श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् के इस
भाग-२ में श्रीराम के मन्त्र का विस्तृत अर्थ; जाप
एवं ध्यान का विधान और संक्षिप्त राम कथा का
वर्णन है।
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद
श्रीराम के मन्त्र का विस्तृत अर्थ;
जाप एवं ध्यान का विधान; संक्षिप्त राम कथा
जीववाचि नमो नाम चात्मारामेति गीयते
।
तदात्मिका या चतुर्थी तथा मायेति
गीयते ।।१।।
जीव वाची जो शब्द है वो नमन (नम:)
करता है चिदात्मा वाची राम शब्द को। यानि कि जीव राम का सेवक है। ना कि राम जीव
का। जीव राम में एवं राम जीव में रमण करते हैं। 'रामाय' शब्द के दो भाग राम एवं आय से क्रमश:
परमात्मा एवं जीव के एक होना बतलाया गया है (१)।
मन्त्रोऽयं वाचको रामो वाच्यः
स्योद्योग एतयोः ।
फलतश्चैव सर्वेषां साधकानां न संशयः
।।२।।
'रां रामाय नमः'
यह मन्त्र है जो बोला जाता है (वाचक है) और राम इस मन्त्र के वाच्य
(उद्देश्य) हैं। इन दोनों का संयोग- मन्त्र का जाप और लक्ष्य पर केन्द्रित ध्यान-
साधक को अभिष्ठ फल प्रदान करने वाला है। इसमें कोई सन्देह नहीं है (२)।
यथा नामी वाचकेन नाम्ना योऽभिमुखो
भवेत् ।
तथा बीजात्मको मन्त्रो
मन्त्रिणोऽभिमुखो भवेत् ।।३।।
जो व्यक्ति का नाम होता है उसको
पुकारने से वह सामने आ जाता है। इसी प्रकार राम के बीज मन्त्र "राम या रां'
को समझना चाहिए। यानि कि राम मन्त्र जपने वाले के सम्मुख भगवान् राम
आ जाते हैं(३)।
बीजशक्तिं न्यसेहदक्षवामयोः
स्तनयोरपि ।
कीलो मध्ये विना भाव्यः
स्ववाञ्छाविनियोगन् ।।४।।
साधक को चाहिए कि बीज मन्त्र
(रामाय) के 'रा या रां' बीज का दहिने स्तन पर, 'मा' शाक्ति
का बांये स्तन पर और 'य' कीलक का मध्य
स्थल (हृदय) पर न्यास करे। इसके साथ ही साधक अपनी इच्छा पूर्ति के लिए इसका
(मन्त्र का) विनियोग करे (४)।
सर्वेषामेव मन्त्राणामेष साधारण:
क्रमः ।
अत्र रामोऽनन्तरूपस्तेजसा वह्निना
समः ।।५।।
सभी मन्त्रों का यही क्रम होता है-
पहले बीज,
फिर शक्ति, फिर कीलक का न्यास करना और फिर
अन्त में अपने मनोरथ सिद्धि का विनियोग करना है। ध्यान करना चाहिए कि जो राम है वो
परमब्रह्म, अनन्त, अविनाशी परमात्मा
हैं एवं तेज में अग्नि के समान है (५)।
सत्वनृष्णगविश्वश्चेदग्नीषोमात्मकं
जगत् ।
उत्पन्नं सीतया भाति
चन्द्रश्चन्द्रिकया यथा ।।६।।
श्रीराम अग्नि के समान तेज होने पर
भी सौम्य शीतल किरण वाले हैं। (यानि कि प्रचण्ड तेज युक्त होने पर भी शीतलता
प्रदान करते हैं) जब उनका संयोग शीतल कान्ति वाली सीता से होता है तो अग्नि
सोमात्मक जगत (स्त्री एवं पुरूष रूप) की उत्पत्ति होती है। श्रीराम सीता के साथ
उसी प्रकार शोभा पाते हैं जैसे चन्द्रमा चन्द्रिका के साथ (६)।
[नोट : रा शब्द वैश्वानर अग्नि का
प्रतीक है एवं मा शब्द चन्द्रमा का प्रतीक है। अत: रा+म से अग्निषोमात्मक, यानि तेज एवं शीतलता के संयोग का जगत यह अर्थ बनता है।
प्रकृत्या सहित: श्यामः पीतवासा
जटाधरः ।
द्विभुजः कुण्डली रत्नमाली धीरो
धनुर्धरः ।।७।।
साधक श्रीराम का ध्यान करे- श्रीराम
अपने प्रकृति, आद्य शक्ति (सीता) के साथ
विराजमान है। उनका वर्ण श्याम है, वे पीताम्बर धारण किये हैं,
सिर पर जटा है, दो भुजायें हैं, कानों में कुण्डल हैं, गले में रत्नो की माला है,
वे धीर (निर्भय, गम्भीर) हैं एवं धनुष लिये
हुए हैं (७)।
प्रसन्नवदनो जेता
धृष्ट्यष्टकविभूषितः ।
प्रकृत्या परमेश्वर्या
जगद्योन्याङ्किताङ्कभृत् ।।८।।
वे (श्रीराम) प्रसन्नमुख हैं,
संसार विजयी हैं, आठ सिद्धियों से युक्त हैं।
संसार के कारण मूल प्रकृति के रूप में परमेश्वरी (सीता) उनके बांयी तरफ विराजमान
हैं (८)।
[नोट : आठ सिद्धियाँ निम्न हैं-
(१) अणिमा- इतना सूक्ष्म बन जाना कि दिखायी न पड़े। (२) महिमा- अपनी शक्ति को
इच्छानुसार बढ़ाने की क्षमता; महत्व, गौरव,
बड़ाई। (३) गरिमा- अपने वजन को बढ़ाने की क्षमता; भारी, वजनीय, गरू। (४) लघिमा-
अपने को हल्का करने की क्षमता। (५) प्राप्ति- सब कुछ प्राप्त कर लेने की क्षमता।
(६) प्राकाम्य- बल, उद्योग, शक्तिशाली
होना। (७) ईशित्व- सब पर स्वामी, मालिक होने की क्षमता। (८)
वशित्व- सबको वश में कर लेने की क्षमता।]
हेमाभया द्विभुजया सर्वालंकारया
चिता ।
श्लिष्टः कमलधारिण्या पुष्टः
कोसलजात्मजः ।।९।।
सीता के अंगों की कान्ति सोने के
समान गौर वर्ण है। उनकी भी दो भुजायें हैं, वे
समस्त आभूषणों से विभूषित हैं एवं हाथ में कमल लिये हैं, उनसे
बगल बैठे हुए कौशल नन्दन (श्रीराम) बड़े प्रसन्न (हृष्ट-पुष्ट) दिखते हैं (९)।
दक्षिणे लक्ष्मणेनाथ सधनुष्पाणिना
पुन: ।
हेमाभेनानुजेनैव तदा कोणत्रयं भवेत्
।।१०।।
उनके (श्रीराम के) दक्षिण भाग
(सामने) में लक्ष्मणजी खड़े हैं। उनका वर्ण एवं कान्ति सोने के समान गोरा है। वे
हाथ में धनुष बाण धारण किये हुए हैं। उस समय राम, लक्ष्मण एवं सीता का एक त्रिकोण जैसा बन जाता है (१०)।
तथैव तस्य मन्त्रच यश्चाणश्च
स्वडेन्तया ।
एवं त्रिकोणरूपं स्यात्तं देवा ये
समायय: ।।११।।
इस प्रकार जो राम का मन्त्र ‘रां रामाय नमः' है
उसके तीन शब्द-रां जो परमात्मा का बीज है, रामाय जो परमात्मा
तथा जीव की एकता बताता है एवं नम: जो जीव का प्रतीक है-क्रमश: श्रीराम,सीता एवं लक्ष्मण के द्योतक हैं। अत: इस मन्त्र के भी एक त्रिकोण बनता है।
एक बार इस मन्त्र रूपी त्रिकोण में विराजमान रामजी से मिलने देवतागण आये (११)।
स्तुतिं चक्रुश्च जगतः पतिं कल्पतरौ
स्थितम् ।
कामरूपाय रामाय नमो मायामयाय च ।।१२।।
तब उन देवताओं ने उन जगतपति की-जो
रत्न के सिंहासन पर कल्पतरू के नीचे विराजमान थे-स्तुति की,
'काम' के समान सुन्दर, अथवा
कामरूपधारी, एवं माया शरीर धारण करने वाले श्रीराम को नमस्कार
है (१२)।
नमो वेदादिरूपाय ॐकाराय नमो नमः ।
रमाधराय रामाय श्रीरामायात्ममूर्तये
।।१३।।
जो वेदों के रूप हैं, जो ॐकार
स्वरूप हैं (अथवा जो ॐकार स्वरूप के आदिकारण हैं जिसके बाद वेद प्रकट हुए) उनको
नमस्कार है। उन्होंने रमा (सीता, लक्ष्मी) को
धारण कर रखा है (यानि की सीता उनके बायीं तरफ विराजमान हैं), जो परमात्मा जीव में रमण करते हैं एवं जो राम आत्मस्वरूप हैं, आत्मा की मूर्ति हैं अथवा परमात्मा शरीर रूप में हैं (१३)।
जानकीदेहभूषाय रक्षोघ्नाय
शुभाङ्गिने ।
भद्राय रघुवीराय दशास्यान्तकरूपिणे
।१४।।
जानकी (लक्ष्मी) जिनका आभूषण हैं
(यानि कि लक्ष्मी के पति होने के कारण उनका संग पाकर बिना किसी बाहरी आडम्बर के भी
विश्व में सबसे ज्यादा सजे हुए माने जाते हैं), जिन्होंने
राक्षसों का नाश किया, जिनका शरीर मंगल मय है, जो दशानन (रावण) का अन्त करने वाले काल के समान है- वे ही रघुकुल के राजा
श्रीमान् राम हैं (१४)।
रामभद्र! महेष्वास! रघुवीर!
नृपोत्तम! ।
भो दशास्यान्तकास्माकं रक्षां देहि
श्रियं च ते ।।१५।।
हे रामभद्र! हे महा धनुर्रधर! हे
रघुवीर! हे नृपश्रेष्ठ! हे दशानन (रावण) को मारने वाले! आप हमारी रक्षा करें। आप
हमें ऐसी 'श्री' (सम्पदा)
दें जिसका सम्बन्ध आपसे हो- अर्थात् जो भगवत् प्राप्ति के उपाय में लग सके (१५)।
त्वमैश्वयं दापयाथ
संम्प्रत्याश्चरिमारणम् ।
कुर्विति स्तुत्य देवाद्यास्तेन
सार्धं सुखं स्थिताः ।१६।।
देवता आगे बोले-आप हमें ऐश्वर्य
प्रदान करें और शीघ्र ही राक्षस (रावण) को मारने की व्यवस्था करें। ऐसी स्तुति
करके देवता एवं सिद्धगण सुख से (यानि निश्चिन्त होकर) राम के सामने स्थित हो गये
(१६)।
स्तुवन्त्येवं हि ऋषयस्तदा रावण
आसुरः ।
रामपत्नी वनस्थां यः
स्वनिवृत्त्यर्थमाददे ।१७।।
देवताओं के समान ऋषियों ने भी राम
की स्तुति की। इधर असुर रावण ने वन में स्वयं के विनाश हेतु राम की पत्नी (सीता)
को वन में (या 'वन से') हर
लिया जहाँ वे उस समय रहती थीं (१७)।
स रावण इति ख्यातो यद्वा रावाच्च
रावणः ।
तद्व्याजेनेक्षितुं सीतां रामो
लक्ष्मण एव च ।१८।।
राम (या राम पत्नी) के 'रा' शब्द से एवं वनस्थां (पद संख्या १७) के 'वन' शब्द से वह राक्षस 'रा+वण
= रावण' नाम से प्रसिद्ध हुआ। अथवा जो दूसरों को रूदन करवाता
है अथवा रूलवाता हैवह रावण कहलाया। कारण उसने सीता को त्रास देकर रूलाया था। अथवा
जो बहुत ‘र व' (यानि कि हल्ला-गुल्ला,
शोर) करता है वह रावण कहलाया। (१८)
विचेरतुस्तदा भूमौ देवीं संदृश्य
चासुरम् ।
हत्वा कबन्धं शबरीं गत्वा
तस्याज्ञया तया ।१९।।
इसके बाद श्रीराम एवं लक्ष्मण ने देवी
सीता की खोज में वन प्रान्त (जंगल) में भूमि पर विचरने लगे। आगे कबन्ध नामक असुर
को देखकर उन्होंने उसे मार डाला। इसके बाद वे शबरी के यहाँ गये (१९)।
पूजितो वीरपुत्रेण भक्तेन च
कपीश्वरम् ।
आहूय शंसतां सर्वमाद्यन्तं रामलक्ष्मणौ
।।२०।।
शबरी ने बड़ी भक्ति भावना से उनकी
पूजा की। तदन्तर आगे जाने पर उन्हें वीर पुत्र (हनुमान) मिले। उन्होंने मध्यस्थ
होकर कपीराज (सुग्रीव) से राम-लक्ष्मण की मित्रता करायी। फिर उन्होंने सुग्रीव से
आदि से अन्त तक का पूरा वृत्तान्त कह दिया (२०)।
स तु रामे शङ्कितः सन्प्रत्ययार्थं
च दुन्दुभेः ।
विग्रहं दर्शयामास यो
रामस्तमचिक्षिपत् ।।२१।।
उसे (सुग्रीव को) राम के ऐश्वर्य
एवं सामर्थ्य पर शंका थी। इसलिए उसने उन्हें दुंदुभि नामक राक्षस का विशाल शरीर
(यानि कि उसकी हड्डियाँ) दिखायीं जिसे राम ने अपने अंगूठे से अनायास ही दस योजन
दूर फेंक दिया (२१)।
सप्त सालान्विभिद्याशु मोदते
राघवस्तदा ।
तेन हृष्टः कपीन्द्रोऽसौ स
रामस्तस्य पत्तनम् ।।२२।।
उसकी शंका नहीं मिटी। तब उन्होंने
(राम ने) एक बाण से सात ताल के पेड़ों को बींध डाला जिससे कपिन्द्र (सुग्रीव) को
हर्ष हुआ। अपने मित्र को खुश देखकर राघव को भी प्रसन्नता हुई। फिर राम को साथ ले
वह (सुग्रीव) अपनी पुरी (किषकिन्धा) गया (२२)।
जगामागर्जदनुजो वालिनो वेगतो गृहात्
।
तदा वाली निर्जगाम तं वालिनमथाहवे
।।२३।।
वहाँ बालि के छोटे भाई (सुग्रीव) ने
घोर गर्जना की जिसको सुनकर बालि बड़े वेग से घर से बाहर निकला (२३)।
निहत्य राघवो राज्ये सुग्रीवं
स्थापयत्ततः ।
हरीनाहूय सुग्रीवस्त्वाह
चाशाविदोऽधुना ।।२४।।
फिर राघव (श्रीराम) ने उसे (बालि
को) मार गिराया और सुग्रीव को (किषकिन्धा के) राज्य पर सिंहासनारूढ़ किया। तदन्तर
सुग्रीव ने वानरों को बुलवाकर कहा, 'हे
वानर वीरों! आप लोग सभी दिशाओं के ज्ञाता हैं (यानि कि सब तरफ की बातें जानते हैं,
कारण आप सब तरफ विचरते रहते हैं और पृथ्वी के हर कोने में रहते हैं
और वहाँ से पधारे हैं) (२४)।
आदाय मैथिलीमद्य ददताश्वाशु गच्छत ।
ततस्ततार हनुमानब्धिं लङ्का समाययौ
।।२५।।
इस समय शीघ्र यहाँ से जाओ और मिथलेश
कुमारी (सीता) को आज ही ढूढ कर लाकर इनको (राम को) दे दो (अर्पित कर दो) । इस आदेश
पर सब वानर विभिन्न दिशाओं में चल पड़े और हनुमान ने समुद्र लांघकर लंका में
प्रवेश किया (२५)।
सीतां दृष्ट्वाऽसुरान्हत्वा पुरं
दग्ध्वा तथा स्वयम् ।
आगत्य रामेण सह न्यवेदयत तत्त्वत:
।।२६।।
वहाँ उन्होंने सीता को देखा,
अनेक असुरों (राक्षसों) का वध किया तथा लंका को जला डाला। फिर राम
के पास आकर सारा समाचार यथावत् उन्हें सुना दिया (२६)।
तदा रामः क्रोधरूपी तानाहूयाथ
वानरान् ।
तैः सार्धमादायास्त्राणि पुरीं
लङ्का समाययौ ।।२७।।
तब राम ने क्रोध रूप धारण किया,
सब वानरों को इकट्ठा किया और अस्त्र-शस्त्र लेकर उनके साथ लंकापुरी
पहुँचे (२७)।
तां दृष्ट्वा तदधीशेन सार्धं
युद्धमकारयत् ।
घटश्रोत्रसहस्राक्षजिदृभ्यां युक्तं
तमाहवे ।।२८।।
हत्वा विभीषणं तत्र स्थाप्याथ
जनकात्मजाम् ।
आदायाङ्कस्थितां कृत्वा स्वपुरं
तेजगाम सः ।।२९।।
उन्होंने लंका का भलीभांति निरीक्षण
किया और वहाँ के राजा (रावण) के साथ युद्ध छेड़ दिया। उस युद्ध में भाई कुम्भकर्ण
(घटश्रोत्र) तथा पुत्र इन्द्रजीत (सहस्राक्षजिद्भ्यां) के सहित उसको (रावण को)
मारकर उन्होंने विभीषण को वहाँ का राजा बनाया। फिर जनकनन्दिनी (सीता) को अपनी
बांयी तरफ बैठाकर सब वानरों के साथ वे अपनी पुरी (अयोध्या) के लिए प्रस्थान किये
(२९)।
ततः सिंहासनस्थ: सन् द्विभुजो
रघुनन्दनः ।
धनुर्धरः प्रसन्नात्मा सर्वाभरणभूषितः
।।३०।।
(राज्य अभिषेक के बाद-) वे सिंहासन
पर विराजमान हैं। वे दो हाथों वाले रघुनन्दन धनुष धारण किये हैं,
प्रसन्न आत्मा हैं एवं सब प्रकार के आभूषणों से अलंकृत हैं (३०)।
मुद्रां ज्ञानमयीं यामे वामे
तेज:प्रकाशिनीम् ।
धृत्वा व्याख्याननिरतश्चिन्मयः
परमेश्वरः ।।३१ ।।
उनका दाहिना हाथ ज्ञानमयी मुद्रा
में तथा बांया हाथ तेज को प्रकाशित करनेवाली (धनुर्मयी) मुद्रा में स्थित है। वे
निरत चिन्मय परमेश्वर उपदेश (देने) की मुद्रा में स्थित हैं (३१)।
[नोट : (१) ज्ञानमयी मुद्रा-
दहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठों को सटकार आगे छाती पर रखें तथा बांये हाथ को घुटने
पर रखें। (२) धर्मयी मुद्रा- बांये हाथ की मध्यमा अंगुली के आगे के भाग को तर्जनी
अंगुली से सटा दें तथा अनामिका एवं कनिष्टा को अंगूठे से दबायें। फिर उसको बांये
कन्धे पर रखें। (३) उपदेश मुद्रा- दहिने हाथ के अंगूठे को तर्जनी अंगुली से सटा
दें और बाकी तीन अंगुलियों को खोलकर रखा जाये। वे भी एक दूसरे से सटी हों। हाथ उठा
हो।]
उदग्दक्षिणयोः स्वस्य शत्रुघ्नभरतौ
ततः ।
हनुमन्तं च श्रोतारमग्रतः
स्यात्रिकोणगम् ।।३२ ।।
(इस प्रकार देवताओं की स्तुति से
लेकर श्रीराम के राज्यभिषेक तक की लीला का संक्षेप में वर्णन पद संख्या १२-३१ तक
किया गया। फिर पूर्व में पद नं० १० में वर्णन किये गये त्रिकोण का सन्दर्भ लेकर
आगे वर्णन किया जाता है-) राम के उत्तर में शत्रुघ्न एवं दक्षिण में भरत स्थित
हैं। हनुमानजी हाथ जोड़कर श्रोता की तरह सामने खड़े हैं। वे भी त्रिकोण के अन्दर
ही स्थित हैं (३२)।
भरताधस्तु सुग्रीवं शत्रुघ्नाधो
विभीषणम् ।
पश्चिमे लक्ष्मणं तस्य धृतच्छत्रं
सचामरम् ।।३३।।
भरत के नीचे सुग्रीव तथा शत्रुघ्न
के नीचे विभीषण खड़े हैं। पश्चिम की तरफ लक्ष्मण हाथ में छत्र-चँवर लिये खड़े हैं
(३३)।
[नोट : पद संख्या ८, १० में पहला, पद संख्या ३२ में दूसरा तथा पद संख्या
३३ में तीसरा त्रिकोण बना।]
तदधस्तौ तालवृन्तकरौ त्र्यस्रं
पुनर्भवेत् ।
एवं षट्कोणमादौ स्वदीर्घाङ्गैरेषु
संयुतः ।।३४।।
दोनों भाई (भरत एवं शत्रुघ्न) हाथ
में ताड़ का पंखा लिये खड़े हैं। इस प्रकार दो त्रिकोण बने- पहला त्रिकोण
लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न का बना एवं दूसरा हनुमान-सुग्रीव-विभीषण का बना। दो
त्रिकोणों से एक षटकोण बना। श्रीराम का पहला आवरण उनका दीर्घ बीज-मन्त्र रूपी
अक्षर है (३४)।
[नोट : यह प्रथम आवरण एवं उसके
बीज-मन्त्र निम्न हैं- रां, रीं, रूं,
रें, रौं, रः।]
द्वितीयं वासुदेवायैराग्नेयादिषु
संयुतः ।
तृतीयं वायुसूनुं च सुग्रीवं भरतं
तथा ।।३५।।
विभीषणं लक्ष्मणं च अगदं
चारिमर्दनम् ।
जाम्बवन्तं च तैर्युक्तस्ततो
धृष्टिर्जयन्तकः ।।३६ ।।
विजयश्व सुराष्ट्रश्च राष्ट्रवर्धन
एव च ।
अशोको धर्मपालश्च
सुमन्त्रश्चभिरावृतः ।।३७।।
श्रीराम के द्वितीय आवरण ये हैं-
वासुदेव,
शान्ति, संकर्षण, श्री,
प्रद्युम्न, सरस्वती, अनिरूद्ध
और रति। यह क्रमश: उनके आग्नेय आदि दिशाओं में स्थित हैं। इस द्वितीय आवरण में श्रीराम
इन सबसे संयुक्त (जुड़े हुए, सम्मिलित) रहते हैं। तृतीय आवरण
में हनुमान, सुग्रीव, भरत, विभीषण,
लक्ष्मण, अंगद, जामवन्त
एवं शतुघ्न हैं। (अर्थात् जब श्रीराम इन सबसे संयुक्त होते हैं तो तीसरा आवरण
सिद्ध होता है। इनके अलावा धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट, राष्ट्रवर्धन,
अकोप, धर्मपाल और सुमन्त्र से आवृत्त होने पर
भी तीसरा ही आवरण बनता है (३७)।
तत: सहस्रदृग्वह्निधर्मज्ञो
वरुणोऽनिला: ।
इन्द्वीशधात्रनन्ताश्च
दशभिश्चैभिरावृतः ।।३८।।
जब वे (श्रीराम) इन्द्र,
अग्नि, यम, निर्ऋति,
वरुण, वायु, चन्द्रमा,
ईशान (शिव), ब्रह्मा तथा अनन्त (विष्णु)- इन
१० दिक्पालों से जब वे आवृत्त होते हैं तब चौथा आवरण बनता है (३८)।
[नोट : (क) उपरोक्त १० देवताओं को
निम्न कोणों में पूजा करनी चाहिए- (१) इन्द्र का पूर्व में, (२) अग्नि का दक्षिण-पूर्व में, (३) यम का दक्षिण में,
(४) निर्ऋति का दक्षिण-पश्चिम में, (५) वरुण
का पश्चिम में, (६) वायु का उत्तर-पश्चिम में, (७) चन्द्रमा का उत्तर में, (८) ईशान का उत्तर-पूर्व
में, (९) ब्रह्मा का पूर्व एवं उत्तर-पूर्व के बीच में तथा
(१०) अनन्त का पश्चिम एवं दक्षिण-पश्चिम के बीच में पूजा करनी चाहिए। (ख) इन देवताओं
के बीज-मन्त्र क्रमश: निम्न हैं- लं, रं, मं, क्षं, वं, यं, सं, हं, आं, नं।]
बहिस्तदायुधैः पूज्यो
नीलादिभिरलंकृतः ।
वसिष्ठवामदेवादिमुनिभिः समुपासितः
।।३९।।
इन १० दिक्पालों के बाहर की तरफ
इनके हथियार (आयुध) हैं जो पाँचवें आवरण को बनाते हैं। इन सबके द्वारा आवरत
श्रीराम पूजनीय होते हैं (यानि इनके द्वारा पूजित होते हैं। इसके बाद उसी आवरण में
नील आदि वानर, वशिष्ट, वामदेव
आदि ऋषिगण सुशोभित होते हैं (३९)। (कृपया सर्ग ५, पद संख्या
७ भी देखें)
[नोट : १० देवताओं के १० हथियार
निम्न हैं- इन्द्र का बज्र, अग्नि की शक्ति, यम का दण्ड, निर्ऋति का खड्ग, वरुण
का पाश, वायु का अंकुश, चन्द्रमा की
गदा, शिव का त्रिशूल, ब्रह्म का कमल
एवं विष्णु का चक्र।]
श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
राम के पूजा यन्त्र के बनाने का निर्देश
एवमुद्देशत: प्रोक्तं निर्देशस्तस्य
चाधुना ।
त्रिरेखापुटमालिख्य मध्ये तारद्वयं लिखेत्
।।४०।।
इस प्रकार संक्षेप में पूजा यन्त्र
का वर्णन किया गया। अब उसको बनाने का पूर्ण निर्देश करा जाता है। सम रेखाओं का दो
सम त्रिकोण बनाकर उनके बीच दो प्रणव अक्षरों (ॐ ओम्) का उल्लेख करे (यानि लिखे)
(४०)।
तन्मध्ये बीजमालिख्य तदध:
साध्यमालिखेत् ।
द्वितीयान्तं च तस्योवं षष्ठ्यन्तं
साधकं तथा ।।४१ ।।
फिर उन दोनों प्रणव अक्षरों के बीच
आद्यबीज (रां) को लिखकर उसके नीचे 'साध्य
कार्य' को लिखे। साध्य का नाम द्वितीयान्त होना चाहिए।
आद्यबीज (रां) के ऊपरी भाग में साधक का नाम लिखना चाहिए जो षष्टयन्त रहना चाहिए (४१)।
कुरुद्वयं च तत्पाबें लिखेबीजान्तरे
रमाम् ।
तत्सर्वं प्रणवाभ्यां च
वेष्टयेच्छुद्धबुद्धिमान् ।।४२।।
इसके बाद बीज मन्त्र के दोनों तरफ
(बांये एवं दहिने) 'कुरु' शब्द लिखे। बीज मन्त्र के बीचों-बीच श्री-बीज 'श्रीं'
लिखे। बुद्धिमान पुरूष यह सब ऐसे लिखे जिससे प्रणव (ॐ) से सम्पुटित
रहे (४२)।
दीर्घभाजि षडझे तु लिखेबीजान्तरे
हृदादिभिः ।
कोणपाधै रमामाये
तदग्रेऽनङ्गमालिखेत् ।।४३।।
फिर जो षट्कोण के बाहर ६ त्रिकोण
बने उनमें क्रमश: (१) रां हृदयाय नमः (पहले त्रिकोण में),
(२) रीं शिरसे स्वाहा (दूसरे त्रिकोण में), (३)
रूं शिखायै वषट् (तीसरे त्रिकोण में), (४) रें कवचाय हुम्
(चौथे त्रिकोण में), (५) रौं नेत्राभ्यां वौषट् (पाँचवें
त्रिकोण में), (६) र: अस्त्राय फट् (छठे त्रिकोण में) लिखें।
तत्पश्चात् कोणों के एक तरफ बाहर ‘रमा बीज' (श्रीं) तथा दूसरी तरफ 'माया बीज' (ह्रीं) लिखे। फिर हर दो कोण के बीच ‘काम बीज'
(क्लीं) लिखे (४३)।
क्रोधं कोणाग्रान्तरेषु लिख्य
मन्त्र्यभिता गिरम् ।
वृत्तत्रयं साऽष्टपत्रं सरोजे
विलिखेत्स्वरान् ।।४४।।
हर त्रिकोण के नोक के बाहर एवं भीतर
क्रोध बीज 'हुम्' लिखे
और इस बीज के दोनों तरफ वाणी का बीज 'ऐं' लिखे। फिर तीन गोलाकार रेखाएं (वृत्त) बनाये- पहली वृत्त तो षटकोण के ऊपर
हिस्से में होगा, दूसरा मध्य में होगा तथा तीसरा कमल दल के
अग्र भाग में होगा। बाहर की तीसरी वृत्त के साथ आठ पत्तों वाला अष्टदल कमल बनाये
(४४)।
केसरे चाष्टपत्रे च
वर्गाष्टकमथालिखेत् ।
तेषु
मालामनोर्वर्णानविलिखेदूर्मिसंख्यया ।।४५।।
जो कमल के आठ पत्ते (दल) बने उनमें
क्रमश: निम्न श्रृंखला में अक्षरों को लिखे- हिन्दी वर्णमाला के 'स्वर अक्षर' को दो-दो अक्षरों को प्रत्येक कमल दल
में क्रमश: लिखे (यानि कि अ आ, इ ई, उ
ऊ, ऋ ऋॄ, लृ लॄ, ए
ऐ, ओ औ, अं अः।) अब इन स्वरों के ऊपर 'व्यंजन वर्ग' के आठ वर्गों को लिखे (ये वर्ग निम्न
है- क, च, ट, त,
प, य, श, क्ष)। फिर इन आठों दलों में (पत्तों में) जो उपरोक्त अष्ट वर्ग लिखे गए
हैं उनके ऊपर आगे बताये जाने वाले 'माला मन्त्र' के ४७ वर्णों को प्रत्येक पत्तें मे ६ करके क्रम से लिखे। (कृपया पद
संख्या ६३ देखें) (४५)।
अन्ते पञ्चाक्षराण्ययेवं पुनरष्टदलं
लिखेत् ।
तेषु नारायणाष्टार्णां ल्लिख्य
तत्केसरे रमाम् ।।४६ ।।
अन्तिम (आठवें) पत्ते/दल में बचे
हुए ५ वर्णों का ही जिक्र होगा (कारण ७ पत्तें में ६४७ = ४२ वर्ण आ गये हैं तो
सिर्फ ४७-४२ = ५ ही बचे)। उपरोक्त आठ पत्तों वाले कमल के बाहर एक दूसरा आठ पत्तों
का कमल बनाये। इसके पत्तों में 'ॐ नमो नारायणाय'
इस अष्टाक्षर मन्त्र के प्रत्येक अक्षर को क्रम से हर पत्ते में
लिखे। हर पत्ते के केसर (जड़) में रमा बीज मन्त्र 'श्रीं'
लिखे (४६)।
तबहिर्द्वादशदलं
विलिखेद्वादशाक्षरम् ।
अर्थो नमो भगवते वासुदेवाय इत्ययम्
।।४७।।
पद संख्या ४६ में वर्णित आठ पत्तों
वाले कमल के बाहर एक तीसरा कमल १२ पत्तों का बनाये और द्वादश अक्षर मन्त्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' के एक-एक अक्षर को एक-एक
पत्ते में क्रमश: ऊपरी हिस्से में लिखे (४७)।
आदिक्षान्तान्केसरेषु वृत्ताकारेण
संलिखेत् ।
तद्बहिः षोडशदलं ल्लिख्य तत्केसरे
ह्रियम् ।।४८।।
उपरोक्त १२ पत्तों वाले कमल के
पत्तों के केसरों में हिन्दी वर्णमाला के 'अ'
से लेकर 'ज्ञ' तक वर्गों
को (यानि कि १६ स्वर+३५व्यंजन) लिखे जो गोलाकार रूप में हो। (प्रत्येक केसर में ४
अक्षर होंगे और अन्तिम केसर में ७ अक्षर होंगे) इस कमल के बाहर की तरफ एक १६
पत्तों का चौथा कमल बनाये और उसके प्रत्येक पत्ते के केसर में माया बीज 'ह्रीं' लिखे (४८)।
वर्मास्त्रनतिसंयुक्तं दलेषु
द्वादशाक्षरम् ।
तत्सन्धिष्वीरजादीनां
मन्त्रान्मन्त्री समालिखेत् ।।४९।।
उस चौथे १६ पत्तों वाले कमल में हर
पत्ते में ऊपर की नोक की तरफ एक-एक अक्षर क्रम से 'हुं फट् नमः' तथा द्वादश मन्त्र ('ॐ ह्रीं भरताग्रज राम क्लीं स्वाहा') के एक-एक १२
अक्षरों को (कुल ४+१२-१६) लिखे। इन पत्तों के जोड़ों में (सन्धियों में)
मन्त्रवेत्ता हनुमान आदि के बीज मन्त्र लिखे (जो नीचे पद संख्या ५० में वर्णित
हैं) (४९)।
ह्रं स्रं भ्रं व्रं लूमं ऋं ज्रं च
लिखेत्सम्यक्ततो बहि: ।
द्वात्रिंशारं महापद्मं नादबिन्दुसमायुतम्
।।५० ।।
उपरोक्त १६ बीज मन्त्र इस प्रकार
हैं- हृं (हनुमान का), सृं (सुग्रीव का),
भृं (भरत का), वृं
(विभीषण का), लृं (लक्ष्मण का), शृं
(शत्रुघ्न का), जृं (जामवन्त का), धृं
(धृष्टि का), जं (जयन्ति का), विं
(विजय का), सुं (सुराष्ट्र का), रां (राष्ट्रवर्धन
का), अं (अकोप का), धं (धर्मपाल का),
सुं (सुमन्त्र का)। मूल श्लोक में आये हुए 'च'
अक्षर से इनका समुच्य होता है। इस कमल के बाहर एक पाँचवां महाकमल ३२
पत्तों का बनाये। यह 'नाद' एवं 'बिन्दु' से युक्त हो। (नाद अर्द्ध चन्द्राकार होगा
और उसके ऊपर बिन्दु होगा) (५०)।
विलिखेन्मन्त्रराजाणां पत्रेषु
यत्नतः ।
ध्यायेदष्टवसुनेकादशरुद्रांश्च तत्र
वै ।।५१ ।।
द्वादशेनांश्च धातारं वषट्कारं च
तबहिः ।
भूगृहं वज्रशूलाढ्यं
रेखात्रयसमन्वितम् ।।५२।।
इस कमल के ३२ दलों (पत्तों) के केसर की तरफ इस ३२ अक्षरों वाले मन्त्र का एक-एक अक्षर क्रम से लिखे-
'रामभद्र महेश्वास रघुवीर नृपोत्तम ।
भो दशास्यान्तकास्माकं श्रियं दापय
देहि मे ॥'
फिर उन दलों में ८ वसु,
११ रुद्र और १२ आदित्य एवं १ वषट्कार ब्रह्मा को एक-एक करके क्रमश:
लिखना चाहिए। उक्त ३२ दलों वाले कमल के बाहर की तरफ एक 'मगृह'
(भूपुर) बनाए। उसके चारों दिशाओं में (उत्तर, पश्चिम,
दक्षिण, पूर्व) वज्र का निशान तथा ४ कोणों में
शूल का चिन्ह अंकित करे। उपरोक्त 'भूपुर' को तीन रेखाओं से घेरे (५१-५२)।
[नोट : (१) ८ वसु निम्न हैं-
ध्रुव, धर, सोम, आप,
अनिल, अनल, प्रत्यूष,
प्रभास। (२) ११ रूद्र ये हैं- हर, बहुरूप,
त्र्यम्बक, अपराजित, शम्भु,
वृषाकपि, कपर्दी, रैवत,
मगब्याध, शर्व, कपाली।
(३) १२ आदित्य ये हैं- धाता, अर्यमा, मित्र,
वरूण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान, पुषा,
पर्जन्य, त्वष्टा तथा विष्णु। (४) कुल नामों
की संख्या ८+११+१२+१=३२ हुई। (५) भूपुर यन्त्र के बाहर की तीन रेखायें सत, रज, तम गुणों को बताती हैं। भूपुर यन्त्र का लक्षण
निम्न है- चौकोर रेखा, वज्र का चिन्ह और पीला रंग।]
द्वारोपेतं च राश्यादिभूषितं
फणिसंयुतम् ।
अनन्तो वासुकिश्चैव तक्ष:
कर्कोटपद्मकः ।।५३ ।।
महापद्मश्च शङ्खश्च गुलिकोऽष्टौ
प्रकीर्तिताः।
एवं मण्डलमालिख्य तस्य दिक्षु
विदिक्षु च ।।५४।।
जैसे किसी मण्डप में दरवाजे होते
हैं उसी प्रकार इस चौकोर ज्योति मण्डप में भी द्वार बनाये। फिर उस भूपूर यन्त्र को
१२ राशियों से विभूषित करे। (प्रत्येक द्वार के दोनों तरफ एक-एक राशि होगी। ४
दरवाजे x२ = ८ एवं ४ कोनों में ४ राशि = ८+४ = कुल १२ राशि हुई)।
फिर इस चित्र को सर्प (फणि) के फण
से संयुक्त करे- यानि कि ऐसा प्रदर्शित करे कि इस यन्त्र को शेषनाथ ने धारण कर रखा
है। आठ नागों के नाम ये हैं- अनन्त, वासुकि,
तक्षक, कर्कोटक, पद्म,
महापद्म, शंख और कुलिक। (५३-५४)।
[नोट : (१) उपरोक्त बारह राशियों
ये हैं- मीन, मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनुष, मकर, कुम्भ।]
नारसिंह च वाराहं लिखेमन्त्रद्वयं
तथा ।
कूटो रेफानुग्रहेन्दुनादशक्तयादिभिर्युतः
।।५५ ।।
इस प्रकार भूपुर यन्त्र बनाकर उसके
चारों दिशाओं में (उत्तर, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम) दोनो मन्त्रों -- 'नारसिंह' के बीज मन्त्र को लिखे तथा कोणों में ‘वाराह' के बीज मन्त्र -- को लिखे। ( नारसिंह बीज
मन्त्र 'क्ष्रौं' है एवं वाराह का बीज
मन्त्र 'हूँ है।) यह जो नारसिंह का बीज मन्त्र क्ष्रौं है यह
क, ष, र, औ,
अनुस्वर, नाद तथा शक्ति से युक्त है (५५)।
यो नृसिंहः समाख्यातो
ग्रहमारणकर्मणि ।
अन्त्यावीशवियद्विन्दुनादैर्बीजं च
सौकरम् ।।५६।।
यह नारसिंह बीज मन्त्र ग्रह बाधा निवारण
तथा शत्रुमारण कर्म में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। (जो वाराह बीज है वह) अन्त्य
वर्ण (हाकार- ह) उकार से युक्त हो उसमें बिन्दु (अनुस्वर) लगा हो,
नाद (अर्द्ध चन्द्राकार) और शक्ति का भी संयोग हो तो 'हुम् अथवा 'हुँ' बीज बना (५६)।
श्रीराम पूर्वतापिनी उपनिषद्
माला मन्त्र
हुंकारं चात्र रामस्य
मालामन्त्रोऽधुनेरितः ।
तारो नतिश्च निद्रायाः
स्मृतिर्भेदश्च कामिका ।।५७।।
यह हुंकार बीज यन्त्र के कोणों में
रखना चाहिए। अब राम के 'माला मन्त्र बीज'
का वर्णन किया जा रहा है। इसमें प्रथम अक्षर 'तार'
(प्रणव) है, फिर 'नमः'
पद है। इसके बाद निद्रा (भ), फिर स्मृति (ग),
फिर मेद (व), फिर कामिका (त) (पद ५७)
रुद्रेण संयुता वह्निमेधामरविभूषिता
।
दीर्घा क्रूरयुता हादिन्यन्थो
दीर्घसमायुता ।।५८।।
जो रूद्र (ए) से युक्त है। इसके बाद
अग्नि (र), मेधा (घ) है जो अमर (उ) से
विभूषित है। इसके बाद दीर्घ कला (न) जो अक्रुर अर्थात् सौम्यता-चन्द्रमा (अनुस्वर-
'' से संयुक्त है। फिर ह्लादिनी (द) है, फिर दीर्घा कला (न) है जो मानदा कला (आ) से सुशोभित है। (पद संख्या ५६ से 'ॐ नमो भगवते' मन्त्र बना) (पद ५८)।
क्षुधा क्रोधिन्यमोघा च विश्वमप्यथ
मेधया ।
युक्ता दीर्घज्वालिनी च सुसूक्ष्मा
मृत्युरूपिणी ।।५९।।
इसके बाद क्षुधा (य) है। (इस प्रकार
पद संख्या ५७ से यहाँ तक 'रघुनन्दनाय' बना।) तदन्तर क्रोधिनी (र), अमोघा (क्ष), और विश्व (ओ) है जो मेधा (घ) से संयुक्त है। फिर दीर्घा (न), ज्वालिनी (व) जो सूक्ष्म रूद्र (इ) से युक्त है। फिर मृत्यु-प्रणव कला (श)
है (५९)
सप्रतिष्ठा हादिनी त्वकश्वेलप्रीतिश
सामरा ।
ज्योतिस्तीक्ष्णाग्निसंयुक्ताश्वेतानुस्वारसंयुता
।।६०।।
जो उच्चारण के आधार स्वरूप (यानि कि
प्रतिष्ठा स्वरूप) 'अ' से संयुक्त है। इसके बाद ह्लादिनी (दा) तथा त्वक् (य) है। इससे मन्त्र का
आगे का हिस्सा- 'रक्षौघ्नविशंदाय' बना।।
इसके बाद श्वेल (म),
प्रीति (ध), अमर (उ), ज्योति
(र), तीक्ष्णा (प्), जो अग्नि (र) से
संयुक्त है। इसके बाद श्ववेता (स) है जो अनुस्वार (') है।
(अत: बीज मन्त्र निम्न बने म धु र पृ सं) (६०)।
कामिकापञ्चमूलान्तस्तान्तान्तो
थान्त इत्यथ ।
स सानन्तो दीर्घयुतो वायुः
सूक्ष्मयुतो विष: ।।६१।।
फिर कामिका (अर्थात् त) से पाँचवां
अक्षर 'न', फिर 'ल' के बाद का अक्षर 'व' , 'त'
के बाद वाले अक्षर के पीछे का अक्षर 'द'
, फिर 'ध' के बाद का
अक्षर 'न' जो अनन्त (आ) से संयुक्त है।
फिर दीर्घ स्वर से युक्त वायु (या), सुक्ष्म 'इ' कार से युक्त विष-मकार (मि) है (६१)। (इस प्रकार
निम्न अक्षर बने- न व द ना या मि)
कामिका कामका रुद्रयुक्ताथोऽथ
स्थिरातपा ।
तापिनी दीर्घयुक्ता भूरनलोऽनन्तगोऽनिलः
।।६२।।
इसके बाद कामिका (त) और इसमें रूद्र
(ए) का संयोग है (= ते)। तदन्तर स्थिरा (ज), उसके
बाद अक्षर 'स' है और उसमें 'ए' की मात्रा है (यानि कि 'से'
बना)। इस प्रकार 'मधुरप्रसन्नवदनायमिततेजसे'
यह मन्त्र भाग बना।
इसके बाद तापिनी (ब),
फिर दीर्घ (ल) दीर्घा युक्त (यानि कि ल+ा = ला), फिर अनिल (य) है। इस प्रकार ‘बलाय' शब्द बना। (६२)।
नारायणात्मक;
काल: प्राणाभो विद्यया युतः ।
पीतारातिस्तथा लान्तो योन्या
युक्तस्ततो नतिः ।।६३।।
फिर नारायणात्मक ‘रा के साथ 'काल' (यानि कि आम =
मा) है। इसके बाद 'प्राण' (य) है। इससे
'रामाय' शब्द बना। - इसके बाद 'विद्यायुक्त अम्भस्', यानि कि इ+व = वि है। फिर पीता
(ष), रति (ण) और 'ल' के बाद का अक्षर 'व' है जो
योनि (ए) से युक्त है। इससे मन्त्र का अगला शब्द 'विष्णवे'
बना। अन्त में नति-प्रणाम का वाचक शब्द 'नमः'
और 'प्रर्णव' है (६३)।
(ॐ नमो भगवते
रघुनन्दनाय रक्षोघ्नविशदाय मधुर प्रसन्नवदनाय मिततेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः)
सप्तचत्वारिंशद्वर्णगुणान्त:स्पृङ्मनुः
स्वयम् ।
राज्याभिषिक्तस्य तस्य
रामस्योक्तक्रमाल्लिखेत् ।।६४।।
'ॐ नमो भगवते रघुनन्दनाय
रक्षोघ्नविशदाय मधुर प्रसन्नवदनाय मिततेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः ॐ'। यह ४७ अक्षरों का ‘माला मन्त्र' है। यह राज्य पर अभिषिक्त श्रीराम से सम्बन्ध रखता है। सगुण श्रीराम का
मन्त्र होने पर भी यह भक्तों के त्रिगुणमयी माया के बन्धन का नाश करने वाला है एवं
उन्हें साकेत धाम देता है। इस मन्त्र को पहले बताये हए क्रम से लिखना चाहिए (कृपया
पद संख्या ४५ देखें) (६४)।
[नोट : माला मन्त्र का वर्णन पद
संख्या ५६-६३ में हुआ और यह पद संख्या ४५ में जो कमल दल है उसके अन्दर ऊपर की तरफ
पद संख्या ४५ में बताये तरीके से लिखा जायेगा।
इदं सर्वात्मकं यन्त्रं प्रागुक्तमृषिसेवितम्
।
सेवकानां मोक्षकरमायुरारोग्यवर्धनम्
।।६५।।
यह राम का यन्त्र सर्वदेव
पूज्यात्मक है- अर्थात् सभी प्रधान देवता बीज रूप में इसमें मौजद हैं। इसका उपदेश
प्राचीन आचार्यों ने किया है तथा ऋषियों ने भी इसका सेवन करके मोक्ष प्राप्त किया
है। यह मोक्ष देता है एवं आयु तथा आरोग्य में वृद्धि करता है (६५)।
अपुत्रिणां पुत्रदं च बहुना किमनेन
वै ।
प्राप्नुवन्ति क्षणात्सम्यगत्र
धर्मादिकानपि ।।६६ ।।
यह पुत्रहीनों को पुत्र प्राप्ति
कराता है। ज्यादा क्या कहना, इस मन्त्र के
सेवन से मनुष्य से सब कुछ शीघ्र पा जाता है। इसका आश्रय लेकर उपासक धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं ऐश्वर्य सब पा लेता है (६६)।
इदं रहस्यं परममीश्वरेणापि दुर्गमम्
।
इदं यन्त्रं समाख्यातं न देयं
प्राकृते जने ।।६७।।
यह अत्यन्त गोपनीय रहस्य है। यह
यन्त्र बिना उपदेश के परम सामर्थ्यशाली पुरुष के लिए भी दुर्गम है। प्राकृतजनों को
इसका उपदेश नहीं देना चाहिए (६७)।
इस प्रकार श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
का भाग-२ समाप्त हुआ।
शेष जारी.............. श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् अंतिम भाग
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