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कर्मकाण्ड

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शिव अथर्वशीर्ष

शिव अथर्वशीर्ष

पंचदेवों में गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य के क्रमानुसार पाँच अथर्वशीर्ष है। पंच अथर्वशीर्षों में शिव अथर्वशीर्ष अपेक्षाकृत सबसे बड़ा है। यह अथर्ववेदीय शैव उपनिषद है। शिव पूजा में इसका विशेष महत्व है। इसमें देवताओं द्वारा भगवान रूद्र को सर्वशक्तिमान मानकर उनकी स्तुति की गयी है। साथ ही इनके स्वरूप की गूढ़ तात्विक व्याख्या भी दी गयी है। इस अथर्वशीर्ष को पढ़ने से अद्भुत फल का वर्णन किया गया है। इसके पाठ से सभी तीर्थों में स्नान, सभी यज्ञ करने, साठ हजार गायत्री जप, एक लाख रुद्र जप और दस हजार प्रणवजप का फल तो मिलता ही है, वेद और पुराणों के अध्ययन का फल भी मिलता है। वह न केवल स्वयं को सभी पापों से मुक्त करता है, बल्कि अपने से पहले की सात पीढ़ियों को भी मुक्त कराता है।

शिव अथर्वशीर्ष

शिव अथर्वशीर्ष उपनिषद

Shivatharvashira upanishad

शिवाथर्वशीर्षम्  

रुद्राथर्वशीर्षम्

अथर्वशिरोपनिषत्  शिवाथर्वशीर्षं च

अथर्ववेदीय शैव उपनिषत् ॥

।। शिवाथर्वशीर्षम् ।।

अथर्वशिरसामर्थमनर्थप्रोचवाचकम् ।

सर्वाधारमनाधारं स्वमात्रत्रैपदाक्षरम् ॥

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा

              भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।

        स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभि-

              र्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

        स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः

              स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।

        स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः

               स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ  शान्तिः  शान्तिः  शान्तिः ॥

इसका भावार्थ गणपत्यथर्वशीर्षम् में देखें।

श्री शिवाथर्वशीर्षम्  

ॐ देवा ह वै स्वर्गं लोकमायंस्ते रुद्रमपृच्छन्को

भवानिति । सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममासं वर्तामि च

भविश्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति ।

एक बार देवगण परिभ्रमण करते हुए स्वर्गलोक में गये और वहाँ भगवान् रुद्र (शिव) से पूछने लगे- 'आप कौन हैं?' रुद्र भगवान् ने कहा- 'मैं एक हूँ; मैं भूत, भविष्य और वर्तमानकाल में हूँ, ऐसा कोई नहीं है जो मुझसे रहित हो ।

सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं प्राविशत्

सोऽहं नित्यानित्योऽहं व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माब्रह्माहं प्राञ्चः

प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्च उदञ्चोहं

अधश्चोर्ध्वं चाहं दिशश्च प्रतिदिशश्चाहं

पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्यहं सावित्र्यहं

त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् चाहं छन्दोऽहं गार्हपत्यो

दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं

गौर्यहमृगहं यजुरहं सामाहमथर्वाङ्गिरसोऽहं

ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहं

गुह्योहंअरण्योऽहमक्षरमहं क्षरमहं पुष्करमहं

पवित्रमहमुग्रं च मध्यं च बहिश्च

पुरस्ताज्ज्योतिरित्यहमेव सर्वेभ्यो मामेव स सर्वः समां यो

मां वेद स सर्वान्देवान्वेद सर्वांश्च वेदान्साङ्गानपि

ब्रह्म ब्राह्मणैश्च गां गोभिर्ब्राह्माणान्ब्राह्मणेन

हविर्हविषा आयुरायुषा सत्येन सत्यं धर्मेण धर्मं

तर्पयामि स्वेन तेजसा ।

जो अत्यन्त गूढ़ है, समस्त दिशाओं में रहता है, वही मैं हूं । मैं नित्य एवं अनित्यरूप, व्यक्त एवं अव्यक्तरूप, ब्रह्म एवं अब्रह्मरूप, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चारों दिशारूप, ऊर्ध्व और अधोरूप दिशा, प्रतिदिशा, पुमान्, अपुमान्, स्त्री, गायत्री, सावित्री, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप् छन्द, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सत्य, गौ, गौरी, ऋक्, यजुः, साम, अथर्व, अंगिरस, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ, जल, तेज, गुह्य, अरण्य, अक्षर, क्षर, पुष्कर, पवित्र, उग्र, मध्य, बाह्य, अग्रिम - यह सब तथा ज्योतिरूप मैं ही हूँ । मुझको सबमें रमा (स्थित)  हुआ जानो । जो मुझको जानता है, वह समस्त देवों को जानता है और अंगों सहित सब वेदों को भी जानता है । मैं अपने तेज से ब्रह्म को ब्राह्मण से गौ को गौ से, ब्राह्मण को ब्राह्मण से, हविष्य को हविष्य से, आयुष्य को आयुष्य से, सत्य को सत्य से, धर्म को धर्म से तृप्त करता हूँ ।

ततो ह वै ते देवा रुद्रमपृच्छन् ते देवा रुद्रमपश्यन् ।

ते देवा रुद्रमध्यायन् ततो देवा ऊर्ध्वबाहवो रुद्रं स्तुवन्ति ॥ १॥

'वे देव रुद्र से पूछने लगे - रुद्र को देखने लगे और उनका ध्यान करने लगे, फिर उन देवों ने हाथ ऊँचे करके इस प्रकार स्तुति की -

ॐ यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च ब्रह्मा तस्मै वै नमोनमः ॥ १॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही ब्रह्मा हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही विष्णु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च स्कन्दस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ३॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्कन्द हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्चेन्द्रस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ४॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही इन्द्र हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्चाग्निस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ५॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अग्नि हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च वायुस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ६॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही वायु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च सूर्यस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ७॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सूर्य हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च सोमस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ८॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सोम हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्ये चाष्टौ ग्रहास्तस्मै वै नमोनमः ॥ ९॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अष्टग्रह हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्ये चाष्टौ प्रतिग्रहास्तस्मै वै नमोनमः ॥ १०॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अष्टप्रतिग्रह हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च भूस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ११॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही भूः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च भुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १२॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही भुवः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च स्वस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १३॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्वः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च महस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १४॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही महः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्या च पृथिवी तस्मै वै नमोनमः ॥  १५॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही पृथिवी हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चान्तरिक्षं तस्मै वै नमोनमः ॥ १६॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अन्तरिक्ष हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्या च द्यौस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १७॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही द्यौ हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्याश्चापस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १८॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही आप (जल) हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च तेजस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १९॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही तेज हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च कालस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २०॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही काल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च यमस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २१॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही यम हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च मृत्युस्तस्मै वै नमोनमः ॥ २२॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही मृत्यु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चामृतं तस्मै वै नमोनमः ॥  २३॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अमृत हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्चाकाशं तस्मै वै नमोनमः ॥  २४॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही आकाश हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च विश्वं तस्मै वै नमोनमः ॥  २५॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही विश्व हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्याच्च स्थूलं तस्मै वै नमोनमः ॥  २६॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्थूल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सूक्ष्मं तस्मै वै नमोनमः ॥  २७॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सूक्ष्म हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च शुक्लं तस्मै नमोनमः ॥ २८॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही शुक्ल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च कृष्णं तस्मै वै नमोनमः ॥ २९॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही कृष्ण हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च कृत्स्नं तस्मै वै नमोनमः ॥  ३०॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही कृत्स्न (समग्र) हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सत्यं तस्मै वै नमोनमः ॥ ३१॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सत्य हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

यो वै रुद्रः स भगवान्यच्च सर्वं तस्मै वै नमोनमः ॥  ३२॥ ॥ २॥

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सर्व हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है।

भूस्ते आदिर्मध्यं भुवः स्वस्ते शीर्षं विश्वरूपोऽसि ब्रह्मैकस्त्वं द्विधा

त्रिधा वृद्धिस्तं शान्तिस्त्वं पुष्टिस्त्वं हुतमहुतं दत्तमदत्तं

सर्वमसर्वं विश्वमविश्वं कृतमकृतं परमपरं परायणं च त्वम् ।

अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।

किं नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतं मार्त्यस्य ।

सोमसूर्यपुरस्तात् सूक्ष्मः पुरुषः ।

पृथ्वी आपका आदिरूप, भुवर्लोक आपका मध्यरूप और स्वर्गलोक आपका सिररूप है । आप विश्वरूप केवल ब्रह्मरूप हो । दो प्रकार से या तीन प्रकार से भासते हो । आप वृद्धिरूप, शान्तिरूप, पुष्टिरूप, हुतरूप, अहुतरूप, दत्तरूप, अदत्तरूप, सर्वरूप, असर्वरूप, विश्व, अविश्व, कृत, अकृत, पर, अपर और परायणरूप हो । आपने हमको अमृत पिला के अमृतरूप किया, हम ज्योतिभाव को प्राप्त हुए और हमको ज्ञान प्राप्त हुआ । अब शत्रु हमारा क्या कर सकेंगे ? हमको वे पीड़ा नहीं दे सकेंगे, आप मनुष्य के लिये अमृतरूप हो, चन्द्र-सूर्य से प्रथम और सूक्ष्म पुरुष हो ।

सर्वं जगद्धितं वा एतदक्षरं प्राजापत्यं सूक्ष्मं

सौम्यं पुरुषं ग्राह्यमग्राह्येण भावं भावेन सौम्यं

सौम्येन सूक्ष्मं सूक्ष्मेण वायव्यं वायव्येन ग्रसति स्वेन

तेजसा तस्मादुपसंहर्त्रे महाग्रासाय वै नमो नमः ।

हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ।

हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्रो मात्राः परस्तु सः । तस्योत्तरतः शिरो

दक्षिणतः पादौ य उत्तरतः स ओङ्कारः य ओङ्कारः स प्रणवः

यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तः

योऽनन्तस्तत्तारं यत्तारं तत्सूक्ष्मं तच्छुक्लं

यच्छुक्लं तद्वैद्युतं यद्वैद्युतं तत्परं ब्रह्म यत्परं

ब्रह्म स एकः य एकः स रुद्रः य रुद्रः यो रुद्रः स ईशानः य

ईशानः स भगवान् महेश्वरः ॥ ३॥

यह अक्षर और अमृतरूप प्रजापतिका सूक्ष्मरूप है, वही जगत्‌ का कल्याण करने वाला पुरुष है । वही अपने तेज द्वारा ग्राह्य वस्तु को अग्राह्य वस्तु से, भाव को भाव से, सौम्य को सौम्य से, सूक्ष्म को सूक्ष्म से, वायु को वायु से ग्रास करता है । ऐसे महाग्रास करने वाले आपको बार-बार नमस्कार है । सबके हृदय में देवताओं का, प्राणों का तथा आपका वास है । जो नित्य तीन मात्राएँ हैं, आप उनके परे हो । उत्तर में उसका मस्तक है, दक्षिण में पाद है, जो उत्तर में है , वही ॐकाररूप है, जो ॐकार है; वही प्रणवरूप है, जो प्रणव है; वही सर्वव्यापीरूप है । जो सर्वव्यापी है; वही अनन्तरूप है, जो अनन्तरूप है; वही ताररूप है, जो ताररूप है; वही शुक्लरूप है, जो शुक्लरूप है; वही सूक्ष्मरूप और जो सूक्ष्मरूप है; वही विद्युत् रूप है, जो विद्युत् रूप है; वही परब्रह्मरूप है, जो परब्रह्मरूप है; वही एकरूप है, जो एकरूप है; वही रुद्ररूप है, जो रुद्ररूप है; वही ईशानरूप है, जो ईशानरूप है; वही भगवान् महेश्वर हैं ।

अथ कस्मादुच्यत ओङ्कारो यस्मादुच्चार्यमाण एव

प्राणानूर्ध्वमुत्क्रामयति तस्मादुच्यते ओङ्कारः ।

अथ कस्मादुच्यते प्रणवः यस्मादुच्चार्यमाण एव

ऋग्यजुःसामाथर्वाङ्गिरसं ब्रह्म ब्राह्मणेभ्यः प्रणामयति

नामयति च तस्मादुच्यते प्रणवः ।

अथ कस्मादुच्यते सर्वव्यापी यस्मादुच्चार्यमाण एव

सर्वांलोकान्व्याप्नोति स्नेहो यथा पललपिण्डमिव

शान्तरूपमोतप्रोतमनुप्राप्तो व्यतिषक्तश्च तस्मादुच्यते सर्वव्यापी ।

अथ कस्मादुच्यतेऽनन्तो यस्मादुच्चार्यमाण एव

तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्चास्यान्तो नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽनन्तः ।

अथ कस्मादुच्यते तारं यस्मादुच्चारमाण एव

गर्भजन्मव्याधिजरामरणसंसारमहाभयात्तारयति त्रायते

च तस्मादुच्यते तारम् ।

ॐकार इस कारण है कि ॐकारका उच्चारण करते समय प्राण ऊपर खींचने पड़ते हैं, इसलिये आप ॐकार कहे जाते हैं । प्रणव कहने का कारण यह है कि इस प्रणव के उच्चारण करते समय ऋक्, यजुः, साम, अथर्व, अंगिरस और ब्रह्मा ब्राह्मण को नमस्कार करने आते हैं, इसलिये प्रणव नाम है । सर्वव्यापी कहने का कारण यह है कि इसके उच्चारण करने के समय जैसे तिलों में तेल व्यापक होकर रहता है, वैसे आप सब लोकों में व्यापक हो रहे हैं अर्थात् शान्तरूप से आप सबमें ओत- प्रोत हैं, इसलिये आप सर्वव्यापी कहलाते हैं । अनन्त कहने का कारण यह है कि उच्चारण करते समय ऊपर, नीचे और अगल-बगल कहीं भी आपका अन्त देखने में नहीं आता, इसलिये आप अनन्त कहलाते हो । तारक कहने का कारण यह है कि उच्चारणके समय पर गर्भ, जन्म, व्याधि, जरा और मरणवाले संसारके महाभयसे तारने और रक्षा करनेवाले हैं इसलिए इनको तारक कहते हैं ।

अथ कस्मादुच्यते शुक्लं यस्मादुच्चार्यमाण एव क्लन्दते

क्लामयति च तस्मादुच्यते शुक्लम् ।

अथ कस्मादुच्यते सूक्ष्मं यस्मादुच्चार्यमाण एव सूक्ष्मो भूत्वा

शरीराण्यधितिष्ठति सर्वाणि चाङ्गान्यमिमृशति तस्मादुच्यते सूक्ष्मम् ।

अथ कस्मादुच्यते वैद्युतं यस्मादुच्चार्यमाण एव व्यक्ते

महति तमसि द्योतयति तस्मादुच्यते वैद्युतम् ।

अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म यस्मात्परमपरं परायणं च

बृहद्बृहत्या बृंहयति तस्मादुच्यते परं ब्रह्म ।

अथ कस्मादुच्यते एकः यः सर्वान्प्राणान्संभक्ष्य

संभक्षणेनाजः संसृजति विसृजति तीर्थमेके व्रजन्ति

तीर्थमेके दक्षिणाः प्रत्यञ्च उदञ्चः

प्राञ्चोऽभिव्रजन्त्येके तेषां सर्वेषामिह सद्गतिः ।

साकं स एको भूतश्चरति प्रजानां तस्मादुच्यत एकः ।

शुक्ल कहनेका कारण यह है कि (रुद्र शब्द के) उच्चारण करने मात्र से व्याकुलता तथा श्रान्ति होती है । सूक्ष्म कहने का कारण यह है कि उच्चारण करने में सूक्ष्मरूप वाले होकर स्थावरादि सब शरीरों में प्रतिष्ठित रहते हैं तथा शरीर के सभी अंगों में व्याप्त रहते हैं । वैद्युत कहने का कारण यह है कि उच्चारण करते ही महान् अज्ञानान्धकाररूप शरीर को प्रकाशित करते हैं, इसलिये वैद्युतरूप कहा है । परम ब्रह्म कहने का कारण यह है कि पर, अपर और परायण का अधिकाधिक विस्तार करते हो, इसलिये आपको परमब्रह्म कहते हैं । एक कहने का कारण यह है कि सब प्राणों का भक्षण करके अजरूप होकर उत्पत्ति और संहार करते हैं । कोई पुण्य तीर्थ में जाते हैं, कोई दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और पूर्वदिशा में तीर्थाटन करते हैं, उन सबकी यही संगति है । सब प्राणियों के साथ में एकरूप से रहते हो, इसलिये आपको एक कहते हैं।

अथ कस्मादुच्यते रुद्रः यस्मादृषिभिर्नान्यैर्भक्तैर्द्रुतमस्य

रूपमुपलभ्यते तस्मादुच्यते रुद्रः ।

अथ कस्मादुच्यते ईशानः यः सर्वान्देवानीशते

ईशानीभिर्जननीभिश्च परमशक्तिभिः ।

अमित्वा शूर णो नुमो दुग्धा इव धेनवः । ईशानमस्य जगतः

स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थिष इति तस्मादुच्यते ईशानः ।

अथ कस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः यस्माद्भक्ता ज्ञानेन

भजन्त्यनुगृह्णाति च वाचं संसृजति विसृजति च

सर्वान्भावान्परित्यज्यात्मज्ञानेन योगेश्वैर्येण महति महीयते

तस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः । तदेतद्रुद्रचरितम् ॥ ४॥

आपको रुद्र क्यों कहते हैं? क्योंकि ऋषियों को आपका दिव्य रूप प्राप्त हो सकता है, सामान्य भक्तों को आपका वह रूप सहज प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये आपको रुद्र कहते हैं । ईशान कहने का कारण यह है कि सब देवताओं का ईशानी और जननी नामकी शक्तियों से आप नियमन करते हो । हे शूर ! जैसे दूध के लिये गाय को रिझाते हैं, वैसे ही आपकी हम स्तुति करते हैं । आप ही इन्द्ररूप होकर इस जगत् के ईश और दिव्य दृष्टि वाले हो, इसलिये आपको ईशान कहते हैं । आपको भगवान् महेश्वर कहते हैं, इसका कारण यह है कि आप भक्तों को ज्ञान से युक्त करते हो, उनके ऊपर अनुग्रह करते हो तथा उनके लिये वाणी का प्रादुर्भाव और तिरोभाव करते हो तथा सब भावों को त्यागकर आप आत्मज्ञान से तथा योग के ऐश्वर्य से अपनी महिमा में विराजते हो, इसलिये आपको भगवान् महेश्वर कहते हैं । ऐसा यह रुद्रचरित है ।

एको ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः ।

स एव जातः जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ।

एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्मै य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।

प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति संचुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा

भुवनानि गोप्ता ।

यो योनिं योनिमधितिष्ठतित्येको येनेदं सर्वं विचरति सर्वम् ।

तमीशानं पुरुषं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ।

क्षमां हित्वा हेतुजालास्य मूलं बुद्ध्या सञ्चितं स्थापयित्वा तु रुद्रे ।

रुद्रमेकत्वमाहुः शाश्वतं वै पुराणमिषमूर्जेण

पशवोऽनुनामयन्तं मृत्युपाशान् ।

तदेतेनात्मन्नेतेनार्धचतुर्थेन मात्रेण शान्तिं संसृजन्ति

पशुपाशविमोक्षणम् ।

या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णेन यस्तां

ध्यायते नित्यं स गच्छेत्ब्रह्मपदम् ।

यही देव सब दिशाओं में रहता है। प्रथम जन्म उसीका है, मध्य में तथा अन्त में वही है । वही उत्पन्न होता है और होगा । प्रत्येक व्यक्तिभाव में वही व्याप्त हो रहा है । एक रुद्र ही किसी अन्य की अपेक्षा न रखते हुए अपनी महाशक्तियों से इस लोक को नियम में रखता है । सब उसमें रहते हैं और अन्त में सबका संकोच उसी में होता है। विश्व को प्रकट करने वाला और रक्षण करने वाला वही है । जो सब योनियों में स्थित है और जिससे यह सब व्याप्त और चैतन्य हो रहा है; उस पूज्य, ईशान और वरददेव का चिन्तन करने से मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त करते हैं । क्षमा आदि हेतुसमूह के मूल का त्याग करके संचित कर्मों को बुद्धि से रुद्र में अर्पित करने से रुद्र के साथ एकता को प्राप्त होता है । जो शाश्वत, पुरातन और अपने बल से प्राणियों के मृत्युपाश का नाश करने वाला है, उसके साथ आत्मज्ञानप्रद अर्ध-चतुर्थ मात्रा से वह कर्म के बन्धन को तोड़ता हुआ परम शान्ति प्रदान करता है । आपकी प्रथम ब्रह्मायुक्त मात्रा रक्तवर्णवाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे ब्रह्मा के पद को प्राप्त होते हैं ।

या सा द्वितीया मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णा वर्णेन

यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम् । या सा

तृतीया मात्रा ईशानदेवत्या कपिला वर्णेन यस्तां

ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम् ।

या सार्धचतुर्थी मात्रा सर्वदेवत्याऽव्यक्तीभूता खं

विचरति शुद्धा स्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते

नित्यं स गच्छेत्पदमनामयम् ।

तदेतदुपासीत मुनयो वाग्वदन्ति न तस्य ग्रहणमयं पन्था

विहित उत्तरेण येन देवा यान्ति येन पितरो येन ऋषयः

परमपरं परायणं चेति ।

वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यम् ।

तमात्मस्थं येनु पश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिर्भवति नेतरेषाम् ।

विष्णुदेवयुक्त आपकी दूसरी मात्रा कृष्णवर्ण वाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे वैष्णवपद को प्राप्त होते हैं। आपकी ईशानदेवयुक्त जो तीसरी मात्रा है, वह पीले वर्णवाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे ईशान यानी रुद्रलोक को प्राप्त होते हैं । अर्धचतुर्थ मात्रा, जो अव्यक्तरूपमें रहकर आकाश में विचरती है, उसका वर्ण शुद्ध स्फटिक के समान है, जो उसका ध्यान करते हैं, उनको मोक्षपद की प्राप्ति होती है । मुनि कहते हैं कि इस चौथी मात्रा की ही उपासना करनी चाहिये । जो इसकी उपासना करता है, उसको कर्मबन्ध नहीं रहता । यही वह मार्ग है जिस उत्तरमार्ग से देव जाते हैं, जिससे पितृ जाते हैं और जिस उत्तरमार्ग से ऋषि जाते हैं; वही पर, अपर और परायण मार्ग है । जो बालके अग्रभाग के समान सूक्ष्मरूप से हृदय में रहता है; जो विश्वरूप, देवरूप, सुन्दर और श्रेष्ठ है; जो विवेकी पुरुष हृदय में रहने वाले इस परमात्मा को देखते हैं, उनको ही शान्तिभाव प्राप्त होता है, दूसरेको नहीं ।

यस्मिन्क्रोधं यां च तृष्णां क्षमां चाक्षमां हित्वा

हेतुजालस्य मूलम् ।

बुद्ध्या संचितं स्थापयित्वा तु रुद्रे रुद्रमेकत्वमाहुः ।

रुद्रो हि शाश्वतेन वै पुराणेनेषमूर्जेण तपसा नियन्ता ।

अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म

व्योमेति भस्म सर्वंह वा इदं भस्म मन एतानि

चक्षूंषि यस्माद्व्रतमिदं पाशुपतं यद्भस्म नाङ्गानि

संस्पृशेत्तस्माद्ब्रह्म तदेतत्पाशुपतं पशुपाश विमोक्षणाय ॥ ५॥

क्रोध, तृष्णा, क्षमा और अक्षमा से दूर होकर हेतुसमूह के मूलरूप अज्ञान का त्याग करके संचित कर्मों को बुद्धि से रुद्र में अर्पण कर देने से रुद्र में एकता को प्राप्त होते हैं । रुद्र ही शाश्वत और पुराणरूप होने से अपने तप और बल से रसादि सब प्राणि-पदार्थों का नियन्ता है । अग्नि, वायु, जल, स्थल और आकाश-ये सब भस्मरूप हैं । पशुपति की भस्म का जिसके अंग में स्पर्श नहीं होता, उसका मन और इन्द्रियाँ भस्मरूप यानी निरर्थक हैं, इसलिये पशुपति की ब्रह्मरूप भस्म पशु के बन्धन का नाश करने वाली है ।

योऽग्नौ रुद्रो योऽप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश । य इमा

विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोऽस्त्वग्नये ।

यो रुद्रोऽग्नौ यो रुद्रोऽप्स्वन्तर्यो ओषधीर्वीरुध आविवेश ।

यो रुद्र इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोनमः ।

यो रुद्रोऽप्सु यो रुद्र ओषधीषु यो रुद्रो वनस्पतिषु । येन

रुद्रेण जगदूर्ध्वंधारितं पृथिवी द्विधा त्रिधा धर्ता

धारिता नागा येऽन्तरिक्षे तस्मै रुद्राय वै नमोनमः ।

जो रुद्र अग्निमें है, जो रुद्र जलके भीतर है, उसी रुद्र ने औषधियों और वनस्पतियों में प्रवेश किया है । जिस रुद्र ने इस समस्त विश्वको उत्पन्न किया है, उस अग्निरूप रुद्र को नमस्कार है । जो रुद्र अग्नि में, जल के भीतर, औषधियों और वनस्पतियों में स्थित रहता है और जिस रुद्र ने इस समस्त विश्व को और भुवनों को उत्पन्न किया उस रुद्र को बारम्बार प्रणाम है । जो रुद्र जलमें, ओषधियोंमें और वनस्पतियोंमें स्थित है, जिस रुद्रने ऊर्ध्व जगत्‌को धारण कर रखा है, जो रुद्र शिवशक्तिरूपसे और तीन गुणोंसे पृथ्वीको धारण करता है, जिसने अन्तरिक्ष में नागों को धारण किया है, उस रुद्रको बार-बार नमस्कार है।

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत् ।

मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः ।

तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्झितः ।

तत्प्राणोऽभिरक्षति शिरोऽन्तमथो मनः ।

न च दिवो देवजनेन गुप्ता न चान्तरिक्षाणि न च भूम इमाः ।

यस्मिन्निदं सर्वमोतप्रोतं तस्मादन्यन्न परं किञ्चनास्ति ।

न तस्मात्पूर्वं न परं तदस्ति न भूतं नोत भव्यं यदासीत् ।

सहस्रपादेकमूर्ध्ना व्याप्तं स एवेदमावरीवर्ति भूतम् ।

इस (भगवान् रुद्र) के प्रणवरूप मस्तक की उपासना करने से अथर्वाऋषि को उच्च स्थिति प्राप्त होती है । यदि इस प्रकार उपासना न की जाय तो निम्न स्थिति प्राप्त होती है । भगवान् रुद्र का मस्तक देवों का समूहरूप व्यक्त है, उसका प्राण और मन मस्तक का रक्षण करता है । देवसमूह, स्वर्ग, आकाश अथवा पृथिवी किसी का भी रक्षण नहीं कर सकते । इस भगवान् रुद्र में सब ओत-प्रोत है । इससे परे कोई अन्य नहीं है, उससे पूर्व कुछ नहीं है; वैसे ही उससे परे कुछ नहीं है, हो गया और होने वाला भी कुछ नहीं है । उसके हजार पैर हैं, एक मस्तक है और वह सब जगत् में व्याप्त हो रहा है ।

अक्षरात्संजायते कालः कालाद्व्यापक उच्यते ।

व्यापको हि भगवान्रुद्रो भोगायमनो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः ।

उच्छ्वासिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते

मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं

भवत्यण्डाद्ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कारः

ॐकारात्सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति ।

अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्भुवम् ।

एतद्धि परमं तपः ।

आपोऽज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरो नम इति ॥ ६॥

अक्षर से काल उत्पन्न होता है, कालरूप होने से उसको व्यापक कहते हैं । व्यापक तथा भोगायमान् रुद्र जब शयन करते है, तब प्रजाका संहार होता है । जब वह श्वाससहित होता है, तब तम होता है, तमसे जल (आप) होता है, जल में अपनी अँगुली द्वारा मन्थन करने से वह जल शिशिर ऋतु के द्रव (ओस)-रूप होता है, उसका मन्थन करने से उसमें फेन होता है, फेन से अण्डा होता है, अण्डे से ब्रह्मा होता है, ब्रह्मा से वायु होता है, वायुसे ॐकार होता है। ॐकार से सावित्री होती है, सावित्रीसे गायत्री होती है और गायत्रीसे सब लोक होते हैं। फिर लोग तप तथा सत्य की उपासना करते हैं, जिससे शाश्वत अमृत बहता है । यही परम तप है । यही तप जल, ज्योति, रस, अमृत, ब्रह्म, भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक और प्रणव है ।

य इदमथर्वशिरो ब्राह्मणोऽधीते अश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति

अनुपनीत उपनीतो भवति सोऽग्निपूतो भवति ।

स वायुपूतो भवति स सूर्यपूतो भवति स सोमपूतो भवति ।

जो कोई ब्राह्मण इस अथर्वशीर्ष का पारायण करता है वह अश्रोत्रिय हो तो श्रोत्रिय हो जाता है, अनुपनीत (उपनयन संस्कार से विहीन) हो तो उपनीत हो जाता है। वह अग्निपूत (अग्नि से पवित्र) वायुपूत सूर्यपुत और सोमपूत होता है ।

स सत्यपूतो भवति स सर्वपूतो भवति स

सर्वेर्देवैर्ज्ञातो भवति स

सर्वैर्वेदैरनुध्यातो भवति स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो

भवति तेन सर्वैः क्रतुभिरिष्टं भवति गायत्र्याः

षष्टिसहस्राणि जप्तानि भवन्ति इतिहासपुराणानां

रुद्राणां शतसहस्राणि जप्तानि भवन्ति ।

प्रणवानामयुतं जप्तं भवति । स चक्षुषः पङ्क्तिं पुनाति ।

आ सप्तमात्पुरुषयुगान्पुनातीत्याह भगवानथर्वशिरः

सकृज्जप्त्वैव शुचिः स पूतः कर्मण्यो भवति ।

द्वितीयं जप्त्वा गणाधिपत्यमवाप्नोति ।

तृतीयं जप्त्वैवमेवानुप्रविशत्यों सत्यमों सत्यमों सत्यम् ॥ ७॥

वह सत्यपूत और सर्वपूत होता है । वह सब देवों से जाना हुआ और सब वेदों से ध्यान किया हुआ होता है । वह सब तीर्थों में स्नान किया हुआ होता है, उसको सब यज्ञों का फल मिलता है । साठ हजार गायत्री के जप का तथा इतिहास और पुराणों के अध्ययन का एवं रुद्र के एक लाख जप का उसको फल प्राप्त होता है, दस सहस्त्र प्रणव के जप का फल उसको मिलता है। उसके दर्शन से मनुष्य पवित्र होता है । वह पूर्व में हुए सात पीढ़ी को तारता है । भगवान् कहते हैं कि इसका एक बार जप करने से पवित्र होता है और कर्म का अधिकारी होता है । दूसरी बार जपने से गणों का अधिपतित्व प्राप्त करता है और तीसरी बार जप करने से सत्यस्वरूप ॐकार में उसका प्रवेश होता है ॥ ७ ॥

इत्युपनिषत् ॥

इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या है ।

इस प्रकार भगवान् शिव से सम्बंधित इस महाविद्या को बताया गया । यह विद्या साधक का सर्वविध कल्याण करने वाली है एवं मोक्ष प्रदान कराने वाली है ।

शिवाथर्वशीर्षम्  

ॐ भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥

॥ इत्यथर्वशिरोपनिषत्समाप्ता ॥ 

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