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कर्मकाण्ड

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श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम्

श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम्

श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम् या गणपत्युपनिषद् या गणपति उपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। श्रीगणेशजी की आराधना बहुत मंगलकारी मानी जाती है। अनेक श्लोक, स्तोत्र, जाप,पूजन द्वारा गणेशजी को मनाया जाता है। इनमें से एक पाठ 'गणपति अथर्वशीर्ष' बहुत मंगलकारी है। प्रतिदिन प्रात: शुद्ध होकर इस पाठ करने से गणेशजी की कृपा अवश्य प्राप्त होती है।
श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम्

गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद्

Ganapatyatharvashirsham

॥ श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम्॥

॥शान्तिपाठ॥

ॐ भद्रं कर्णेभि शृणुयाम देवा: भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: ।

स्थिरैरंगै स्तुष्टुवां सहस्तनुभि: व्यशेम देवहितं यदायु: ॥

'हे देवगण ! ( यज्ञ में व्रती होकर ) हम कानों से भद्र ( मङ्गलमय ) शब्द सुनें । यज्ञ में व्रती होकर हम आँखों से भद्र ( मङ्गलमय ) रूप का दर्शन करें। सुस्थिर अङ्गों तथा शरीरों द्वारा तुम्हारा स्तवन करते हुए हम देववृन्द के लिये जो हितकर आयु हो, उसका उपभोग करें।

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा: ।

स्वस्ति नस्ताक्ष्योंऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शांति: शांति: शांति: ।।

'बढ़े हुए सुयशवाले जो इन्द्र हैं, वे हमारे लिये मङ्गलमय हो । सर्वज्ञ पूषा (सूर्य) हमारे लिये मङ्गलमय हों । तार्क्ष्य, अजेय (अप्रतिहत-शक्ति) गरुड़ हमारे लिये मङ्गलमय हो । बृहस्पति हमारे लिये मङ्गलमय हो । हमारे त्रिविध ताप की शान्ति हो ।

श्रीगणपत्यथर्वशीर्षोपनिषत्

श्रीगणेशाय नमः।।

अथ श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम्

ॐ नमस्ते गणपतये । त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि ।

त्वमेव केवलं कर्तासि । त्वमेव केवलं धर्तासि ।

त्वमेव केवलं हर्तासि । त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ।

त्वं साक्षादा- त्मासि नित्यम् ॥ १ ॥

आप गणपति को नमस्कार है। तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो । तुम्हीं केवल कर्ता, तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो। तुम्हीं केवल यह समस्त विश्वरूप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो ।

ऋतं वच्मि । सत्यं वच्मि ॥ २ ॥

यथार्थ कहता हूँ । सत्य कहता हूँ ।"

अव त्वं माम् । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् ।

अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमत्र शिष्यम् ।

अत्र पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् ।

अत्र दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात् । अवाधस्तात् ।

सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥ ३ ॥

'तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडङ्गवेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य की रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर (वाम) भाग की रक्षा करो । दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर रो रक्षा करो। सर्वतोभाव से मेरी रक्षा करो । सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो ।

त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः । त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्म- मयः ।

त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि । त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥ ४ ॥

'तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो । तुम आनन्दमय हो, तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो ।'

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते । सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ।

सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति । सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ।

स्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः । त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥ ५ ॥

"यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है । यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है । यह सारा जगत् तुममें लीन होगा। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है । तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो । तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् हो ।

त्वं गुणत्रयातीतः । त्वं देहत्रयातीतः । एवं काल- त्रयातीतः ।

त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् । त्वं शक्ति त्रयात्मकः ।

त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ।

त्वं ब्रह्मा एवं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं

वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्र- स्त्वं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ॥ ६ ॥

'तुम सत्त्व-रज-तम- इन तीनों गुणों से परे हो । तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण - इन तीनों देहों से परे हो। तुम भूत-भविष्यत् - वर्तमान इन तीनों कालों से परे हो । तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति और मन्त्र- शक्ति - इन तीनों शक्तियों से संयुक्त हो । योगीजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अभि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चन्द्रमा हो, तुम ( सगुण ) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हों ।'

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम् ।

अनुस्वारः परतरोऽर्देन्दुलसितं तारेण रुदम् एतत्तव मनुस्वरूपम् ।

गकारः पूर्वरूपम् । अकारो मध्यमरूपम् । अनुस्वारश्चान्त्य- रूपम् ।

बिन्दुरुत्तररूपम् । नादः संधानम् । संहिता संधिः सैषा गणेशविद्या ।

गणक ऋषिः, निचृद् गायत्रीछन्दः, गणपतिर्देवता । ॐ गं गणपतये नमः ॥ ७ ॥

पाण-शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करे। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्र से शोभित जो गं है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो । यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरूप ( ॐ गं ॐ) है। गकार' पूर्वरूप है, 'अकार' मध्यमरूप है, 'अनुस्वार' अन्त्यरूप है। 'बिन्दु' उत्तररूप है, 'नाद' संधान है, 'संहिता' संधि है। ऐसी यह गणेशविद्या है । इस विद्या के गणक ऋषि हैं, निचृद्-गायत्री छन्द है और गणपति देवता हैं । मन्त्र है— (ॐ गं गणपतये नमः ) ।

एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।

तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥ ८ ॥

'एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें ।

पाशमङ्कुशधारिणम् । एकदन्तं चतुर्हस्तं रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम् ॥

रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् । रक्तगन्धानुलिप्ताङ्ग रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ॥

भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् । आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात् परम् ॥

एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥ ९ ॥

गणपति देव एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अङ्कुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अङ्ग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित है । भक्त की कामना पूर्ण करनेवाले, ज्योतिर्मय, जगत्के कारण, अच्युत, तथा प्रकृति और पुरुष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए । इनका जो इस प्रकार नित्य ध्यान करता है, वह योगी योगियों में श्रेष्ठ है।

नमो व्रातपतये । नमो गणपतये नमः । प्रमथपतये नमस्ते ।

अस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय

विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरद- मूर्तये नमः ॥ १० ॥

'व्रातपति को नमस्कार, गणपति को नमस्कार । प्रमथ- पति को नमस्कार, लम्बोदर और एकदन्त को नमस्कार हो । विघ्ननाशक, शिवतनय श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार हो ।

एतदथर्वशीर्षं योऽधीते । स ब्रह्मभूयाय कल्पते । स सर्वतः सुखमेधते ।

स सर्वविन्नैनं बाध्यते । स सर्व- महापापात्प्रमुच्यते ।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायं प्रातः प्रयुञ्जानोऽपापो भवति ।

सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति ।

इदमथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम् । यदि मोहाद् दास्यति, स पापीयान् भवति ।

सहस्रावर्तनाद् यं यं काममवीते तं तमनेन साधयेत् ॥ ११ ॥

"इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है । वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों- से बाधित नहीं होता। वह समस्त महापातकों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पाप का नाश करता है, प्रातःकाल में अध्ययन करनेवाला रात्रिकृत पाप का नाश करता है । सायं और प्रातःकाल पाठ करनेवाला निष्पाप हो जाता है। सर्वत्र अध्ययन करनेवाला विघ्नशून्य हो जाता है और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को प्राप्त करता है । यह अथर्वशीर्ष उसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को भी इसका उपदेश देगा, वह महापापी होगा । इसकी एक हजार आवृत्ति करने से उपासक जो-जो कामना चाहेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा ।"

अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति ।

चतुर्ष्या- मनमनू जपति स विद्यावान् भवति । इत्यथर्ववाक्यम् ।

ब्रह्माद्यावरणं - विद्यान्न बिभेति कदाचनेति ॥ १२ ॥

''जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास करके जप करता है, वह विद्यावान् ( अध्यात्मविद्याविशिष्ट) हो जाता है। यह अथर्व - वाक्य है । जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता ।

यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।

यो काजैयजति स यशोवान् भवति, स मेधावान् भवति ।

यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वान्छित फलमवाप्नोति ।

यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्व लभते स सर्व लभते ।

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ।

सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति ।

महाविघ्नात्प्रमुच्यते । महादोषात् प्रमुच्यते ।

महाप्रत्यवायात् प्रमुच्यते । स सर्वविद्भवति ।

स सर्वविद्भवति । य एवं वेद । इत्युपनिषद् ॥ १३ ॥

जो दूर्वाङ्कुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है । जो लाजा के द्वारा होम करता है, वह यशस्वी होता है, मेधावान् होता है । जो सहस्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा होम करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, सब कुछ प्राप्त करता है । जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक् ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेजः सम्पन्न होता है । सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है । सारे महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महान् दोषों से मुक्त हो जाता है। महापातक से मुक्त हो जाता है । वह सर्वविद् हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है ।

इत्युपनिषद् ।

गणपत्युपनिषत्

श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम्

॥शान्तिपाठ॥

ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥

हे परमात्मन् ! आप इस दोनों शिष्य और आचार्य की साथ-साथ रक्षा करें। हे परमात्मन् ! आप हम दोनों- शिष्य और आचार्य को अपना अभेदानन्द-भोग प्राप्त करावें । हे परमात्मन्! आप हम दोनों को निदिध्यासन, ध्यान और समाधि की सामर्थ्य प्रदान करें । हमारी अधीत विद्या तेजस्विनी हो,, हम दोनों आचार्य और शिष्य के बीच कभी विद्वेष न हो। त्रिविध दुःख शान्त हों ।

ॐ भद्रं कर्णेभि शृणुयाम देवा: भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: ।

स्थिरैरंगै स्तुष्टुवां सहस्तनुभि: व्यशेम देवहितं यदायु: ॥

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा: ।

स्वस्ति नस्ताक्ष्योंऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शांति: शांति: शांति: ।।

इसका भावार्थ सीतोपनिषत् में देखें।

अथर्ववेदीय श्रीगणपत्यथर्वशीर्षम् समाप्त ।।

इस प्रकार गणपत्यथर्वशीर्षं उपनिद्' पूर्ण हुआ ।

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