खेलंतीं कंदुकं
मुदा ॥ ३२ ॥
और दूसरी भयंकर कन्दुक मूर्ति धारण
किये हुए मृतकाओं के साथ रणभूमि में क्रीडा करते देखा,
और राक्षसराज के शिर के संग कन्दुक क्रीडा करते देखा ।। ३२ ।।
प्रलयध्वांतधाराभां सदा
घर्घरनादिनीम् ॥
अन्त्रमुण्डकरोटयक्षकृतमालां
चलत्पदाम् ।। ३३ ।।
प्रलयकाल के अन्धकार के समान सदा घर्घर
शब्द करनेवाली आँते शिर हाथ नेत्रों की माला बनाये पद चलाती ।। ३३ ।।
कबन्धान्राक्षसानां च तया सह
विनत्यतः ।।
रथवाजिगजानां च शकलानि व्यलोकयत्यय्
॥ ३४ ॥
मृतक राक्षसों के कबन्धों के साथ
नृत्य करती, रथ घोडे हाथियों को टुकडों को
देखती हुई ।। ३४ ॥
नैकोपि राक्षसो यत्र करपादशिरोयुतः
।।
कबन्धा ये च नृत्यंति तेषां पादाः
प्रतिष्ठिताः ।। ३५॥
कोई भी राक्षस हाथ पैर शिर से युक्त
नहीं था,
जो कबन्ध नृत्य करते थे केवल उन्हीं के चरण स्थित थे ।। ३५ ।।
कबंधं रावणस्यापि नृत्यन्तं च
व्यलोकयत् ।।
तदृष्टवा मुमहाघोरं प्रेतराजपुरोपमम्
।। ३६ ॥
रावण का कबन्ध भी नृत्य करते देखा वह
स्थान महाघोर प्रेतराज के पुर के समान देखकर ।। ३६ ।।
काली च वीक्ष्य नृत्यंतों मातृभिः
सहितां द्विज ।
पपात हस्ताद्रामस्य वेपताः सशरं
धनुः ॥ ३७ ॥
हे द्विज ! मातृकाओं के सहित
महाभयंकर काली को नृत्य करती देख कम्पित हुए राम के हाथ से धनुष बाण गिर पड़ा
।। ३७ ।।
भयाच्च निमिमीलाशुः रामः पद्म
विलोचने ।
इत्येवं विस्मितं दृष्ट्वा
ब्रह्मोवाच रघूत्तमम् ॥ ३८ ॥
और डर से रामचन्द्र ने अपने दोनों
कमल के से नेत्र मीच लिये, इस प्रकार विस्मित
देखकर रामचन्द्र से ब्रह्माजी कहने लगे ॥ ३८ ॥
त्वां दृष्ट्वा विह्वलं सीता
क्रुद्धं चापि च रावणम् ।।
रथादवस्कन्द्यसती पपात रणमूर्द्धनि
।। ३९ ।।
जानकी आपको विह्वल और रावण को
क्रुद्ध देखकर तत्काल युद्धस्थल विमान से कूद पडी ।। ३९ ।।
भीमां च मूर्तिमालम्ब्य रोमकूपाश्च
मातृकाः ।
निर्माय ताभिः सहिता हत्वा
रावणमग्रतः ॥ ४० ॥
और उस भयंकर मूर्ति का अवलम्बन कर
अपने रोमकूप से मातृका उत्पन्न कर तन के सहित क्रीडा कर रावण का वध किया ।। ४०।।
रक्षसां निधनं कृत्वा नृत्यंतीयं
व्यवस्थिता ।
अनया सहितो राम सृजस्यवसि हंसि च ॥
४१ ॥
अब यह राक्षसों का वधकर व्यवस्थित
हो नृत्य करती हैं, हे राम ! इनके सहित
आप जगत् उत्पन्न कर नष्ट कर देते हैं ।। ४१ ।।
नानया रहितो राम किंचित्कर्तुमपि क्षमः
॥
इति बोधयितुं सोता चकार तद निंदिता
॥ ४२ ॥
हे राम ! इनके विना आप कुछ भी नहीं
कर सकते हो यही दिखाने को जानकी ने यह कार्य किया है ।।४२।।
पश्यैतां जानकीं राम त्यज भीतिं
महाभुजा ।
निर्गुणां सगुणां
साक्षात्सदसद्यक्तिवजताम् ।। ४३ ।।
हे राम ! आप इन जानकी को देखिये भय
त्यागन कीजिये, यह साक्षात् निर्गुण सत् असत्
व्यक्ति से रहित हैं ।। ४३ ।।
इत्येतद्गुहिणवचो निशम्य रामः
श्रुतिमुखमात्महितं पराभिर्माद ।।
शुचमनुविजहौ विचार्य किंचिज्जनकसुतामनुपश्यति
स्म पश्चात् ॥ ४४ ॥
इस प्रकार ब्रह्माजी के वचन सुनकर रघुनन्दन राम जो कानों के सुख देनेवाले आत्मा को हितकारक शत्रुनाशक थे राम ने शोक त्याग किया पीछे जानकी को देखा ॥ ४४ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायण वाल्मीकीये
आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे रामाश्वासनं नाम चतुर्विंशतितमः सर्गः ॥ २४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में राम आश्वासन नामक चौबीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ
॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 25
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