अद्भुत रामायण सर्ग १७
अद्भुत रामायण सर्ग १७ में जानकी वचन
सहस्रमुख रावण का वृत्तान्त का वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् सप्तदश: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 17
अद्भुत रामायण सत्रहवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण सप्तदश सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग १७ – सहस्रमुख रावण वृत्तान्त
अथ अद्भुत रामायण सर्ग १७
प्राप्तराज्यस्य रामस्य राक्षसानां
क्षये कृते ॥
आजग्मुर्मुनयस्त्र राघवं प्रति
नंवितुम् ॥ १ ॥
जिस समय राक्षसों का वध हो चुका और
रामचन्द्र को राज्य मिला तब रामचन्द्र को अभिनन्दन करने के निमित्त मुनिजन आये ।।
१ ।।
विश्वामित्रो यवक्रीतो रैभ्यश्चवन
एव च ।।
कण्वश्च मुनिशार्दूलो ये पूर्वा
दिशमाश्रिताः ॥ २ ॥
विश्वामित्र-यवक्रीत,
रैभ्य, च्यवन, मुनिश्रेष्ठ
कण्व जो पूर्वदिशा के रहनेवाले ऋषि थे वे आये ।। २ ।।
स्वस्त्यात्रेयश्च
नमुचोऽरिमुचोगस्त्य एव च ।।
आजग्मुर्मुनयस्तत्र ये श्रिता
दक्षिणां दिशम् ॥ ३ ॥
स्वस्ति आत्रेय,
नमुच, अरिमुच, अगस्त्य
यह दक्षिणदिशा के रहनेवाले मुनि आकर प्राप्त हुए ।। ३ ।।
उपगुः कामठो धूम्रो रौद्राश्वो
मुनिपुंगवः ।
आजग्मुर्मुनयस्तत्र ये प्रतीचीं
समाश्रिताः ॥ ४ ॥
उपगु, कामठ, धूम्र, रौद्राश्व,
मुनिश्रेष्ठ यह पश्चिम, दिशा के रहनेवाले
महात्मा ऋषि आकर प्राप्त हुए ।। ४ ।।
शिष्योपशिष्यसहिता
वसिष्ठप्रमुखर्षयः ।
आजग्मुहि महात्मानं उत्तरां
दिशमाश्रिताः ॥ ५ ॥
शिष्य उपशिष्य आदि के सहित वसिष्ठ
आदि ऋषि उत्तरादिशा के रहनेवाले आकर प्राप्त हुए ।। ५ ।।
प्राप्य ते तु महात्मानो राघवस्य
निवे- शनम् ।
गृहीत्वा फलमूलानि हुताशसमविग्रहाः
॥ ६ ॥
यह सब महात्मा रामचन्द्र के स्थान में
आकर प्राप्त हुए फल मूल ग्रहण किये अग्नि के समान शरीरवाले ।। ६ ।।
राघवं प्रतिनंद्याथ विविशुः परमासने
।
राघवश्च महातेजाः सीतया सह सुव्रत ॥
७ ॥
रामचन्द्र को अभिनंदन कर परमासन में
स्थित हुए, महातेजस्वी रामचन्द्रजी जानकी के
सहित ।। ७ ।।
भ्रातृभिमंत्रिभिः सार्द्ध पौरैः
श्रेणिमुखस्तथा ॥
विनीत उपसंगम्य पूजयामास तान्मुनीन्
॥ ८ ॥
भाई और मंत्रियों के साथ तथा
पुरवासी जनों के साथ नम्रता से उन मुनियों से मिल उनकी पूजा करते हुए।।८।।
अगस्त्यप्रमुखा विप्रा दिष्ट्या
दिष्येति चाब्रुवन् ।
राघवं प्रशशंसुस्ते मुनयो वाग्विदां
वराः ॥ ९ ॥
और वाणी बोलने में चतुर से
अगस्त्यादि महाऋषि धन्य हो धन्य हो इस प्रकार कहकर रामचंद्र की प्रशसा करने लगे ।।
९ ।।
त्वं हि देवो जगन्नाथो जगतामुपकारकः
।।
रावणस्य सपुत्रस्य सामात्यस्य
बधात्प्रभो ॥ १० ॥
हे देव जगन्नाथ ! तुम ही जगत्के
उपकार करनेवाले हो, हे प्रभो ! पुत्र
अमात्य जनों के सहित रावण का वध करने से।।१०।।
जगदेतन्महाबाहो पुनर्जातमिवाभवत् ।
न रावणावभ्यधिको दुष्टो लोकभयंकरः ॥
११ ॥
मानो यह जगत् फिर उत्पन्न हुआ है,
रावण से अधिक लोगों को भयदायक कोई दुष्ट नहीं था ।। ११ ।।
दशास्यैर्दशदिक्कार्यमाज्ञापयति
राक्षसः ।
स दशास्यो हतो राम दिष्ट्या व
जगदुद्धृतम् ॥ १२ ॥
इस राक्षस की दशदिशाओं में आज्ञा प्रचलित
होती थी,
भाग्य से उसको मारकर आपने जगत्का उद्धार किया ।। १२ ।।
भगवानसि भूपाल ब्रह्मणा प्रार्थितः
पुरा ॥
पुंडरीकविशालाक्षः श्याम
आजानुबाहुकः ॥ १३ ॥
हे राम ! आप प्रथम ब्रह्माजी के
प्रार्थना करने से भूपालरूप धारण कर आये हो, आपके
कमल के से बडे नेत्र हैं, श्याम शरीर जानुपर्यन्त लम्बी भुजा
हैं । १३ ।
अयोध्यायां प्रादुरभूदिक्ष्वाकुकुल
नंदनः ।।
त्वद्दर्शनान्महाबाहो निवृताः स्मो
वयं प्रभो ॥ १४ ॥
इक्ष्वाकुकुल के आनन्द देने को आप
आयोध्या में प्रगट हुए हो, हे प्रभो ! आपके
दर्शन से ही हम आनन्दित हो गये ।।१४।।
तपश्चरामः
सहितास्त्वत्प्रसादाद्वनेवने ।।
किंतु सीता महादेवी प्राप दुखं
महत्प्रभो ।। १५ ।।
आपके प्रसाद से वन वन में निर्भय तप
करते हैं,
हे प्रभो ! परन्तु सीतादेवी ने महादुःख पाया है ।। १५ ।।
तदेव स्मर्यमाणं
सच्चित्तमुद्वेजयेद्धि नः ॥
एवमुक्ते तु मुनिभिः सानुक्रोशं
पुनः पुनः ॥ १६ ॥
यही स्मरण करने से हमारा चित्त
उद्वेजित है, जब दया से वारम्वार मुनिजनों ने
यह वचन कहे ।। १६ ।।
जहास मधुरं साध्वी सीता जनक नंदिनी
॥
उवाच सस्मितं देवी
तान्सुनीन्मितभाषिणी ।। १७ ।।
तब जनकनंदिनी साध्वी सीता हँस पडी
और हँसती हुई देवी उन मुनियों से कहने लगी ।। १७ ।।
मुनयो यद्यदुक्तं हि रावणस्य वधं
प्रति ॥
परिहास इवाभाति प्रशंसनमिदं द्विजाः
।। १८ ।।
जो कुछ मुनियों ने रावण के वध के
प्रति कहा है हे ब्राह्मणो ! यह प्रशंसा परिहास कहलाती है ।। १८ ।।
रावणो हि दुराचारः सत्यमेतन्न संशयः
॥
दशभिर्वदनैर्वीरो जगदुद्वेजको हि सः
।। १९ ।।
रावण बडा दुराचारी था यह सत्य है और
इसमें सन्देह नहीं है, वह अपने दशवदनों से
जगत् का उद्वेजन करनेवाला था ।। १९ ।।
दशास्यस्य वधो विप्रा न
प्रशंसामिहार्हति ।
एतच्छ्रुत्वा तु मुनयो विस्मयं परमं
गताः ॥ २० ॥
परन्तु हे ब्राह्मणो ! रावण का वध
कुछ विशेष प्रशंसा के योग्य नहीं है यह वचन सुनकर मुनि परम विस्मय को प्राप्त हुए
।। २० ।।
किमेतदिति होचुस्ते
परस्परमुखेक्षणाः ।
अयोनिसं भवा सीता
काकुत्स्थकुलमाश्रिता ॥ २१ ॥
और यह क्या है ऐसा कह परस्पर एक
दूसरे का मुख देखने लगे, अयोनि से उत्पन्न
हुई सीता इक्ष्वाकुवंश के आश्रित हुई ।। २१ ।।
अस्मानपिजहासेयं किमेतन्नैव विद्महे
॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां मुनीनां
भावितात्मनाम् ।। २२ ।
हमारे वचनों पर हास्य करती है इसका
कारण हम नहीं जानते हैं तब उन ज्ञानात्मा मुनियों के यह वचन सुनकर ।।२२।।
सीता भीता प्रणम्योचे कृतांजलिपुटा
सती ।
पृथग्जनेव मुनयो नाहमनृतभाषिणी ।।
२३ ।।
जानकी डरती हुई प्रणाम कर कहने लगी
हे मुनियो ! में पामर मनुष्यों के समान असत्यभाषिणी नहीं हूँ ।।२३।।
यदि चाज्ञापयथ मां तदा वक्ष्यामि
चादितः ।
अगस्त्यप्रमुखा विप्राः सीताया
विनयान्वितम् ॥ २४ ॥
जो आप मुझे आज्ञा दें तो मैं आदि से कहती हूँ, तब अगस्त्यादि ऋषि जानकी के यह विनययुक्त वचन ।। २४ ।।
आकर्ण्य
वचनं प्रीताः प्रोचुस्ते कथ्यतामिति ॥
ततः सीता महाभागा प्रवक्तुमुपचक्रमे
।। २५ ।।
सुनकर जानकी से कहने लगे वर्णन करो
तब महाभागा जानकी कहने की इच्छा करने लगी ।। २५ ।।
पति मुनीन्देवरांश्च मंत्रिणः श्रेणिमुख्यकान्
।।
विनयेनाभ्यनुज्ञाप्य
पूर्ववृत्तांतमादरात् ॥ २६ ॥
पति मुनि देवर मन्त्री और और श्रेणी
के मुख्य लोगों से आज्ञा ले पूर्व वृत्तान्त वर्णन करने लगी ।। २६ ।।
पूर्व विवाहान्मुनयो यदास
पितृमंदिरे ।
तदेकोऽतिथिरूपेण ब्राह्मणः समुपागतः
।। २७ ।।
हे मुनियो ! विवाह से पूर्व जब मैं
अपने पिता के मंदिर में रहती थी तब अतिथिरूप वहां एक ब्राह्मण आया ।। २७ ।।
आगत्य पितरं मह्यं तमुवाच
द्विजोत्तमः ॥
चतुरो वार्षिकान्मासान्स्थास्यामि
तव मंदिरे ॥ २८ ॥
वह ब्राह्मण आकर मेरे पिता से कहने
लगा मैं चौमासे के चार महीने तुम्हारे मंदिर में रहूंगा ।। २८ ।।
यदि सेवापरो नित्यं भवस्यमरसन्निभः
।।
जनको मत्पिता देवद्विजभक्तिपरायणः
।। २९ ।।
हे राजन् ! जो नित्य मेरी सेवा में
तत्पर रहोगे तो, देवता हो जावोगे हमारे पिता
जनकजी द्विज और देवता की भक्ति में परायण हैं ।। २९ ।।
ब्राह्मणं वासयामास नानाभक्ष्यं
समादिशत् ।
अहं च तस्य सेवायें नियुक्ता
धर्मभीरुणा ॥ ३० ॥
उस ब्राह्मण को नाना प्रकार के
भक्ष्य भोज्य की सामग्री प्रदान की गई; और
धर्मभीरु हमारे महाराज ने मुझे उसकी सेवा करने को नियुक्त किया ।। ३० ।।
या यथाज्ञापयति द्विजः स
परमार्थवित् ।
तं तथा हाकरवं तत्र
रात्रिदिवमतन्द्रिता ॥ ३१ ॥
परमार्थ का जाननेवाला वह ब्राह्मण
जो जो आज्ञा देता, वह में रात दिन निरालस्य
होकर सम्पादन करती थी ।।३१।।
नानातीर्थाभिगमनं कृतं तेन महात्मना
।
तत्रत्याश्च यथाश्चित्राः
श्रावयामास मां द्विजः ॥ ३२ ॥
उस महात्मा ने अनेक तीर्थों में अभिगमन
किया था,
वहां उस ब्राह्मण ने मुझे अनेक प्रकार की कथा श्रवण कराई ।।३२।।
सेवया मम धैर्येण चानुकूल्येन
तर्पितः ।
कदाचिद्वाह्मणश्रेष्ठः प्रियभाषी
यदात्थ माम् ।। ३३ ।।
मेरी सेवा,
धैर्य और अनुकूलता से तृप्त होकर एक समय वह प्रियभाषी श्रेष्ठ
ब्राह्मण मुझसे कहने लगा ।। ३३ ।।
तद्वोऽहमभिधास्यामि शृणुत
द्विजपुंगवाः ।
एकदा प्रातरुत्थाय कृतमैत्रः
कृताह्निकः ॥ ३४ ॥
हे ब्राह्मणो ! वह मैं तुमसे वर्णन
करती हूं एक समय ब्राह्मण प्रातः काल उठकर सूर्यार्घादि कर्म कर ।। ३४ ॥
सोते इति समाभाष्य
प्रवक्तुमुपचक्रमे ।
शृणु सीते मया दृष्टमाश्च र्य
कमलानने ।। ३५ ।।
हे सीते ! ऐसा संबोधन देकर कहने की
इच्छा करने लगा, हे कमलानने जानकी, जो आश्चर्यं मैंने देखा है वह सुन ।।३५।।
दधिमंडोदकाब्धेश्चय परः
स्वादकोब्धिकः ।
पुष्करद्वीपमावृत्य वर्तते वलया
कृतिः ।। ३६ ।।
दही मांड और जल के सागर से परे
स्वादु जल का समुद्र है, वह पुष्करद्वीप को
घेरकर वलयाकार स्थित हुआ है ।।३६॥
पुष्करं पुष्करे दृष्टं
महावह्निशिखोज्ज्वलम् ।
पत्रायुतायुयुतं ब्रह्मणः परमासनम्
।। ३७ ।।
वहां महाकमल अग्निशिखा के समान
प्रकाशित है दश सहस्र कणिकायुक्त ब्रह्माजी का परमासन है ।। ३७ ।।
तद्वीपवर्षयोर्मध्ये
मानसोत्तरसंज्ञकः ।
मर्यादापर्वतो देये चायामेऽयुतजोजनः
॥ ३८ ॥
उस द्वीप और वर्ष के बीच में
मानसोत्तर संज्ञावाले मर्यादा पर्वत लम्बाई चौडाई में दशसहस्त्र योजन के हैं।।३८।।
तच्छैलस्य चतुर्दिक्षु इंद्रादीनां
पुराणि हि ।
क्रीडार्थ निर्मितात्येषां महांति
विश्वकर्मणा ॥ ३९ ॥
उस पर्वत की चारों दिशाओं में
इन्द्रादि लोकपालों के पुर हैं विश्वकर्मा ने उनको क्रीडा के निमित्त निर्माण किया
है।।३९।।
सुमाली राक्षसश्रेष्ठ कैकसी नाम
तत्सुता ।
मुनविश्रवसः पत्नी सासूत रावणद्वयम्
॥ ४० ॥
एक राक्षस श्रेष्ठ सुमाली जिसकी
कैकसी नाम कन्या थी, वह विश्रवस मुनि की
पत्नी दो रावण उत्पन्न करती हुई ॥ ४० ॥
एकः सहस्रवदनो द्वितीयो दशवक्रकः ।
जन्मकाले सुरक्तमाकाशे रावणद्वयम् ॥
४१ ॥
एक सहस्त्रमुख का,
दूसरा, दशमुख का था, जन्मकाल
में आकाश में देवताओं ने कह दिया था कि रावण दो हैं ।। ४१ ।।
लोकानां रावणाज्जातं नागयोगिकमेतयोः
॥
कनिष्ठो दशकंठोऽयं शितिकंठप्रसादतः
॥ ४२ ॥
लोक में दो रावण हुए हैं इस कारण
उनका एक ही नाम था उनमें छोटा यह शिवजी के प्रसाद से ।। ४२ ।।
लंकामधिवसत्येष धनदेन विनिर्मिताम्
।
ब्रह्मणो वरदानेन त्रिलोकीमवमन्यते
।। ४३ ।।
कुबेर की निर्मित की हुई लंकापुरी में
निवास करता है और ब्रह्मा के बरदान से त्रिलोकी का तिरस्कार करता है ।।४३।।
श्रेष्ठः सहस्रवदनो रावणो लोकरावणः
।
स्वाभाविकबलेनासौ
पुष्करद्वीपमाश्रितः ॥ ४४ ॥
इसमें जो लोक का रुवानेवाला था उसने
स्वाभाविक बल से पुष्करद्वीप का आश्रय किया है ।। ४४ ।
सूर्याचन्द्रमसौ गृह्यं
क्रीडेत्कंदुकलीलया ॥
कुलाचलान्समुद्गृह्य कंदुकं क्रीडते
हि सः ।। ४५ ।।
यह चन्द्र सूर्य को ग्रहण कर
कंदुकलीला कर सकता है तथा कुलाचल पर्वतों को लेकर कंदुकक्रीडा करता है।।४५।।
मानसोत्तरशैलस्य चतुर्दिक्षु पुराणि
हि ।।
आच्छिद्य संगृहीतानि दिगीशानां
महात्मनाम् ।। ४६ ।।
जो मानस सरोवर के उत्तर चारों ओर
पुर हैं उनको छेदनकर महात्मा दिक्पालों को ग्रहण किया है ।। ४६ ।।
तत्रैव रमते राजा मातामहकुलैः सह ।
तत्रैद्री या पुरी रम्या स स्वयं
तत्र तिष्ठति ॥ ४७ ॥
वहां वह राजा मातामह के कुलसहित रमण
करता है वहां एक इंद्र की पुरी है जहां वह स्वयं स्थित हो रमता है ।। ४७ ।।
अन्यान्यन्येभ्य एवादात्मंत्रिभ्यो
राक्षसाधिपः ।
विशेषतोऽलंकृता सा पुरी परमदुर्लभा
॥ ४८ ॥
उस राक्षसराज ने अनेकों को मंत्रिपद
प्रदान किया है, विशेष करके वह पुरी प्राणियों को
परम दुर्लभ है । ४८ ।
जगतां सारमाकृष्य यथास्थानं
सुमंडिता ॥
चंपकाशोकमन्दारकदलीप्रियकार्जुनैः
।। ४९ ।।
जगत्के सार बेंचकर उसको निर्माण
किया है,
चम्पक अशोक मन्दार कदली प्रिय अर्जुन ।। ४९ ।।
पाटलाशोकजंबूभिः कोविदारैश्च चंदनः
॥
पनसैः सालतालैश्च तमालैर्देवदारुभिः
॥ ५० ॥
पाटल अशोक जम्बू कोविदार चन्दन पनस साल
तमाल ताल देवदारु ।। ५० ।।
बकुलैः पारिजातैश्च
कल्पवृक्षैरलंकृता ।।
अन्यैश्च विविधैर्वृक्षः
सर्वर्तुकुसुमोज्ज्वलैः ॥ ५९ ॥
बकुल पारिजात तथा कल्पवृक्षों से
अलंकृत और भी सब ऋतुओं के फूलों से युक्त ।। ५१ ।।
दिव्यगन्धरसैदिव्यैः सर्वर्तुफलसंयुतैः
॥
भ्रमरैः
कोकिलैर्नानावर्णपक्षिभिरुज्ज्वला ॥ ५२ ॥
दिव्य गन्धरसों से युक्त सम्पूर्ण
ऋतुओं के फल से संयुक्त भौंरे कोयल और जहां नाना पक्षी बोल रहे हैं ।। ५२ ।।
शातकौं भमयैः
कैश्चित्कैश्चिदग्निशिखोपमैः ॥
नीलांजलनिभैश्चान्यैः शोभिता
वरपादपैः ।। ५३ ।।
कहीं सुवर्ण के बने कहीं अग्नि के
शिखा के समान कहीं नीलांजन पर्वत उज्ज्वल पर्वतों से शोभित हैं ।। ५३ ।।
दीर्घिकाः सति बह्वचोऽत्र जल पूर्णा
महोदयाः ।
महार्हमणिसोपानाः
स्फाटिकांतरकुट्टिमाः ॥५४ ॥
जहां जल से अनेक बावडी शोभित हैं
जहां महा महामणियों की जटिल सीढी बनी हैं ।। ५४ ।।
फुल्लवशोत्पलवनाश्चक्रवाकोपशोभिताः।
दात्यूहगणसंघुष्टा हंससारसनादिताः
।। ५५ ।।
फूले पद्म उत्पल के वन के वन है,
उन पर चकवाचकवी शोभित हैं, पक्षीगणों से नादित
है ।। ५५ ।।
तत्र तत्रावनेर्देशा
वैदूर्यमणिसन्निभाः ॥
शार्दूलः परमोपेताः
सुखार्थमुपकल्पिताः ॥ ५६ ॥
उस वन के देश जहां तहां
वैर्ष्यमणियों से शोभित, शार्दूललों से
युक्त जो सुख के निमित्त कल्पि किये हैं ।। ५६ ।
सर्वर्तुसुखदा रम्याः पुंस्कोकिलकला
रवाः ॥
ये वृक्षा नंदनेऽतिष्ठन् ये च
चैत्रवने स्थिताः ॥ ५७ ॥
सब ऋतुओं में सुख देनेवाले
पुंस्कोकिला के शब्दों से युक्त जो वृक्ष नन्दनवन में स्थित हैं जो चैत्रवन में
स्थित हैं ।। ५७।।
मन्दरेऽन्येषु शैलेषु ते
वृक्षास्तत्र संस्थिताः ।
नानामणिमयी भूमिर्मुक्ताजालमयी तथा
॥ ५८ ॥
जो वृक्ष मन्दराचल पर स्थित हैं जो
भूमि नानामणिमय मुक्ताजालमयी ।। ५८ ॥
विचित्रबद्धसोपानप्रासादैरुपशोभिता
।
पुरद्वारसमाकीर्णा पुरी परमशोभना ।।
५९ ।।
विचित्र सीढियों से महलों से शोभित
पुरद्वारों से आकीर्ण पुरी शोभित है ॥५९॥
न देवैरनुभूयेत स्वर्गभिर्नानुभूयते
॥
तत्पुरीस्थितिमाकांक्ष्य तपः
कुर्वन्ति सत्तमाः ॥ ६० ॥
जिसका देवता और स्वर्गी भी अनुभव
नहीं कर सकते उस पुरी में स्थिति के निमित्त महात्मा तप करते हैं ।।६०।।
तस्यां सहस्रवदनो रावणो राक्षसाधिपः
।।
आस्ते जगद्वशीकृत्य हेलया बाहु
लीलया ।। ६१ ।।
उसका राजा वह सहस्त्र मुख का रावण
है,
और सब जगत् को अपनी भुजाओं से वश करके स्थित होता है।।६१।।
इंद्रादींस्त्रिदशान्सर्वान्गले बवा
स किन्नरान् ।।
गन्धर्वानन्दानवान्भीमान्सर्पान्विद्याधरांस्तथा
॥ ६२ ॥
वह इन्द्रादि देवताओं को किन्नरों
गन्धर्वो दानव भयंकर सर्प और विद्याधरों को पराजय कर ।। ६२ ।।
बालक्रीडनया क्रीडन्मेरुं मन्येत
सर्वपम् ।
गोष्पदं मन्यते चाब्धि
सर्वलोकांस्तृणोपमान् ।। ६३ ।।
उनसे बालक्रीडा के समान खेल करता
हुआ मेरु को सरसों के समान मानता है सागर को गौ के पद के समान और सब लोक को तृण के
समान ।। ६३ ।।
द्वीपांल्लोष्टसमान्वीरो न
किंचिद्गणयन्दृशा ।।
स यदा सर्वलोकानां त्रासने
समुपारभत् ।। ६४ ।।
द्वीपों को मिट्टी के ढेले के समान
मानता है और वीरों को तो कुछ गिनता ही नहीं है जब उसने सब लोकों को त्रास देना
आरंभ किया ।। ६४ ।।
तदा पितामहोऽभ्येत्य पुलस्त्यो
विश्रवास्तथा ॥
न्यवारयन्यत्नस्ततं तातवत्सेति
भाषकः ।। ६५ ।।
तब पितामह पुलस्त्य और विश्रवा ने
आकर तात वत्स आदि सम्बोधन देकर यत्न से उसे निवारण किया ।। ६५ ।।
एवं स रावणो देवि सहल वदनो महान् ॥
पुष्करद्वीपमासाद्य वर्तते
जनकात्मजे ॥ ६६ ॥
हे देवी! इस प्रकार का वह सहस्त्र
वदन रावण पुष्करद्वीप में निवास करता है ।। ६६ ।।
तस्यानुजो वशास्योऽयं लंकायां जानकि
स्थितः ॥ ६७ ॥
हे जानकि ! उसका छोटा भाई लंकापुरी में
निवास करता है ।। ६७ ॥
चित्राणीत्यादीनि मे शंसयित्वा
विप्रो मासांश्चतुरो यापयित्वा ॥
राजानं मां चाशिषा योजयित्वा
जगामैकः प्रोषितस्तीर्थयात्राम् । ६८ ।
इस प्रकार और भी विचित्र कथा कह चार
महीने निवास कर राजा और मुझको आशीर्वाद देकर वह ब्राह्मण तीर्थयात्रा को चला गया
।। ६८ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायण वाल्मीकीये
आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे सीताभाषणं नाम सप्तदशः सर्गः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में जानकी द्वारा सहस्रमुख रावण का वृत्तान्त
कथन नामक सत्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 18
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