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श्रीराम उत्तर तापिनी उपनिषद्
श्रीराम उत्तर तापिनी उपनिषद् के इस
अंतिम भाग में श्रीराम महामन्त्र का सविस्तार वर्णन है।
श्रीराम उत्तरतापिनी उपनिषद्
अथ हैनं भारद्वाजो
याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच
श्रीराममन्त्राराजस्य
माहात्म्यमनुब्रूहीति।
स होवाच याज्ञवल्क्यः ।
स्वप्रकाश: परंज्योति:
स्वानुभूत्यैकचिन्मयः।
तदेव रामचन्द्रस्य मनो राद्यक्षरः
स्मृतः।। १।।
1- इसके बाद फिर भारद्वाज ने
याज्ञवल्क्य से कहा 'कृपया राम मन्त्रराज का महातम्य मुझे
बताएं।' याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- 'जो
स्वयं प्रकाशमय है, परं ज्योति स्वरूप है, स्वयमुंव है, प्रत्यक्ष रूप से चिन्मय रूप है- वही
मानो की राम का मन्त्रराज है।' (१)
अखण्डैकरसानन्दस्तारकब्रह्मवाचकः।
रामायेति सुविज्ञेयः
सत्यानन्दचिदात्मकः।। २।।
2- वह ब्रह्म का वाचक है- जो
अखण्ड, आनन्द, विस्तार वाला है। जो
अच्छे विद्वान होते हैं वो इसी राम के मंत्र को जानते-पहचानते हैं। वो सत्य,
आनन्द, चिदात्मक स्वरूप है।
(२) नम:पदं सुविज्ञेयं
पूर्णानन्दैककारणम् ।
सदा नमन्ति हृदये सर्वे देवा
मुमुक्षवः।। ३।। इति।।
3- ग्यानि लोग इस को नमन-वन्दन
करते है। वे इसे पूर्ण आनन्द का कारण मानते हैं। वे सदा हृदय में इसे नमन करते है
और मोक्ष का कारण जानते हैं।
(३) य एवं मन्त्राराजं श्रीरामचन्द्रषडक्षरं
नित्यमधीते ।
सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो भवति
।
स आदित्यपूतो भवति । स सोमपूतो भवति
।
स ब्रह्मपूतो भवति । स विष्णुपूतो
भवति ।
स रुद्रपूतो भवति । सर्वैर्देवैख़तो
भवति ।
सर्वक्रतुभिरिष्टवान्भवति ।
तेनेतिहासपुराणानां रुद्राणां
शतसहस्त्राणि जप्तानि सफलानि भवन्ति ।
श्रीरामचन्द्रमनुस्मरणेन गायत्र्याः
शतसहस्त्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति ।
प्रणवानामयुतकोटिजपा भवन्ति ।
दश पूर्वान्दशोत्तरान्पुनाति । स
पंक्तिपावनो भवति ।
स महान्भवति । सोऽमृतत्वं च गच्छति ।।
अत्रैते श्लोका भवन्ति । गाणपत्येषु
शैवेषु शाक्तसौरेष्वभीष्टदः।
वैष्णवेष्वपि सर्वेषु राममन्त्रः
फलाधिकः।। ४।।
4- इसलिए वे नित्य श्रीराम का ६
अक्षरों का मन्त्रराज जपते हैं, उसका ध्यान करते हैं। यह
अग्नि स्वरूप है; यह वायु स्वरूप है; यह
आदित्य (सूर्य) स्वरूप है; यह सोम (चन्द्रमा) स्वरूप है;
यह ब्रह्म स्वरूप है; यह विष्णु स्वरूप है;
यह रूद्र स्वरूप है; यह सर्व देव स्वरूप है
एवं सब देवों को ज्ञात है। यह सभी ऋतुओं को फल (गुण) देने वाला है। जो सारे इतिहास
पुराण, रूद्र सहस्त्र नाम जप
इत्यादि हैं। इससे सफल होते हैं (अथवा- सब इतिहास पुराणों में बताया है कि राम
मन्त्र राज के जप से रूद्र सहस्त्र नाम जाप का फल मिलता है और वही भी सफल
होता है।)
श्रीराम मन्त्र राज का फल हजारों गायत्री
मन्त्रों के समान फल देने वाला मनुष्य लोग पाते हैं। करोड़ों ओम 'मन्त्रों के जाप के समान फल देने वाला होता है। यह दशों (इन्द्रियों) एवं
उसके बाद एवं पहले सबको पूर्ण सुख देने वाला है। यह मन्त्र राज एक पंक्ति के रूप
में है। गणेश एवं उनके गण (सेवक), शिव एवं साक्त (शक्ति) सबकी पूजा के समान अभिष्ठ फल देने वाला है। विष्णु
एवं वैष्णवों के सब मन्त्रों से अधिक फल देने वाला है। (४)
गाणपत्यादिमन्त्रेषु
कोटिकोटिगुणाधिकः।
मन्त्रस्तेष्वप्यनायासफलदोऽयं
षडक्षरः।। ५।।
5- यह राम मन्त्र राज गणपति
(गणेश) के करोड़ों मन्त्रों से अधिक गुण वाला है। यही ६ अक्षरों का मन्त्र पायस फल
में रहता है। (५)
षडक्षरोऽयं मन्त्र:
स्यात्सर्वाघौघनिवारण:।
मन्त्रराज इति प्रोक्तः
सर्वेषामुत्तमोत्तमः।। ६।।
6- यही ६ अक्षरों का मन्त्र सभी औषधियों
में रहता है जो उनको रोग नाशक गुण प्रदान करता है। इसे महा मन्त्र कहते हैं जो सब
मन्त्रों में उत्तम है, महान है। (६)
कृतं दिने यहुरितं
पक्षमासर्तुवर्षजम् ।
सर्वं दहति निःशेषं
तूलराशिमिवानलः।। ७।।
7- यह मन्त्र सब जगह व्याप्त रहता
है- सभी दिन, व्याहऋति, पक्ष-मास,
वर्ष, ऋतु, अग्नि,
राशि एवं अनल (आकाश) में रहता है। (७)
ब्रह्महत्यासहस्त्राणि
ज्ञानाज्ञानकृतानि च ।
स्वर्णस्तेयसुरापानगुरुतल्पायुतानि
च ।।८।।
कोटिकोटिसहस्त्राणि उपपातकजान्यपि ।
सर्वाण्यपि प्रणश्यन्ति
राममन्त्रानुकीर्तनात् ।। ९।।
8- यह ब्रह्म हत्या, गुरू अपमान, स्वर्ण चोरी, मदिरा
पान, अल्प आयु वालों वालों की हत्या, अधर्म-८)
9- एवं इस तरीके के करोड़ों
हजारों पापों को नष्ट कराने वाला होता है। इसलिए सभी लोगों की इस पवित्र बनाने
वाले राम मन्त्र का कीर्तन करना चाहिए। (९)
भूतप्रेतपिशाचाद्याः
कूष्माण्डब्रह्मराक्षसाः।
दूरादेव प्रधावन्ति
राममन्त्रप्रभावतः।। १० ।।
10- जो राम मन्त्र के प्रभाव को
जानते हैं उनसे भूत, प्रेत, पिशाच,
कुष्मांड, ब्रह्म-राक्षस आदि कु-देवता दूर
रहते हैं। (१०)
ऐहलौकिकमैश्वर्यं स्वर्गाद्यं
पारलौकिकम् ।
कैवल्यं भगवत्त्वं च मन्त्रोऽयं
साधयिष्यति ।। ११ ।।
11- यह मन्त्र जगत में ऐश्वर्य,
परलौकिक जगत में स्वर्ग, मोक्ष, कैवल्य पद आदि दिलाने वाला है। इसकी
साधना करनी चाहिए। (११)
ग्राम्यारण्यपशुघ्नत्वं संचितं दुरुतिं
च यत् ।
मद्यपानेन यत्पापं तदप्याशु
विनाशयेत् ।।१२।।
12- यह मन्त्र ग्राम, वन के पशु एवं अन्य हिंसक तत्वों के प्रभाव (परेशानी) में रक्षा करता है।
यह शराब पीना और अनेक तरह के पापों को नष्ट करने वाला होता है। (१२)
अभक्ष्यभक्षणोत्पन्नं
मिथ्याज्ञानसमुद्भवम् ।
सर्वं विलीयते राममन्त्रस्यास्यैव
कीर्तनात् ।। १३।।
13- यह अखाद्य पदार्थ (जो चीजें
खाने लायक न हों) से पैदा होने वाले विकारों को नाश करता है। यह झूठ बोलना वाले
पाप से रक्षा करता है। इस महामन्त्र का कीर्तन करना चाहिए। (१३)
श्रोत्रियस्वर्णहरणाद्यच्च
पापमुपस्थितम् ।
रत्नादेश्चापहारेण तदप्याशु
विनाशयेत् ।। १४।।
14- जो श्रोत्रीय ब्राह्मण हो वो
भी सोना चुराना, निकृष्ट पाप में संलग्न हों, रत्न आदि चुराने वाला हो, वह भी इस महामन्त्र से शुद्धि पा कर अपनी
अशुद्धता को नाश कर देता है। (१४)
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं
हत्वा च किल्बिषम् ।
संचिनोति नरो मोहाद्यद्यत्तदपि
नाशयेत् ।। १५ ।।
15- यह मन्त्र ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र एवं
इनसे भी छोटे प्राणियों की हत्या करने वाले मनुष्य और जो मोह-माया में डूबे हुए
हैं वैसे मनुष्यों की भी रक्षा करता है एवं उनकी अशुद्धता को दूर करता है। (१५)
गत्वापि मातरं मोहादगम्याश्चैव
योषितः।
उपास्यानेन मन्त्रेण रामस्तदपि
नाशयेत् ।। १६ ।।
16- जो मोह बस माता के साथ गलत
कार्य करते हैं उन उपासकों की भी यह राम मन्त्र अशुद्धता को नाश करता है। (१६)
महापातकपापिष्टसङ्गत्या संचितं च
यत् ।
नाशयेत्तत्कथालापशयनासनभोजनैः।।
१७।।
17- यह महा पापी की संगत, गलत भोजन, गलत संगत, गलत शयन,
गलत कथन- इन सबकी अशुद्धता को नाश करने वाला होता है। (१७)
पितृमातृवधोत्पन्नं बुद्धिपूर्वमघं
च यत् ।
तदनुष्टानमात्रेण
सर्वमेतद्विलीयते।। १८।।
18- माता-पिता के बध (हत्या) से
उत्पन्न पाप, जान-बूझकर किया गया पाप- यह सब इस महामन्त्र के
अनुष्ठान मात्र से नाश हो जाता है। (१८)
यत्प्रयागादितीर्थोक्तप्रायश्चित्तशतैरपि।
नैवापनोद्यते पापं तदप्याशु
विनाशयेत् ।। १९।।
19- प्रयाग के दूसरे रूप में
प्रायश्चित करने के लिए यह मन्त्र परम उत्तम है। यह पाप नाश कर शुद्धि देने वाला
है। (१९)
पुण्यक्षेत्रेषु सर्वेषु
कुरुक्षेत्रादिषु स्वयम् ।
बुद्धिपूर्वमघं कृत्वा तदप्याशु
विनाशयेत् ।। २० ।।
20- यह मन्त्र कुरुक्षेत्र,
ज्ञान क्षेत्र (बुद्धि क्षेत्र) एवं सभी क्षेत्रों में किये अपराध
को नाश कर शुद्धि करने वाला है। (२०)
कृच्छ्रेस्तप्तपराकाद्यैर्नानाचान्द्रायणैरपि
।
पापं च नापनोद्यं यत्तदप्याशु
विनाशयेत् ।। २१ ।।
21- यह राम महामन्त्र अनेक
चन्द्रायण व्रतों के बराबर फल देने वाला है। यह सात लोकों के किये गये पापों का
नाश कर शुद्धता देने वाला है। (२१)
आत्मतुल्यसुवर्णादिदानैर्बहुविधैरपि
।
किंचिदप्यपरिक्षीणं तदप्याशु
विनाशयेत् ।। २२।।
22- यह अनेक तरह के दानों- जैसे
तुला दान, स्वर्ण दान, अनेक विधियों से
किये गये दान- के करने के बाद भी जो पाप बच जाते हैं, उनको
नाश करने वाला है एवं शुद्धता देता है। (२२)
अवस्थात्रितयेष्वेवबुद्धिपूर्वमघं च
यत् ।
तन्मन्त्रस्मरणेनैव नि:शेष
प्रविलीयते ।। २३।।
23- प्राणि आयु के अन्तिम चरण में
किये बुद्धि के द्वारा किये गये पाप या जो पाप शेष बच गए हैं उनको यह राम
महामन्त्र स्मरण मात्र से नाश कर देता है। (२३)
अवस्थात्रितयेष्वेवं मूलबन्धमन्त्रं
च यत् ।
तत्तन्मन्त्रोपदेशेन
सर्वमेतत्प्रणश्यति।। २४।।
24- तीनों अवस्थाओं में यह मूल
मन्त्र बन्धनों से मुक्त करता है। इस प्रकार का उपदेश से सर्व जानेन वाले शुद्ध
होत हैं। (२४)
आब्रह्मबीजदोषाश्च
नियमातिक्रमोद्भवाः।
स्त्रीणां च पुरुषाणां च
मन्त्रेणानेन नाशिताः।। २५ ।।
25- ब्रह्म के बीच मन्त्र एवं
नियमों का पालन न करने का जो दोष पैदा होता है, या मन्त्रों
को ठीक से अथवा नियम से उपयोग न करने का जो दोष स्त्री या पुरुष को होता है- राम
का यह महामंत्र सब के दोष को नाश कर देता है। (२५)
येषु येष्वपि देशेषु रामभद्र
उपास्यते ।
दुर्भिक्षादिभयं तेषु न भवेत्तु
कदाचन ।। २६ ।।
26- यह राम महामन्त्र राम की
उपासना का मुख्य साधन है, उनकी कृपा दिलाता है। इसकी उपासना
करने से दुर्भिक्ष (सूख पड़ना) आदि के भय से मुक्ति मिलती है। (२६)
शान्तः प्रसन्नवदनो ह्यक्रोधो
भक्तवत्सलः।
अनेन सदृशो मन्त्रो जगत्स्वपि न
विद्यते ।। २७।।
27- यह श्री राम शान्त स्वरूप,
प्रसन्नवदन, बिना क्रोध के एवं भक्तवत्सल है।
इस मन्त्र के समान संसार में उनका कोई दूसरा मन्त्र नहीं है। (२७)
सम्यगाराधितो रामः प्रसीदत्येव
सत्वरम् ।
ददात्यायुष्यमैश्वर्यमन्ते
विष्णुपदं च यत् ।। २८।।
28- इसकी अराधना करने पर श्रीराम
सब पर प्रसन्न होते हैं। वे उन्हें आयु, ऐश्वर्य देते हैं।
अन्त में (मरने पर) विष्णु का परम पद प्राप्त होता है। (२८)
तदेतदृचाभ्युक्तम् ।
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा
अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य
इत्तद्विदस्त इमे समासते ।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति
सुरयः।
दिवीव चक्षराततम् ।
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः
समिन्धते ।
विष्णोर्यत्परमं पदम् ।
सत्यमित्युपनिषत् ।। २९।।
29- यही मेरे (याज्ञवल्क्य) के
कहने का तात्पर्य है। यही राम मन्त्र की ऋचाओं के अक्षर आकाश (स्वर्ग) के देवताओं
को, जैसे अनन्त इत्यादि अनादि देवताओं को आनन्द देने वाला
है। इसी को ब्रह्म ज्ञानी वेदों की ऋचाओं एवं उपनिषदों का कारक मानते हैं। यही
विष्णु के परम स्वरूप का दर्शन कराने वाला है। यह दृष्य दृष्टि देता है। यह अमृत
प्राप्त कराने वाला है। यह पुण्य को जागृत कराने वाला है। यह विष्णु का परम
स्वरूप है। यह यह उपनिषद् कहता है। (२९)
इत्यथर्वणरहस्ये
श्रीरामोत्तरतापनीयोपनिषत् समाप्तः।
श्रीरामोत्तरतापिनीयोपनिषद्
शान्ति पाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा ঌसस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायु:
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तायो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !!शान्तिः !!!
इसका भावार्थ श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद्
में अथवा श्रीरामोत्तरतापिनीयोपनिषद् के प्रथम भाग में पढ़ें।
इस प्रकार श्रीरामोत्तरतापिनीयोपनिषद्
का अंतिम भाग समाप्त हुआ।
श्रीराम तापिनी उपनिषद् समाप्त हुआ।
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