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कर्मकाण्ड

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अद्भुत रामायण सर्ग २३

अद्भुत रामायण सर्ग २३  

अद्भुत रामायण सर्ग २३ में जानकी द्वारा सहस्त्रमुखी रावण का वध का वर्णन किया गया है।

अद्भुत रामायण सर्ग २३

अद्भुत रामायणम् त्रयोविशंति: सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 23 

अद्भुत रामायण तेईसवाँ सर्ग

अद्भुतरामायण त्रयोविंशति सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग २३– सहस्रवदनरावणवध

अथ अद्भुत रामायण सर्ग २३         

रामं तथाविधं दृष्ट्वा मुनयो भयविह्वलाः ॥

हाहाकारं प्रकुर्वतः शांति जेपुश्च केचन ॥ १ ॥

रामचन्द्र को इस प्रकार का देख मुनि भय से व्याकुल हो गये और कोई हाहाकार कर शान्तिपाठ करने लगे ।।१।।

तदा तु मुनिभिर्वृष्टा सीता प्रहसितानना ॥

वसिष्ठप्रमुखाः सर्वे सीतां प्रोचुर्महर्षयः ॥ २ ॥

उस समय जानकी को हास्यमुख देखकर वसिष्ठ आदि ऋषि जानकी से कहने लगे ।। २ ।।

सीते कथं भावितोऽयं रावणं राघव स्त्वया ।

समुत्पन्नो विपाकोऽयं घोरो जनकनंदिनि ॥ ३ ॥

हे जानकी ! क्यों इस रावण की वार्ता रामचन्द्र को सुनाई, इसी का घोर- फल रघुनन्दन को उपस्थित हुआ है ।। ३ ।।

क्व गता भ्रातरः सर्वे क्व गता वानरर्षभाः ॥

मंत्रिणः क्व गता भद्रे रामस्य किमुपस्थितम् ॥ ४ ॥

सब भाई और वानर जाने कहां गये, हे भद्रे ! सब मंत्री कहां गये, रघुनाथजी को यह क्या व्यसन उपस्थित हुआ है ॥ ४ ॥

श्रुत्वैतद्वचनं तेषां मुनीनां भावितात्मनाम् ।।

रामं तथाविधं दृष्ट्वा शयानं पुष्पकोपरि ।। ५ ।।

उन मुनियों के इस प्रकार के वचन श्रवण कर और रामचन्द्र को पुष्पक पर मूर्च्छित देखकर ।। ५ ।।

पुंडरीकनिभे नेत्रे निमील्य रणमूर्द्धनि ॥

आलिंग्य चोरसा सुप्तं प्रियामिव धनुः शरम् ॥ ६ ॥

धनुष शर लिये मूर्च्छित राम को आलिंगन कर कमल के से नेत्रों को रणस्थल में मीचकर ।। ६ ।।

नर्दन्तं राक्षसं चापि महाबलपराक्रमम् ॥

साट्टहासं विनद्योच्चैः सीता जनकनंदिनी ॥ ७ ॥

महाबली पराक्रमी राक्षस को शब्द करता देखकर जनकनंदिनी सीता ऊँचे स्वर से अट्टहास करके ।। ७ ।।

स्वरूपं प्रजहौ देवी महाविकटरूपिणी ॥

क्षुत्क्षामाच कोटराक्षी चक्रभ्रमितलोचना ।। ८ ।।

वह महाविकट रूपवाली होकर अपना पूर्वरूप त्यागन करती हुई भूख से व्याकुल कोटराक्षी चक्र के समान भ्रमित लोचन ॥ ८ ॥

दीर्घजंघा महारावा मुंडमालाविभूषणा ।।

अस्थिकिंकिणिका भीमा भीमवेगपराक्रमा ।। ९ ।।

दीर्घजंघा महाशब्दवाली मुण्डमाला के भूषणोंवाली हड्डियों की क्षुद्रघण्टिका पहरे भीम वेग पराक्रमवाली ।। ९ ।।

खरस्वरा महाघोरा विकृता विकृतानना ।

चतुर्भुजा दीर्घतुंडा शिरोऽलंकरणोज्ज्वला ॥ १० ॥

तीक्ष्ण शब्दवाली महाघोर विकृतमुख- वाली चार भुजा दीर्घतुण्ड उज्ज्वल शिर के भूषण पहरे ।। १० ।।

ललज्जिह्वा जटाजूटैर्मण्डिता चण्डरोमिका ।

प्रलयांभोवकालाभा घंटापाशविधारिणी ।। ११ ।।

चलायमान जिह्वा जटाजूट से मण्डित चण्डरोमवाली प्रलयसागर और काल के समान घंटापाश को धारण करनेवालीं ।। ११ ।।

अवस्कंद्य रथात्तूर्णं खर्खपरधारिणी ॥

श्येनीव रावणरथे पपात निमिषान्तरे ॥ १२ ॥

पुष्पक से शीघ्रता से उतरकर खड्ग खर्पर धारण किये वाजिनी के समान रावण के रथ पर टूट पडी ।। १२ ।।

शिरांसि रावणस्याशु निमेषान्तरमात्रतः ।

खड्गेन तस्य चिच्छेद सहस्राणीह लीलया ॥ १३ ॥

एक निमेषमात्र में ही लीला से रावण के सहस्र शिर खङ्ग से काट डाले ।। १३ ।

अन्येषां योद्धृवीराणां शिरांसि नखरेण हि ॥

भिन्ना निपातयामास भूमौ तेषां दुरात्मनाम् ॥ १४ ॥

और भी वीर योधाओं के शिर नखों से तोड तोडकर पृथ्वी में डाल दिये ।। १४ ।

केषांचित्पाटयामास नख कोष्ठानि जानकी ॥

खङ्गेन चाच्छिनत्कांश्चित्क्रूरान्पादांश्च चिच्छिदे ।। १५ ।।

किन्हीं के कोष्ठ नखों से चीर डाले, किन्हीं के चरण आदि अंग खड्ग से काट डाले ।। १५ ।।

खण्डं खण्डं चकारान्यांस्तिलश: कांश्चिदेव हि ।

अन्त्राण्यन्यस्याचकर्ष पादाघातेन काश्चन ॥१६ ॥

किन्हीं के अंग खड्ग से तिल के बराबर काटकर चूर्णकर दिये, किसी को चरणाघात कर आंतें निकालकर खेंचन लगी ।। १६॥

पार्श्वेन निजघानान्यान्पाष्णिनान्यानपोथयत् ।।

कांश्चिच्छरीरवातेन दृष्ट्वाप्यन्यानपातयत् ।। १७ ।।

पार्श्वभाग से इधर उधर के राक्षसों को प्रहार करने लगी, किन्हीं को शरीर की पवनों से नष्ट करती हुई ।। १७ ।।

प्रलयं कुर्वती सीता राक्षसानां भयंकरी ।

निजघानाट्टहासेन कांश्चित्पृष्ठे द्विधाकरोत् ॥ १८ ॥  

वह राक्षसों को भयदायक प्रलय करने लगी, किसी को अट्टहास कर पृष्ठभाग से दो टुकडे करती हुई ।। १८ ।।

कांश्चित्केशान्समाकृष्य निष्पिपेष महीतले ।

सारथान्सगजान्साश्वान्सगदासहतोमरान् ॥ १९ ॥

किन्हीं के केश पकडकर पीस डालती हुई रथ हाथी घोडे तोमरों सहित ।। १९ ।।

कांश्चिद्योधान्समाकृष्य मज्जया-मास वारिधौ ॥

गले चोद्वद्धय केषांचित्प्राणाञ्जग्राह जानकी ॥ २० ॥

खँचकर किसी को सागर में डुबाती हुई, किसी का गला घोटकर जानकी ने प्राण हरण कर लिये ।। २० ॥

केषांचित्स्कंध आरुह्य शिरांस्युत्पाटितानि हि ।

हुंकारेणाट्टहासेन कांश्चित्प्राणानहापयत् ॥ २१ ॥

किन्हीं के कंधे पर कूदकर शिर तोडती हुई, किन्हीं के प्राण अट्टहास और हुंकार से हरण कर लिये ।। २१ ।।

कांश्चित्प्रचूर्ण्य वदनं पशुमारममारयत् ।

तान्सर्वान्निमिषेणैव निहत्य जनकात्मजा ॥ २२ ॥

किन्हीं के वदन को चूर्ण कर पशुओं के समान मार डाला. इस प्रकार एक निमेषमात्र में जानकी उन सबको मारकर।२२।।

तेषामंत्रेण शिरसां मालाभिः कृतभूषणा ।।

रावणस्य शिरांस्युग्राण्यादाय रणर्मूर्द्धनि ॥ २३ ॥

उनके शिरों की माला बनाकर धारण करती हुई और रणस्थल में वे रावण के शिर लेकर ।। २३ ।।

कंदुकक्रीडनं कर्तुं मनश्चक्रे मनस्विनी ॥

एतस्मिन्नंतरे तस्यां रोमकूपेभ्य उद्गताः ॥ २४ ॥

उनसे वह मनस्विनी गेंद का खेल करने की इच्छा करने लगी इसी अवसर में उसके रोमकूप से निकलकर ।।२४।।

मातरो विकृताकाराः साट्टहासाः समाययुः ।

सह कदुकलीलार्थे सीतया ताः सहस्रशः ॥२५ ।।

विकृत आकारवाली माताएँ हँसती हुई प्राप्त हुई, वह सहस्रों कंदुक क्रीडा में जानकी को सहायता देने लगीं।।२५।।

तासां कासांचिदाख्यास्ये नामानि सुव्रत ।

याभिर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः कल्याणीभिश्चराचराः ॥ २६

हे सुव्रत् उनमें किन्हीं के नाम मैं कहता हूं, जिन कल्याणियों से त्रिलोकी व्याप्त रही है ।। २६ ।।

प्रभावती विशालाक्षी पालिता गोनसी तथा ।

श्रीमती बहुला चैव तथैव बहुपुत्रिका ॥ २७ ॥

प्रभावती, विशालाक्षी, पालिता, गोनसी, श्रीमती, बहुला, बहुपत्रिका ।। २७ ।।

अप्सुजाता च गोपाली बृहदंबालिका तथा ॥

जयावती मालतिका ध्रुवरत्ना भयंकरी ॥ २८ ॥

अप्सुजाता, गोपाली, बृहदम्बालिका, जयावती, मालतिका, ध्रुवरत्ना, भयंकरी ।।२८।।

वसुदामा सुदामा च विशोका नंदिनी तथा ॥

एकचूडा महाचूडा चक्रनेमिश्चटीतमा ।। २९ ।।

सुदामा, वसुदामा, विशोका, नंदिनी, एकचूडा, चक्रनेमि, चटीतमा ।। २९ ।।

उसेजनी जया सेना कमलाक्ष्यथ शोभना ।

शत्रुंजया तथा चैव क्रोधना शलभी खरी ॥ ३० ॥

उत्तेजनी, जया, सेना, कमलाक्षी, शोभना, शत्रुञ्जया, क्रोधना, शलभी, खरी ।। ३० ।।

माधवी शुभ्रवस्त्रा च तीर्थसेनी जटोज्ज्वला ॥

गीतप्रिया च कल्याणी कद्ररोमामिताशना ॥ ३१ ॥

माधवी, शुभ्रवस्त्रा, तीर्थसेना, जटा, उज्ज्वला, गीतप्रिया, कल्याणी, कगुरोमा, अमिताशना ।। ३१ ।।

मेघस्वना भोगवती सुश्रूश्च कनकावती ॥

अलाताक्षी वेगवती विद्युज्जिह्वा च भारती ॥ ३२ ॥

मेघस्वना, भोगवती, सुभ्रू, कनकावती, अलाताक्षी, वेगवती, विद्युज्जिह्वा, भारती ।। ३२ ।।

पद्मावती सुनेत्रा च गंधरा बहुयोजना ॥

सन्नालिका महाकाली कमला च महाबला ॥ ३३ ॥ 

पद्मावती, सुनेत्रा, गंधरा, बहुयोजना, सन्नालिका, महाकाला, कमला, महाबला ।।३३।।

सुदामा बहुदामा च सुप्रभा च यशस्विनी ॥

नृत्यप्रिया परानन्दा शतोलूखलमेखला ॥ ३४ ॥

सुदामा, बहुदामा, सुप्रभा, यशस्विनी, नृत्यप्रिया, परामंदा, शतोलूखमलमेखरा ।। ३४ ।।

शतघंटा शतानंदा आनन्दा भवतारिणी ॥

वपुष्मती चंद्रसीता भद्रकाली सटामला ।। ३५ ।।

शतघंटा, शतानन्दा, आनन्दा, भवतारिणी, वपुष्मती, चन्द्रसीता, भद्रकाली, सठामला ।। ३५ ।।

झंकारिका निष्कुटिका रामा चत्वरवासिनी ॥

सुमला सुस्तनवती वृद्धिकामा जयप्रिया ॥ ३६ ॥

झंकारिका, निष्कुटिका, रामा, चत्वरवासिनी, सुमला, सुस्तनमती, वृद्धिकामा, जयाप्रिया ।। ३६ ।।

धना सुप्रसादा च भवदा च जनेश्वरी ॥

एडी भेडी समेडी च वेतालजननी तथा ॥ ३७ ॥

धनदा, सुप्रसादा, भवदा, जनेश्वरी, एडी, समेडी, भेडी, वेतालजननी ।। ३७ ।।

कंदुतिः कंदुका चैव वेदमित्रा सुदेविका ॥

लम्बात्या केतकी चैन चित्र सेना चलाचला ॥ ३८ ॥

कंदुति, कन्दुका, वेदमित्रा, सुदेविका, लम्वास्या, केतकी, चित्रसेना, चला, अचला ।। ३८।।  

कुक्कुटिका श्रृंखलिका तथा शंकुलिका हडा ।

कन्दालिका कालिका कुंभिकाथ शतोदरी ॥ ३९ ॥

कुक्कुटिका, श्रृंखलिका, संकुलिखा, हडा, कंदालिका, काकलिका, कुंभिका, शतोदरी ।। ३९ ।।

उत्क्रार्थिनी जबेला च महावेगा च कंकिनी ।।

मनोजवा कटकिनी प्रघसा पूतना तथा ॥ ४०॥  

उत्क्राथिनी, जवेला, महावेगा, कंकिनी, मनोजवा, कटकिनी, प्रवसा, पूतना ।। ४० ।।

खेशया चातिद्रढिमा क्रोशनाथत डित्प्रभा ।

मंदोदरी च तुंडीच कोटरा मेघवाहिनी ॥ ४१ ॥

खेशया, अतिद्रढिमा, क्रोशना, तडित्प्रभा, मन्दोदरी, तुंडी, कोटरा, मेघवाहिनी ।। ४१ ।।

सुभगा लंबिनी लंबा बहुचूडा विकत्थिनी ॥

ऊर्ध्ववेणीधरा चैव पिंगाक्षी लोहमेखला ॥ ४२ ॥

सुभगा, लम्बिनी, लम्बा, बहुचूडा, विकत्थिनी, ऊर्ध्ववेणीधरा, पिंगाक्षी, लोहमेखला ।। ४२ ।।

पृथुवक्त्रा मधुलिहा मधुकुंभा तथैव च ।

यक्षाणिका मत्सरिका जरायुर्जर्जरानना ।। ४३ ।।

पृथुवा, मधुलिहा, मधुकुंभा, यक्षणिका, मत्सरिका, जरायु, जर्जरानना ।। ४३ ।

ख्याता डहडहा चैव तथा धमधमा द्विजा ।

खंडखंडा पृथुश्रोणी पूषणामणि कुट्टिका ॥ ४४ ॥

ख्याता, दहपहा, धमधमा, खण्डखण्डा, पृथुश्रेणी, पूषणा, मणिकुट्टिका ।। ४४ ।।

अम्लोचा चैव निम्लोचा तथा लंबपयोधरा ॥

वेणुवीणाधरा चैव पिंगाक्षी लोहमेखला ।। ४५ ।।

अम्लोचा, निम्लोचा, पयोधरा, वेणुवीणाधरा, पिंगाक्षी, लोहमेखला ।। ४५ ।।

शशोलूकमुखी हृष्ट्वा खरजंघा महाजरा ।

शिशुमारमुखी श्वेता लोहिताक्षी विभीषणा ।। ४६ ।।

शशोलूकमुखी, हृष्टा, खरजंघा, महाजरा, शिशुरामुखी, श्वेता, लोहिताक्षी, विभीषणा ।। ४६ !!

जटालीका कामचरी दोर्घजिह्वाबलोत्कटा ॥

कालाहिकाया मालीका मुकुटामुकुटेश्वरी ।। ४७ ।।

जटालीका, कामचारी, दीर्घजिह्वा, बलोत्कटा, कालाहिका, मालीका, मुकुटा, मुकुटेश्वरी ।। ४७ ।।

लोहिताक्षी महाकाया हविष्पिंडा च पिंडिका ॥

एकत्वचा सुकर्मा च कुल्लाकण च कर्णिका ॥४८

लोहिताक्षी, महाकाया, हविष्पिण्डा, पिंडिका, एकत्वचा, सुकूर्मा, कुल्लाकर्णी, कर्णिका ।। ४८ ।।

सुरकर्णी चतुकर्णी कर्णप्राव रणा तथा ॥

चतुष्पथनिकेता च गोकर्णी महिषानना ।। ४९ ।।

सुरकर्णी, चतुष्कर्णी, कर्णप्रावरणा, चतुष्पथ, निकेता, गोकर्णी, महिषानना ।। ४९ ।।

खरकर्णी महाकर्णी भेरीस्वनमहास्वना ।।

शंखकुंभश्रवा चैव भगदा च महाबला ॥ ५० ॥

खरकर्णी, महाकर्णी, भेरीस्वना, महास्वना, शंखकुम्भश्रवा, भगदा, महाबला ।। ५० ॥

गणा च सुगणा चैव कामवाप्यथ कन्यका ॥

चतुष्पथरता चैव भूतितीर्थान्यगोचरा ।। ५१ ।। गणा, सुगणा, कामदा, कन्यका, चतुष्पथ, रता, भूतितीर्था, अन्यगोचरा ।। ५१ ।।

पशुवा विभुदा चैव सुखदा च महायशाः ।

पयोदा गोमहिषदा सुविशाला चतुर्भुजा ॥ ५२ ॥

पशुदा, विभुदा, सुखदा, महयशा, पयोदा, गोमहिषदा, सुविशाला, चतुर्भुजा ।। ५२ ।।

प्रतिष्ठा सुप्रतिष्ठा च रोचमाना सुलोचना ।

नौकर्णी मुखकर्णी च विशिरा मंथिनी तथा ॥ ५३ ॥

प्रतिष्ठा, सुप्रतिष्ठा, रोचमाना, सुलोचना, नौकर्णी, मुखकर्णी, विशिरा, मंथिनी ।। ५३ ।।

एकनका मेघरवा मेघवामा द्विरोचना ।

एताश्चान्याश्च बहवो भातरः कोटिकोटिशः ॥ ५४ ॥

एकमुखी, मेघरवा, मेघवामा, द्विरोचना, इसके सिवाय और भी अनेकों मातायें थीं ।। ५४ ।।

असंख्याताः समाजग्मुःक्रीडितुं सीतया सह ॥

दीर्घवक्ष्यो दीर्घदंत्यो दीर्घतुंड्यो द्विजोत्तम ।। ५५ ।।

वे असंख्य जानकी के साथ क्रीडा करने को आई, दीर्घं वक्षस्थलवाली, दीघं दांतोंवाली, दीर्घनासिकावाली।।५५।।

सरसा मधुराश्चैव यौवनस्थाः स्वलंकृताः ॥

माहात्म्येन च संयुक्ताः कामरूपधरास्तथा ।। ५६ ।।

सरस मधुर यौवनमती स्वलंकृत महिमा से संयुक्त कामरूपधारिणी ।। ५६ ।।

निर्मासगात्र्यः श्वेताश्च तथा कांचनसंनिभाः ॥

कृष्णमेघनिभाश्चान्या धून्राश्च द्विजपुङ्गव ।। ५७ ।।

निर्मास गात्रवाली, श्वेता, कांचन के समान, कृष्णमेघ के समान कोई धूम्रवर्ण वाली ।। ५७ ।।

अरुणाभा महाभागा दीर्घकेश्यः सिताम्बराः ॥

ऊर्ध्ववेणीधराचैव पिंगाक्ष्यो लंबमेखलाः ॥ ५८ ॥

अरुणाभा, महाभागा, दीर्घबालोंवाली, श्वेतवस्त्र पहरे, ऊर्ध्ववेणी धारे, पिंगाक्षी, लम्बायमान मेखला ।। ५८ ।।

लंबोदर्यो लम्बकर्ण्यस्तथा लम्बपयोधराः ॥

तान्त्राक्ष्यस्तानवर्णाश्च हर्यक्ष्यश्च तथापराः ।। ५९ ।।

लम्बे पेट, लम्बे कानवाली लम्बे पयोधरवाली, ताम्रवर्ण के नेत्रवाली हर्यक्षी ।। ५९ ।।

शत्रूणां विग्रहे नित्यं भय- नास्ता भवत्यपि ॥

कामरूपधराश्चैव जवे वायुसमास्तथा ॥ ६० ॥

शत्रुओं के विग्रह में नित्य भय देनेवाली होती हैं वे कामरूप धारिणी वेग में वायु के समान हैं ।। ६० ।।

शिरांसि रक्षसां गृह्य गंडशैलोपमान्यपि ।

चिक्रीडुः सीतया सार्द्धं तस्मिन्नणधरातले ।। ६१ ।।

पर्वत शिखर के समान राक्षसों के शिर को ग्रहण कर धरातल में जानकी के साथ क्रीडा करने लगी ।। ६१ ।।

मुंडमालाधराश्चैव काश्चिन्मुण्ड विभूषणाः ।

रणांगणे महाघोरे गृध्नकंकशिवान्विते ॥ ६२ ॥

कोई मुण्डमाला धारण किये कोई मुण्डों के भूषण पहरे महाघोर रणस्थल जो कि गृध्र कंक और गीदडों से युक्त था ।६२।

मांसासूपकिले घोरे तत्र तत्र पुरोपमे ।।

ननर्त जानकी देवी घोर काली महाबला ।। ६३ ।।

तथा मांस रुधिर के कीच से युक्त उस पुर के समान उस रणस्थल में महाकाली महाबला महाघोर जानकी देवी नृत्य करने लगी ।। ६३ ।।

तदा चकंपे पृथिवी नौरिवानिलचालिता ।।

लुश्च भूधराः सर्वे समुदाश्च चकंपिरे ॥ ६४ ॥

तब नौका के समान चलायमान हो पृथ्वी कंपित होने लगी, सब पर्वत चलायमान और सागर कंपित हो गये ।। ६४ ॥

स्वगणां च विमानानि खात्पेतुर्भयतो द्विज ।।

सूर्यस्य दुद्रुवुर्भीता वाजिनो मुक्तरश्मयः ।। ६५ ।।

डर से देवताओं के विमान आकाश से गिरने लगे, सूर्य के घोडे मार्ग त्यागने लगे ।। ६५ ।।

यदा न सेहे जानक्याः भारं सोढुं वसुंधरा ॥

गंतुमैच्छत पातालं सीतापादाग्रपीडिता ।। ६६ ।।

जब पृथ्वी जानकी का भार सहने को समर्थ न हुई और सीता के चरणग्र से पीडित हो पाताल में जाने लगी ।। ६६ ।।

अट्टहासेन सीताया मातृणां हुंकृतेन च ।।

प्रलयं मेनिरे लोकाः किमेतदिति विह्वलाः ।। ६७॥

सीता के अट्टहास और मातृकाओं के हुंकार से यह क्या हुआ इस प्रकार कहते लोक प्रलय मानने लगे ।। ६७ ।।

धरापातालगमनं वितवर्ग सुरसत्तमैः ॥

संप्रार्थितो महादेवः स्वयमायाद्रणाजिरम् ॥ ६८ ॥

देवता धरा को पाताल में जाता देख महादेव से प्रार्थना करने लगे, तब वे संग्राम स्थल में आये ।। ६८ ।।

जानक्याः पादविन्यासे शवरूपधरो हरः ॥

आत्मानं स्तंभयामास धरणीधृतिहेतवे ।। ६९ ।।

तब शव के समान रूप धारण कर शिव पृथ्वी थामने को जानकी के नीचे स्थित हुए, और अपने को स्थित किया ।।६९।।

सर्वभारसहो देवः सीतापाइतले स्थितः

शवरूपो विरूपाक्षः स्थिताभूद्धरातदा ॥ ७० ॥

सीता के पगतल में स्थित हो देव सम्पूर्ण भार सहन करने लगे तब शवरूपधारी पृथ्वी स्तंभित हुई ।। ७० ।।

तथाप्युपरिगा लोका न स्थातुं सेहिरे क्षणम् ॥

सीतायाः पादशब्देन शिरसा हुंकृतेन च ॥

निःश्वासवातसंघातैर्दुः स्थिता भूर्भुवादयः ॥ ७१ ॥  

परन्तु ऊपर के लोक उस समय भी स्थित न हो सके, सीता के चरणशब्द और शिर के हुंकार से तथा निश्वास की पवन से भूर्भुवः स्व आदि लोक अस्वस्थ हो गये ।। ७१ ।।

धरणितनयया यद्भीमनृत्यं धरण्यां कृतमिह मनसा तच्चितयंतो द्विजेंद्राः ॥

जयति जयति सीतेत्याहुरिंद्रादिदेवाः सपदि भुवन भंगं मन्यमाना विषेदु ।। ७२ ।।

धरणीतनया ने जो भयंकर नृत्य पृथ्वी पर किया, उसके मन में विचार करते द्विजेन्द्र इन्द्रादिक देवता जय जय करने लगे और संसार भंग होगा ऐसा मानने लगे ।। ७२ ।।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायण वाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे सहस्रवदन- रावणवधो नाम त्रयोविंशतितमः सर्गः ॥ २३ ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में सहस्रवदन- रावण का वध नामक तेईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 24

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