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अग्निपुराण अध्याय १०३
अग्निपुराण
अध्याय १०३ में शिवलिङ्ग आदि के जीर्णोद्धार की विधि का
वर्णन है।
अग्निपुराणम् त्र्यधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 103
अग्निपुराण एक सौ तीन अध्याय- जीर्णोद्धार विधि
अग्नि पुराण अध्याय १०३
अग्निपुराणम् अध्यायः १०३ – जीर्णोद्धारः
अथ त्र्यधिकशततमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
जीर्णादीनाञ्च
लिङ्गानामुद्धारं विधिना वदे ।
लक्ष्मोज्झितञ्च
भग्नञ्च स्थूलं वज्रहतं तथा ॥१॥
संपुटं
स्फुटितं व्यङ्गं लिङ्गमित्येवमादिकं ।
इत्यादिदुष्टलिङ्गानां
योज्या पिण्डी तथा वृषः ॥२॥
भगवान् शंकर
कहते हैं- स्कन्द ! जीर्ण आदि लिङ्गों के विधिवत् उद्धार का प्रकार बता रहा हूँ।
जिसका चिह्न मिट गया हो, जो टूट-फूट गया हो, मैल आदि स्थूल हो गया हो,
वज्र से आहत हुआ हो, सम्पुटित (बंद) हो,
फट गया हो, जिसका अङ्ग भङ्ग हो गया हो तथा जो
इसी तरह के अन्य विकारों से ग्रस्त हो ऐसे दूषित लिङ्गों की पिण्डी तथा वृषभ का
तत्काल त्याग कर देना चाहिये ॥ १-२ ॥
चालितञ्चलितं
लिङ्गमत्यर्थं विषमस्थितं ।
दिड्मूढं
पातितं लिङ्गं मध्यस्थं पतितं तथा ॥३॥
एवंविधञ्च
संस्थाप्य निर्ब्रणञ्च भवेद्यदि ।
नद्यादिकप्रवाहेन
तदपाक्रियते यदि ॥४॥
ततोऽन्यत्रापि
संस्थाप्य विधिदृष्टेन कर्मणा ।
सुस्थितं
दुस्थितं वापि शिवलिङ्गं न चालयेत् ॥५॥
जो शिवलिङ्ग
किसी के द्वारा चालित हो या स्वयं चलित हो, अत्यन्त नीचा हो गया हो, विषम स्थान में
स्थित हो; जहाँ दिङ्मोह होता हो, जो
किसी के द्वारा गिरा दिया गया हो अथवा जो मध्यस्थ होकर भी गिर गया हो— ऐसे लिङ्ग की पुनः ठीक से स्थापना कर देनी चाहिये। परंतु यदि वह व्रणरहित
हो, तभी ऐसा किया जा सकता है। यदि वह नदी के जलप्रवाह द्वारा
वहाँ से अन्यत्र हटा दिया जाता हो तो उस स्थान से अन्यत्र भी शास्त्रीय विधिके
अनुसार उसकी स्थापना की जा सकती है। जो शिवलिङ्ग अच्छी तरह स्थित हो, सुदृढ़ हो, उसे विचलित करना या चलाना नहीं चाहिये ॥
३-५ ॥
शतेन स्थापनं
कुर्यात्सहस्रेण तु चालनं ।
पूजादिभिश्च
संयुक्तं जीर्णाद्यमपि सुस्थितं ॥६॥
याम्ये
मण्डपमीशे वा प्रत्यग्द्वारैकतोरणं ।
विधाय द्वारपूजादि
स्थण्डिले मन्त्रपूजनं ॥७॥
मन्त्रान्
सन्तर्प्य सम्पूज्य वास्तुदेवातुं पूर्ववत् ।
दिग्बलिं च
वहिर्दत्वा समाचम्य स्वयं गुरुः ॥८॥
जो अस्थिर या
अदृढ हो, उस शिवलिङ्ग को यदि चालित करे तो उसकी
शान्ति के लिये एक सहस्र आहुतियाँ दे तथा सौ आहुतियाँ देकर पुनः उसकी स्थापना करे।
जीर्णता आदि दोषों से युक्त शिवलिङ्ग भी यदि नित्यपूजा-अर्चा आदि से युक्त हो तो
उसे सुस्थित ही रहने दे; चालित न करे । जीर्णोद्धार के लिये
दक्षिणदिशा में एक मण्डप बनावे। ईशानकोण में पश्चिम द्वार का एक फाटक लगा दे।
द्वारपूजा आदि करके, वेदी पर शिवजी की पूजा करे। इसके बाद
मन्त्रों का पूजन और तर्पण करके वास्तुदेवता की पूर्ववत् पूजा करे। तदनन्तर बाहर
जा, दिशाओं में बलि दे, स्वयं आचमन
करने के पश्चात् गुरु ब्राह्मणों को भोजन करावे । तत्पश्चात् भगवान् शंकर को इस
प्रकार विज्ञप्ति दे - ॥ ६-८ ॥
ब्राह्मणान्
भोजयित्वा तु शम्भुं विज्ञापयेत्ततः ।
दुष्टलिङ्गमिदं
शंभोः शान्तिरुद्धारणस्य चेत् ॥९॥
रुसिस्तवादिविधिना
अधितिष्ठस्व मां शिव ।
एवं विज्ञाप्य
देवेशं शान्तिहोमं समाचरेत् ॥१०॥
मध्वाज्यक्षीरदूर्वाभिर्मूलेनाष्टाधिकं
शतं ।
ततो लिङ्गं च
संस्थाप्य पूजयेत्स्थिण्डिले तथा ॥११॥
ओं
व्यापकेश्वरायेति नाट्यन्तं शिववादिना ।
ओं व्यापकं
हृदयेश्वराय नमः ।
ओं
व्यापकेश्वराय शिरसे नमः । इत्याद्यङ्गमन्त्राः॥
शम्भो ! यह
लिङ्ग दोषयुक्त हो गया है। इसके उद्धार करने से शान्ति होगी-ऐसा आपका वचन है। अतः
विधिपूर्वक इसका अनुष्ठान होने जा रहा है। शिव ! इसके लिये आप मेरे भीतर स्थित
होइये और अधिष्ठाता बनकर इस कार्य का सम्पादन कीजिये।' देवेश्वर शिव को इस प्रकार विज्ञप्ति देकर
मधु और घृतमिश्रित खीर एवं दूर्वा द्वारा मूल मन्त्र से एक सौ आठ आहुतियाँ देकर
शान्ति होम का कार्य सम्पन्न करे। तदनन्तर लिङ्ग को स्नान कराकर वेदी पर इसकी पूजा
करे। पूजनकाल में ॐ व्यापकेश्वराय शिवाय नमः ।' इस मन्त्र का उच्चारण करे। अङ्गपूजा और अङ्गन्यास के मन्त्र इस प्रकार
हैं- 'ॐ व्यापकेश्वराय हृदयाय नमः । ॐ व्यापकेश्वराय
शिरसे स्वाहा । ॐ व्यापकेश्वराय शिखायै वषट् । ॐ व्यापकेश्वराय कवचाय हुम् । ॐ
व्यापकेश्वराय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ व्यापकेश्वराय अस्त्राय फट् ।' ॥ ९-११ ॥
ततस्तत्राश्रितं
तत्त्वं श्रावयेदस्त्रमस्ततः ॥१२॥
सत्त्वः कोपीह
यः कोपिलिङ्गमाश्रित्य तिष्ठति ।
लिङ्गन्त्यक्त्वा
शिवाज्ञाभिर्यत्रेष्टं तत्र गच्छतु ॥१३॥
विद्याविद्येश्वरैर्युक्तः
स भवोत्र भविष्यति ।
सहस्रं
प्रतिभागे च ततः पाशुपताणुना ॥१४॥
हुत्वा
शान्त्यम्बुना प्रोक्ष्य स्पृष्ट्वा कुशैर्जपेत्ततः ।
तत्पश्चात् उस शिवलिङ्ग के आश्रित रहनेवाले भूत को अस्त्र-मन्त्र के उच्चारणपूर्वक सुनावे- 'यदि कोई भूत-प्राणी यहाँ इस लिङ्ग का आश्रय लेकर रहता है, वह भगवान् शिव की आज्ञा से इस लिङ्ग को त्यागकर, जहाँ इच्छा हो, वहाँ चला जाय अब यहाँ विद्या तथा विद्येश्वरों के साथ साक्षात् भगवान् शम्भु निवास करेंगे।' इसके बाद पाशुपतमन्त्र से प्रत्येक भाग के लिये सहस्र आहुतियाँ देकर शान्तिजल से प्रोक्षण करे।फिर कुशों द्वारा स्पर्श करके उक्त मन्त्र को जपे॥१२-१४अ॥
दत्वार्घं च
विलोमेन तत्त्वतत्त्वाधिपांस्तथा ॥१५॥
अष्टमूर्तीश्वरान्
लिङ्ग पिण्डिकासंस्थितान् गुरुः ।
विसृज्य
स्वर्णपाशेन वृषस्कन्धस्थया तथा ॥१६॥
रज्वा वध्वा
तया नीत्वा शिवमन्तं गृणन् जनैः ।
तज्जले
निक्षिपेन्मन्त्री पुष्ठ्यर्थं जुहुयाच्छतं ॥१७॥
तृप्तये
दिक्पतीनाञ्च वास्तुशुद्धौ शतं शतं ।
रक्षां विधाय
तद्धाम्नि महापाशुपता ततः ॥१८॥
लिङ्गमन्यत्ततस्तत्र
विधिवत्स्थापयेद्गुरुः ।
असुरैर्मुनिभिर्गोत्रस्तन्त्रविद्भिः
प्रतिष्ठितं ॥१९॥
जीर्णं
वाप्यथवा भग्नं विधिनापि नचालयेत् ।
तदनन्तर विलोम
क्रम से अर्घ्य देकर लिङ्ग और पिण्डिका में स्थित तत्त्वों, तत्त्वाधिपतियों और अष्ट मूर्तीश्वरों का
गुरु स्वर्णपाश से विसर्जन करके वृषभ के कंधे पर स्थित रज्जु द्वारा उसे बाँधकर ले
जाय तथा जनसमुदाय के साथ शिव-नाम का कीर्तन करते हुए, उस
वृषभ ( नन्दिकेश्वर ) - को जल में डाल दे। फिर मन्त्रज्ञ आचार्य पुष्टि के लिये सौ
आहुतियाँ दे । दिक्पालों की तृप्ति तथा वास्तु- शुद्धि के लिये भी सौ-सौ आहुतियों का
होम करे। तत्पश्चात् महापाशुपत मन्त्र से उस मन्दिर में रक्षा की व्यवस्था करके,
गुरु वहाँ विधिपूर्वक दूसरे लिङ्ग की स्थापना करे। असुरों मुनियों,
देवताओं तथा तत्त्ववेत्ताओं द्वारा स्थापित लिङ्ग जीर्ण या भग्न हो गया
हो तो भी विधि के द्वारा भी उसे चालित न करे ॥१५– १९अ॥
एष एव विधिः कार्योजीर्णधामसमुद्धृतौ
॥२०॥
खड्गे
मन्त्रगणं न्यस्य कारयेत्मन्दिरान्तरं ।
सङ्कोचे मरणं
प्रोक्तं विस्तारो तु धनक्षयः ॥२१॥
तद्द्रव्यं
श्रेष्ठद्रव्यं वा तत्सकार्यं तत्प्रमाणकं ॥२२॥
जीर्ण- मन्दिर
के उद्धार में भी यही विधि काम में लानी चाहिये। मन्त्रगणों का खङ्ग में न्यास
करके दूसरा मन्दिर तैयार करावे। यदि पहले की अपेक्षा मन्दिर को संकुचित या छोटा कर
दिया जाय तो कर्ता की मृत्यु होती है और विस्तार किया जाय तो धन का नाश होता है।
अतः प्राचीन मन्दिर के द्रव्य को लेकर या और कोई श्रेष्ठ द्रव्य लेकर पहले के
मन्दिर के बराबर ही उस स्थान पर नूतन मन्दिर का निर्माण करना चाहिये ॥२२-२३॥
इत्याग्नेये
महपुराणे जीर्णोद्धारो नाम त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'जीर्णोद्धार की विधि का वर्णन' नामक एक सौ तीनवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥१०३॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 104
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