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कर्मकाण्ड

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गंगाष्टक

गंगाष्टक

जो मनुष्य श्रीशङ्कराचार्यविरचित इस पवित्र गङ्गाष्टक का पाठ करता है,वह सब पापों से मुक्त जाता है।

श्रीगङ्गाष्टकम् श्रीशङ्कराचार्यविरचितं

श्रीगङ्गाष्टकम् श्रीशङ्कराचार्यविरचितं

भगवति तव तीरे नीरमात्राशनोऽहं

    विगतविषयतृष्णः कृष्णमाराधयामि ।

सकलकलुषभंगे स्वर्गसोपानगंगे

    तरलतरतरंगे देवि गंगे प्रसीद ॥ १॥

हे देवि ! तुम्हारे तीर पर केवल तुम्हारा जलपान करता हुआ, विषय तृष्णा से रहित हो, मैं श्रीकृष्णचन्द्र की आराधना करूँ। हे सकल पापविनाशिनि स्वर्ग-सोपानरूपिणि ! तरलतरङ्गिणि ! देवि गङ्गे ! मझ पर प्रसन्न हो।

भगवति भवलीलामौलिमाले तवांभः

    कणमणुपरिमाणं प्राणिनो ये स्पृशन्ति ।

अमरनगरनारिचामरमरग्राहिणीनां

    विगतकलिकलंकातंकमंके लुठन्ति ॥ २॥

हे भगवति ! तुम महादेवजी के मस्तक की लीलामयी माला हो, जो प्राणी तुम्हारे जलकण के अणुमात्र को भी स्पर्श करते हैं, वे कलिकलङ्के भय को त्यागकर, देवपुरी की चवरधारिणी अप्सराओं की गोद में शयन करते हैं।

ब्रह्माण्डं खंडयन्ती हरशिरसि जटावल्लिमुल्लासयन्ती

    खर्ल्लोकात् आपतन्ती कनकगिरिगुहागण्डशैलात् स्खलन्ती ।

क्षोणी पृष्ठे लुठन्ती दुरितचयचमूनिंर्भरं भर्त्सयन्ती

    पाथोधिं पुरयन्ती सुरनगरसरित् पावनी नः पुनातु ॥ ३॥

ब्रह्माण्ड को फोड़कर निकलनेवाली, महादेवजी की जटा-लता को उल्लसित करती हुई, स्वर्गलोक से गिरती हुई, सुमेरु की गुफा और पर्वतमाला से झड़ती हुई, पृथ्वी पर लोटती हुई, पापसमूह की सेना को कड़ी फटकार देती हुई, समुद्र को भरती हुई, देवपुरी की पवित्र नदी गङ्गा हमें पवित्र करे।

मज्जनमातंगकुंभच्युतमदमदिरामोदमत्तालिजालं

    स्नानै: सिद्धांगनानां कुचयुगविगलत् कुंकुमासंगपिंगम् ।

सायंप्रातर्मुनीनां कुशकुसुमचयैः छन्नतीरस्थनीरं

    पायन्नो गांगमंभः करिकलभकराक्रान्तरं हस्तरंगम् ॥ ४॥

स्नान करते हुए हाथियों के कुम्भस्थल से झरते हुए मदरूपी मदिरा की गन्ध के कारण मधुपवृन्द जिससे मतवाले हो रहे हैं, सिद्धों की स्त्रियों के स्तनों से बहे हुए कुङ्कम के मिलने से जो पिङ्गलवर्ण हो रहा है तथा सायं-प्रातः मुनियों द्वारा अर्पित कुश और पुष्पों के समूह से जो किनारे पर ढका हुआ है, हाथियों के बच्चों की सुंड से जिनकी तरङ्गों का वेग आक्रान्त हो रहा है, वह गङ्गाजल हमारा कल्याण करे।

आदावादि पितामहस्य नियमव्यापारपात्रे जलं

    पश्चात् पन्नगशायिनो भगवतः पादोदकं पावनम् ।

भूयः शंभुजटाविभूषणमणिः जहनोर्महर्षेरियं

    कन्या कल्मषनाशिनी भगवती भागीरथी दृश्यते ॥ ५॥

जहु महर्षि की कन्या, पापनाशिनी भगवती भागीरथी, पहले ब्रह्मा के कमण्डलु में जलरूप से, फिर शेषशायी भगवान्के पवित्र चरणोदकरूप से और तदनन्तर महादेवजी की जटा को सुशोभित करनेवाली मणिरूप से दीख रही है।

शैलेन्द्रात् अवतारिणी निजजले मज्जत् जनोत्तारिणी

    पारावारविहारिणी भवभयश्रेणी समुत्सारिणी ।

शेषाहेरनुकारिणी हरशिरोवल्लिदलाकारिणी

    काशीप्रान्तविहारिणी विजयते गंगा मनूहारिणो ॥ ६॥

हिमालय से उतरनेवाली, अपने जल में गोता लगानेवालों का उद्धार करनेवाली, समुद्रविहारिणी, संसार-संकटों का नाश करनेवाली, [विस्तार में] शेषनाग का अनुकरण करनेवाली, शिवजी के मस्तक पर लता के समान सुशोभित, काशीक्षेत्र में बहनेवाली, मनोहारिणी गङ्गाजी विजयिनी हो रही हैं।

कुतो वीचिर्वीचिस्तव यदि गता लोचनपथं

    त्वमापीता पीतांबरपुग्निवासं वितरसि ।

त्वदुत्संगे गंगे पतति यदि कायस्तनुभृतां

    तदा मातः शातक्रतवपदलाभोऽप्यतिलघुः ॥ ७॥

यदि तुम्हारी तरङ्ग नेत्रों के सामने आ जाय, तो फिर संसार की तरङ्ग कहाँ रह सकती है ? तुम अपना जलपान करने पर वैकुण्ठलोक में निवास देती हो, हे गङ्गे ! यदि जीवों का शरीर तुम्हारी गोद में छूट जाता है, तो हे मातः ! उस समय इन्द्रपद की प्राप्ति भी अत्यन्त तुच्छ मालूम होती है।

गंगे त्रैलोक्यसारे सकलसुरवधूधौतविस्तीर्णतोये

    पूर्णब्रह्मस्वरूपे हरिचरणरजोहारिणि स्वर्गमार्गे ।

प्रायश्चितं यदि स्यात् तव जलकाणिक्रा ब्रह्महत्यादिपापे

    कस्त्वां स्तोतुं समर्थः त्रिजगदघहरे देवि गंगे प्रसीद ॥ ८॥

तीनों लोकों की सार, सर्वदेवाङ्गनाएँ जिसमें स्नान करती हैं, ऐसे विस्तृत जलवाली, पूर्ण ब्रह्मस्वरूपिणी, स्वर्ग-मार्ग में भगवान के चरणों की धूलि धोनेवाली, हे गङ्गे ! जब तुम्हारे जल का एक कणमात्र ही ब्रह्महत्यादि पापों का प्रायश्चित्त है तो हे त्रैलोक्यपापनाशिनि ! तुम्हारी स्तुति करने में कौन समर्थ है ? हे देवि गङ्गे ! प्रसन्न हो।

मातर्जाह्नवी शंभुसंगवलिते मौलै निधायाञ्जलिं

    त्वत्तीरे वपुषोऽवसानसमये नारायणांध्रिद्वयम् ।

सानन्दं स्मरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्सवे

    भूयात् भक्तिरविच्युता हरिहरद्वैतात्मिका शाश्वती ॥ ९॥

हे शिव की संगिनी मातः गङ्गे ! शरीर शान्त होने के समय प्राण-यात्रा के उत्सव में, तुम्हारे तीर पर, सिर नवाकर हाथ जोड़े हुए, आनन्द से भगवान के चरणयुगल का स्मरण करते हुए मेरी अविचल भाव से हरि-हर में अभेदात्मिका नित्य भक्ति बनी रहे।

गंगाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् प्रयतो नरः ।

    सर्वपापविनिर्भुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ १०॥

जो पुरुष शुद्ध होकर इस पवित्र गङ्गाष्टक का पाठ करता है; वह सब पापों से मुक्त होकर वैकुण्ठलोक में जाता है।

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादस्यशिष्या

श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ गङ्गाष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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