श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद
श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद
अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। इसके इस भाग में रामनाम के विविध अर्थ,
उनका साकार रूप, मन्त्र एवं यन्त्र का
महात्म्य, श्रीराम का स्वरूप एवं राम के बीज मन्त्र का अर्थ और श्रीराम में पूरी
सृष्टि का समाहित होना का वर्णन है।
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
शान्ति पाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाঌ सस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायुः
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !!शान्ति: !!!
ओम ॐ! गुरु के यहाँ अध्ययन करने
वाले शिष्य अपने गुरु, साथ में पढ़ने वाले
तथा मानव मात्र की कल्याण की इच्छा से देवताओं से प्रार्थना करते हैं- 'हे देवगण! हम अपने कानों से शुभ एवं कल्याणकारी वचन ही सुने। निन्दा,
चुगली, गाली या अन्य पाप की बातें हमारे कानों
में न पड़े। हमारा जीवन यजन-परायण हो। हम सदा भगवान की अराधना में लगे रहें। हम
नेत्रों से भी सदा कल्याण का ही दर्शन करें। किसी अमंलकारी और पतन की ओर ले जाने
वाले दृश्यों की तरफ हमारा आकर्षण कभी न हो। हमारा शरीर, हर
अंग सुदृढ़ और पुष्ट हो। वह भी इसलिए कि हम उनके द्वारा भगवान का स्तवन करते रहें।
हमारी आयु भोग-विलास या प्रमाद में न कटे। हमें ऐसी आयु मिले जो भगवत कार्य में आ
सके। जिनका सुयश सब ओर फैला है वे देवराज इन्द्र, सर्वज्ञ
पूषा, गरुड़ (अरिष्टनिवारक तार्क्ष्य) और बुद्धि के स्वामी
बृहस्पति-ये सभी देवता भगवान की ही दिव्य विभूतियाँ हैं। वे सब सदा हमारा कल्याण
एवं पोषण करें। इनकी कृपा से हमारे साथ प्राणिमात्र का कल्याण होता रहे।
आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-इन तीनों प्रकार के तापों
की शान्ति हो।'
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
रामनाम के विविध अर्थ,
उनका साकार रूप, मन्त्र एवं यन्त्र का महात्म्य
श्रीरामतापिनीयार्थं
भक्तोध्येयकलेवरम् ।
विकलेवरकैवल्यं श्रीराम ब्रह्म म
गतिः ।।
ॐ चिन्मयेऽस्मिन् महाविष्णो जाते
दशरथे हरौ ।
रघो: कुलेऽखिलं राति राजते यो
महीस्थित: ।।१।।
श्रीरामतापिनीयोपनिषद् यर्थाथ में
भक्तों के लिए ध्यान का विषय है (कारण श्रीराम तत्त्व का इसमें ज्ञान होता है)। जो
प्राकृत शरीर से रहित है, जो कैवल्य परमपद है,
जो परमब्रह्म है- वह ही श्रीराम मेरे आश्रय हैं और मेरी गति हैं।
ॐ । चिन्मय (शुद्ध ज्ञान) रूप
महाविष्णु जब दशरथ के घर रघुकुल में अवतार लिये उस समय उनका नाम राम हुआ। (इस नाम
की उत्पत्ति इस प्रकार है- जो पृथ्वी पर स्थित होकर भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते
हैं और राजा के रूप में स्थित हैं- वे राम हैं। 'राति राजते योमहीस्थितः' - राति
का पहला अक्षर 'रा' एवं महिस्थित का
पहला अक्षर 'म' से राम बना है।) (१)
स राम इति लोकेषु विद्वद्भिः
प्रकटीकृतः ।
राक्षसा येन मरणं यान्ति
स्वोद्रेकतोऽथवा ।।२।।
विद्वानों ने यह प्रकट किया है कि
वो ही राम हैं (चाहे उस शब्द की उत्पत्ति का कोई भी कारण हो) जिनके द्वारा राक्षस
मारे गये। ('राक्षस येन मरणं'
के राक्षस शब्द के पहले अक्षर 'रा' तथा मरणं शब्द के पहले अक्षर 'म' को जोड़ने पर 'राम' बना।) (२)
रामनाम भुवि ख्यातमभिरामेण वा पुनः
।
राक्षसान्मर्त्यरूपेण राहुर्मनसिजं
यथा ।।३।।
प्रभाहीनांस्तथा कृत्वा
राज्यार्हाणां महीभृताम् ।
धर्ममार्ग चरित्रेण ज्ञानमार्ग च
नामतः ।।४।।
वे सबके मन को अभिराम (प्रसन्नता,
हर्ष) देने वाले, सुन्दर शरीर वाले होने से
पृथ्वी पर 'राम' कहलाये। अथवा जो
मनुष्य रूप होकर भी राक्षसों को उसी प्रकार मलीन कर देते हैं जैसे राहु
चन्द्रमा को, वो 'राम' कहलाये। अथवा जो अपने आदर्श चरित्र के उदाहरण से राजा लोगों को सत्यपथ
(धर्मपथ) पर चलने की शिक्षा देते हैं, नाम जप करने पर ज्ञान
मार्ग की प्राप्ति कराते हैं (३-४)
तस्य ध्यानेन वैराग्यमैश्वर्यं यस्य
पूजानात् ।
तथा रात्यस्य रामाख्या भुवि स्यादथ
तत्त्वतः ।।५।।
अपना ध्यान करने पर भक्तों को
वैराग्य देते हैं, अपने विग्रह की
पूजा करने पर ऐश्वर्य देते हैंउनका नाम पृथ्वी पर 'राम'
नाम से विख्यात है। यह यर्थाथ बात है (५)।
रमन्ते योगिनोऽनन्ते
नित्यानन्देचिदात्मनि ।
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते
।।६।।
योगीजन जिन नित्यानन्द,
चिदात्मा परमात्मा में रमण करते हैं, वे ही
राम पद से जाने जाते हैं। वे जो परम पद हैं, ब्रह्म की
प्रार्थना से अवतार धारण किये इसलिए 'अवतारी राम' एवं 'परमब्रह्म' एक ही है (६)।
चिन्मयस्याद्वितीयस्य
निष्कलस्याशरीरिणः ।
उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो
रूपकल्पना ।।७।।
ब्रह्म चिन्मय अद्वितीय,
निष्कलंक पञ्च भौतिक शरीर से रहित है। वो ही ब्रह्म अपनी उपासना
करने वाले भक्तों के लिए कल्पितरूप धारण कर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं (७)।
रूपस्थानां देवतानां
पूज्यङ्गास्त्रादिकल्पना ।
द्विचत्वारिषडष्टानां दश द्वादश
षोडश ।।८।।
अष्टादशामी कथिता हस्ताः
शङ्कादिभिर्युताः ।
सहस्रान्तास्तथा तासां
वर्णवाहनकल्पना ।।९।।
जो परमात्मा राम के रूप में देह
धारण किये हैं उन्हीं की पुरुष, स्त्री,
अंग और अस्त्र आदि के रूप में कल्पना की जाती है। जितने देवता हैं
वे सब उस परमात्मा में स्थित हैं (अथवा वो परमात्मा के ही भिन्न रूप हैं)। अत: वे
भिन्न-भिन्न शस्त्र वगैरह का रूप धारण कर उनकी सेवा करते हैं पर उनसे (राम से)
भिन्न / पृथक नहीं है। परमात्मा ब्रह्म जो रूप धारण करते हैं उनमें किसी में दो,
किसी में चार, आठ, दस,
बारह, सोलह, अठ्ठारह-
इतने हाथ कहे गये हैं। उनके हाथों में शंख आदि सुशोभित हैं। जब वे विराट पुरूष
(विश्व रूप) धारण करते हैं तो उनके सहस्रों हाथ हो जाते हैं। उन भिन्न रूपों के
भिन्न-भिन्न रंग एवं वाहन आदि की कल्पना की गयी है (८-९)।
शक्तिसेनाकल्पना च ब्रह्मण्येवं हि
पञ्चधा ।
कल्पितस्य शरीरस्य तस्य
सेनादिकल्पना ।। १०।।
उन परम ब्रह्म के लिए नाना प्रकार
की शक्तियाँ एवं सेना आदि की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। इस प्रकार उस
निर्विकार परमब्रह्म में पञ्च विधि शरीर की (जैसे विष्णु,
शिव, ब्रह्मा, दुर्गा,
गणेश, सूर्य आदि) मात्र कल्पना ही है। फिर
उनके लिए सेना इत्यादि की कल्पना होती है (१०)।
ब्रह्मादीनां वाचकोऽयं
मन्त्रोऽन्वर्थादिसंज्ञकः ।
जप्तव्यो मन्त्रिणा नैनं विना देव:
प्रसीदति ।।११।।
अत:, ब्रह्मा से लेकर सृष्टि के अन्त तक जितने जड़-चेतन हैं उनका सबका वाचक 'राम' शब्द (मन्त्र) हैं। जैसा इसका अर्थ है वैसा
प्रभाव भी है। अत: इस राम मन्त्र को सर्वोपरि जान, इसकी
दीक्षा ले इसका जाप करना चाहिए। इसके बिना परम ब्रह्म की प्रसन्नता नहीं हो सकती।
चूँकि यह सभी देवताओं का वाचक है, अत: मात्र इसके जप करने से
सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं (११)।
क्रियाकर्मेज्यकर्तृणामर्थं मन्त्रो
वदत्यथ ।
मननात्त्राणनान्मन्त्रः
सर्ववाच्यस्य वाचकः ।।१२।।
साधक जो क्रिया,
कर्म इत्यादि करता है उसका अर्थ (अभिष्ट प्रयोजन) एवं स्वरूप मन्त्र
बतला देता है, निश्चित कर देता है। जिसका मनन, चिन्तन करने से रक्षा हो वह मन्त्र कहलाता है। यह मन्त्र (राम) सभी
वाच्यों (अर्थ, अभिप्राय, कथनीय) का भी
वाचक (सूचक, अर्थ) है (१२)।
सोऽभयस्यास्य देवस्य विग्रहो
यन्त्रकल्पना ।
विना यन्त्रेण चेत्पूजा देवता न
प्रसीदति ।।१३।।
जो ब्रह्म उभय रूप में विराजमान है-
निर्गुण एवं शरीरधारी राम के रूप में- उनका दोनों का वाचक राम मन्त्र है। और जैसे
सगुण भगवान की पूजा उनके विग्रह के माध्यम से होती है उसी प्रकार निर्गुण भगवान की
पूजा मन्त्र-यन्त्र से होती है। बिना यन्त्र की पूजा से वह चैतन्य प्रभु प्रसन्न
नहीं होते (१३)।
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
श्रीराम का स्वरूप एवं राम के बीज
मन्त्र का अर्थ
स्वर्भूयोतिर्मयोऽनन्तरूपी स्वेनैव
भासते ।
जीवत्वेन समो यस्य
सृष्टि-स्थिति-लयस्य च ।।१।।
वह (श्रीराम) कारण रहित हैं एवं
कारण की अपेक्षा न रखकर स्वयं प्रकट होते हैं। इसलिए 'स्वयंभू' कहलाये। उनका स्वरूप चिन्मय, प्रकाशमय है। वे रूपधारक होते हुए भी अनन्त हैं। (अर्थात् देश, काल, वस्तु से परे हैं। वे अपने ही स्वप्रज्जवलित
ज्योति से प्रकाशमान हैं। वे जीव की आत्मा के रूप में उसमें प्रतिष्ठित हैं। वे ही
सृष्टि, स्थित और लय के कारण हैं (१)।
कारणत्वेन चिच्छक्तया
रज:-सत्त्व-तमोगुणैः ।
यथैव वटबीजस्थः प्राकृतश्च
महान्द्रुमः ।।२।।
इसके लिए वे अपनी चित्त शक्ति के
द्वारा रजोगुण, शतोगुण तथा तमोगुण का प्रयोग
करते हैं। वे सृष्टि में उसी प्रकार स्थित हैं जैसे की एक बहुत बड़ा बट का पेड़ एक
छोटे से बीज में अदृश्य रूप में स्थित रहता है (२)।
तथैव रामबीजस्थं जगदेतच्चराचरम् ।
रेफारूढा मूर्तयः स्युः
शक्तयस्तिस्र एव च ।।३।।
उसी प्रकार यह सृष्टि,
चराचर जगत, भी राम नामक बीज में स्थित हैं।
सृष्टि के कारण ब्रह्मा, पालन के कारण विष्णु तथा लय के कारण
शिव- यह तीनों मूर्तियाँ (देव) राम मन्त्र के 'र' कार पर आरूढ़ हैं। उसी प्रकार तीनों शक्तियाँ जो निर्माण, स्थित एवं लय का कारण हैं- वो भी राम के बीज 'र'
पर आरूढ़ हैं (३)।
[नोट : राम शब्द का अक्षर विभाग
निम्न है- र, आ, अ, म्। इनमें 'र' तो साक्षात् राम
का वाचक है, 'आ' ब्रह्मा का, 'अ' विष्णु का एवं 'म' शंकर का वाचक है। उनके कार्य की जरूरत के अनुसार तीनों शक्तियों का क्रमश:
वाचक है।]
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषत्
श्रीराम में पूरी सृष्टि का समाहित
होना
सीतारामौ तन्मयावत्र पूज्यौ
जातान्याभ्यां भुवनानि द्विसप्त ।
स्थितानि च प्रहितान्येव तेषु ततो
रामो मानवो माययाधात् ।।१।।
इस बीज मन्त्र में पुरुष-प्रकृति
रूप में राम एवं सीता (यानि की सीताराम) स्थित हैं। उन्हीं से यह १४ भुवन प्रकाशित
(पैदा) हुए हैं। इन दोनों में सृष्टि स्थित है तथा पैदा और लय भी हो जाती है। अत:
राम ने माया के माध्यम से इस सृष्टि को भी रचा एवं मनुष्य रूप भी धारण किया (१)।
[नोट : १४ भुवनों के नाम: ७ ऊर्ध्व
लोक- (१) भू:, (२) भुवः, (३) स्वः, (४) महः, (५) जनः,
(६) तपः, (७) सत्यमः एवं ७ अधः लोक- (८) अतल,
(९) वितल, (१०) सुतल, (११)
रसातल, (१२) तलातल, (१३) महातल,
(१४) पाताल।]
जगत्प्राणायात्मने स्मै नमः
स्यान्नमस्त्वैक्यं प्रवदेत्प्राग्गुणेनेति ।।२।।
इस सृष्टि को रचकर वे उसमें प्राण
रूप में प्रविष्ट कर गये। ऐसे श्रीराम को बारम्बार नमस्कार है,
प्रणाम है। पूरी सृष्टि उनका शरीर है। यह समझा जाय एवं इस ज्ञान से
सम्पन्न होकर यह समझा जाय कि 'मेरे और परमब्रह्म राम में कोई
भेद नहीं है, हम एक ही हैं' (२)।
इस प्रकार श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
का भाग-१ समाप्त हुआ।
शेष जारी.............. श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् भाग-२
0 Comments