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शैव रामायण अध्याय २
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पति सहस्रकण्ठ (दशानन) द्वारा अश्वमेघ यज्ञ के अश्व को पकड़ने पर बृहस्पति द्वारा
भरत को युद्ध मन्त्रणा देने तक का विवरण है।
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Shaiv Ramayan chapter 2
शैवरामायणम् द्वितीयोऽध्यायः
शैवरामायण द्वितीय अध्याय
शैवरामायण अध्याय २
श्रीशङ्कर उवाच
शृणु प्रिये ततो वृत्तं
यज्ञीयाश्वस्य ते ब्रुवे ।
संचरित्वा हयं भूमौ ससैन्यः
परिपालयन् ।।
भरतो भ्रातृसहितः
सिन्धुतीरमुपाश्रितः ॥ १ ॥
भगवान शिव बोले कि प्रिये (पार्वती)
! उसके बाद उस अश्वमेधीय यज्ञ के बारे में सुनो, जो सम्पूर्ण सेना के द्वारा परिपालित (रक्षित) होता हुआ पृथ्वी में
इधर-उधर घूमता रहा एवं उसका पीछा करते हुए भाइयों सहित राजकुमार भरत सिन्धु नदी के
किनारे पहुँचे ॥१॥
राजीवोत्पलकल्हारमत्स्यकच्छपराजितम्
।
विमलोदक्कल्लोलद्विजसञ्चयं घोषितम्
॥ २ ॥
(उसके पूर्व भगवान राम की सेना ने)
राजीव,
उत्पल, कल्हार, मत्स्य
एवं कच्छ को पराजत कर दिया था। तदनन्तर स्वच्छ जल वाली, कलकल
निनाद करने वाली सिन्धु नदी के किनारे ऋत्विक द्विजों ने रुकने की घोषणा की ॥ २ ॥
सिन्धुतीरं समुद्वीक्ष्य वासं चक्रे
रघूद्वहः ।
सहस्रकण्ठो दैत्येन्द्रः कश्यपस्य
सुतो बली ॥ ३ ॥
भगवान राम की सेना को सिन्धु नदी के
किनारे पड़ाव डालकर रहने की विवक्षा को देखकर महर्षि कश्यप का पुत्र,
महाबली, दैत्यराज सहस्रकण्ठ (चिन्तातुर होने
लगा ) ।। ३ ।।
मन्त्रिवर्येण धीरेण रक्ताक्षेण स
संयुतः ।
यदृच्छया सञ्चरित्वा तान्तान्
द्वीपान् बलान्वितान् ॥४॥
तदनन्तर वह बुद्धिमान मन्त्रिगणों
एवं रक्ताक्ष के साथ मन्त्रणा करके विविध प्रकार के द्वीपों में रहने वाले राक्षस
गणों के पास सूचना भेजी, अर्थात् दूत गणों
को राम की सेना के सिन्धु के किनारे रहने एवं उनके अश्वमेध यज्ञ करने की अर्थात्
अधीनता स्वकार करने या युद्ध करने की सूचना भेजी ॥४॥
सिन्धुतीरमुपाश्रित्य दृष्ट्वा तं
भरतं तदा ।
आहूय राक्षसं धीरमिदं वचनमब्रवीत्
।। ५ ।।
तब उस सहस्रकण्ठ ने सिन्धु के
किनारे पड़ाव डाले हुए राजकुमार भरत को देखकर सभी बलवान् राक्षसों को बुलाकर इस प्रकार
के वचन बोला- ॥५॥
लोहिताक्ष भवान् गत्वा गृहीत्वायाहि
घोटकम् ।
विसृष्टस्तेन
रक्ताक्षस्ततोद्वीक्ष्य हयोत्तमम् ।। ६।।
हे लोहिताक्ष ! तुम जाओ और उस
अश्वमेधयज्ञ के घोड़े को पकड़ कर यहाँ ले आओ। उसके द्वारा भेजे जाने वाले रक्ताक्ष
ने उस उत्तम घोड़े को देखा ॥ ६ ॥
निधाय तिलकं भाले मत्तचूर्णं
विकीर्य सः ।
भरतं सबलं तत्र मायया मोहयन्निशि
।।७।।
उसने अपने मस्तक पर तिलक लगाया हुआ
था और वहाँ पहुँचने पर वहाँ उसने मत्तचूर्ण (मन्त्र से युक्त भस्म) को सभी जगह
फेंका,
जिससे भरत के साथ-साथ उनकी सम्पूर्ण सेना उसकी माया के कारण मूर्च्छित
हो गयी, ठीक उसी तरह जैसे रात्रि में सभी लोग सो जाते हैं ॥७॥
यज्ञीयाश्चं गृहीत्वासौ ययौ
चित्रवतीं पुरीम् ।
ततः प्रभाते विमले बलं दृष्ट्वा
ह्यनश्वकम् ॥८॥
तदनन्तर वह राक्षस उस अश्वमेधीय
अश्व को पकड़कर चित्रवती पुरी गया। उसके बाद स्वच्छ प्रभातकाल की वेला में विना अश्व
वाली सेना को सभी ने देखा ॥८॥
भरतो भ्रातृसहितो बलेन महतावृतः ।
विन्ध्य हिमालयं मेरुं मन्दरं निषधं
गिरिम् ।। ९ ।।
हेमकूटं पारियात्रं शैलारण्यं नदीं
पुरीः ।
सर्वा दिशश्च विदिशो जम्बूद्वीपे
(पं) व्यचिन्वत ।। १० ।।
उसके बाद भाइयों सहित भरत एवं उनकी
विशाल सेना ने विन्ध्य (विन्ध्याचल), हिमालय,
सुमेरु, मन्दर, निषध आदि
पर्वतों में खोजते हुए, हेमकूट पारियात्र, शैलाख्य, विविध नदियों एवं नगरियों में खोजते हुए,
सम्पूर्ण दिशाओं में गये तथा विदिशा एवं जम्बूद्वीप में भी उस
अश्वमेधीय अश्व को खोजा ॥ ९-१०॥
अदृश्यमानस्तुरगं भरतश्चिन्तयन्
विभुः ।
लिखितं लेखयित्वा तु शरे बद्धवा स
राघवः ॥ ११ ॥
उस अदृश्य हुए अश्वमेधीय अश्व के
बारे में चिन्तन करते हुए शक्तिशाली भरत ने कुछ सोचा और उस रघुवंशी ने एक पत्र
लिखकर बाण में बाँधा ॥११॥
सन्धाय कार्मुके तं तु
विससर्जेन्द्रसन्निधिम् ।
स ददर्श शरं दीप्तं सलेखं मघवा तदा
।। १२ ।।
(तदनन्तर भरत ने) धनुष में बाण
चढ़ाकर उस पत्र को इन्द्र के पास भेजा । उसके बाद उस प्रज्ज्वलित बाण एवं उसमें
लिखे हुए पत्र को इन्द्र ने पढ़ा (देखा ) ॥१२॥
भरतं सिन्धुतीरस्थं सभ्रातृकमुपेत्य
सः ।
उवाच वचनं धीरो गुरुणा सह दैवतैः
।।१३।।
उसके बाद अपने भाइयों के साथ सिन्धु
नदी के किनारे भरत के पास विविध देवताओं एवं सुरुगुरु बृहस्पति के साथ पहुँचकर धैर्यशाली
इन्द्र ने कहा ॥१३॥
इन्द्र उवाच
न जानेऽहं रघुश्रेष्ठ यज्ञीयं ते
तुरङ्गमम् ।
त्रिदिवे नास्ति ते वाजी क्रोधत्वं
मयि मा कृथाः ।।
इति ब्रुवति देवेन्द्रे
बृहस्पतिरुवा च तम् ॥ १४ ॥
इन्द्र बोले- हे रघुकुल में श्रेष्ठ
भरत ! मैं तुम्हारे अश्वमेधीय यज्ञ के विषय में नहीं जानता हूँ। आपका घोड़ा तीनों
लोकों में नहीं है, अतः व्यर्थ में
मेरे ऊपर क्रोध न करें । इन्द्र के ऐसा बोलने पर सुरुगुरु बृहस्पति भरत से बोले ॥१४॥
बृहस्पतिरुवाच
तुरङ्गमस्य वृत्तान्तं वदामि शृणु
राघव ।
सहस्रकण्ठो दैत्येन्द्रः कश्यपस्य
सुतो बली ।। १५ ।।
बृहस्पति ने कहा- हे रघुकुल भूषण !
मैं उस अश्वमेध यज्ञ के अश्व के विषय में बता रहा हूँ। महर्षि कश्यप का बलवान
पुत्र दैत्यराज सहस्रकण्ठ (उसे चुरा ले गया है ) ॥१५॥
द्वे भार्ये कश्यपस्य (स्यास्तां)
दितिश्चादितिरेव च ।
दित्यामेव समुत्पन्नस्त्रिषु लोकेषु
विश्रुतः ।। १६ ।।
महर्षि कश्यप की दिति एवं अदिति दो पत्नियाँ थीं। दिति से उत्पन्न वह दैत्य सहस्रकण्ठ तीनों लोकों में विख्यात है॥१६॥
ब्रह्माणं तपसोग्रेण तोषयद् भुवि
राक्षसः ।
तस्य प्रसादाच्चित्रवतीं
पुष्करद्वीपवर्तिनीम् ।। १७ ।।
उस राक्षस ने ब्रह्मा को तपस्या से
प्रसन्न कर पृथ्वी में पुष्करद्वीप के समीप स्थित चित्रवती पुरी के महल में इस समय
निवास कर रहा है ॥ १७॥
समवाप पुरीं रम्यां
सप्तप्राकारशोभिताम् ।
शृङ्गाट्टालकसंयुक्तां
चैत्यप्रासादसङ्कुलाम् ।। १८ ।।
उसकी चित्रवती पुरी सात प्रकार की
परिखाओं से (युक्त) सुशोभित है, जो विविध प्रकार
की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से युक्त तथा उसका महल विविध चैत्यों से समन्वित तथा
जनसमुदाय से भरा रहताहै ॥१८॥
द्वात्रिंशद्वारसंयुक्तां
नानारत्नोपशोभिताम् ।
हस्त्यश्वगरसम्पूर्णां रक्षोगणनिशे
(?
से) विताम् ॥ १९ ॥
वह पुरी बत्तीस द्वारों से संयुक्त
तथा अनेक प्रकार के रत्नों से जड़ी हुई होने के कारण अत्यन्त सुन्दर है। वह
हाथियों एवं घोड़ों से भरी पड़ी है तथा रात्रि में सैनिक बाण उसकी रखवाली करते हैं
॥ १९ ॥
दुर्गमां देवतानीकैर्दुगत्रय
विशोभिताम् ।
तस्यामास्ते स दैत्येन्द्रस्तेन
संचोदितोऽधुना ।। २० ।।
वह नगरी देवताओं के त्रिदुर्गों से
भी सुन्दर एवं दुर्गम है। ऐसी उस दुर्गमपुरी चित्रवती में वह दैत्यराज सहस्रकण्ठ
इस समय निर्भय रूप में निवास कर रहा है ॥२०॥
राक्षसः कश्चिदागत्य गृहीत्वा तुरगं
ययौ ।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा विस्मयाद्
भरतोऽब्रवीत् ।। २१ ।।
वहीं से एक राक्षस आ करके अश्वमेध
यज्ञ के घोड़े को पकड़कर वहीं ले गया। बृहस्पति के ऐसे वचन सुनकर आश्चर्यचकित हो
जाने वाले भरत ने देवगुरु से कहा ॥ २१ ॥
अहं कथं गमिष्यामि जित्वा नेष्यामि
तं कथम् ।
तच्छ्रुत्वा भरतेनोक्तं पुनः प्राह
बृहस्पतिः ।। २२ ।।
मैं कैसे वहाँ (चित्रपुरी) जाऊँगा?
और कैसे उस राक्षस को जीतकर अश्वमेध के घोड़े को लाऊँगा ? भरत की ऐसी बातें सुनकर, देवगुरु बृहस्पति ने पुनः
भरत से कहा ॥ २२॥
हे राजन् शृणु मे वाक्यमसाध्यं
नास्ति ते क्वचित् ।
गन्तुं तत्पुष्करं द्वीपं सयत्नो भव
साम्प्रतम् ।। २३ ।।
हे राजन् ! मेरी बातों को सुनो,
तुम्हारे लिए कहीं भी, कुछ भी असाध्य नहीं है।
इसलिए उस पुष्कर द्वीप में जाने के लिए इस समय प्रयत्न करो ॥२३॥
रामेण संयुतस्तत्र गत्वा चित्रवतीं
पुरीम् ।
आगमिष्यसि तं जित्वा गृहीत्वा तुरगं
पुनः ।।२४।।
राम के साथ मिलकर वहाँ चित्रवती
पुरी जा करके, तुम उस राक्षस को जीतकर एवं
घोड़े को लेकर अवश्य आओगे ॥२४॥
इत्याभाष्य ययौ स्वर्गं पूजितस्तेन
पार्वति ।
इन्द्रो (ऽनु) ज्ञां गृहीत्वा च
स्वपुरीमगमत्तदा ।। २५ ।।
हे पार्वती ! तब सुरुगुरु बृहस्पति
ने ऐसा कह करके, भरत के द्वारा सम्मान प्राप्त
कर, स्वर्ग चले गये । इन्द्र की अनुज्ञा लेकर वह अपनी पुरी
में पहुँचे ॥२५॥
इति शैवरामायणे पार्वतीशङ्करसंवादे
सहस्रकण्ठदैत्यचरिते द्वितीयोऽध्यायः ।
इस प्रकार शिवपार्वती संवाद रूप में
प्राप्त शैवरामायण का सहस्रकण्ठदैत्यचरित नामक दूसरा अध्याय समाप्त हुआ।
आगे जारी.......... शैवरामायण अध्याय 3
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