अद्भुत रामायण सर्ग १८
अद्भुत रामायण सर्ग १८ में रावण की सेना का निकलने का वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् अष्टादश: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 18
अद्भुत रामायण अट्ठारहवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण अष्टादश सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग १८ – रावण सेना
अथ अद्भुत रामायण सर्ग १८
एवं स रावणो विप्राः सहस्रवदनो
महान् ।
प्रोक्तस्तेन द्विजेनाहं
श्रुत्वाश्चर्यं च विस्मिता ॥ १ ॥
हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार उस
ब्राह्मण ने मुझसे सहस्र मुखवाले रावण की कथा कही थी,
जिसे सुनकर मुझे बडा विस्मय हुआ ।। १ ।।
अद्यापि तन्मय हृदि जागरूकं हि
वर्तते ।
पत्या मे बाहुवीर्येण दशास्यो रावणो
हतः ॥ २ ॥
अब तक वह मेरे हृदय में जागते हुए के
समान वर्तता है मेरे स्वामी ने भुजबल से दशशिर वाले रावण को मारा है॥२॥
सानुगः ससुतामात्यः सभ्भ्रातृकः
सबान्धवः ।
मत्कृते च पुरी दग्धा सेतुर्बद्धश्च
वारिधौ ॥ ३ ॥
पुत्र अनुचर भाई बन्धुओं के सहित
उसे मेरे निमित्त मारकर लंकापुरी जलायी, सागर
में पुल बांधा ।। ३ ।
सुग्रीवेण सहायेन तथा हनुमदादिना ॥
इदं लोकोत्तरं कर्म कृतं लोकहितं
महत् ॥ ४ ॥
सुग्रीव और हनुमानाजी की सहायता
लेकर यह लोक के निमित्त बडा चमत्कारी कर्म किया है ।। ४ ।।
तथापि हृदि मे नैतदाश्चर्यं
प्रतिभाति हि ।
यदि तस्य वधं कुर्याद्रावणस्य
दुरात्मनः ॥ ५ ॥
तदा संभाव्यते
कीर्तिर्जगत्स्वास्थ्यमवाप्नुयात् ।
अतो मे हसितं विप्राः क्षमध्वं
ज्वलनोपमाः ।। ६ ।।
परन्तु तथापि मेरे हृदय यें कुछ
आश्चर्य नहीं विदित होता है, जो इस
दुरात्मा रावण का वध किया तब आपकी महान् कीर्ति फैलकर जगत् स्वस्थ हो जाय, हे अग्नितुल्य ब्राह्मणो ! इस कारण आप मेरे हास्य को क्षमा करो ।। ५- ६ ।।
आकर्ण्य मुनयः सर्वे साधु साध्विति
वादिनः ।
जानकीं प्रशशंसुस्ते सर्वलोकहितैषिणीम्
॥ ७ ॥
यह वचन सुनकर सब मुनि धन्य धन्य
कहने लगे,
और सब जगत् की हितकारिणी जानकी की प्रशंसा करने लगे ।। ७ ।।
राघवो वचनं श्रुत्वा सीताया
वीर्यवर्द्धनम् ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः सर्वाना
ज्ञापयत्प्रभुः ॥ ८॥
रामचन्द्र सीता के वीर्यवर्द्धक वचन
सुनकर सिह्नाद कर सबको आज्ञा देने लगे ।। ८ ।।
मुनमोऽद्येव गंतव्यं रावणस्य जयाय
वै ।
लक्ष्मणं भरतं चैव शत्रुघ्नं
चादिशत्प्रभुः ।। ९ ।।
हे मुनियो ! आज ही हम रावण को जीतने
जाते हैं लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न को प्रभु ने आज्ञा दी ।। ९ ।।
मित्र सुग्रीव हे राजन्सर्वे
जांबवदादयः ।
गच्छामः सहितास्तत्र सैनिकैः सह
मंत्रिभिः ॥ १० ॥
हे राजन् सुग्रीव ! मित्र और
सम्पूर्ण सैनिकजनों के सहित हम वहां जायेंगे ।। १० ।।
इत्याज्ञाप्य महाबाहुः सस्मार
पुष्ककं रथम् ।
स्मरणादागतस्तत्र पुष्कको रथसत्तमः
।। ११ ।।
वह महाबाहु इस प्रकार कहकर पुष्पक को
स्मरण करते हुए वह पुष्पक विमान स्मरण करते ही आकर प्राप्त हुआ ।।११।।
तत्रारुक्षन्महावीरारामचन्द्रपुरोगमाः
।
भरतो लक्ष्मणश्चैव
शत्रुघ्नश्चामितद्युतिः ।।१२ ।।
उसके ऊपर रामचन्द्र आदि सम्पूर्ण
वीर चढ़े भरत लक्ष्मण शत्रुघ्न जो स्थित हुए ।। १२ ।।
सुग्रीव प्रमुखाः सर्वे
वानराजितकाशिनः ।
विभीषणो महाबाहुः सह रक्षोगणैः
प्रभुः ।। १३ ।।
सुग्रीव को आदि लेकर शत्रु को
जीतनेवाले वानर तथा महाबाहु बिभीषण राक्षसों के सहित स्थित हुए ।। १३ ।।
मात्रा
पित्राप्यकथनादजानन्बोधितोनया ।
सीतया रामकार्यार्थ निर्ययौ
राघवाज्ञया ॥ १४ ॥
माता पिता आदि से भी न कहकर इन
जानकी के प्रेरित हुए रामचन्द्र की आज्ञा से वे सब चले ।। १४ ।।
सुमंत्राद्या मंत्रिणश्च ऋषयस्ते व
निर्ययुः ।
नानाशस्त्रप्रहरणा धृतायुधकलापिनः
।। १५ ।।
सुमन्त्रादि मन्त्री और वे सब ऋषि
वहां से चले; वे सब अनेक प्रकार के आयुध धारण
कर बोळनेवाले ।। १५ ।।
मुमुचुस्ते सिंहनादं महाघोरं
महाबलाः ।
धनुः शब्देन रामस्य सिंहनादेन चैव
हि ॥ १६ ॥
वे महाबली घोर सिंहनाद करने लगे, राम के धनुष शब्द से और सिंहनाद से ।। १६ ।।
चचाल वसुधा शैलाश्चेलुः
पेतुर्ग्रहाश्च खात् ।
नद्योऽशुष्यन्समुट्टेलाः सागराश्च
चकंपिरे ।। १७ ।।
पृथ्वी और शैल चलायमान हो गये,
तारे टूटने लगे, नदी सूखने लगी, सागर ने मर्यादा छोड दी ।। १७ ।।
सुग्रीवो हनुमान्नीलो जांबवान्शल एव
च ।
ग्रसंत इव ते सर्वे निर्ययू
रामशासनात् ॥ १८ ॥
सुग्रीव हनुमान् नील जाम्बवंत यह सब
मानो आकाश को ग्रसते हुए चले ।। १८ ।।
स तया सीतया सार्धं रामचन्द्रो
महाबलः ।
कामगं पुष्पकं दिव्यमारुरोह
धनुर्धरः ।। १९ ।।
फिर सीता के सहित महाबली रामचन्द्र
धनुष धारण किये कामगामी पुष्पक विमान में स्थित हुए ।। १९ ।।
पुष्पकं ते समारुह्य सर्व एव
महाबलाः ।
सीतया भ्रातृभिः सार्द्धं
रामचन्द्रं महाबलाः ॥ २० ॥
वे सब महाबली पुष्पक विमान मे स्थित
होकर सीता और भाइयों के सहित रामचन्द्र स्थित हुए ।। २० ।।
प्रोत्साहयंतो वचनैनियर्युजितकाशिनः
।
रामाज्ञया पुष्पकं
तदाकाशपथमाश्रितम् ॥ २१ ॥
वे शत्रु के जीतनेवाले थे उनको अपने
वीरता के वचनों से उत्साह करते हुए तब रामचन्द्र की आज्ञा से पुष्पक विमान आकाश में
प्राप्त हुआ ।। २१ ।
मनोमारुतवेगेन क्षणेन गरुडो यथा ॥
जगाम पुष्करद्वीपं यत्रास्ते
मानसोत्तरः ।। २२ ॥
मन और पवन तथा गरुड के समान वेगकर
मानसोत्तर पुष्करद्वीप में क्षणमात्र में प्राप्त हुआ ।। २२ ।।
मानसोत्तरमासाद्य विस्मितास्ते
महाबलाः ॥
किं चित्रं किं चित्रमिति
प्रोचुराश्चर्यलक्षणाः ॥ २३ ॥
मानस के उत्तर भाग में प्राप्त होकर
वे महाबली विस्मित हुए कैसा विचित्र है ? इस
प्रकार वे वारंवार कहने लगे ।।२३।।
राघवो भ्रातृभिः सार्द्धं सह
वानरपुंगवैः ।
सिंहनादं ननादोच्चैर्धनुश्चापि
व्यकर्षयत् ॥ २४ ॥
रामचन्द्र ने वानर और भ्राताओं के
साथ सिंहनाद करके धनुष को खिंचा ।। २४ ।।
स शब्दस्तुमुलो भूत्वा पृथिवीं
चांतरिक्षकम् ।
पातालविवरांश्चैव पूरयामास सर्वतः
।। २५ ।।
वह तुमुलशब्द पृथ्वी अन्तरिक्ष और
सब ओर से पाताल के विवरों को पूर्ण करता हुआ ।। २५ ।।
रावणः सहसोत्तस्थौ किमेतदिति संवदन्
।।
तत्राथ राक्षसाः क्रुद्धाः सर्व एव
विनिर्ययुः ॥ २६ ॥
तब रावण यह क्या है ऐसा कहकर एक साथ
उठ बैठा और वहां के सब राक्षस क्रोध कर एक साथ वहां निकले ।। २६ ।।
अहो कुतः स्विच्छब्दोऽयं साधु
सर्वेनिरूप्यताम् ॥
इत्याभाष्य राक्षसेंद्रो
राक्षसेंद्रर्महाबलैः ।। २७ ।।
और बोले जानना चाहिये कि,
यह शब्द कहां से होता है, इस प्रकार वह
राक्षसेन्द्र महाबली राक्षसों के साथ शीघ्र।।२७।।
नगरान्निर्ययौ शीघ्रं संदष्टोष्ठ-
पुटो बली ।।
द्वादशादित्यसंकाशः सहस्रवदनो महान्
।। २८ ।।
होठ चबाता हुआ निकला वह बारह सूर्य के
समान सहस्र मुख का महाबली था ।। २८ ।।
द्विसहस्रभुजोद्रिक्तो
द्विसहस्रविलोचनः ॥
महामेघसमध्वानो वडवाग्निसमः क्रुधा
।। २९ ।।
दो सहस्र भुजा और सहस्र नेत्रवाला
महामेघ के समान वडवा अग्नि के समान क्रोध किये ।। २९ ।।
शतयोजनविस्तीर्णे रथे सूर्यसमत्विषि
।
नानायुधानि संगृह्य
परिखप्रासतोमरान् ॥ ३० ॥
सूर्य के समान कांतिमान् अनेक
प्रकार के आयुध परिघ प्रास तोमर लेकर ।। ३० ।।
भुशुण्डि : परशून्घंटां लोहं
मुद्गरचक्रकम् ।।
पाशांश्च विविधागृह्य
बाणान्कर्माजितान् ।। ३१ ।।
भुशुण्डी परशु घंटे लोहे मुद्गर
चक्र पाश तथा बाणों को ग्रहण कर ।। ३१ ।।
विपाठान्क्षुरधारांश्च
अर्धचन्द्राकृतीनपि ।।
नानायुधसहस्राणि नानाविधधनूंषिच ॥
३२ ॥
विपाठ क्षुरधार अर्धचन्द्र के आकार
सहस्रों आयुध और अनेक प्रकार के धनुष ।। ३२ ।।
प्रगृह्य सहसा प्रायाद्यत्र रामो
धनुर्धरः ॥
लोचनैः क्रोधसंबीप्तंरल्काभिरिव
दीपितः ।। ३३ ।।
लेकर जहां धनुर्धर रामचन्द्र थे
वहां आये,
क्रोध भरे नेत्र मानो उल्का से दीपित हुए ।। ३३ ।।
कोयमित्यब्रवीत्क्रोधादलं
प्रोद्वमन्निव ।।
सिंहनादं मम पुरे रिपुत्वाद्विससर्ज
ह ॥ ३४ ॥
अग्नि को क्रोध से वमन करता कहने
लगा,
यह कौन है ? कि शत्रु होकर मेरे पुर में
सिंहनाद करता है ।। ३४ ।।
ममापि रिपुरस्तीति दुर्यशः
समुपस्थितम् ।।
इंद्राचाः ककुभां नाथा भृत्याः
प्राणपरीप्सया ।। ३५ ।।
मेरे भी शत्रु हैं,
यह मेरा बडा दुर्यश प्राप्त हुआ है, इन्द्रादि
लोकपाल तो मेरे दासवत् हैं ।। ३५ ।।
पातालविवरे स्वर्गं स्वर्गे पातालमेककम्
।।
करोमि सहसैवाहं मानवानां तथैकताम् ॥
३६ ॥
पाताल के छिद्रों में स्वर्ग को
स्वर्ग में पाताल को तथा मनुष्यों को भी एकत्र कर सकता हूं ।। ३६ ।।
मेरुप्रभृतिशैलांश्च
चूर्णयाम्यणुसंख्यया ।।
देवलोकं नृणां कुर्यान्नृलोकं
त्रिदिवौकसाम् ।। ३७ ।।
मेरु प्रभृति पर्वतों को मैं चूर्ण
कर सकता हूँ देवलोक को मनुष्यलोक और मनुष्य लोक को देवलोक कर सकता हूं ।। ३७ ।।
उद्धृत्य पृथिवीं छिद्यामनंतं
नखराग्रकैः ।।
ब्रह्मा मां वारयामास
सांत्वयन्प्रियभाषितैः ।। ३८ ।।
पृथ्वी और शेषजी को नखों से उद्धृत
कर सकता हूं और करता ही था कि, ब्रह्माजी ने
आकर इस कार्य से मुझको निवारण किया ।। ३८ ।।
अन्यथा राक्षसमृते नारदं जगतीतले ।
सूर्याचन्द्रमसौ भूत्वा तिथिप्रणयनं
त्वहम् ।। ३९ ।।
नहीं तो राक्षसों के सिवाय पृथ्वी में
और किसी को न रखता, सूर्य चन्द्रमा होकर
मैं ही तिथि का प्रणयन करता ।। ३९ ।।
बलाहकत्वमिद्रत्वं पृथ्वीसेकादिकाः
क्रियाः ॥
कुर्या यमत्वं वह्नित्वं वरुणत्वं
धनेशताम् ॥ ४० ॥
मेघपन,
इन्द्रपन, पृथ्वी को सेकादि क्रिया, यमत्व अग्नित्व वरुणत्व कुबेरत्व में ही कर सकता हूं ॥ ४० ॥
इत्येवं बहुधा गर्जन्नाजगामांतिकं
हरेः ।
सेनाध्यक्षा राक्षसेंद्रा राज्ञा
सार्द्ध सामागताः ॥ ४१ ॥
इस प्रकार अनेक प्रकार से गर्जना
करता हुआ राम के समीप आया, सेनाध्यक्ष
राक्षसेन्द्र राजा के साथ आये ।। ४१ ।।
नानाप्रहरणोपेता नानारथपदातिनः ॥
एकैकस्यापि पर्याप्ता जगती नेति
मन्महे ॥ ४२ ॥
यह सब नाना प्रकार के प्रहार लिये
अनेक रथ पैदलों से युक्त एक ऐसे वीर थे कि, पृथ्वी
में वल से नहीं समा सकते थे ।४२ ।
केषांचिदपि नामानि भारद्वाज निबोध
मे ।
कोटिशो मनसः पूर्णः शल: पालो
हलीमुखः ॥ ४३ ॥
हे भरद्वाज ! उनमें कुछेक के नाम
मुझसे सुनो। कोटिश, मनस, पूर्ण, शल, पाल, हलीमुख ।। ४३ ।।
पिच्छलः कौणपश्चक्र: काल- वेगः
प्रकाशकः ॥
हिरण्यबाहुः शरणः कक्षकः कालदन्तकः
॥ ४४ ॥
पिच्छल,
कौणप, चक्र, कालवेग,
प्रकालक, हिरण्यबाहु, शरण,
कक्षक, कालदन्तक ।। ४४ ।।
पुच्छाण्डको मंडलक: पिंडसेक्ता
रभेणकः ॥
उच्छिलः करभो भद्रो विश्वजेता
विरोहणः ।। ४५ ।।
पुच्छाण्डक,
मण्डलक, पिण्डसेक्ता, रभेणक,
उच्छिख, करभ, भद्र,
विश्वजेता, विरोहण ।। ४५ ।।
शिली शलकरो मूकः सुकुमारः प्ररेवणः
।
मुद्गरः शशरोमा च सुरोमा च महाहनुः
॥ ४६ ॥
शिली, शलकर, मूक, सुकुमार, प्ररेषण, मुद्गर, शशरोमा,
सुरोमा, महामनु । ४६ ।।
पारावतः पारियात्रः पांडुरो हरिणः
कृशः ।।
बिहंगः शरभो दक्षः प्रमोदः सहपातनः
।। ४७ ।।
पारावत,
पारियात्र, पाण्डुर, हरिण,
कृश, विहंग, शरभ,
दक्षप्रमोद, सातापन ।। ४७ ।।
कृकरः कुण्डरो वैणीवेणीस्कंध: कुनारक:
।।
बाहुकः शंखवेगश्च धूर्तकः पातपातकौ
।। ४८ ।।
कृकर, कुंडर वैणी, वेणीस्कंद, कुमारक,
बाहुक, शंखवेग धूर्तक, पात,
पातक ।। ४८ ।।
शंकुकर्णः पिटरकः कुटीरमुखसंचकौ ॥
पूर्णागदः पूर्णमुखः प्रभाष:
शकुलिर्हरिः ।। ४९ ।।
शंकुकर्णं,
पिटरक, कुटीरमुख, सेचक,
पूर्णामुख, भाष, शकुलि,
हरि ।। ४९ ।।
अमाहिठः कामठकः सुषेणो मानसो व्ययः
।।
भैरवो मुण्डदेवांगः पिशंगश्चोडपालकः
॥ ५० ॥
अमाहिठ,
कामठक, सुषेण, मानस,
व्ययः भैरव, मुण्ड, देवांग,
चोडपालक ।। ५० ।।
ऋषभो वेगवान्नाम पिंडारक महाहनू ॥
रक्तांग: सर्वसारंगः समृद्धः
पाटवाकसौ ।। ५१ ।। ऋषभ,
वेगवान्, पिण्डारक, महाहनु,
रक्तांग, सर्वसारङ्ग, समृद्ध,
पाट , बांसक ।। ५१ ।।
वराहको रावणक: सुचित्रश्चित्रवेगिकः
॥
पराशरस्तरुणिको मणिस्कन्धस्तथारुणिः
।। ५२ ।।
वराहक,
रावणक, सुत्रिच, चित्रबंगिक,
पराशर, तरुणिक, मणिस्कंध,
अरुणि ।। ५२ ।।
सेनाध्यक्षा महाब्रह्मन्कीर्तिताः
कीर्तिवर्धनाः ॥
प्राधान्येन बहुत्वात्तु न सर्वे
परिकीर्तिताः ।। ५३ ।।
हे ब्रह्मन् ! यह महाकीर्तिवर्द्धन
सेनाध्यक्ष कहे हैं प्रधान भी बहुत हैं, विस्तार
के कारण सबका वर्णन नहीं किया ।। ५३ ।।
न शक्याः परिसंख्यातुं ये युद्धाय
समागताः ।
नीलरक्ता सिता घोरा महाकाया महाबलाः
।। ५४ ॥
युद्ध करने को आये थे उनकी संख्या नहीं
हो सकती,
नील रक्त सित घोर महाकाय महाबली ।। ५४ ।।
सप्तशीर्षाद्विशीर्षाश्चि
पञ्चशीर्षास्तथापरे ।
कालानलमहावोरा हुताशसमविग्रहाः ।।
५५ ।।
सात शिर के दो शिर के पांच शिर के
कालानल के समान महाघोर अग्नि के समान शरीरवाले ।। ५५ ।।
महाकाया महावेगाः
शैलश्रृंगसमुंच्छ्रयाः ।
योजनायामविस्तीर्णाद्वियोजनसमुच्छ्रयाः
।। ५६ ।।
महाकाय महावेगवान् शैलश्टंग के समान
ऊंचे एक योजन के चौड़े दो योजन के ऊंचे ।। ५६ ।।
कामरूपा: कांमबला दीप्तानलसमत्विषः
।
अन्ये च बहवः शूराः शूलपट्टिशधारिणः
॥५७॥
कामरूपी कामबली दीप्त अनल के समान
कान्तिमान् और भी बहुत से शूर शूल पट्टिश लिये ।। ५७ ।।
दिव्यप्रहरणोपेता नानावेषविभूषिताः
।।
शृणु नामानि चान्येषां येऽन्ये
रावणसैनिकाः ॥ ५८ ॥
दिव्य प्रहार से नाना युक्त वेप से
विभूषित थे, रावण के सेनापतियों के नाम सुनो
।। ५८ ।।
शंकुकर्णोनिकुम्भश्च पद्मः कुमुद एव
च ।
अनन्तो द्वादशभुजस्तथा
कृष्णपकृष्णको ।। ५९ ।।
शंकुकर्ण,
निकुम्भ, पद्म, मुकुद,
अनन्त, द्वादशभुजा, कृष्ण
उपकृष्ण ।। ५९ ॥
घ्राणश्रवाः कपिस्कंध : कांचनाक्षी
जलधमः ॥
अक्षरांतर्दनो
ब्रह्मन्कुनदीकस्तमोऽनकृत् ॥ ६० ॥
घ्राणश्रवा,
कपिस्कंध, कांचनाक्ष, जलन्धम,
अक्षसंतर्दन, कुनदीक, तमोभ्रकृत्
।। ६० ॥
एकाक्षो द्वादशाक्षश्च
तथैवैकजराभिधः ।
सहस्रबाहुविकटो व्याघ्राख्य
क्षितिकंपनः ।। ६१ ।।
एकाक्ष,
द्वादशाक्ष, एकजरा, सहस्त्रबाहु
विकट व्याघ्र क्षितिकंपन ।। ६१ ।।
पुण्यनामानुनामा च सुवक्रः
प्रियदर्शनः ॥
परिश्रितः कोकनदः
प्रियमाल्यानुलेपनः ।। ६२ ।।
पुण्यनाम,
अनुनाम, सुवक्त्र, परिश्रित,
कोकनद, प्रियमाल्यानुलेपन ।। ६२ ।।
अजोदरो गजशिराः स्कंधाक्षः शतलोचनः
।
ज्वालाजिह्वः करालश्च सितकेशो जटी
हरिः ॥ ६३ ॥
अजोदर,
गजशिर, स्कन्धाक्ष, शतलोचन,
ज्वालाजिह्व, कराल, सितकेश,
जटी, हरि ।। ६३ ।।
चतुर्दण्ट्रोष्ठजिह्वश्च मेघनादः
पृथुश्रवाः ।
विकृताक्षो धनुर्वक्त्रो जाठरो
मारुताशनः ॥ ६४ ॥
चतुर्दष्ट,
ओष्ठजिह्व, मेघनाद, पृथुश्रव,
विकृताक्ष, धनुर्वक्र जाठर मारुताशन ।। ६४ ।।
उदाराक्षो रथाक्षश्च वज्रनाभो
वसुप्रभः ।
समुद्रवेगो विरेंद्रः शैलकम्पी तथैव
च ।। ६५ ।।
उदाराक्ष;
रथाक्ष, वज्रनाभ, वसुप्रभ,
समुद्रवेग, शैलकंपी ।। ६५ ।।
वृषमेषप्रवाहश्च तथा नंदोपनंदकौ ॥
धूम्रश्वेतः कलिंगश्च सिद्धार्थो
वरदस्तथा ।। ६६ ॥
वृषमेषप्रवाह,
नन्द, उपनन्द, धूम्रश्वेत,
कलिंग, सिद्धार्थ, वरद
।। ६६ ।।
प्रियकरचैकनन्दश्च बहुवीर्यः
प्रतापवान् ।।
आनंदश्च प्रमोदश्च स्वस्तिको
ध्रुवकस्तथा ।। ६७ ।।
प्रियक,
एकनन्द, बहुवीर्य, प्रतापवान्
आनन्द, प्रमोद; स्वस्तिक ध्रुव ॥ ६७ ॥
क्षेमबाहुः सुबाहुश्च सिद्धपात्रश्च
सुव्रतः ।
गोव्रजः कनकापीडो महापारिषदेश्वरः
।। ६८ ।।
क्षेमबाहु,
सिद्धपात्र, सुव्रत, गोव्रज,
कनकापीड, महापारिषदेवर ॥६८ ॥
गायनो दमनश्चैवः बाणः खङ्गश्च
वीर्यवान् ।।
वैताली गतिताली च तथा कथकवातिको ।।
६९ ।।
गायन, दमन, बाण, वीर्यवान्, खड्ग वैताली, गतिताली, कथक
वातिक ।। ६९ ।।
हंसजः पंकदिग्धांगः
समुद्रोन्मादनश्च ह ।।
रणोत्कटः प्रहासश्च वेतसिद्धश्च
नन्दकः । ७० ।।
हंसज, पंकदिग्धांग, समुद्र, उन्मादन,
रणोत्कट, प्रहास, वेतसिद्ध, नन्दक ।। ७० ।।
एते पुरा रावणसैन्यपाला
नानायुधप्राहरणा रणेषु ॥
हंसेषु मेषेषु वृषेषु वीरा रामं
प्रतस्थुः कृतसिंहनादाः ॥ ७१ ॥
यह रावण के सेनापति युद्ध में अनेक
प्रकार के प्रहार करनेवाले हंस मेष वृष के ऊपर चढे सिंहनाद करते राम से युद्ध करने
को चले ।। ७१ ।।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायण वाल्मीकीये
आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे रावण सैन्यनिर्याणं नामाष्टादशः सर्गः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में रावणसैन्यनिर्माण नामक अट्ठारहवाँ सर्ग समाप्त
हुआ ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 19
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