श्रीराम स्तव

श्रीराम स्तव

अद्भुत रामायण सर्ग १५में हनुमान् जी द्वारा इस श्रीरामचन्द्र की स्तव स्तोत्र का वर्णन किया गया है।

श्रीराम स्तव

श्रीराम स्तव स्तोत्रम्

अद्भुत रामायणम् पञ्चदशः सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 15

अद्भुत रामायण पन्द्रहवाँ सर्ग- श्रीरामस्तव स्तोत्र

अद्भुतरामायण पञ्चदश सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग १५ – हनुमत्कृत श्रीराम स्तवराज

अथ हनुमत्कृतस्तवराज

ध्वात्वा हृदिस्थं प्रणिपत्य मूर्ध्ना बद्धांजलिर्वायुसुतो महात्मा ॥

ओंकारमुच्चार्य विलोक्य देवमंतः शरीरे निहितं गुहायाम् ॥ १ ॥

वह महात्मा महावीरजी हृदय में ध्यान कर शिर से प्रणाम कर हाथ जोडकर ओंकार का उच्चारण देव को देखकर जो प्राणियों के हृदय की गुहा में स्थित हैं ।। १ ।।

रामं महात्मानम कुंठशक्ति सनंदमुख्यैः स्तुतमप्रमेयम् ॥

पुष्टाव च ब्रह्ममयैर्वचोभिरानंदपूर्णायितमानसः सन् ॥ २ ॥

राम महात्मा अकुंठ शक्ति सनन्दादि मुख्यों से स्तुति को प्राप्त होते हुए, अप्रमेय भगवान्‌ को आनन्द से पूर्णमन होकर ब्रह्ममय वचनों से प्रसन्न स्तुति करने लगे ॥ २ ॥

श्रीराम स्तवन

त्वामेकमीशं पुराणं प्राणेश्वरं राममनन्तयोगम् ।।

नमामि सर्वांतरसन्निविष्टं प्रचेतसं ब्रह्ममयं पवित्रम् ।। ३ ।।

तुम ही एक ईश पुरुष पुराण प्राणेश्वर अनन्तयोग सबके अन्तर में स्थित हो, प्रचेतस पवित्र ब्रह्ममय पवित्र को नमस्कार करता हूँ ।। ३ ।।

पश्यंति त्वां मुनयो ब्रह्मयोनि दांताः शांता विमलं रुक्मवर्णम् ॥

ध्यात्वात्मस्थमचलं स्वे शरीरे कवि परेभ्यः परमं परं च ॥ ४ ॥

ब्रह्मयोनि आपको मुनिजन देखते हैं आप दान्त शान्त विगल रुक्मवर्ण हो, आत्मा में स्थित, पर से परे तुमको महात्मा देखते हैं ॥। ४ ॥

त्वत्तःप्रसूता जगतःप्रसूतिः सर्वात्मसृष्टेः परमाणुभूतः ।

अणोरणीयात्महतो महीयांस्त्वामेव सर्वे प्रवदंति संतः ।। ५ ।।

आपसे सारा जगत् उत्पन्न होता है, आप सर्वात्मा, सृष्टि के परमात्मा भूत हो, सूक्ष्म, वडे से बड़े, आपको सन्त महात्मा कहते हैं ।। ५ ।।

हिरण्यगर्भो जगदंतरात्मा त्वत्तोऽधिजातः पुरुषः पुराणः ।।

स जायमानो भवता विसृष्टो यथाविधानं सकलं ससर्ज ।। ६ ।

हिरण्यगर्भ जगत्के अन्तरात्मा आप पुराणपुरुष से सब जगत् उत्पन्न होता है, विराट ने आप से ही उत्पन्न होकर सब जगत्‌ को उत्पन्न करके सब विधान को उत्पन्न किया है ।। ६ ।।

त्वत्तो वेदाः सकलाः संप्रवृत्तास्त्वय्येवान्ते संस्थिति ते लभंते ।

पश्यामि त्वां जगतो हेतुभूतं नृत्यं तं स्वे हृदये संनिविष्टम् ॥ ७ ॥

तुमसे ही सब वेद उत्पन्न हुए हैं, आपमें ही अन्त में स्थिति को प्राप्त होते हैं, आपको जगत्का हेतुभूत में देखता हूँ, मेरे हृदय में आप सदैव स्थित हों ॥ ७ ॥

त्वयैवेदं स्याम्यते ब्रह्म चक्रं मायावी त्वं जगतामेकनाथः ॥

नमामि त्वां शरणं संप्रपद्ये योगात्मानं चित्पतिं दिव्यनृत्यम् ॥ ८ ॥

आप ही से सब ब्रह्माण्ड चक्र घुमाया जाता है, आप ही जगत्‌ के एक नाथ हो, मैं आपके शरण में प्राप्त हूँ, आप योगात्मा चित्पति दिव्य नृत्य रूप हो ॥ ८ ॥

पश्यामि त्वां परमाकाशमध्ये नृत्यंतं ते महिमानं स्मरामि ॥

सर्वात्मानं बहुधा संनिविष्टं ब्रह्मानंदमनुभूयानुभूय ॥ ९ ॥

परमाकाश के मध्य में विराजमान आपको देखता हूं, आप सर्वात्मा अनेक प्रकार से संन्निविष्ट ब्रह्मानन्द को अनुभव करके आपको स्मरण करता हूँ ॥ ९ ॥

ओंकारस्ते वाचको मुक्तिबीजं त्वामक्षरं प्रकृतौ गूढरूपम् ॥

त्वं त्वां सत्यंप्रवदंतीह संतः स्वयंप्रभं भवतो यत्प्रकाशम् ॥ १० ॥

ओंकार आपका वाचक मुक्तिबीज है, आप अक्षर प्रकृति में गूढरूप हैं, उसे आप सत्यरूप का सन्त वर्णन करते हैं, आप स्वयं रूप प्रकाशमान हो ।। १० ।।

स्तुवंति त्वां सततं सर्वदेवा नम॑ति त्वामृषयाः क्षीणदोषाः ।

शांतात्मानः सत्यसंधं वरिष्ठं विशंति त्वां यतयो ब्रह्मनिष्ठाः ॥ ११॥

आपकी निरन्तर सब देवता स्तुति करते हैं, क्षीणदोष ऋषि आपको नमस्कार करते हैं, शान्ताराम सत्यसन्ध वरिष्ठ आपमें ब्रह्मनिष्ठ यति प्रवेश करते हैं ।। ११ ।।

एको वेदो बहुशाखो ह्यनंतस्त्वामेवैकं बोधयत्येकरूपम् ।

संवेद्यं त्वां शरणं ये प्रपन्नास्तेषां शांतिः शाश्वती नेतरेषाम् ।। १२ ।।

एक ही वेद बहु शाखावाला अनन्त है, आपको ही एक रूप बोधित करते हैं, जानने योग्य आपकी शरण में जो हुए हैं उन्हीं को सदा शान्ति है अन्यों को नहीं ।। १२ ।।

भवानीशोऽणिमादिमां स्तेजोराशिर्ब्रह्मविश्वं परमेष्ठी वरिष्ठः ॥

आत्मानंदं चानुसूयानुशेते स्वयंज्योतिवचनो नित्यमुक्तः ॥ १३ ॥

भवानीपति अणिमादि मान तेज की राशि विश्व परमेष्ठी वरिष्ठ आत्मानन्द अनुभव करता स्वयं ज्योति वचन नित्य सबमें स्थित है ।। १३ ।।

एको देवस्त्वं करोषीह विश्वं त्वं पालयस्यखिलं विश्वरूपः ।

त्वय्येवास्ते विलयं विदतीदं नमामि त्वां शरणं त्वां प्रपन्नः ॥ १४ ॥

एक ही आप देव सब विश्व को करते हो आप अखिल विश्वरूप की पालना करते हो अन्त में विश्व आप ही में लीन होता है, मैं शरण में प्राप्त हुआ आपको नमस्कार करता हूँ ।। १४।।

त्वामेकमाहुः परमं च रामं प्राणं बहंतं हरिमित्रनीशम् ॥

इन्दुं मृत्युमनलं चेकितानं धातारमादित्यमनेकरूपम् ॥ १५ ॥

हे राम आप ही को परम प्राणदाता हरि मित्र ईश कहते हैं, चन्द्रमा पवन चेकितान धाता आदित्य अनेकरूप हो ।। १५।।

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ॥

त्वमव्ययः शाश्वतो धर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषोत्तमोऽसि ॥ १६ ॥

आप ही परम, अक्षर जानने योग्य हो, आप ही इसके परिधान हो, आप ही अविनाशी शाश्वत धर्म के गोप्ता सनातन उत्तम पुरुष हो ।। १६ ।।

त्वमेव विष्णुच्चतुराननस्त्वं त्वमेव रुद्रो भगवानपीशः ॥

त्वं विश्वनाभिः प्रकृतिः प्रतिष्ठा सर्वेश्वरस्त्वं परमेश्वरोऽसि ॥ १७ ॥

आप ही विष्णु चतुरानन हो, आप रुद्र भगवान् ईश हो, आप विश्व की नाभी प्रकृति प्रतिष्ठा सर्वेश्वर परमेश्वर हो ।।१७।।

त्वामेकमाहुः पुरुषं पुराणमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥

चिन्मात्रमव्यक्तर्माचत्यरूपं खं ब्रह्मशून्यं प्रकृति निर्गुणं च ॥ १८ ॥

आप ही पुराणपुरुष एक सूर्यवर्ण अन्धकार से परे हो चिन्मात्र अव्यक्त अचिन्त्यरूप खं ब्रह्म शून्य प्रकृति निर्गुण हो।।१८।।

यदन्तरा सर्वमिदं विभाति यदव्ययं निर्मलमेकरूपम् ॥

किमर्प्यचत्यं तव रूपमेकं यदंतरा यत्प्रतिभाति तत्त्वम् ।। १९ ।।

जिसके अन्तर में यह सब जगत् प्रकाश करता है जो अविनाशी निर्मल एकरूप है, यह आपका रूप अचिन्त्य तत्त्ववाला है, और प्रकाशवान् है ।। १९ ।।

योगेश्वरं रूपमनन्तशक्ति परायणं ब्रह्मतनुं पवित्रम् ।।

नमाम सर्वे शरणार्थिनस्त्वां प्रसीद भूताधिपते प्रसीद ।। २० ।।

योगेश्वररूप अनन्तशक्ति परायण ब्रह्मतनु पवित्र को शरण की इच्छावाले हम सब नमस्कार करते हैं, हे भूताधिपते ! प्रसन्न होईये ।। २० ।।

त्वत्पादपद्मस्मरणादशेषं संसारबीजं विलयं प्रयाति ।।

मनो नियम्य प्रणिधाय कार्य प्रसादयाम्येकरसं भवंतम् ।। २१ ।।

आपके चरणकमल के स्मरण से सब संसार के बीज जन्ममरण नष्ट हो जाते हैं, मन को रोक काया को प्रणिधान कर एकरस आपको मैं प्रसन्न करता हूं ।। २१ ।।

नमोऽस्तु रामाय भवोद्भवाय कालाय सर्वेकहराय तुभ्यम् ॥

नमोऽस्तु रामाय कर्पादने ते नमोऽग्नये दर्शय रूपमग्र्यम् ।। २२ ।

संसार के उत्पत्ति कारण, सबके उत्पन्न करनेवाले कालरूप एक हरनेवाले आपको प्रणाम है, राम कपि अग्निरूप आपको प्रणाम है, आप अग्न्यरूप हो ।। २२ ।।

अद्भुत रामायण सर्ग १५

ततः स भगवान्नामो लक्ष्मणेन सह प्रभुः ॥

संहृत्य परमं रूपं प्रकृतिस्थोऽभवस्वयम् ॥ २३ ॥

तब भगवान् राम अपना लक्ष्मणसहित रूप छिपाकर प्रकृति में स्थित होते हुए ।। २३ ।।

स तस्य स्तवमाकर्ण्य वायुपुत्रस्य धीमतः ।

प्राह गम्भीरया वाचा हनूमन्तं रघूत्तमः ॥ २४ ॥

तब वायुपुत्र का यह वचन सुनकर रामचन्द्र गम्भीर वचन से कहने लगे ।। २४ ।

स्तोष्यंति येनया स्तुत्या ते यास्यंति परां गतिम् ॥

स्थिरो भव हनूमंस्त्वं कार्यमौपायिकं कुरु ।। २५ ।।

जो इस स्तोत्र से स्तुति करेंगे वे परमगति को प्राप्त होंगे, हे महावीर ! आप स्थित होकर उपाययुक्त कार्य करो ।। २५ ।।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणेवाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे हनुमत्कृतस्तवराजे पञ्चदशः सर्गः ॥ १५ ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में हनुमत्कृतस्तवराज नामक पन्द्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 16

Post a Comment

0 Comments