शैव रामायण अध्याय १
महर्षि वाल्मीकि रामायण के
लंकाकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड की कथावस्तु के आधार पर शिव-पार्वती संवाद रूप में
प्राप्त शैव रामायण भगवान राम की विजय कथा का वर्णन करने वाला एक महनीय काव्य है,
जिसमें लेखक ने रामायण के पात्रों के नाम बदलकर रखे हैं। इसमें अध्यायों
१२ है । शैव रामायण के मालिनी हिन्दी व्याख्या अध्याय १ में कैलाश पर्वत के वर्णन
के साथ-साथ रावण वध के अनन्तर, राम के अश्वमेघ यज्ञ करने का
विवरण तथा राजाओं से कर प्राप्ति करने तक का विवेचन मिलता है।
शैवरामायण अध्याय १
श्रीगणेशाय नमः ।
श्रीरेणुकायै नमः ।
शैव रामायण पहला अध्याय
मङ्गलाचरणम्
श्रीगणेशं नमस्कृत्य
रेणुकामभिनन्द्य च ।
कवीन्दुं नौमि वाल्मीकिं रामं
विष्णुं शिवं तथा ।।
श्रीरामस्य विजयो हि शैवरामायणोदितः
।
प्राप्तः संवादरूपेण वक्ता यत्र
शिवो स्वयम् ।।
पितृभक्तो द्विजः कश्चिद् काव्यममुं
विलेख्यवान् ।
मातुः मनोविनोदाय दृश्यते लेखिनी
कवेः ।।
राजते मालिनी काव्ये
प्रणवश्छन्दसामिव ।
तादृशी मालिनी व्याख्या कण्ठे लसतु
धीमताम् ।।
सर्वप्रथम कवि श्रीगणेश जी को
नमस्कार करने के बाद श्रीरेणुका जी को नमन रूप मङ्गलाचरण करता है। इसके बाद शिवपार्वती
संवाद रूप में प्राप्त शैवरामायण लिखने में प्रवृत्त होता है।
शैवरामायणम् प्रथमोऽध्यायः
सूत उवाच
कैलासशिखरे रम्ये कल्पवृक्षोपशोभिते
।
गन्धर्वगणसम्पूर्णे राजतैः
शिखरैर्युते ।। १ ।।
सूत जी बोले –
कल्पवृक्षों से सुशोभित कैलास पर्वत की सुन्दर चोटी में सम्पूर्ण
गन्धर्व गणों से सुशोभित भगवान शङ्कर सर्वोच्च आसन में सुशोभित हो रहे थे ॥ १ ॥
विद्याधरैरप्सरोभिः प्रमथैश्च
विराजिते ।
रत्नसन्नद्धपीठे तु समासीनं तु
शङ्करम् ।
दृष्ट्वा सा पार्वती प्राह वचनं
धर्मसम्मितम् ।।२।।
वहाँ पर पहले से ही विद्याधर एवं
अप्सराएँ एकत्र थीं। उन्हीं लोगों के बीच रत्नों से बने हुए उच्चासन पर भगवान शिव
विराजमान थे। उन पार्वती ने भगवान शङ्कर को देखकर धर्मसमन्वित वचन कहे ॥२॥
श्रीपार्वत्युवाच
भगवन् सर्वधर्मज्ञ रामस्य चरितं
शुभम् ।
श्रीरामविजयं नाम ब्रूहि मे करुणाकर
।
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा पार्वतीं
प्राह शङ्करः ।। ३।।
श्रीपार्वती बोलीं- हे भगवन्! आप
सभी धर्मों को जानने वाले हैं और भगवान राम का चरित्र भी अत्यन्त शुभ है। इसलिए हे
करुणानिधान ! मुझे श्रीराम की विजय सुनाइये । पार्वती के ऐसे वचन सुनकर,
भगवान शंकर पार्वती से बोले ॥३॥
श्रीशङ्कर उवाच-
शृणु देवी प्रवक्ष्यामि प्रीतये
गिरिकन्यके ।
श्रीरामविजयं नाम सहस्रग्रीवनाशनम्
।। ४।।
भगवान शिव ने कहा- हे गिरिराजकुमारी
! तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं भगवान राम की कथा सुनाऊँगा,
जिन्होंने सहस्रग्रीव का विनाश किया था ॥४॥
सर्वपापप्रशमनं सर्वसौभाग्यदायकम् ।
पुत्रपौत्रप्रदं नृणां चातुर्वर्गफलप्रदम्
।। ५।।
श्रीराम की विजय कथा सम्पूर्ण पापों
का शमन करने वाली एवं सम्पूर्ण सौभाग्य को देने वाली है। मनुष्यों को पुत्र
पौत्रादि को प्राप्त कराने के साथ-साथ चारों प्रकार के वर्गों (ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) को फल देने वाला
है ॥५॥
रामो दाशरथिः
श्रीमानयोध्यायामभून्नृपः ।
इक्ष्वाकुकुलसम्भूतः
सर्वराक्षसमर्दनः ।। ६ ।।
इक्ष्वाकु वंश में जन्म,
सम्पूर्ण राक्षसों का मर्दन करने वाले भगवान श्रीराम अयोध्या के
चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र थे ॥६॥
कुम्भकर्णमहाकायदशास्येन्द्रजितां
वधम् ।
कृत्वा ह्ययोध्यां सम्प्राप्तः
सीतया भ्रातृभिर्युतः ।।७।।
ऐसे भगवान श्रीराम ने विशालकाय
कुम्भकर्ण तथा रावण को जीतकर एवं उनका वध करके सीता एवं अपने भाई लक्ष्मण के सहित
अयोध्या आये थे ॥७॥
पट्टाभिषिक्तो
राजन्यैर्वसिष्ठाद्यैः समन्त्रिभिः ।
भ्रातृभिः सहितोरामः
सम्यग्राज्यमपालयत् ।। ८ ।।
तदनन्तर महर्षि वशिष्ठ मन्त्रियों
एवं राजाओ! के द्वारा भगवान श्रीराम का अयोध्या में राज्याभिषेक किया गया और अपने
भाइयों (लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न) के सहित राम ने सम्पूर्ण (अयोध्या) राज्य (की जनता) का पालन
पोषण किया॥
एवं बहुतिथेऽतीते रामो राजीवलोचनः ।
हयमेधं ततः कर्तुमारभद् रावणान्तकः
।। ९ ।।
कमल के समान नेत्रों वाले एवं रावण
का वध करने वाले भगवान श्रीराम ने अयोध्या में बहुत दिन राज्य करने के बाद अश्वमेध
यज्ञ करना प्रारम्भ किया ॥ ९ ॥
मधुमासेऽसिते पक्षे ह्यलंकृत्य
हयोत्तमम् ।
चतुरङ्गबलैर्युक्तमृत्विग्भिश्च समन्वितम्
।। १० ।।
मधुमास (वसन्त ऋतु)* अर्थात् चैत्र महीने के कृष्णपक्ष में श्रेष्ठ
घोड़े को अलङ्कृत करके जो चतुरङ्गिणी सेना और अनेक ऋत्विकों से समन्वित था,
उसे अश्वमेध यज्ञ के लिए छोड़ा गया ॥ १० ॥
* मधुमास को चैत्र महीना माना जाता है,
जो वसन्त ऋतु के अन्तर्गत आता है। यथा-विनयन्ते स्म तद्योधा
मधुर्भिर्विजयश्रमम्-कालिदास रघुवंश- ४ / ६५, ऋतुसंहार १/३,
क्व नु हृदङ्गमः सखा कुसुमायोजितकार्मुको मधुः कुमारसम्भव, ४/२४-२५, ३/१०, ३०; भास्करस्य मधुमाधवाविव- रघु-११/७, मासे मघौ
मधुरकोकिलभृङ्गनादैः रामा हरन्ति हृदयं प्रसभंनराणाम् ऋतुसंहार- ६ / २४ से स्पष्ट
है।
नियुज्य भरतं क्षिप्रं सशत्रुघ्नमवोचत्
।
भरत भ्रातृसहितो ह्यनुसृत्य हये
व्रज ।। ११ ।।
भरत को अश्वमेध यज्ञ की रक्षा हेतु
नियुक्त करके भगवान श्रीराम ने शत्रुघ्न से कहा कि भरत के साथ-साथ सभी भाई उस
घोड़े का अनुसरण करो ॥११॥
इति रामवचः श्रुत्वा रामाज्ञां
परिपालयन् ।
निर्ययौ भरतः शीघ्रं हयानुसरणो
द्विजाः ।। १२ ।।
भगवान श्रीराम के वचनों को सुनकर,
उनकी आज्ञा का परिपालन करने के लिए भरत शीघ्र ही घोड़े का पीछा करने
वाले ब्राह्मणों के साथ अयोध्या से बाहर निकले ॥ १२ ॥
चारयामास देशान् स तान् तान्
जनपदान् बहून् ।
सौराष्ट्र सिन्धुसौवीरमागधाः हूणकोङ्कणाः
।। १३ ।।
इसके बाद वह घोड़ा विविध देशों,
बहुत से जनपदों में घूमता हुआ सौराष्ट्र, सिन्धु,
सौवीर, मगध, हूण,
कोंकण को पार किया, पर किसी ने उस घोड़े को
नहीं रोका; क्योंकि अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को जो राज्य नहीं
पकड़ते, वह उस राजा की अधीनता को स्वयं स्वीकार कर लेते हैं,
जो अश्वमेध यज्ञ कर रहा होता है एवं जो राजा उस घोड़े को पकड़ लेता
है, इसका तात्पर्य यह होता है कि वह अधीनता स्वीकार नहीं कर
रहा है, तब उस घोड़े के पीछे चलने वाली सेना से उसका युद्ध
निश्चित हो जाता है ॥१३॥
कलिङ्गयवनाः शूरा बाह्लीका:
कोसलादयः ।
अङ्गबङ्गनृ (ने) पालाश्च द्राविडाः
गुर्जराश्च ये ।। १४ ।।
(तदनन्तर वह घोड़ा) कलिङ्ग,
यवन, शूर, वाह्लीक,
कोशल आदि राज्यों के साथ-साथ, अङ्ग-बङ्ग,
नेपाल, द्रविड़ एवं गुर्जर (देशों को पार किया,
परन्तु किसी ने उसे छुआ तक नहीं ) ॥१४॥
चोलाः केकयदेशीयाः पाश्चात्याः
औत्तरीयकाः ।
पुलिन्दाः पाण्डवाः मात्स्याः ये
द्वीपान्तरवासिनः ।। १५ ।।
(आगे चलकर वह अश्वमेधीय घोड़ा) चोल,
कैकय देश, पश्चिमी एवं उत्तरीय देशों को पार
करके), पुलिन्द, पाण्डव, मत्स्य और इनके मध्य अवस्थित द्वीपों में घूमा ॥ १५॥
श्रीशङ्कर उवाच
ललाटपट्टलिखितं सौवर्णं राघवीयकम् ।
पत्रं दृष्ट्वा च राजानो
वाचयामासुरादरात् ।। १६ ।।
भगवान शिव पार्वती से बोले कि ऐसे
उस अश्वमेध यज्ञ के ललाट में बँधे हुए सुवर्ण से लिखे हुए 'अक्षरों वाले राजा राम के पत्र को देखकर आदर के साथ सभी राजा गण आपस में
बातचीत करते देखे गये ॥ १६ ॥
अयोध्याधिपतिः शूरो रामो दशरथात्मजः
।
हयमेधं करोत्यद्य सरयूतीरसंस्थितः
।।१७।।
(उस पत्र में लिखा था कि) सरयू नदी
के किनारे अवस्थित अयोध्या नरेश शूरवीर राम, जो
राजा दशरथ के पुत्र हैं; वह इस समय अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं
॥ १७ ॥
कौसल्यायाः कुमारोऽभूदंशाद् विष्णोः
महात्मनः ।
यज्ञीयाश्वो ह्ययं तेन
मोचितोऽभूद्यथाविधिः ।। १८ ।।
(ऐसे वह राम) जो भगवान विष्णु के
अंश हैं, महात्मा हैं, एवं महारानी
कौसिल्या के पुत्र हैं, उन्होंने अश्वमेध की विविध क्रियाओं
को करके इस अश्वमेधीय अश्व को छोड़ा है ॥१८॥
एषां येषां सामर्थ्यमस्तीह युद्धं
कर्तुं बलाच्च तैः ।
गृह्णीयोऽश्वोऽन्यथा तैश्च करो देयो
मुदान्वितैः ।।१९।।
जिस नरेश या राज्य के पास मुझसे
(राम से) युद्ध करने का सामर्थ्य हो, वह
जबरदस्ती करके इस अश्वमेधीय यज्ञ को ग्रहण करे या रोके, अन्यथा
उसे प्रसन्न होकर मुझे कर देना होगा, अर्थात् मेरी अधीनता
स्वीकार करना होगा ।। १९ ।।
तेषां रामाद् भयं नास्ति इतरेषां
पदे पदे ।
एवं विलिखितं पत्रे सौवर्णे
रामणीयके ।
वाचयन्तो नृपाः सर्वे ते बभूवुः
(पराङ्) मुखाः ।। २० ।।
जो-जो राजा कर देते जायेंगे
(अर्थात् अधीनता स्वीकार करेंगे), उन्हें राम से
किसी भी प्रकार का भय कभी-भी नहीं होगा, इस प्रकार की सुवर्ण
से लिखी हुई राम की उद्घोषणा को पढ़ करके सभी राजा गण युद्ध से पराङ्मुख हो गये,
अर्थात् उन्होंने राम की अधीनता स्वीकार कर ली ॥ २० ॥
इति श्रीशैवरामायणे
पार्वतीशङ्करसंवादे प्रथमोऽध्यायः ।
इस प्रकार पार्वती शिव संवाद रूप
में प्राप्त शैवरामायण का पहला अध्याय समाप्त हुआ ।
आगे जारी.......... शैवरामायण अध्याय 2
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