अद्भुत रामायण सर्ग १४

अद्भुत रामायण सर्ग १४

अद्भुत रामायण सर्ग १४ में रामचन्द्र और महावीरजी का संवाद वर्णन किया गया है। सर्ग ११ से सर्ग १४ तक को रामगीता कहा जाता है।

अद्भुत रामायण सर्ग १४

अद्भुत रामायणम् चतुर्दश: सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 14

अद्भुत रामायण चौदहवाँ सर्ग

अद्भुतरामायण चतुर्दश सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग १४ रामगीता- राम हनुमान संवाद

अथ अद्भुत रामायण सर्ग १४  

सर्वलोकैकनिर्माता सर्वलोकैकरक्षिता ॥

सर्वलोकैकसंहर्ता सर्वात्माहं सनातनः ॥ १ ॥

सब लोकों का निर्माण करनेवाला सब लोक का रक्षक, सर्वलोक का संहारकर्त्ता, सर्वात्मा, सनातन मैं हूँ ।। १ ।

सर्वेषामेव वस्तूनामंतर्यामी पिता ह्यहम् ॥

मय्येवान्तः स्थितं सर्वं नाहं सर्वत्र संस्थितः ॥ २ ॥

सब वस्तुओं का अन्तर्यामी पिता हूँ मेरे अन्तःकरण में सब स्थित हैं मैं नहीं ॥ २ ॥

भवता चाद्भुते दृष्टं यत्स्वरूपं तु मामकम् ।।

ममैषा हचुपमा वत्स मायया दर्शिता मया ॥ ३ ॥

तुमने जो मेरा अद्भुतरूप देखा है हे वत्स ! माया द्वारा मैंने ही यह रूप निर्माण किया है ।। ३ ।।

सर्वेषामेव भावानामंतरा समवस्थितः ॥

प्रेरयामि जगत्सर्वं क्रियाशक्तिरियं मम ॥ ४ ॥

सब भावों के अन्तर में मैं ही स्थित हूँ, सब जगत्‌ को मैं प्रेरणा करता हूँ, यह मेरी क्रियाशक्ति है ।। ४ ।।

ययेदं चेष्टते विश्वं मत्स्वभावनुर्वात च ।।

सोऽहं काले जगत्कृत्स्नं करोमि हनुमन् किल ।। ५ ।।

यह जगत् मेरे द्वारा चेष्टा किया जाता है और मेरे स्वभाव का अनुवर्तन करनेवाला है, हे हनुमन् ! सो मैं समय पर सब जगत्‌ को निर्माण करता हूँ ।। ५ ।।

संहराम्येकरूपेण द्विधावस्था ममैव तु ।

आदिमध्यांतनिर्मुक्तो मायातत्त्व प्रवर्तकः ॥ ६ ॥

एक रूप से कहता हूँ, यह दो प्रकार से मेरी ही अवस्था है, आदि मध्य अन्तर से रहित तत्त्व का प्रवृत्त करनेवाला मैं ही हूँ ।। ६ ॥

क्षोभयामि च सर्गादौ प्रधानपुरुषावुभौ ।।

ताभ्यां संजायते सर्वं संयुक्ताभ्यां परस्परम् ।। ७ ।।

सृष्टि की आदि में मैं प्रधान और पुरुष को क्षुभित करता हूँ, उनके परस्पर संयुक्त होने से यह जगत् होता है ।।७।।

महदादिक्रमेणैव मम तेजो विजूभितम् ॥

यो हि सर्वजगत्साक्षी कालचक्रप्रवर्तकः ॥ ८ ॥

महदादि के क्रम से यह मेरा तेज फैल रहा है, जो सब जगत्का साक्षी कालचक्र का प्रवृत्त करनेवाला है ।। ८ ।।

हिरण्यगर्भो मार्तंडः सोऽपि मद्देहसंभवः ।

तस्मै दिव्यं स्वमैश्वयं ज्ञानयोगं सनातनम् ।। ९ ।।

हिरण्यगर्भ मार्तण्ड है वह मेरे देह से प्रगट है, उसको मैंने अपना दिव्य ऐश्वर्य को सनातन ज्ञानयोग ।। ९ ।।

दत्तवानात्मजावेदान् कल्पादौ चतुरः किल ॥

स मन्नियोगतो ब्रह्मा सदा भद्भाव भावितः ॥ १० ॥

और कल्प की आदि में चारों वेदों को दिया है, वह मन्नियोग से भगवान् सदा सद्भाव में स्थित हुए ।। १० ।।

दिव्यं तन्मामकैश्वर्यं सर्वदा वहति स्वयम् ॥

स सर्वलोक निर्माता मन्नियोगेन सर्ववित् ॥ ११ ॥

उस मेरे दिव्य ऐश्वर्य को सदा धारण करते हैं, यह सबके निर्माता सबके ज्ञाता मेरी आज्ञा से ।। ११ ।।

भूत्वा चतुर्मुखः सर्व सृजत्येवात्मसंभवः ॥

योऽपि नारायणोनन्तो लोकानां प्रभवाव्ययः ॥ १२ ॥

चतुर्मुखी होकर सृष्टि को निर्माण करते हैं, जो नारायण अनन्त लोकों के प्रभु अविनाशी हैं ।। १२ ।।

ममैव परमा मूर्तिः करोति परिपालनम् ॥

योऽन्तकः सर्वभूतानां रुद्रः कालात्मकः प्रभुः ॥ १३ ॥

वह मेरी ही परमा मूर्ति होकर जगत्‌ का पालन करते हैं, जो सब भूतों का अन्तक रुद्र कालात्मा प्रभु है ।। १३ ।।

नवाज्ञयाऽसौ सततं संहरत्येव मे तनुः ॥

हव्यं वहति देवानां कव्यं कव्याशिनामपि ॥ १४ ॥

वह मेरा शरीर मेरी आज्ञा से ही यह सब संहार करता है, देवताओं के निमित्त हव्य वहन करता हुआ ।। १४ ।।

पाकं च कुरुते वह्निः सोऽपि मच्छक्तिचोदितः ॥

भुक्तमाहारजातं यत्पचत्येतदहनशम् ।। १५ ।।

अग्नि जो पाक करता है वह भी मेरी शक्ति से प्रेरित हुआ करता है, जो कुछ भोजन किया आहार है मेरे बल से जठराग्नि उसे पचाती है ।। १५ ।।

वैश्वानरोऽग्निर्भगवानीश्वरस्य नियोगतः ।

यो हि सर्वाभसां योनिर्वरुणो देवपुंगवः ॥ १६ ॥

भगवान् वैश्वानर अग्नि मेरी आज्ञा से यह करता है, जो सम्पूर्ण जलों की योनि वरुणदेवता है ।। १६ ।।

स संजीवयते सर्वमीशस्यैव नियोगतः ॥

योऽन्तस्तिष्ठति भूतानां बहिर्देवो निरंजनः ॥ १७ ॥

वह ईश के नियोग से ही सबको संजीवित करता है जो निरंजन देव जीवों के बाहर भीतर स्थित है ।। १७ ।।

मदाज्ञयासौ भूतानां शरीराणि बिर्भात हि ॥

योऽपि संजीवनो नृणां देवानाममृताकरः ॥ १८ ॥

मेरी ही आज्ञा से यह प्राणियों के शरीर को भरण पोषण करता है जो देवताओं के संजीवन में अमृत रूप है।।१८।।

सोमः स मन्नियोगेन चोदितः किल वर्तते ॥

यः स्वभासा जगत्कृ त्स्नं प्रकाशयति सर्वदा ।। १९ ।।

चन्द्रमा मेरे ही आज्ञा से वर्तता है, जो स्वभाव से सारे जगत्को प्रवृत्त कर देता है ।। १९ ।।

सूर्यो वृष्टि वितनुते शास्त्रेणैव स्वयंभुवः ॥

योऽप्यशेषजगच्छास्ता शक्रः सर्वामरेश्वरः ॥ २० ॥

सूर्य ब्रह्माजी की आज्ञा से वृष्टि करता है, जो संपूर्ण जगत्का शास्ता नियम से साधुतापूर्वक वर्तता है, सब देवताओं का अधिपति है ।। २० ।

यज्ञानां फलदो देवो वर्ततेऽसौ मदाज्ञया ॥

यः प्रशास्ता हासाधूनां वर्तते नियमादिह ॥ २१ ॥

वह देव यज्ञों के फल का देनेवाला मेरी आज्ञा से वर्तता है, असाधुओं का शास्ता नियम से वर्तता है ।। २१ ।।

यमो वैवस्वतो देवो देवदेवनियोगत ॥

योऽपि सर्वधनाध्यक्षोधनानां संप्रदायकः ॥ २२ ॥

वैवस्वत यमदेव मेरी ही आज्ञा से वर्तता है, जो सम्पूर्ण धनाध्यक्ष और धनों के देनेवाले हैं ।। २२ ।।

सोऽपीश्वरनियोगेन कुबेरो वर्तते सदा ।।

यः सर्व रक्षसां नाथस्तापसानां फलप्रदः ॥ २३ ॥

वह कुवेर भी ईश्वर की आज्ञा से सदा वर्तता है जो सम्पूर्ण राक्षसों का नाथ तपस्वियों का फल देनेवाला है।।२३।।

मन्नियोगादसौ देवो वर्तते निर्ऋतिः सदा ॥

वैतालगणभूतानां स्वामी भोगफलप्रदः ॥ २४ ॥

वह निर्ऋति भी सदा मेरी आज्ञा से वर्तता है, वेतालगण भूतों का स्वामी भोगफल देनेवाला है ।। २४ ।।

ईशानः सर्वभक्तानां सोऽपि तिष्ठन्ममाज्ञया ।।

यो बामदेवोंगिरसः शिष्यो रुद्रगणान्रणीः ।। २५ ।।

सब भक्तों के ईशान भी मेरी आज्ञा से वर्तता है, जो वामदेव आंगिरस रुद्रगणों का अग्रणी शिष्य है ।। २५ ।।

रक्षको योगिनां नित्यं वर्ततेऽसौ मदाज्ञया ॥

यश्च सर्वजगत्पूज्यो वर्तते विघ्नकारकः ॥ २६ ॥

नित्य योगियों का रक्षक है वह भी मेरी आज्ञा से वर्तता है, जो सर्व जगत्‌ के पूज्य विघ्नकारक गणेशजी हैं ।।२६।।

विनायको धर्मनेता सोऽपि मद्वचनात्किल ॥

योऽपि वेदविदा श्रेष्ठो देवसेनापतिः प्रभुः ।। २७ ।।

विनायक धर्मनेता है वह भी मेरी आज्ञा से वर्तता है, जो वेद जाननेवालों में श्रेष्ठ देवताओं के सेनापति प्रभु हैं ।। २७ ।।

स्कंदोऽसौ वर्तते नित्यं स्वयंभू प्रतिचोदितः ।

ये च प्रजानां पतयो मरीच्याद्या महर्षयः ॥ २८ ॥

वह स्कन्द भी प्रभु की आज्ञा में ही वर्तते हैं, जो प्रजाओं के पति मरीच्यादि महर्षि हैं ।। २८ ।।

सृजति विविधं लोकं परस्यैव नियोगतः ॥

या च श्रीः सर्वभूतानां ददाति विपुलां श्रियम् ॥ २९ ॥

विविध लोक नारायण की आज्ञा से ही रचते हैं, जो लक्ष्मी सब भूतों को महाश्री देती है ।। २९ ।।

पत्नी नारायणस्यासौ वर्तते मदनुग्रहात् ॥

वाचं ददाति विपुलां या च देवी सरस्वती ॥ ३० ॥

वह नारायण की पत्नी मेरी आज्ञा से वर्तती है, जो देवी सरस्वती विपुल वाणी देती है ।। ३० ॥

सापीश्वरनियोगेन चोदिता संप्रवर्तते ।

याऽशेष पुरुषाघोरान्नरकात्तारयत्यपि ॥ ३१ ॥

वह भी ईश्वर के नियोग से प्रेरित हो वर्तती है जो अनेक पुरुषों को नरक से तारती है ।। ३१ ।।

सावित्री संस्मृता देवी देवाज्ञानुविधायिनी ॥

पार्वती परमा देवी ब्रह्मविद्याप्रदायिनी ।। ३२ ।।

वह सावित्री देवी वशीभूत होती है जो पार्वती परमादेवी ब्रह्मविद्या की विधान करनेवाली है ।। ३२ ।।

यापि ध्याता विशेषेण सापि मद्वच नानुगा ।

योऽनंतो महिमानंतः शेषोऽशेषा ऽमरप्रभुः ।। ३३ ।।

ध्यान करनेवालों को फल मेरे ही आज्ञा से देती है जो अनन्त महिमावाले शेषजी देवाधिपति हैं । । ३३॥

दधाति शिरसा लोकं सोऽपि देवनियोगतः ॥

योऽग्निः संवर्तको नित्यं वडवारूपसंस्थितः ॥ ३४ ॥

वह भी देवदेव की आज्ञा से पृथ्वी को शिर पर धारण करते हैं जो नित्य संवर्तक अग्नि वडवारूप से स्थित है ।। ३४ ॥

पिबत्यखिलमंभोधिमीश्वरस्य नियोगत ।  

आदित्या वसवो रुद्रा मरुतश्च तथाश्विनौ ॥३५॥

वह भी ईश्वर ही की आज्ञा से सब सागर को शोषता है, आदित्य वसु रुद्र मरुत अश्विनीकुमार ।। ३५ ।।

अन्याश्च देवताः सर्वा मच्छासनमधिष्ठिताः ।

गंधर्वा उरगा यक्षाः सिद्धाः साध्याश्च चारणाः ॥ ३६ ॥

और भी सब देवता मेरे शासन में स्थित रहते हैं, गन्धर्व उरग यक्ष सिद्ध साध्य चारण ।। ३६ ।।

भूतरक्षःपिशाचाश्च स्थिताः शास्त्रे स्वयंभुवः ।

कलाकाष्ठानिमेषाश्च मुहूर्ता दिवसाः क्षणाः ॥ ३७ ॥

भूत राक्षस पिशाच सब स्वयंभू की आज्ञा में स्थित हैं कला काष्ठा निमेष मुहूर्त दिवस ।। ३७ ।।

ऋत्वब्दमासपक्षाश्च स्थिताः शास्त्रे प्रजापते ।

युग॑मन्वंतराण्येव ममतिष्ठति शासने ॥ ३८ ॥

ऋतु वर्ष महीना पखवारा युग मन्वतर सब परमात्मा के शासन में स्थित हैं ।। ३८ ।।

पराश्चैव परार्द्धाश्चि कालभेदास्तथापरे ।।

चतुविधानि भूतानि स्थावराणि चराणि च ।। ३९ ।।

परा परार्द्ध जितने काल के भेद हैं, चार प्रकार के भूत स्थावर चर ।। ३९ ।।

नियोगादेव वर्तते सर्वाण्येव स्वयंभुवः ॥

पत्तनानि च सर्वाणि भुवनानि च शासनात् ॥ ४० ॥

सब स्वयंभू के नियोग से वर्तते हैं, सब पत्तन और भुवन उसी की आज्ञा से वर्तते हैं ।। ४० ।।

ब्रह्मांडानि च वर्तते देवस्य परमात्मनः ॥

अतीतान्यप्यसंख्यानि ब्रह्मांडानि महाज्ञया ॥ ४१ ॥

असंख्य ब्रह्माण्ड भी उस परमात्मा की आज्ञा से ही वर्तते हैं ।। ४१ ।।

प्रवृत्तानि पदाथाँधेः सहितानि समंततः ॥

ब्रह्मांडानि भविष्यंति सह वस्तुभिरात्मगैः ॥ ४२ ॥

सब प्रवृत्त हुए पदार्थ समहों के साथ ब्रह्मांड अपनी २ वस्तुओं के साथ होते हैं ।। ४२ ।।

हरिष्यंति सहैवाज्ञां परस्य परमात्मनः ।

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।। ४३ ॥

वह सब परमात्मा की आज्ञा को वहन करते हैं, भूमि जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि ।। ४३ ।।

भूतादिरादिप्रकृतिनियोगान्मम वर्तते ॥

याsशेषसर्वजगतां मोहिनी सर्वदेहिनाम् ॥ ४४ ॥

भूतादि आदि प्रकृति यह सब मेरी आज्ञा से ही वर्तते हैं, जो सम्पूर्ण जगत् और देहधारियों की मोहिनी है ।।४४।।

मायापि वर्तते नित्यं सापीश्वरनियोगतः ।

विधूय मोहकलिलं यथा पश्यति तत्पदम् ॥ ४५ ॥

माया भी नित्य ईश्वर की आज्ञा से वर्तती है जिसके द्वारा मोह को दूर कर तत्पद देखा जाता है ।। ४५ ।।

सापि विद्या महेशस्य नियोगाद्वशवतिनी ।

बहुनात्र किमुक्तेन मम शक्त्यात्मकं जगत् ॥ ४६ ॥

यह विद्या महेश के नियोग से वशवर्तिनी है, बहुत कहने से क्या है यह जगत् मेरी शक्त्यात्मक हैं ।। ४६ ।।

मयैव पूर्यते विश्वं मय्यैव प्रलयं व्रजेत् ।।

अहंहि भगवानीशः स्वयंज्योतिः सनातनः ।। ४७ ।।

मुझसे यह जगत् पूर्ण होकर अन्त में लय कर लिया जाता है, मैं ही भगवान् ईश स्वयंजोति सनातन हूँ ।। ४७ ।।

परमात्मा परंब्रह्म मत्तो ह्यन्यन्न विद्यते ।

इत्येतत्परमं ज्ञानं भवते कथितं मया ॥ ४८ ॥

परमात्मा परब्रह्म हूँ मुझसे अधिक कोई नहीं है यह तुमको परज्ञान मैंने कथन किया है ।। ४८ ॥

ज्ञात्वा विमुच्यते जंतुर्जन्म संसारबंधनात् ॥

मायामाश्रित्य जातोऽहं गृहे दशरथस्य हि ।। ४९ ।।

इसको जानकर प्राणी संसार के जन्म मरण से छूट जाता है, माया के आश्रित हो, मैं दशरथ के यहां जन्म ले आया हूँ ।। ४९ ।।

रामोऽहं लक्ष्मणो ह्येष शत्रुघ्नो भरतोऽपि च ॥

चतुर्धा संप्रभूतोऽहं कथितं तेऽनिलात्मज ॥ ५० ॥

मैं ही राम लक्ष्मण शत्रुघ्न और भरत यह चार प्रकार से अपने रूप को प्रकटकर स्थित हूँ ।। ५० ।।

मायास्वरूपं च तव कथितं यत्प्लवंगम ।

*कृपया तद्धृदा धार्यं न विस्मर्तव्यमेव हि ॥ ५१ ॥

हे महावीर ! जो मैंने यह तुमसे रूप कथन किया है यह श्रद्धा से हृदय में धारण करना भूलना नहीं ।। ५१ ।।

* श्रद्धया इति पाठ ।

येनायं पठ्यते नित्यं संवादो भवतो मम ॥

जीवन्मुक्तो भवेत्सोऽपि सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५२ ॥

जो यह हमारा संवाद नित्य पढेंगे वह जीवन्मुक्त हो सब पापों से छूट जायँगे ।। ५२ ।

श्रावयेद्वा द्विजाञ्छुद्धान्ब्रह्मचर्यपरायणान् ॥

यो वा विचारयेदर्थं स याति परमां गतिम् ॥ ५३ ॥

जो ब्रह्मचर्य में परायण ब्राह्मणों को सुनावेंगे, वा जो इसका अर्थ विचारेंगे, वे परमगति को प्राप्त होंगे ।। ५३ ।।

यश्चैतच्छृणुयान्नित्यं भक्तियुक्तो दृढव्रतः ॥

सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रह्म लोके महीयते ॥ ५४ ॥

जो अभियुक्त दृढव्रत हो इसे नित्य सुनेंगे वह सब पापरहित हो ब्रह्मलोक को प्राप्त होंगे ।। ५४ ।।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पठितव्यो मनीषिभिः ।

श्रोतव्यश्चापि मंतव्यो विशेषादब्राह्मणैः सदा ॥ ५५ ॥

इस कारण सब प्रयत्नों से विद्वानों को यह पढना और मनन करना चाहिये और विशेष कर ब्राह्मणों को विचारना चाहिये ।। ५५ ।।

इत्यार्थे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे भगव्दचनुमत्संवादो नाम चतुर्दशः सर्गः ।।१४।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में राम महावीरजी का संवाद नामक चौदहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 15

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