विश्वम्भर उपनिषद
भगवान विष्णु का नाम विश्वम्भर भी
है। विश्वम्भर उपनिषद में उसी भगवान विश्वम्भर के एक रूप श्रीरामजी की महिमा का वर्णन
किया है ।
श्रीविश्वम्भरोपनिषत्
विश्वम्भर उपनिषद
अथ श्रीविश्वम्भर उपनिषत् ।
मङ्गलाचरणम् ।
रक्ताम्भोज दलाभि राम नयनं
पीताम्बरालं कृतं
श्यामाङ्गं द्विभुजं प्रसन्न वदनं
श्रीसीतया शोभितम् ।
कारुण्यामृत सागरं
प्रियगणैर्भ्रात्रादिभिर्भावितं
वन्दे विष्णु शिवादि सेव्य मनिशं
भक्तेष्ट सिद्धिप्रदम् ॥
वात्सल्यादि गुणैः पूर्णां शृङ्गारादि
रसाश्रयाम् ।
लक्ष्म्यादि सेवितां वन्दे मैथिलीं
राघवप्रियाम् ॥
रामानन्दमहं वन्दे वेद वेदाङ्ग
पारगम् ।
राम मन्त्र प्रदातारं सर्व
लोकोपकारकम् ॥
विश्वम्भर उपनिषद
मूल -
अथ हैनं शाण्डिल्यो महाशम्भु प्रपच्छ यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा
सहेत्युक्तं ब्रह्म किमस्ति कोवा सर्वेश्वराधिपतिः निर्गुणसगुणाभ्यां परः कोवा
मूर्त्तामूर्त्ताभ्याम्परः कर्त्ताकारयिताच कीदृश इति । अथ कैर्मन्त्रैः
संसाराद्विमुच्यजीवः सद्यो मुक्तो भवति कोवा मन्त्राणामधिकारं समन्वेतीति ।
अर्थ -
बहुत से प्रश्नोत्तर करते हुए तदनन्तर शाण्डिल्य ऋषि ने महाशम्भु से पूछा कि वेद
भी जिनका वर्णन प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकते हैं वह ब्रह्म क्या है ?
सर्वेश्वरों (अर्थात महाविष्णु, महाब्रह्मा,
महाशम्भु सहित सभी अवतारों) के अधिपति कौन हैं ? निर्गुण और सगुण दोनों से परे कौन हैं ? कर्त्ता (सब
कुछ करने वाले) और कारयिता (सभी से सब कुछ कराने वाले) वे किस प्रकार हैं ?
आगे आप यह भी बताइये कि किन मन्त्रों से जीव संसार से छूट कर शीघ्र
मुक्त हो जाता है ? उन मन्त्रों का अधिकार किनको है ?
मूल -
सहोवाच महाशम्भुः यत्पृष्ट वांस्तस्य च नामरूपं लीलाऽथ धामानितु चिन्मयानि मनोवचो
गोचराण्येवं तानि स्वयं कृपातः स्फुरणं प्रयान्ति अतो रूपमनामेति प्रोक्तोयं राघवः
स्वराट् तन प्रकाश भूतञ्च यस्य ब्रह्म सनातनम् ।
अर्थ –
शाण्डिल्य ऋषि का प्रश्न सुनकर महाशम्भु निश्चय करके बोले कि जिसके विषय में आपने
पूछा उन परमात्मा के नाम, रूप, लीला और धाम चिन्मय (सच्चिदानन्द) है जो मन और वाणी से अगोचर (परे) है ।
केवल उन्हीं की कृपा से स्वयं प्रकाशित होते हैं । इसलिए ही उन स्वराट परमात्मा “राघव''
(अर्थात रघुकुलभूषण श्री राम) जिन्हें अरूप-अनाम (अर्थात प्राकृत
नामरूप से रहित) कहा जाता है उन्हीं के दिव्य तनु के प्रकाशभूत “सनातनब्रह्म''
हैं ।
मूल -
सईश्वराणां परमोमहेश्वरः पतिः पतीनां परमं च दैवतं अमूर्त्त मूर्त्तादि शरीर कोसौ
कर्त्ताप्य कर्त्ताच न प्रसंयुक्तः । व्याप्नोतिसर्व्वं निज तेजसायः
अणोरणीयान्महतः परस्तात् मूर्तेण सर्व्वं निर्माय विश्वं स्वयन्तु लीलां वितनोति
नित्यां द्वयोः शरीरयोरैक्य मतोद्वैतं बुधा जगुः नःसमाभ्यधिकत्वाद्वातमैद्वैतं व
भाषिरे ।
अर्थ -
वह श्रीराम ईश्वरों के परम ईश्वर हैं पतियों के
पति हैं और देवताओं के परम देवता हैं । वे श्रीराम अमूर्त (निर्गुण) तथा मूर्त
(सगुण) ब्रह्म के मूल शरीर अर्थात् आधार (स्त्रोत) हैं । और कर्ता और अकर्ता दोनों
हैं और दोनों से भिन्न भी हैं । जो अपने निज तेज द्वारा सभी स्थानों पर व्याप्त
हैं और सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं और बड़े से भी बड़े हैं इस रूप में समस्त विश्व
का निर्माण करते हैं और स्वयं रूप अर्थात् द्विभुज परात्पर नराकृति स्वरूप से
साकेत में दिव्य लीला विस्तार करते हैं । विद्वान लोग दो भिन्न स्वरूप होने पर भी
वस्तुतः इनमें ऐक्य मानते हैं क्योंकि उनके समान ही कोई नहीं है तो अधिक कैसे होगा
?
अस्तु विद्वानों द्वारा उन श्रीरामजी को अद्वैत ब्रह्म कहा जाता है
।
मूल-
सर्वावतार लीलाञ्च करोति सगुणोयः अयोध्यायां स्वयं रामो रासमेव करोति सः सगुण
निर्गुणाभ्यां परस्य परमपुरुषस्य दाशरथेर्मन्त्रस्य नाद बिन्दु वाम्मनसोरगोचरौ
तस्यमन्त्राश्चानन्तास्तेषु षट्शतं वरीयां सस्तेषु च त्रयों मन्त्रा अतिश्रेष्ठा ।
अर्थ -
सगुण रूप में जो श्रीराम विभिन्न अवतारों के रूप
में लीला करते हैं और स्वयंरूप में जो श्रीराम श्रीधाम अयोध्या में केवल रास करते
हैं वही सगुण-निर्गुण दोनों से परे परम पुरुष श्री दाशरथि राम का मन्त्र नादबिन्दु
अर्थात् रेफबिन्दु दोनों अक्षर मन-वचन से परे हैं । उनके अनन्त मन्त्र हैं उनमें
से भी ६०० मन्त्र श्रेष्ठ हैं उनमें से भी तीन मन्त्र अतिश्रेष्ठ हैं ।
मूल -
षडक्षरो द्वयाख्यं मन्त्र रत्नं युग्म मन्त्रशचेति बिन्दु पूर्वको दीर्घाग्निस्ततः
केवलं दीर्घाग्निः ततो मायेति अथ नमैति प्रथमं श्रीमदिति ततोरामचन्द्र चरणौ विति
ब्रूयादनन्तरं शरणमिति पदं पश्चात्प्रपद्ये इति वदेत् पुनश्च श्रीमते इति अथ
रामचन्द्रयेति तद्ग्रे नम इति यो दाशरथेर्द्वयाख्यं मन्त्राणां प्रवरं मन्त्र
रत्नमधीते स सर्वान् कामानश्नुते तेन सह मोदते इति अथ प्रणवादनन्तरं न
द्वितीयाक्षरमस्तृतीयाक्षरं सी चतुर्थाक्षरं ता पञ्चमाक्षरं र षष्ठातरं म
सप्तमाक्षरं भ्यामष्टमाक्षरमिति इममष्टाक्षरं विद्वान् मुक्तो भवति एतन्मन्त्रत्रयं
सर्व मन्त्र वरं जप्त्वा सद्यो मुच्यते कर्म बन्धनात् यः श्रीरामेऽति भक्तिमान् स
एवैतन्मन्त्राधिकारीति ।
अर्थ -
षडक्षर मन्त्रराज (१) मन्त्रों में रत्न मन्त्रद्वय (२) और युगल मन्त्र (३) यह तीन
मन्त्र हैं । अब मन्त्रोद्धार दिखाते हैं । बिन्दु पूर्वक दीर्घ अग्नि बीज रकार
(रां) उसके बाद केवल दीर्घ अग्नि बीज र कार (रा) उसके पीछे (माय ) फिर नमः ऐसा सब
मिलाकर “रां रामाय नमः'' यह षडक्षर राम
मन्त्र हुआ । अब मन्त्र द्वय दिखाते हैं प्रथम श्रीमद् उसके पीछे रामचन्द्र चरणौ
ऐसा कहना उसके पीछे शरणं यह पद कहे और उसके पीछे प्रपद्ये ऐसा कहे फिर श्रीमते कह
कर रामचन्द्राय कहे उसके आगे नमः कहे सब मिलाकर “श्रीमद्रामचन्द्र चरणौ शरणं
प्रपद्ये श्रीमते रामचन्द्राय नमः'' यह २५ अक्षर
वाला मन्त्रद्वय सब मन्त्रों में अतिश्रेष्ठ मन्त्ररत्न है इसे जो प्राणी जपता है
वह सभी कामनाओं को प्राप्त करता है और श्रीरामजी के साथ आनन्द को प्राप्त होता है
। अब युगल मन्त्र का स्वरूप दिखाते हैं - ॐ कार के पीछे “न'' दूसरा अक्षर “म'' तीसरा अक्षर “सी'' चौथा अक्षर “ता'' पञ्चमाक्षर “रा'' छठवां अक्षर “मा'' सप्तमाक्षर “भ्यां'' अष्टमाक्षर हुआ सब मिलाकर “ॐ नमः सीतारामाभ्यां नमः''
यह अष्टाक्षर युगल मन्त्र का जाननेवाला मुक्त होता है इन तीनों
श्रेष्ठ मन्त्रों का जप करके जीव कर्म बन्धन से शीघ्र मुक्त हो जाता है । जो
श्रीराम के अनन्य भक्त हैं वही इसके परम अधिकारी हैं ।
मूल -
श्रीराम एव सर्व्व कारणं तस्य रूपद्वयं परिछिन्नमपरिछिन्नं परिछिन्न स्वरूपेण
साकेत प्रमोदवने तिष्ठन् रासमेव करोति द्वितीयं स्वरूपं जगदुपत्यादेः कारणं
तद्दक्षिणाङ्गारात्क्षीराब्धिशायी वामाङ्गाद्रमावैकुण्ठवासीति हृदयात्परनारायणो
वभूव चरणाभ्यां वदरिकोवनस्थायी शृङ्गारान्नन्दनन्दन इति ।
अर्थ -
श्रीराम ही सभी के परमकारण हैं । उन्हीं श्रीराम के दो स्वरूप हैं परिछिन्न और
अपरिछिन्न । परिछिन्न स्वरूप से साकेत प्रमोदवन में सखियों के मध्य स्थित होकर
केवल रास करते हैं । द्वितीय जो अपरिछिन्न स्वरूप है वही समस्त संसार की उत्पत्ति
का कारण है उसी स्वरूप के दक्षिण अङ्ग से क्षीरसागर में शयन करने वाले नारायण
प्रकट होते हैं । वाम अङ्ग से रमावैकुण्ठवासी नारायण प्रकट होते हैं । ह्रदय से
परनारायण उत्पन्न होते हैं । चरणों से बद्रीवन में तपस्या करने वाले नर-नारायण
उत्पन्न होते हैं । श्रृङ्गार से नन्दनन्दन श्रीकृष्ण उत्पन्न होते हैं ।
मूल -
एवं सर्वेऽवताराः श्रीरामचन्द्रचरण रेखाभ्यः समुद्भवन्ति तथाऽनन्त कोटि विष्ण्वश्च
चतुर्व्यूहश्च समुद्भवन्ति एवमपराजितेश्वरमपरिमिताः परनारायणादयः अष्टभुजा
नारायणायश्चानन्तकोटि सङ्ख्यकाः वद्धाञ्जलि पुटाः सर्व कालं समुपासते
यदाविष्ण्वादीन यदाऽज्ञापयति तदा तद् ब्रह्माण्डे सर्व कार्यं कुर्वन्ति ते सर्वे
देवाद्विविधाः भिन्नांशा अभिन्नांशाश्च श्रीरघुवरमुभये सेवन्ते भिन्नांशा
ब्रह्मादयः अभिन्नांशा नाराणादयः ।
अर्थ -
इस प्रकार सभी अवतार श्रीरामचन्द्र के चरणों की
रेखाओं से प्रकट होते हैं तथा अनन्त कोटि विष्णु और चतुर्व्यूहादि उत्पन्न होते
हैं । ऐसा अपराजितेश्वर (अयोध्यापति) श्रीराम का अमित प्रभाव है जिनके सामने
अनन्तकोटि परनारायण, अष्टभुज नारायणादि
दोनों हाथों को जोड़े हुए खड़े रहते हैं और नित्य उनकी उपासना करते हैं । जब जब उन
असङ्ख्य ब्रह्मा विष्णु शिवादि को श्रीराम से आज्ञा मिलती है तब तब वे सब कोटि
कोटि ब्रह्माण्ड का उत्पत्ति पालन संहार करते हैं । वे त्रिदेव दो प्रकार के हैं
(१) भिन्नांश और (२) अभिन्नांश । ये दोनों श्रीरघुकुलश्रेष्ठ भगवान की सेवा करते
हैं । भिन्नांश तो ब्रह्मा शिवादिक देवता हैं और अभिन्नांश नारायणादिक अवतार
स्वरूप हैं ।
मूल -
सहस्रं समाः जीवात्मनः पञ्चाङ्गोपासनां कुर्वन्ति तत आनन्दरूपा भवन्ति ततः सदेव
सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं स एक्षत बहुस्यां प्रजायेय पूर्वं पञ्चाङ्गोपासकाः
सृष्टि समये श्रीकृष्णोपासनां समनुष्ठाय गोलोकं प्राप्नुवन्ति तत्र केचित्तत्रैव
तिष्ठन्ति केचिद्रामोपासनाऽधिकारिणो भवन्तीति विष्णवाद्युत्तमदेहे प्रविष्टो
देवताऽभवत् मर्त्यादधम देहेषु स्थितो भजति देवताः ।
अर्थ -
जीवात्मा जब सहस्त्रों वर्ष पर्यन्त
पञ्चाङ्गोपासना (अर्थात सूर्य गणेश शक्ति शिव विष्णु की उपासना) कर लेते हैं तब
आनन्द रूप हो जाते हैं । छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णित परमात्मा जो एक है अद्वितीय
है जिसने बहुत हो जाने की इच्छा से मुख्य पञ्चस्वरूप ग्रहण किए । पूर्व में सृष्टि
समय में यह पञ्चदेवोपासक क्रम से श्रीकृष्णोपासना को प्राप्त करके गोलोक की
प्राप्ति करते हैं । वहां जाकर कुछ जन वहीं निवास करते हैं और कुछ जन
श्रीरामोपासना के अधिकारी होते हैं और तदनन्तर सर्वोपरि साकेतलोक को प्राप्त करते
हैं । वही परमात्मा विष्णवादि उत्तम शरीर
में प्रविष्ट होने से देवता कहलाते हैं और मर्त्य लोक में रहने वाले अधम मनुष्यों
के शरीर में प्रविष्ट होने से देवताओं को भजता है ।
मूल -
परात्परस्य श्रीरामनाम्नः सर्वेषां नारायणादीनां नामानि भवन्ति तस्य धाम्नस्तेषां
धामान्युत्पद्यन्ते तल्लीलातः सर्वेषां लीला प्रादुर्भवन्ति तत्स्वरूपात्सर्वेषां
रूपाण्याविर्भवन्ति स एवायोध्याधिपतिः सर्वकारणानामादिकारणं न तस्मात्किञ्चित्परं
तत्वमस्तीति ।
अर्थ -
परात्पर श्रीरामजी के नाम से सभी नारायणादि नाम प्रकट होते हैं । उन्हीं के धाम से
सभी धाम उत्पन्न होते हैं । उन्हीं श्रीराम की दिव्य लीला से सभी अवतारों की लीला
का प्रादुर्भाव होता है । उन्हीं श्रीराम
के दिव्य द्विभुज परात्पर स्वरूप से सभी चतुर्भुज, षड्भुज, अष्टभुज, दशभुज, प्रभृति अनन्तभुजादिक पर्यन्त सभी भगवद्स्वरूपों का आविर्भाव होता है ।
वही अयोध्याधिपति भगवान् श्रीरामचन्द्र सर्वकारणों के आदिकारण हैं । उनके परे और
कोई तत्व नहीं है अर्थात् वे ही परमतत्त्व हैं ।
मूल -
अथ यन्त्रं सं लिख्यते । राम प्राप्तै मुमुक्षुभिः यन्त्रं विना न
संसिद्धिर्मन्त्राणां देवतात्मनाम् । काम क्रोधादि दोषाणां यन्त्रणां ये न वैभवेत्
। ततो यन्त्रमिति प्रोक्तं यमनाद्यन्त्रमित्यपि । षट् कोणं प्रथमं लेख्यं वृत्तं
संविलिखेत्ततः । अष्टौ दलानि लेख्यानि ततस्याच्च तुरस्रकम् । सर्वैश्च लक्षणैर्युक्तं
दिव्यं सर्व सुख प्रदम् । सर्वावतार वीजैश्च वेष्टयेद्यन्त्रमुतमम् । ततश्च पूजनं
कुर्याद्यन्त्रस्यैतस्य सर्वदा । तन्मध्ये व्यक्तमालेख्यं साध्य कर्म विधानतः
। वीजम्पुनस्तद्विलिखेत्तत् क्रोडी
कृत्यमान् मथम् ।
अर्थ -
अब यन्त्र लिखते हैं । रामजी की प्राप्ति के लिए
मुमुक्षुजन बिना यन्त्र पूजन किए मन्त्रात्मक देवता को सिद्ध नहीं कर सकते हैं
इसलिए यन्त्र का अवश्य पूजन करना चाहिए । काम क्रोधादि दोषों पर यन्त्रणा (ताड़ना
अर्थात वश में करना) करने के कारण इसे यन्त्र कहा जाता है । अब यन्त्र बनाएं -
प्रथम दो त्रिकोण के षट्कोण चक्र बनाएं फिर चारों ओर से गोलाकार लिखें । फिर आठ दल
लिखें बारह वज्र शूल सहित सत्व रज तम रूप तीन रेखा युक्त चतुरस्त्रभूगृह लिखें
चारों दिशाओं में चार द्वार लिखें जो सभी लक्षणों से युक्त और सर्वसुख प्रदान करने
वाले हों । यन्त्र को सभी अवतारों के बीज से वेष्टित करें तब इस यन्त्र का सर्वदा
पूजन करें । यन्त्र के मध्य में विधानपूर्वक स्पष्ट साध्य कर्म लिखे । रां वीज के
ऊपर षष्ठी विभक्ति सहित साधक नाम भग लिखे और रां वीज के दोनों पार्श्व (बगल) में
दो कुरु लिखे इस विधान से लिखे ।
मूल -
अथ तत्पञ्च वीजानामावृत्तिं विदधीतवै । भूयो दशाक्षरेणतद्वेष्टयेच्छुद्ध
बुद्धिमान् अग्निकोणादि कोणेषु षडङ्गानि क्रमाल्लिखेत् । पुनः कोणकपोलेषु ह्रीं
श्रीं च विलिखेत्सुधीः । प्रतिकोणाग्रमालेख्यं हुं बीजं केशरेष्वच । वर्णमाला
मनोख्याता चत्वारिंशच सप्तच । वर्णा सप्त दलेष्वेवं षट् षट् पञ्चाष्टमे दले ।
पूर्वस्याद्धेष्टयेत्कादि वर्णैसर्वंञ्चतत्ववित् । लिखेद्वीजद्वयं सम्यक् नरसिंह
वाराहयोः । दिग्विदुक्षुचपूर्वस्यां भूगृहेचतुरस्त्रकैः । यन्त्रमेतत्समाराध्य
भुक्तिं मुक्तिंलभेन्नरः ।
अर्थ - अब
उसके पीछे पञ्च बीज अर्थात रीं रूं रैं रौं रः चारों ओर से लिखे । इसके
पश्चात दशाक्षर “हुं जानकी वल्लभाय स्वाहा''
इस मन्त्र से शुद्ध होकर बुद्धिमान वेष्टित करे
। अग्नि कोणादि छहों कोण में षडङ्गन्यास ( १। रां हृदयाय नमः २। रीं शिरसे स्वाहा ३। रूं शिखायै वषट् ४। रैं
कवचाय हुं ५। रौं नेत्राभ्यां वौषट् ६। रः अस्त्राय फट् ) क्रम से लिखे फिर
कोण के कपोल में ह्रीं और श्रीं दोनों को बुद्धिमान लिखे । कोण के
अग्रभाग में हुं बीज को लिखे और अष्टदल में वर्णमाला मन्त्र जो ४७ अक्षरों
वाला है उसे लिखें । सात दल में छः छः अक्षर लिखें और आठवें दल में पाञ्च अक्षर
लिखें उसको पूर्व से कादि वर्णों से अर्थात कं खं गं घं ङं । चं छं जं झं ञं ।
टं ठं डं ढं णं । तं थं दं धं नं । पं फं बं भं मं । यं रं लं वं । शं षं सं हं ।
लं क्षं इति । इन अक्षरों से तत्त्व के ज्ञाता वेष्टित करें चतुरस्त्र तीन
भूगृह के भीतर पूर्वादिक देशों दिशा में नृसिंह बीज क्ष्रौं और वराह बीज हुं
दोनों बीज को लिखे यह यन्त्र सब प्रकार से आराधन करने योग्य है । इसके पूजन करने
से मनुष्य भुक्ति (सात्विक भोग) और मुक्ति को प्राप्त होते हैं अब यन्त्र की दूसरी
विधि लिखते हैं यथा -
मूल -
मध्येऽथवा लिखेत्तारं षट् कोणेद्यपि च क्रमात् । वर्णा श्रीराम मन्त्रस्य
सन्धिष्वगं च मान्मथम् । गण्डेषु च तथा मायां किञ्जल्के चाविलेखनम् ।
पूर्ववत्तत्रपर्णेषु माला मन्त्रं क्रमाल्लिखेत् । दशाक्षरेण संवेष्द्यकादीनि
विलिखेत्ततः । दिग्विदुक्षु तथा वीजे नरसिंहवाराहयोः यन्त्रान्तरमिदं
साङ्गम्मावरणं विधिनार्चयेत् राजते वाथ सौवर्णे भूर्जे संलेख्य पूजयेत् ।
अर्थ -
अथवा यन्त्र के मध्य से लेकर छहों कोण में क्रम से श्रीराममन्त्रों के अक्षर सहित
ॐकार को लिखे । (ॐ रां रा मा य न मः इस
प्रकार लिखे) और (छहों कोण के सन्धि में अङ्गन्यास पूर्वक कामबीज क्लीं लिखे
अर्थात क्लीं रां हृदयाय नमः । क्लीं रीं शिरसे स्वाहा । क्लीं रूं शिखायै वषट् ।
क्लीं रैं कवचाय हुं । क्लीं रौं नेत्राभ्यां वौषट् । क्लीं रः अस्त्राय फट् इस
प्रकार लिखे) कपोल में माया बीज ऐं लिखे और केशर में अर्थात अष्टदल में पूर्व के
समान ४७ अक्षर का जो वर्णमाला मन्त्र है उसे क्रम से लिखें फिर उसे दशाक्षर मन्त्र
से वेष्टित करके फिर कादि अक्षरों को लिखे तथा चतुरस्त्र भूगृह के भीतर पूर्वदिक दशों
दिशा में नृसिंह वाराह दोनों के बीज लिखे यह दूसरे प्रकार का यन्त्र में अङ्ग सहित
आवरणों की विधिपूर्वक अर्चना करें । चान्दी में अथवा स्वर्ण भोजपात्र में लिखकर
पूजन करे ।
मूल -
हुं जानकी वल्लभाय स्वाहा क्ष्रौम् । हुं पठेत्पुनः । दशाक्षरो वाराहस्य नरसिंहस्य
मनुःस्मृतः ह्रीं श्रीं क्लीं तथोन्नमो वदेत्तदनन्तरं भगवतेपदं ब्रूयात्-इति
रघुनन्दनायेति पदं वदेत् ततो रक्षोघ्न विशदायेतिच मधुरे न पदं पश्चात् प्रसन्नेति
ततो वदेत् वदनायेति पदं ब्रूयात्पश्चादमिततेजसेइति ततोबलाय निगदेत् रामाय विष्णवे
नमः ह्रीं श्रीं क्लीञ्चों नमोभगवते रघुनन्दनाय रक्षोघ्न विशदाय मधुर प्रसन्न
वदनाय अमित तेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः । एषमाला मनुः प्रोक्तो नगणां
चिन्ततार्थदः ।
अर्थ –
“हुं जानकी वल्लभाय स्वाहा''
यह दशाक्षर मन्त्र है क्ष्रौं हुं यह दोनों नृसिंह और वाराह मन्त्र
का बीज है । अब माला मन्त्र कहते हैं ह्रीं श्रीं क्लीं तथा नमो कहे । तदनन्तर
भगवते पद को कहना फिर रघुनन्दनाय ऐसा कहे तब रक्षोघ्नविशदाय कहे फिर पीछे मधुर पद
कहे तब प्रसन्न ऐसा कहे फिर वदनाय ऐसा कहे पीछे अमित तेजसे ऐसा कहे तब बलाय कहकर
रामाय विष्णवे नमः कहे । ऐसा मन्त्रोद्धार हुआ । ॐ नमो भगवते रघुनन्दनाय रक्षोघ्न
विशदाय मधुर प्रसन्न वदनाय अमित तेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः यह माला मन्त्र कहा
है यह मन्त्र मनुष्यों को मनोवाञ्छित फल देने वाला है ।
मूल -
ॐ सीं सीतायै वदन् नमोन्तः सीता मन्त्र उदाहृतः । मन्त्रेऽस्मिन् राममाराध्य
साङ्गं सावरणं तथा । आराध्य गुटिकी कृत्य धारयेद्यन्त्रमन्वहम् । सर्व दुःख
प्रशमनं पुत्र पौत्र प्रदं नृणाम् । सर्व विद्या प्रदं शश्वत् सर्व सौख्य करं सदा
। अन्याभिचार कृत्येषु वज्र पञ्जरमेवहि । किं बहू क्त्या नृणाम सर्व सिद्धिदं
शोकनाशकमिति ॥ यन्त्र सम्यक् विधानेन धारयेत्साधकोत्तमः । श्रीरामद्वार पीठाग्रे
परिवारतयास्थितान् । गणेशादि सुरान् क्षेत्र पालान्सर्वान्समर्चयेत् । स्वां तनुं
शोधयित्वातः परं पूजनमाचरेत् । उपचारैः षोडशभिस्तथैकादशभिः सुधीः । पञ्चभिर्वा
यजेद्देवान स्व स्व शक्त्यनुकूलतः । सर्व शक्ति युतं रामं साङ्गं सावरणं जपेत् ।
स्तूयात्सर्वान् परिवारान् राम प्रीत्यर्थमादरात् । एवं यः कुरुते पूजां यन्त्र
राजस्य मानवः इह काम्यं सुखं लब्ध्वा प्रेत्य साकेतमृच्छति ।
अर्थ -
सीं सीतायै कह कर अन्त में नमः कहे इसे श्रीसीतामन्त्र कहा है । इस मन्त्र में
अङ्ग तथा आवरणों के सहित श्रीराम की आराधना करे । आराधना करके उत्तम यन्त्र को
गुटिका बना कर धारण करे यह यन्त्र सर्वदुःखों का नाश करने वाला है और मनुष्यों को
पुत्र पौत्र की प्राप्ति कराने वाला है । सभी ऐश्वर्यों को देने वाला है । अन्य
मोहन,
मारण, वशीकरण, उच्चाटनादि
कर्मों में यही वज्रपञ्जर काम देते हैं । बहुत क्या कहें यह यन्त्र मनुष्यों को
सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला है और शोकों का नाश करने वाला है । उत्तम साधन करने
वाले को विधान पूर्वक यन्त्र को धारण करना चाहिए । श्रीराम के द्वारपीठ के अग्रभाग
में परिवार सहित उन देवताओं (गणेश, दुर्गा, क्षेत्रपाल, सरस्वत्यादि) को स्थित करके पूजा करे ।
इसके बाद अपने शरीर का शोधन करके प्रधान पूजन करे । बुद्धिमान षोडशोपचार पूजन करे
तथा एकादश प्रकार से अथवा पञ्चोपचार से पूजन करे । इसके पश्चात सभी शक्तियों के
सहित अङ्गावरणों के सहित श्रीरामजी का जप करे फिर श्रीराम जी के प्रीत्यार्थ
नमस्कार करे इस प्रकार जो मनुष्य यन्त्रराज की पूजा करते हैं वह इस लोक में सभी
सुखों का भोग करके मेरे साथ सर्वोपरि श्री साकेतलोक को प्राप्त होते हैं ।
मूल -
अस्य श्रीराम शरणागत मन्त्रस्य श्री रामचन्द्रो ऋषिदेवी गायत्री छन्दः परमात्मा
श्रीरामचन्द्रो देवता रां बीजं नमः शक्तिः सर्वाभिष्टार्थ सिद्धये जपे विनियोगः
मूले न कर शोधनं कृत्वा प्रथमं वीजं करतल करयोर्न्यसेत् । शेषाक्षराण्यङ्गुलि
पर्वसु विन्यसेत् ।
अर्थ -
इस श्रीराम शरणागत मन्त्र के श्रीरामचन्द्र ऋषि हैं, गायत्रीदेवी छन्द हैं, परमात्मा श्रीरामचन्द्र देवता
हैं, राँ बीज है, नमः शक्ति है,
सर्व अभीष्टों की सिद्धि के लिए जप करने में विनियोग करते हैं । मूल
मन्त्र से करशोधन करके प्रथम बीज को करतल कर दोनों में न्यास करे शेष सब अक्षरों
को सब अङ्गुलि के पर्व्वों में विधि पूर्वक न्यास करे ।
मूल -
श्रीमद्रामचन्द्र चरणौ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः शरणं तर्जनीभ्यां नमः प्रपद्ये
मध्यमाभ्यां नमः श्रीमते अनामिकाभ्यां नमः रामचन्द्राय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नमः
करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः श्रीरामचन्द्र चरणौ ज्ञानायहृदयाय नमः शरणमैश्वर्य्याय
शिरसे स्वाहा प्रपद्ये शक्तये शिषायै वषट् श्रीमते बलाय कवचायहुं रामचन्द्राय
तेजसे नेत्राभ्यां वौषट् नमो बीजाय अस्त्राय फट् श्रीरामचन्द्रचरणौ ज्ञानाय उदराय
नमः शरणमैश्वर्य्याय पृष्ठाय नमः प्रपद्ये शक्तये बाहुभ्यां नमः श्रीमते बलाय
ऊरूभ्यां नमः रामचन्द्राय तेजसे जानुभ्यां नमः नमोवीर्य्याय पादाभ्यां नमः
अथदेहन्यासः श्रीं नमः मन्नमः रां नमः मन्नमः चन्नमः द्रन्नमः चन्नमः रन्नमः णौं
नमः शन्नमः रन्नमः णन्नमः प्रन्नमः पन्नमः द्यन्नमः श्रीनमः मन्नमः तेन्नमः
रान्नमः मन्नमः चन्नमः द्रान्नमः यन्नमः नन्नमः मोन्नमः एवमुपर्य्यविन्यसेत्
श्रीम्मूद्धिनमतेभालेरामनेत्रे चन्द्रनासिका यां चरश्रोत्रे णौ मुखेशरभुजयोः
णंहृदिप्रपस्तनयोः द्येनाभौ श्रीपृष्ठेमतेजङ्घयोः रामकट्यां चन्द्रा ऊर्वोः य
जानुनि नमः पादयेः अथध्यानम् ।
जानकी सहितं राममिन्द्रनील
मणिप्रभम् ।
ज्ञान मुद्राधरं सर्व भूषाभिः समलङ्कृतम्
॥
पार्श्वन्यस्त धनुर्वाणं सर्वावयव
सुन्दरम् ।
राजीवलोचनं ध्यायेत्सर्वाभिष्टार्थ
सिद्धये ॥
अर्थ -
इन्द्रनीलमणि के सामान कान्तियुक्त श्रीजानकीजी के सहित ज्ञान मुद्रा धारण करने
वाले सब भूषणों से युक्त, जिनके सभी अङ्ग
अतिसुन्दर हैं ऐसे सब अभीष्टों की अर्थ सिद्धि करने वाले श्रीराम का ध्यान करें ।
तब श्री युगलमन्त्र ॐ नमः सीतारामाभ्यां इसका जप करे । इसके आगे अङ्गन्यासादि का
विधान वर्णित करते हैं -
मूल
- ॐ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः नमः तर्जनीभ्यां नमः सीता रामाभ्यां मध्यमाभ्यां नमः ॐ
अनामिकाभ्यां नमः नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः सीतारामाभ्यां करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॐ
ज्ञानायहृदयाय नमः नमः ऐश्वर्याय शिरसे स्वाहा सीतारामाभ्यां शक्तये शिखायै वौषट्
ॐ बलाय कवचाय हुं नमस्तेजसे नेत्राभ्यां सीतारामाभ्यां वीर्य्याय अस्त्राय फट्
ध्यानं पूर्ववत् ।
अर्थ -
यहाँ पर्य्यन्त श्री युगल मन्त्र का अङ्गंन्यासादि जानना चाहिए । इसके आगे पूर्व
के समान ही श्रीसीताराम का ध्यान करके श्रीमन्त्रराज का जाप करे ।
मूल -
अस्य रामषडक्षर मन्त्रराजस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दः श्री रामो देवता राम्बीजं
नमः शक्तिः रामायेति कीलकं श्री राम प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।
अर्थ -
इस श्रीराम षडक्षर मन्त्रराज के ऋषि ब्रह्मा हैं, छन्द गायत्री है, देवता श्री राम हैं, शक्ति नमः है, कीलकं रामाय है, श्रीरामप्रीति के लिए जप में विनियोग करे । आगे राममन्त्रराज के
अङ्गन्यासादि वर्णित करते हैं -
मूल -
ॐ ब्रह्मणे ऋषयेनमः शिरशि ॐ गायत्री छन्दसे नमो मुखे ॐ रां देवतायै नमो हृदि ॐ रां
बीजायनमोगुह्ये ॐ नमः शक्तये नमः पादयोः ॐ रामाय कीलकाय नमः सर्वाङ्गे ॐ रां
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॐ रीं तर्जनीभ्यांस्वाहा ॐ रूं मध्यमाभ्यां वषट् ॐ रैं
अनामिकाभ्यां हुं ॐ रौं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ॐ रः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ॐ रां
हृदयाय नमः ॐ रीं शिरसे स्वाहा ॐ रूं शिखायै वषट् ॐ रैं कवचाय हुं ॐ रौं
नेत्राभ्यां वौषट् ॐ रः अस्त्राय फट् रां नमः ब्रह्मरन्ध्रेरां नमः भ्रुवोर्मध्ये
मां नमः हृदि यं नमः नाभौ नं नमः लिङ्गे मन्नमः पादयोः रां नमः शिरसि रां नमो मुखे
मां नमः हृदयेय नमः नाभौ नं नमः गुह्ये मं नमः पादयोः रां नमः नाभौ रां नमः गुह्ये
मां नमः पादयोः रां नमः शिरसि नं नमः मुखे मं नमः हृदये रां नमः पादयोः रां नमः
गुह्ये मां नमः । नाभौ यं नमः हृदये नं नमः मुखे मं नमः शिरसि रां नमः शिरसि रां
नमः मुखे मां नमः हृदये यं नमः नाभौ नं नमः गुह्ये मं नमः पादयोः रां नमः नाभौ रां
नमः गुह्ये मां नमः पादयोः यं नमः शिरसि नं नमः मुखे मं नमः हृदये रां नमः शिरसि
रामाय नमः नाभौ नमो नमः पादयोः ।
अर्थ -
यह तो श्रीराम मन्त्र का न्यास हुआ । अब देह
शुद्धि और पूजनादिक कर्म का विधान वर्णित करते हैं ।
मूल -
देह शुद्धिं विधायादौ पूजयेद्रघुनन्दनम् । पूजा द्रव्याणि संशोध्य
पूजापात्राणिशोधयेत् ॥ द्रव्यै सुप्रोक्षतैः सम्यक् पूजयेत् पुरुषोत्तमम् ।
विधिनाराधितो रामः सम्यगाराधितोभवेत् । मन्दिरं मार्जयित्वाथ देवमावाहयेद्विभुम् ।
आवाहयित्वा देवेशं मध्ये पाद्यं तथाऽर्पयेत् ॥ मधुपर्कं ततो
दद्यात्ततस्त्वाचमयेद्विभुम् । सरय्वादि सलिलैर्देवं स्नापयेत्सीतयामह ॥
अर्थ -
प्रथम शरीर शुद्धि करके तब श्रीरामजी की पूजा करे जिसमें पूजा द्रव्य का शोधन करके
फिर पूजा पात्रों को शुद्ध करे पूजा सामग्री का सब प्रकार प्रोक्षण करके
पुरुषोत्तम श्रीराम का षोडशोपचार पूजन करे । श्रीराम का विधिपूर्वक आराधन ही उनका
सम्यक आराधन होता है । श्रीराम के मन्दिर का परिमार्जन करके उन श्रीराम का आवाहन
करके मध्य में पाद्य अर्पण करे । फिर मधुपर्क अर्पित करे फिर प्रभु श्रीराम को
सरयू प्रभृति नदियों के जल से आचमन कराएं अथवा जिस नदी तीर्थादि के जल वर्तमान हों
उससे जानकीजी के सहित प्रभु श्रीराम को स्नान कराएं ।
मूल
- वस्त्राणि धापयेत्सम्यक् यज्ञ सूत्रञ्चधापयेत् । अङ्ग रागं समर्प्याथ तुलसी
पुष्पमालिका । समर्पयेत्ततः सर्व भूषणैर्भुषयेद्विभुम् । अङ्गाणि पूजयेत्सम्यक्
ततो रामः प्रसीदति ॥ धूपं दीपञ्च नैवेद्यमारार्तिकमथार्प्ययेत् । पुष्पाञ्जलिमथो
दद्यात्परिक्रमणमेवच ॥ प्रणमेत् शास्त्र विधिना स्तूयास्तोत्रै परात्परम् । एवं
सम्पूजयेद्यस्तु सोऽमृतत्वञ्च गच्छति ॥ इदं तु परमं गुह्यं रहस्यं सर्व दुर्लभम् ।
रामभक्ताय दातव्यं न देयम्प्राकृतायेचेति ॥
अर्थ
- सब प्रकार से वस्त्रों को और यज्ञोपवीत को धारण
कराये । अङ्ग राग (सुगन्धित पदार्थ) समर्पण करे तथा तुलसीपुष्पमालिका धारण कराये
तत्पश्चात सभी आभूषणों से श्रीराम को भूषित करे और जितने अङ्ग देवता हैं उन सबका
विधिपूर्वक पूजन करे तभी श्रीराम प्रसन्न होते हैं । धूप,
दीप, नैवेद्य और आरती यह सब अर्पण करके
पुष्पाञ्जलि देकर चार परिक्रमा देते हुए परात्पर स्तोत्रों (अर्थात जिनमें श्रीराम
की परात्परता वर्णित हो) से स्तुति करके शास्त्र विधि से साष्टाङ्ग प्रणाम करे ।
जो इस प्रकार पूजा करते हैं वे मोक्ष (साकेतलोक) को प्राप्त होते हैं । यह रहस्य
अत्यन्त गोपनीय है सबको अत्यन्त दुर्लभ है केवल श्रीरामभक्त को देना चाहिए पापकृत
अर्थात जो कोई माया मोह में आसक्त है और परतत्त्व से विमुख है उन्हें यह रहस्य
कदापि नहीं सुनाना चाहिए ।
इत्यथर्वणे विश्वम्भरोपनिषत्
समाप्तः ॥
यहाँ अथर्वणीय श्रुति
विश्वम्भरोपनिषद समाप्त होती है ।
इति श्रीविश्वम्भरोपनिषत् भाषा टीका सहिता सम्पूर्णा ।
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