श्रीराम पूर्व तापिनी उपनिषद्
श्रीराम पूर्वतापिनी उपनिषद् के इस अंतिम
भाग में पूजा की सविस्तार विधि का वर्णन है।
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषत्
पूजा की सविस्तार विधि
ॐ भूतादिकं शोधयेद्वारपूजां कृत्वा
पद्माद्यासनस्थः प्रसन्नः ।
अर्चाविधावस्य पीठाधरोध्वपार्चिनं
मध्यपद्मार्चनं च ।।१।।
साधक सर्वप्रथम द्वारा पूजा करे।
फिर पद्मासन से बैठे। इसके बाद पञ्चभूत आदि की शुद्धि करे। (प्राण प्रतिष्ठा एवं
मातृकान्यास का पञ्चभूत शुद्धि का लक्षण है।) श्रीराम के यंत्र के पूजन में
सिंहासन पीठ के अधोभाग (नीचे के भाग), ऊर्ध्व
भाग (ऊपर का भाग) एवं पार्श्व भाग (दोनों तरफ) में देवपूजन करने का विधान है। पीठ
के ऊपर माध्य भाग में जो आठ दल का कमल है, उसका भी पूजन करे।
(यह राम यंत्र की पहली और दूसरी कमलों की पंक्तियाँ हैं।)
(१) [नोट : (१) द्वार पूजा की विधि
:- आचार्य स्नान करके संध्या वंदन आदि नित्य नियम करके,
वस्त्र और माला आदि से अलंकृत हो पूजन करने के लिए मौन भाव से यज्ञ
मण्डप में पदार्पण करे। वह आचमन करके पूजा के लिए अर्घ्य बनाकर रख ले। फिर मंत्र
युक्त जल से द्वार का अभिषेक करके उसका पूजन आरम्भ करे। द्वार के ऊपरी भाग में
गूलर की लकड़ी हो; उसमें विघ्ना, लक्ष्मी
तथा सरस्वती का आह्वान पूजन करे। (मंत्र इस प्रकार क्रमश: हैं- विं विघ्नाय नमः,
लं लक्ष्म्यै नमः, सं सरस्वत्यै नम:)। इसके
बाद द्वार के दक्षिण शाखा में विघ्न का और बांयी शाखा में क्षेत्रपाल का पूजन करे।
इन दोनों के बगल में क्रमश: गंगा-यमुना का फूल और जल से पूजन करे- दक्षिण द्वार
में गंगा का और बांये द्वार में यमुना का पूजन करना उचित है। तत्पश्चात् द्वार के
निचले भाग में देहली पर 'अस्राय फट्' का
उच्चारण करते हुए अस्त्र-शस्त्र की पूजा करे। यही क्रम हर द्वार की पूजा में करे।
(२) पद्मासन में बैठने की विधि :-
बांयी जांघ पर दहिना चरण रखे और दांयी जांघ पर बांया चरण रखे। पीठ सीधी हो। भगवान्
की पूजा करने के लिए दोनों हाथ खाली रखना जरूरी है।
(३) भूत-शुद्धि :- (क) अपने शरीर
में पैरों से लेकर घुटनों तक का भाग पृथ्वी का स्थान माना जाता है। यह स्थान चौकोर,
वज्र के चिन्ह से युक्त और पीत वर्ण है। इसका बीज मंत्र 'लं' है।
(ख) घुटनों से लेकर नाभि तक के भाग
को जल का स्थान मानकर यह विचार करे कि इसका आकृति अर्धचन्द्र के समान और शुक्ल
वर्ण है। इसमें कमल का चिन्ह है। इसका बीज मंत्र 'वं' है।
(ग) नाभि से लेकर कण्ठ तक के भाग को
अग्नि मण्डल समझे। यह त्रिकोण आकार का है, वर्ण
लाल है, इसमें स्वास्तिक का चिन्ह है और 'रं' बीज मंत्र है।
(घ) कण्ठ से ऊपर भौहों के मध्य तक
का भाग वायु मण्डल है। इसमें स्वास्तिक का चिन्ह है और 'रं' बीज मंत्र है। (घ) कण्ठ से ऊपर भौहों के मध्य तक
का भाग वायु मण्डल है। इसकी आकृति षटकोण है, वर्ण कृष्ण है, इसमें
६ बिन्दु चिन्हित है और इसका बीज मंत्र 'यं' है।
(ङ) भौहों के मध्य से लेकर मस्तिष्क
के बीच तक का भाग आकश मण्डल है। इसकी आकृति गोल, रंग धुएं के समान, ध्वज का चिन्ह और इसका बीज मंत्र 'हं' है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए इन पाँचों भूतों
को निम्न क्रम से लय करे- पृथ्वी को जल में, जल को अग्नि में,
अग्नि को वायु में, वायु को आकाश में तथा आकाश
को अव्यक्त प्रकृति में लय करे। यह प्रकृति ही परमब्रह्म का रूप है, यह माया भी कहलाती है। इस माया को परमात्मा में लय करे। इस प्रकार समस्त
देह के प्रपञ्चों को परमात्मा में लय करके परमात्मा स्वरूप हो जाये- यानि कि अपने
में परमात्मा में कोई भिन्नता न देखे। इस प्रकार की भावना को ही भूत-शुद्धि कहा
गया है।
(४) प्राण-प्रतिष्ठा :-
प्राण-प्रतिष्ठा करते समय यह भावना करनी चाहिए कि भगवत् विग्रह में प्राण संचार हो
रहा है एवं जीवात्मा रूप से भगवान स्वयं विराजमान हो रहे हैं। इसके लिए भगवान् की
प्रतिमा अथवा यंत्र पर हाथ रखकर मंत्रों का उच्चारण करे।]
कृत्वा मृदुश्लक्ष्णसुतूलिकायां
रत्नासने देशिकमर्चयित्वा ।
शक्तिं चाधाराख्यकां कूर्मनागो
पृथिव्यब्जस्वासनाध: प्रकल्प्य ।।२।।
पुजा पीठ,
जिस पर यंत्र रखा गया है, के बाहर, नीचे बांयी तरफ एक रत्न सिंहासन पर मुलायम, चिकनी
तथा सिंहासन के आकार की रूईदार गद्दी होने की भावना करे। उस पर अपने आचार्य की
भगवत् स्वरूप समझकर पूजा करे। पीठ के नीचे अपने आराध्य देव (श्रीराम) के आसन के
नीचे आधार शक्ति, कूर्म (कच्छप) की, नाग
(शेषनाथ) की तथा पृथ्वी के ऊपर २ कमलों की पूजा करनी चाहिए (२)।
[नोट : आधार शक्ति का ध्यान देवी
के रूप में करके पूजा करनी चाहिए। उनका मंत्र ‘आधार शक्ति
नमः' है। कूर्म की पूजा 'कूर्माय नमः'
से, शेषनाथ की पूजा ‘शेषाय
नमः' से एवं कमल की पूजा ‘कमलाय नमः'
मंत्रों से होती है।]
विघ्नेशं दुर्गा क्षेत्रपालं च वाणी
बीजादिकांश्चाग्निदेशादिकांश्च ।
पीठस्याज्रिष्वेवु धर्मादिकांश्च
नत्वा पूर्वाद्यासु दीक्ष्वर्चयेच्च ।।३।।
विघ्न,
दुर्गा, क्षेत्रपाल तथा वाणी का इनके नाम के
पहले बीज लगाकर चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करते हुए पूजन करना चाहिए। (यानि कि विघ्न
का 'ॐ विं विघ्नाय नमः' से
दक्षिण-पूर्व कोण में, दुर्गा का 'ॐ
दुं दुर्गाय नमः' से दक्षिण-पश्चिम कोण में, क्षेत्रपाल का 'ॐ शं क्षेत्रपालाय नमः' से उत्तर-पश्चिम कोण में एवं वाणी का 'ॐ वां वाण्यै
नमः' से उत्तर-पूर्व कोण में पूजा करे। फिर पीठ के चारों
कोणों में स्थित पायों में उसी प्रकार क्रमश: धर्म, अर्थ,
काम, मोक्ष का पूजन करे। इसके बाद पीठ के
चारों दिशाओं में (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम,
उत्तर) क्रमश: अधर्म, अनर्थ, अकाम, अमोक्ष का पूजन करे (३)।
[नोट : धर्म का रंग लाल है,
वह वृषभ रूप में है। अर्थ का रंग सांवला है, वह
सिंह रूप में है। काम का रंग पीला है, वह भूत रूप में है।
मोक्ष का रंग नीला है, वह हाथि के आकार का है। अत: पीठ के
चारों पायों में यह आकृतियाँ अंकित करे।]
मध्ये
क्रमादर्कविध्वग्नितेजांस्युपर्युपर्यादिमैरर्चितानि ।
रज: सत्त्वं तम एतानि वृतत्रयं
बीजाढ्यं क्रमाद्धावयेच्च ।।४।।
इसके बाद कमल के मध्य से पूजन आरम्भ
करे। यंत्र के ऊपर मध्य भाग में सूर्य, चन्द्र
और अग्नि का पूजन करे। यंत्र में बीज (कर्णिका) सहित जो तीन वृत्त (गोलाकार) हैं
उन्हें सत्व, रज, तम गुणों का प्रतीक
मानकर उनका चिन्तन एवं पूजन करना चाहिए।
(पूजन के मंत्र निम्न है- (१) ॐ सं
सत्त्वाय नमः, (२) ॐरं रजसे नमः, (३) ॐ तं तमसे नम:) (४)।
आशाव्याशास्वप्यथात्मानमन्तरात्मानं
वा परमात्मानमन्तः ।
ज्ञानात्मानं चार्चयेत्तस्य दिक्षु
मायाविद्ये ये कलापारतत्त्वे ।।५।।
तत्पश्चात जो अष्टदल कमल (८ पत्तों
वाले दो कमल) यंत्र के मध्य में हैं, उन
दलों के पहले चार कोणों में फिर चार दिशाओं में पूजन करे। कोणों में दक्षिण-पूर्व
कोने में आत्मा (लिंग), दक्षिण-पश्चिम कोने में अन्तर्रात्मा
(जीव), उत्तर-पश्चिम कोने में परमात्मा (ईश्वर) एवं उत्तर-पूर्व
कोने में ज्ञानात्मा (लीला पुरूषोत्तम) का पूजन करे। फिर पूर्व में माया तत्व,
दक्षिण में विद्या तत्व, पश्चिम में कला तत्व
और उत्तर में पर तत्व का पूजन करे (५)।
[नोट : (१) कोनों में पूजा मंत्र
क्रमश: निम्न हैं- (क) ॐ आत्मने नमः, (ख) ॐ अन्तरात्मे नमः
(ग) ॐ परमात्मने नमः एवं (घ) ॐ ज्ञानात्मने नमः। (२) दिशाओं में पूजा के मंत्र
क्रमश: निम्न हैं- (क) ॐ मायातत्त्व नमः, (ख) ॐ विद्यातत्त्व
नमः (ग) ॐ कलातत्त्व नमः एवं (घ) ॐ परतत्त्वाय नमः।]
सम्पूजयेद्विमलादीश्च
शक्तिरभ्यर्चयेदेवमावाहयेच्च ।
अङ्गव्यूहानिलजाद्यैश्च पूज्य
धृष्ट्यादिकर्लोकपालैस्तदस्त्रैः ।।६।।
इसके बाद पूजा क्रम में विमला आदि
शक्तियों की पूजा करे। फिर प्रधानदेव (श्रीराम) का आह्वान एवं पूजन करे। इसके बाद
देव (श्रीराम) के अंगों का जल आदि से पूजन करे। फिर अनिल (हनुमान) प्रभृति की पूजा
करे। इसके बाद ध्रष्टि आदि आठ मंत्रीगण एवं लोकपाल और उनके अस्त्रगणों का पूजन करे
(६)।
[नोट : (१) शक्तियाँ निम्न हैं-
विमला,
उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया,
योगा, प्रह्वी, सत्या,
ईशाना और अनुग्रह। इनके स्थान अष्टदल कमल के केसर में हैं। ये वर
देना एवं अभय मुद्रा में है।
(२) राम के आह्वान एवं पूजन का
मंत्र ॐ नमो भगवते रघुनन्दनाय.... नमः ॐ है। जिसका वर्णन पिछले सर्ग नं० ४ के पद
संख्या ६३ में विस्तार से हुआ है।
(३) देव श्रीराम के अंग पूजा में
मस्तक,
हृदय, हाथ, पैर इत्यादि
का जल से अभिषेक का विधान है।
(४) ८ मंत्रीगण निम्न हैं- ध्रष्टि,
जयन्त, विजय, सुराष्ट्र,
राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल,
सुमन्त्र। कृपया सर्ग संख्या ४, पद संख्या
३५-३७ देखें।
(५) लोकपाल निम्न हैं- इन्द्र,
यम, निर्ऋति, वरुण,
वायु, चन्द्रमा, ईशान,
ब्रह्मा, अनन्त (विष्णु)। कृपया सर्ग संख्या ४,
पद संख्या ३८ देखें।
(६) हनुमान प्रभृति सेवक निम्न हैं-
हनुमान,
लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न,
सुग्रीव, विभीषण, अंगद,
जामवंत। कृपया सर्ग संख्या ४, पद संख्या ३४,
३५-३६ देखें।
(७) अस्त्र निम्न हैं- वज्र,
शक्ति, दण्ड, खंग,
पाश, अंकुश, गदा,
शूल, चक्र, पद्म। कृपया
सर्ग संख्या ४, पद संख्या ३९ देखें।]
वशिष्ठाद्यैर्मुनिभिर्नीलमुख्यैराराधयेद्राघवं
चन्दनाद्यैः ।
मुख्योपहारैर्विविधैश्च
पूज्यैस्तस्मै जपादींश्च सम्यक्प्रकर्ण्य ।।७।।
तदन्तर वशिष्ठ आदि ऋषियों एवं नील
आदि वानरों से घिरे हुए राघव (श्रीराम) का चन्दन एवं श्रेष्ठ उपहारों से अराधना
करे। फिर जप आदि भी उन्हें समर्पित कर दे (७)।
[नोट : (१) ऋषियों के नाम निम्न
हैं- वशिष्ठ, वामदेव, जाबाल, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र,
वाल्मीकि, नारद, सनक,
सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार।
कृपया सर्ग ४, पद संख्या ३९ देखें।
(२) वानरों के नाम निम्न हैं- नील,
नल, सुषेण, मेन्द,
शरभ, द्विविद, धनद,
गवाक्ष, किरीट, कुण्डल,
श्रीवत्स, कौस्तुभ, शंख,
चक्र, गदा, पदम। ये १६
वानर रूप हैं।
(३) जप समर्पण करने का मंत्र-
गुह्याद्ह्यस्य गोप्तात्वं गृहाणस्मत्कृतं जपम् । सिद्धिभर्वत् मे देव
त्वत्प्रसादात्कृपानिधे।। किन्हीं विद्वानों के अनुसार जप समर्पण मंत्र यह है- 'एवं भूतं जगदाधारभूतं राम बन्दे सच्चिदानन्दरूपम् । गदरिशंखाब्जधरं भवारिं
स यो ध्यायेन्मोक्षप्नोति सर्वः ।।' यह मंत्र अगले पद संख्या
८ में है।]
एवंभूतं जगदाधारभूतं रामं वन्दे
सच्चिदानन्दरूपम् ।
गदारिशताब्जधरं भवारिं स यो
ध्यायेन्मोक्षमाप्नोति सर्वः ।।८।।
'जो इस प्रकार की विशाल महिमा
वाले हैं, जगत के आधारभूत, सच्चिदानन्द
स्वरूप हैं, जिनके कर-कमलों में गदा, चक्र,
शंख और पद्म शोभा पा रहे हैं, जो भव बन्धन का
नाश करने वाले हैं, उन श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ। जो इस प्रकार कहकर भगवान
श्रीराम का ध्यान करते हैं वो मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं (८)।
विश्वव्यापी राघवो
यस्तदानीमन्मर्दधे शङ्खचक्रे गदाब्जे ।
धृत्वा रमासहितः सानुजश्च सपत्तनः
सानुगः सर्वलोकी ।।९।।
विश्वव्यापी राघव (श्रीराम) लीला
संवरण के समय सशरीर अन्तर्धान हो गए। (उन्होंने साधारण प्राणी की तरह शरीर नहीं
छोड़ा) उनके आयुध- शंख, चक्र, गदा, पद्म- भी उनके साथ अन्तर्धान हो गए। उन्होंने
अपने स्वाभाविक रूप को धारण कर रमा (लक्ष्मी, सीता) के साथ
परमधाम में पदार्पण (प्रवेश) किया। उस समय सारा परिवार, पुरजन,
परिजन, भाई, प्रजाजन,
विभीषण सहित उनके साथ परमधाम चले गए (९)।
तद्भक्ता ये लब्धकामाश्च भुक्त्वा
तथा पदं परमं यान्ति ते च ।
इमा ऋचः सर्वकामार्थदाश्च ये ते
पठन्त्यमला यान्ति मोक्षम् ॥१०॥
चिन्मयेऽस्मिस्त्रयोदश ।
स्वभूयॊतिस्तिस्त्रः ।
सीतारामावेका । जीववाची षट्षष्टिः।
भूतादिकमेकादश । पञ्चखण्डेषु
त्रिनवतिः ।
इति
श्रीरामपूर्वतापिन्युपनिषत्समाप्ता ।।
जो उनके भक्त होते हैं वे मन
वाञ्छित फल एवं भोगों को पाते हैं, प्राप्त
हुए भोगों का उपभोग करते हैं एवं अन्त में वे भी परमपद प्राप्त करते हैं। जो लोग
सम्पूर्ण कामनाओं और अर्थों को देने वाले इन श्लोकों का पाठ करते हैं वो शुद्ध
अन्त:करण वाले होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं (१०)।
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
शान्ति पाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा
सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !!शान्ति: !!!
इसका भावार्थ श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् के प्रथम भाग में अथवा परमहंसपरिव्राजक उपनिषद् में पढ़ें।
इस प्रकार श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
का अंतिम भाग समाप्त हुआ।
आगे जारी.............. श्रीरामोत्तरतापिनीयोपनिषद्
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