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- श्रीदेवीरहस्य पटल ३
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- श्रीदेवीरहस्य पटल २
- देवीरहस्य पटल १
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- जानकी अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र
- जानकी सहस्रनामस्तोत्र
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- यक्षिणी साधना भाग २
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देवीरहस्य पटल १
रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम्
के पटल १ में दीक्षाविधि के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं श्रीदेवीरहस्यम् प्रथमः पटल:
Shri Devi Rahasya Patal 1
रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पहला पटल
॥ श्रीः ॥
अथ प्रथमः पटल:
दीक्षाविधिः
तन्त्रप्रस्तावः
श्रीभैरव उवाच
अधुना देवि वक्ष्यामि रहस्यं
परमाद्भुतम् ।
यन्न सर्वेषु तन्त्रेषु यामलादिषु
भाषितम् ॥ १ ॥
परादेवीरहस्याख्यं तन्त्र
मन्त्रोच्चविग्रहम् ।
तत्त्वं श्रीषोडशाक्षर्या सर्वस्वं
मम पार्वति ॥ २ ॥
अप्रकाश्यमदातव्यं परमोच्चफलप्रदम्
।
भोगापवर्गदं लोके साधकानां सुखावहम्
॥ ३ ॥
तन्त्र प्रस्ताव - श्री भैरव ने
कहा- हे देवि! मैं अब परम अद्भुत रहस्य को बतलाता हूँ। इस रहस्य का वर्णन किसी
तन्त्र-यामल आदि में नहीं है। यह परा देवीरहस्य तन्त्र-मन्त्र का सर्वोत्तम विग्रह
है। हे पार्वति ! इस परा देवी का षोडशाक्षरी मन्त्र मेरा सर्वस्व है। इसका तत्त्व
सर्वोच्च है। यह तत्त्व प्रकाशित करने के योग्य नहीं है,
न ही किसी को देने के योग्य है। यह परम उच्च फलप्रदायक है। इससे
साधकों को भोग के साथ-साथ धर्म-अर्थ- काम-मोक्ष की प्राप्ति तो होती ही है,
इस लोक में परमानन्द भी प्राप्त होता है।। १-३।।
श्रीदेव्युवाच
भगवन् सर्वतन्त्रज्ञ कौलिकेश्वर
शङ्कर ।
त्वत्प्रसादान्मया ज्ञातं तत्त्वं
देव्याः सुदुर्लभम् ॥४॥
तन्त्र मन्त्रात्मकं गुह्यं सूचितं
भवता स्वयम् ।
परादेवीरहस्याख्यं दीक्षापूर्वं
वदस्व मे ॥ ५ ॥
श्रीदेवी ने कहा- हे कौलिकों के
ईश्वर भगवन् शंकर! आप सभी तन्त्रों के ज्ञाता हैं। आपकी कृपा से मुझे देवी के
दुर्लभ तत्त्वों का ज्ञान हो पाया है। आपने स्वयं मुझे गुह्य तन्त्र मन्त्रों को
बतलाया है, जो परा देवी के रहस्य से पूर्ण
हैं। अब इनकी दीक्षा-विधि का वर्णन कीजिये ।। ४-५ ।।
देवीरहस्य पटल १ गुरु-शिष्यनिर्णयः
श्रीभैरव उवाच
देवीरहस्यमीशानि शृणु त्वं
भक्तिपूर्वकम् ।
येन श्रवणमात्रेण कोटिपूजाफलं लभेत्
॥ ६ ॥
अथाहं निर्णयं वक्ष्ये परमं
गुरुशिष्ययोः ।
विचार्य विधिवद्धीमान् दीक्षाकर्म
समाचरेत् ॥७॥
गुरु-शिष्य निर्णय श्री भैरव ने कहा
कि हे ईशानि! तुम भक्तिपूर्वक देवी- रहस्य को सुनो। इसके श्रवणमात्र से ही करोड़ों
पूजनों का फल मिलता है। अब मैं गुरु-शिष्य के श्रेष्ठ निर्णय को बतलाता हूँ।
ज्ञानी गुरु खूब सोच-विचार कर शिष्य की परीक्षा करने के बाद दीक्षाकर्म को विधिवत्
करे ।।६-७।।
देवीरहस्य पटल १ दीक्षाग्रहणस्यावश्यकत्वम्
ब्रह्मादिकीटपर्यन्तं जगत् स्थावरजङ्गमम्
।
परादेव्या पशुत्वेन मोहितं
विगतस्पृहम् ॥८॥
तथापि तत्प्रसादेन सेवया तत्पदाब्जयोः
।
कौलिकः पशुभावेन मुक्तो ज्ञानं
भजेत्ततः ॥९॥
दीक्षां तस्याः शिवे मन्त्री
लब्ध्वा गुरुपदार्चनात् ।
दीक्षितः स भवेज्ज्ञानी दीक्षाहीनो
भवेत् पशुः ॥ १० ॥
यस्य दीक्षा शिवे नास्ति जीवनं तस्य
निष्फलम् ।
स जातु नोत्तरेद् देवि
निरयाम्बुनिधेः क्वचित् ॥ ११ ॥
दीक्षा ग्रहण की आवश्यकता —
इस संसार में ब्रह्मा से लेकर कीड़ों तक सभी स्थावर-जंगम चराचर परा
देवी के द्वारा मोहित होकर पशुभाव में इच्छारहित रहते हैं। परन्तु उसकी कृपा से
उसके पादपद्मों की सेवा से कौलिक लोग पशुभाव से मुक्त होकर ज्ञानी होकर मुक्त हो
जाते हैं। गुरुदेव के पदकमलों का अर्चन करके जो साधक परादेवी के मन्त्र की दीक्षा
प्राप्त करता है, वह दीक्षित ज्ञानी हो जाता है।
दीक्षा-विहीन मनुष्य पाशों में बन्धे पशुवत् होते हैं। हें पार्वति ! जिस मनुष्य
ने दीक्षा नहीं ग्रहण की है, उसका जीवन निष्फल होता है। वह
कभी भी नरक, भवसागर से पार नहीं होता है ।। ८-११ ।।
दीक्षाहीनस्य देवेशि पशोः
कुत्सितजन्मनः ।
पापौघोऽन्तिकमायाति पुण्यं दूरं
पलायते ॥ १२ ॥
तस्माद् यत्नेन दीक्षैषा ग्राह्या
कृतिभिरुत्तमा ।
बाल्ये वा यौवने वापि वार्धक्येऽपि
सुरेश्वरि ॥१३॥
अन्यथा निरयी पापी पितॄन् श्वान्
निरयं नयेत् ।
अतः पशुर्मनुष्यः सन् पशुयोनिं
व्रजेच्छिवे ॥१४॥
हे देवेशि ! अदीक्षित का जन्म घृणित
पशु के समान होता है। वह पापसमूह से घिर जाता है। पुण्य उससे दूर भाग जाते हैं।
ऐसी परिस्थिति में यत्नपूर्वक दीक्षा ग्रहण करना उत्तम कार्य है। यह दीक्षा बालपन,
युवावस्था या वृद्धावस्था में से किसी भी अवस्था में ग्रहणीय है।
अन्यथा मनुष्य स्वयं तो नरकगामी होता ही है; अपने पितरों को
भी कुत्तों के नरक में गिरा देता है। उसके बाद अगले जन्म में वह पशुयोनि में जन्म
पाकर दुःख भोगता है ।।८-१४।।
देवीरहस्य पटल १ गुरुपरीक्षणम्
पूर्वजन्मार्जितां प्राप्य वासनां
परमार्थदाम् ।
गुरुमन्वेषयेद् देवि कौलिकाचारदीक्षितम्
॥ १५ ॥
गुरुं कुलीनं तन्त्रज्ञं सर्वाङ्गैः
सुमनोहरम् ।
निरामयं च निर्लोभं निःशेषागमपारगम्
।। १६ ।।
लब्ध्वा भक्त्या प्रणम्यादौ
तोषयित्वा विशेषतः ।
सिद्धसाध्यारिनिर्णीतां दीक्षां
देव्या यथाविधि ॥ १७ ॥
गुरुपरीक्षा - पूर्वजन्मार्जित
परमार्थदात्री वासना के उत्पन्न होने पर कौलिकाचार में दीक्षित गुरु का अन्वेषण
करना चाहिये। वह गुरु कुलीन तन्त्रों का ज्ञाता और सर्वाङ्ग सुन्दर होना चाहिये।
वह निरोग और लोभरहित हो सभी आगमों का पारगामी विद्वान् हो। ऐसे गुरु के दर्शन होने
पर शिष्य उसे प्रणाम करे और विशेष रूप से उसे सन्तुष्ट करे। सन्तुष्ट होकर गुरु
मन्त्र का सिद्ध-साध्य-अरि होने का निर्णय करके यथाविधि दीक्षा प्रदान करे।।
१५-१७।।
देवीरहस्य पटल १ शिष्यपरीक्षणम्
गृह्णीयात् परया भक्त्या साधको येन
जायते ।
गुरुश्च शिष्यं रम्याङ्गं कुलीनं
गर्भदीक्षितम् ॥ १८ ॥
गुरुभक्तिरतं बालं युवानं
धिषणायुतम् ।
देवीभक्तिरतं भक्तं पापभीतं
कृतात्मकम् ॥ १९ ॥
दृष्ट्वा दीक्षां परां दद्यात्
कृतभागी भवेत्ततः ।
शिष्य परीक्षा –
जिस साधक में परा देवी की भक्ति हो, जो
सर्वाङ्ग सुन्दर हो और जो कुलवान हो, उसी को गुरु दीक्षा
प्रदान करे। साधक बालक हो या युवक हो, उसमें गुरु की भक्ति
के साथ बुद्धि भी होनी चाहिये। वह देवीभक्ति में निरत हो और पाप से भय- भीत हो तथा
पुनीत कर्म करने वाला हो। इस प्रकार के लक्षणों से युक्त साधक शिष्य को देखकर गुरु
उसे परादेवी की दीक्षा प्रदान करे इसी से वह कृतभागी होता है ।। १८-१९।।
देवीरहस्य पटल १ गुर्वभावे
गुरुविषयकप्रश्नः
श्रीदेव्युवाच
भगवन् करुणाम्भोधे संशयोऽयं महान्
मम ।
यस्य चित्ते परा
भक्तिर्गुरुर्नास्ति तथाविधः ॥ २० ॥
कुलीनः सर्वतन्त्रज्ञो
मन्त्रसाधनकक्षमः ।
भक्त्या परमया युक्तः स किं देव
करिष्यति ॥ २१ ॥
गुरु के अभाव में पुस्तक ही गुरु—
श्रीदेवी ने कहा कि हे करुणा के सागर भगवन्! मेरे मन में महान् संशय
है। जिसके चित्त में परा भक्ति हो, जो कुलवान सभी तन्त्रों
का ज्ञाता हो, मन्त्रसाधना की क्षमता वाला हो, उसे यदि योग्य गुरु न मिले तो वह क्या करे ? ।।
२०-२१।।
देवीरहस्य पटल १ गुरोरभावे
पुस्तकस्य गुरुत्वम्
श्रीभैरव उवाच
अदीक्षित उपाध्यायविहीनः
शक्तिभक्तिमान् ।
गुरोरभावे देवेशि ! पुस्तकं
गुरुमाचरेत् ॥ २२ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे देवेशि जो
अदीक्षित हो, जिसका कोई गुरु न हो, जिसमें शक्ति एवं भक्ति हो; उसे पुस्तक को ही गुरु
मानकर साधना करनी चाहिये ।। २।।
देवीरहस्य पटल १ गुरुसद्भावे पुस्तक
गुरुर्दोषाय
यदि कश्चिद् भवेद् देवि
गुरुस्तन्त्रविचक्षणः ।
दीक्षितः शिवमन्त्रेण वैष्णवः
शुभलक्षणः ॥ २३ ॥
तं परित्यज्य यो देवि पराभक्तोऽपि
भक्तिमान् ।
पुस्तकं तु गुरुं कुर्यात् स
भवेच्छिवघातकः ॥ २४ ॥
गुरुं कुलीनं तन्त्रज्ञं
भजेन्मन्त्रस्य सिद्धये ।
मूर्ख लोभात्मकं देवि कुलीनं च
परित्यजेत् ॥ २५ ॥
सद्गुरु के रहने पर पुस्तक को गुरु
मानने में दोष- हे देवि ! यदि कोई तन्त्र में निष्णात गुरु शैव-वैष्णव मन्त्र में
दीक्षित हो और शुभ लक्षणों से युक्त हो तो उसे छोड़कर पुस्तक को गुरु मानकर परा
देवी की भक्ति में निरत भक्त शिवघातक होता है। मन्त्र की सिद्धि के लिये कुलीन
तन्त्रज्ञ को ही गुरु बनाना चाहिये। कुलीन होने पर भी यदि वह लोभी और मूर्ख हो तो
ऐसा गुरु त्याज्य होता है।। २३-२५ ।।
देवीरहस्य पटल १ पित्रादीनां
दीक्षाऽग्राह्या
पितुर्दीक्षां न गृह्णीयात् तथा
मातामहस्य च ।
सोदरस्य कनिष्ठस्य मातुलस्य विशेषतः
॥ २६ ॥
दम्भं वित्तेच्छया लौल्यं न
कुर्यान्मनसापि वा ।
परलोकेच्छया कुर्यात् परलोकभयाय वा
॥ २७॥
पिता आदि से दीक्षा अग्राह्य- पिता,
नाना, सहोदर भ्राता, अपने
से छोटे और मामा से दीक्षा नहीं लेनी चाहिये। दम्भ, धन की
इच्छा और लालच मन से भी कदापि नहीं करना चाहिये। परलोक पाने की इच्छा से या परलोक
नारकीय जीवन के भय से सभी आचार करना चाहिये ।। २६-२७।।
देवीरहस्य पटल १ दीक्षाग्रहणसमयविषयकप्रश्नः
श्रीदेव्युवाच
भगवन् परमेशान साधकानां हितेच्छया ।
कदा दीक्षा परा ग्राह्या
साधकैस्तद्वदस्व मे ॥ २८ ॥
दीक्षाग्रहण का समय-श्रीदेवी ने कहा
कि हे भगवन् परमेशान! साधकों के हित की कामना से मैं पूछती हूँ कि साधकों को परा
दीक्षा कब ग्रहण करनी चाहिये। यह सब मुझे बताने की कृपा करें।। २८ ।।
देवीरहस्य पटल १ दीक्षाग्रहणसमयः
स्थानञ्च
श्रीभैरव उवाच
सुदिने शुभनक्षत्रे
संक्रान्तावयनद्वये ।
नवरात्रिदिने पित्रोः श्राद्धे
स्वजनिवासरे ।। २९ ।।
नववर्षदिने देवि चन्द्रसूर्योपरागके
।
तिष्ये स्वजन्मनक्षत्रे दीक्षां
दद्याद्विचक्षणः ॥ ३० ॥
तत्रादौ शुभनक्षत्रे स्नात्वा सम्पूज्य
भैरवम् ।
गत्वा नदीतटं दिव्यं
लताकुसुमसुन्दरम् ॥ ३१ ॥
द्वीपं वा परमं पुण्यं देवानामपि
दुर्लभम् ।
देवतायतनं वापि प्राप्याशु
प्रणमेत्ततः ॥ ३२ ॥
दीक्षा का समय तथा स्थान- श्री भैरव
ने कहा कि शुभ दिन, शुभ नक्षत्र,संक्रान्ति, दोनों अयनारम्भ, नवरात्र,
पिता के श्राद्ध दिवस, अपने जन्मदिन, नववर्ष के प्रथम दिन, चन्द्र, सूर्यग्रहण
काल में, अपने जन्मनक्षत्र में ज्ञानी गुरु शिष्य को दीक्षा
प्रदान करे। सबसे पहले शुभ नक्षत्र में स्नान करके भैरव का पूजन करे। लता
पुष्पों से युक्त सुन्दर दिव्य नदीतट पर जाये अथवा टापू पर जाये अथवा देवताओं को
भी दुर्लभ देवालय में जाकर प्रणाम करे ।। २९-३२।।
देवीरहस्य पटल १ श्रीचक्रविभावना
विलिप्य विधिवद् देवि गुरुः
कुर्यात् कृताह्निकः ।
वेदीमीशानदिग्भागे चतुष्कोणं
मनोहराम् ॥३३॥
तत्र देवि परादेव्याः श्रीचक्रं तु
विभावयेत् ।
सिन्दूरेण शिवे यन्त्रं मूलमन्त्रं
समुच्चरन् ॥ ३४ ॥
त्रिकोणं बिन्दुसंयुक्तं षट्कोणं
वृत्तमण्डलम् ।
वसुपत्रं त्रिवृत्ताङ्कं
भूगृहेणोपशोभितम् ॥ ३५ ॥
दीक्षायन्त्रमिदं देवि दीक्षाकाले
प्रपूजयेत् ।
श्रीचक्र - विभावना –
इच्छित स्थान में पहुँचकर स्थान को साफ-सुथरा करके लीप-पोतकर शुद्ध
करके ईशान कोण की दिशा भाग में चौकोर सुन्दर वेदी बनावे उस वेदी पर परा देवी के श्रीचक्र
की विभावना करे। मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुए सिन्दूर से बिन्दु, त्रिकोण, षट्कोण, वृत्तमण्डल
में अष्टदल, तीन वृत्त और भूपुर की संरचना करे। हे देवि इस
दीक्षायन्त्र का दीक्षा के समय पूजन अवश्य करना चाहिये ।। ३३-३५ ।।
देवीरहस्य पटल १ दीक्षायन्त्रे
पूज्य देवताः तेषां पूजाक्रमश्च
गणेशधर्मवरुणाः कुबेरसहिताः शिवे ॥
३६ ॥
विदिक्षु विदिगीशानाः पूजनीया
यथाक्रमम् ।
तारमायारमाबीजैर्धूपदीपप्रसूनकैः
॥३७॥
मायां च मोहिनी मेनां मङ्गलां
सर्वमङ्गलाम् ।
महाविद्यां च देवशि षट्कोणेषु
प्रपूजयेत् ॥ ३८ ॥
तारमायारमाबीजैर्गन्धाक्षतप्रसूनकैः
।
गङ्गां च यमुनां देवि तदग्रेऽपि
सरस्वतीम् ॥ ३९ ॥
त्रिकोणे पूजयेद्
धीमानीशानाग्नेयपूर्वकम् ।
दीक्षायन्त्र के पूज्य देवता एवं
उनका पूजन क्रम- हे देवि ! दीक्षायन्त्र में भूपुर के पूरब दिशा में गणेश,
दक्षिण में यम, पश्चिम में वरुण और उत्तर में
कुबेर का पूजन करे।
दीक्षायन्त्र
अग्नि कोण में अग्नि,
नैर्ऋत्य में निर्ऋति, वायव्य में वायु और
ईशान में ईशान का पूजन करें। इनका पूजन इस प्रकार करे-
नाममन्त्र में ॐ ह्रीं श्रीं लगाकर
पूजन करे;
जैसे गणेश का पूजन-
ॐ ह्रीं श्री गणेशाय नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं यमाय नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं वरुणाय नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं कुबेराय नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं कुबेराय नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं अग्नये नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं निर्ऋतये नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं श्रीं वायवे नमः,
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं ईशानाय नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं दीपं समर्पयामि।
षट्कोण के छः कोणों में माया,
मोहिनी, मेना, मङ्गला,
सर्वमंगला और महाविद्या का पूजन गन्ध-अक्षत पुष्प से निम्नवत् करे-
ॐ ह्रीं श्रीं मायायै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं मोहिन्यै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं मेनायै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं मंगलायै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं सर्वमंगलायै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं समर्पयामि ।
अन्त में—
सर्वेभ्यो देवीभ्यो नमः धूपं दीपं नैवेद्यं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं महाविद्यायै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं धूपं समर्पयामि।
त्रिकोण में ईशान,
अग्नि, पूर्व में गङ्गा यमुना और सरस्वती का
पूजन करे-
ॐ ह्रीं श्री गंगायै नमः गन्धाक्षतं
पुष्पं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं यमुनायै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं श्रीं सरस्वत्यै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं समर्पयामि ।। ३६-३९ ।।
बिन्दौ श्रीमूलमन्त्रेण परादेवीं प्रपूजयेत्
॥ ४० ॥
सदाशिवं महारौद्रं कामेशं
कामनेश्वरम् ।
गन्धाक्षतप्रसूनाद्यैर्धूपदीपादितर्पणैः।।
४१ ।।
नैवेद्याचमनीयाद्यैस्ताम्बूलैश्च सुवासितैः
।
बिन्दु में मूल मन्त्र से परा देवी
का पूजन करे। इनके साथ सदाशिव, महारुद्र,
कामेश और कामेश्वर का पूजन करें-
ॐ ह्रीं श्रीं परादेव्यै नमः
गन्धाक्षतं पुष्पं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं परादेव्यै नमः धूपं
समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं परादेव्यै नमः दीपं
समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं परादेव्यै नमः
तर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं परादेव्यै नमः
नैवेद्यं समर्पयामि ।
ॐ ह्रीं श्रीं परादेव्यै नमः
पानीयमाचमनीयं करोद्वर्तनीयं समर्पयामि।
ॐ ह्रीं श्रीं परादेव्यै नमः
सुवासितताम्बूलं समर्पयामि।
इसी प्रकार ॐ ह्रीं श्रीं सदाशिवाय
नमः से सदाशिव का, ॐ ह्रीं श्री
महारुद्राय नमः से महारुद्र का, ॐ ह्रीं श्रीं कामेशाय नमः
से कामेश का और ॐ ह्रीं श्रीं कामेश्वराय नमः से कामेश्वर का गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूलादि से पूजन करे ।।४०-४१ ।।
अष्टपत्रेषु देवेशि सम्पूज्या अष्ट
मातरः ॥४२॥
ब्राह्मयाद्या देवि मन्त्रेण
अष्टभैरवपूर्वकम् ।
ब्राह्मी नारायणी चैव कौमारी
चापराजिता ॥ ४३ ॥
माहेश्वरी च चामुण्डा वाराही
नारसिंहिका ।
वामावर्तक्रमेणैवं पूजनीया विशेषतः
॥४४ ॥
अष्टपत्रों के मूल में ब्राह्मयादि
अष्ट मातृकाओं का और पत्रों के अग्रभाग में अष्टभैरवों का वामावर्त क्रम से पूजन
करे। वामावर्त क्रम में पूर्व, ईशान, उत्तर वायव्य, पश्चिम, नैर्ऋत्य,
दक्षिण, अग्निकोण होता है। पूजन इस प्रकार
करे-
पूर्व में- ॐ ह्रीं श्रीं
ब्राह्म्यै नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
ईशान में- ॐ ह्रीं श्री नारायण्यै
नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
उत्तर में —
ॐ ह्रीं श्रीं कौमार्यै नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि।
वायव्य में —
ॐ ह्रीं श्रीं अपराजितायै नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
पश्चिम में- ॐ ह्रीं श्रीं
माहेश्वर्यै नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
नैर्ऋत्य में- ॐ ह्रीं श्री
चामुण्डायै नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।
दक्षिण में - ॐ ह्रीं श्रीं वारायै
नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि।
अग्निकोण में —
ॐ ह्रीं श्रीं नारसिंहिकायै नमः गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि।
गन्धाक्षत-पुष्प से पूजन में
अष्टगन्ध में अक्षत रंग कर पुष्प के साथ चढ़ाया जाता है ।।४२-४४ ।।
तत्रैव पूजयेदष्ट भैरवान्
भैरवेश्वरि ।
महाकालं च कालाग्निं करालं विकरालकम्
॥ ४५ ॥
संहारं रुरुमीशानि सुप्तमुन्मत्त
भैरवम् ।
सम्पूज्य विधिवत्तत्र गन्धाक्षतप्रसूनकैः
॥ ४६ ॥
यन्त्रमभ्यर्च्य देवेशि गुरुं
सम्पूजयेत्ततः ।
पद्मपत्रों के अग्रभाग में इसी
प्रकार अष्टभैरवों का पूजन करे-
१. ॐ ह्रीं श्रीं महाकालाय नमः ।
२. ॐ ह्रीं श्रीं कालाग्न्यै नमः।
३. ॐ ह्रीं श्रीं करालाय नमः ।
४. ॐ ह्रीं श्रीं विकरालाय नमः ।
५. ॐ ह्रीं श्रीं संहारभैरवाय नमः ।
६. ह्रीं श्रीं रुरुभैरवाय नमः ।
७. ॐ ह्रीं श्रीं ईशानभैरवाय नमः ।
८. ॐ ह्रीं श्रीं उन्मत्तभैरवाय नमः
।
यन्त्रपूजन के बाद गुरु का पूजन भी
यन्त्र में ही करे ।।४५-४६ ।।
देवीरहस्य पटल १ पूजाङ्गहोमनिरूपणम्
पूर्वे ततः खनेत् कुण्डं योनिरूपं
त्रिकोणकम् ॥४७॥
तत्रारणिं प्रपूज्यादौ
वह्निमावाहयेच्छिवे ।
तारं वह्नित्रयं चाग्रे वैश्वानरपदं
वदेत् ॥४८॥
प्रज्वलेति युगं
प्रोच्येदिहागच्छेति संवदेत् ।
इह सन्निधिमाधत्स्व वरं मे देहि
युग्मकम् ॥ ४९ ॥
फड्वह्निजायां प्रोच्चार्य
गन्धेनाभ्यर्चयेत्ततः ।
परादेव्यास्तु मन्त्रेण घृतमाज्यं
चरेच्छिवे ॥५०॥
मूलेनाग्नौ शिवे दद्यादाहुतीनां शतं
परम् ।
घृतखण्डादिमृद्वीकाखर्जूराम्बुजपायसैः
॥५१॥
पूजांग हवन-निरूपण - वेदी के पूर्व
भाग में योनिरूप त्रिकोण कुण्ड जमीन खोदकर बनावे। वहाँ दो लकड़ियों से बनी अरणी का
पूजन करे तब अग्नि का आवाहन करे। 'ॐ
रं रं रं अग्ने वैश्वानर प्रज्ज्वल प्रज्ज्वल इहागच्छ इह सन्निधिमाधत्स्व वरं मे देहि
देहि फट् स्वाहा' बोलकर गन्ध से
अर्चन करे। इसके बाद परा देवी के मन्त्र से गोघृत को हिलाये । मूल मन्त्र से अग्नि
को सौ आहुतियाँ प्रदान करे। इसके बाद घी में खजूर का चूर्ण,
कमल और पायस मिलाकर हवन करे।।४७-५०।।
देवीरहस्य पटल १ शिष्यसंस्कारक्रमः
तत्र देवीं समावाह्य परां ध्यात्वा
विशेषतः ।
प्राङ्मुखो गुरुरासीन उत्तराभिमुखं
शिशुम् ॥५२॥
संस्थाप्य विधिवद् देवि कृत्वा
विष्टरशोधनम् ।
भूतशुद्धिक्रमोपेतं प्राणार्पणविधिं
चरेत् ॥ ५३ ॥
प्राणायामत्रयं कृत्वा विधायाचमनत्रयम्
।
तत्र मूलेन देवेशि दिशो बद्ध्वा
परां स्मरेत् ॥ ५४ ॥
गुरुः शिष्याय शान्ताय पराप्रीत्यै
महेश्वरि ।
वह्नेः समक्षं यन्त्राग्रे दीक्षां
परमदुर्लभाम् ॥५५ ॥
कर्णमूले महाविद्यां श्रीविद्यां
साधकेश्वरः ।
आनन्दासक्तहृदयः शनैस्त्रिस्त्रिः समर्पयेत्
॥५६ ।।
प्रथमं तु गणेशस्य मन्त्रं साङ्गं समर्पयेत्
।
ततो देव्याश्च गायत्रीं ततो मूलं महेश्वरि
॥५७॥
एवं समर्प्य देवेशि कृत्वा होमं
यथाविधि ।
शिष्य का संस्कारक्रम-तब परा देवी
का विशेष ध्यान करके देवी का आवाहन करे। गुरु स्वयं पूर्व की ओर मुख करके बैठे और
शिष्य को उत्तर की ओर मुख करके बिठावे । शिष्य को बैठाने के पहले विधिवत् आसन का
शोधन करे। भूत-शुद्धि के बाद प्राणप्रतिष्ठा करें। तीन प्राणायाम करके तीन आचमन
करे। हे देवेशि ! मूल मन्त्र से दिग्बन्ध करके परा देवी का स्मरण करे।
हे महेश्वरि तब गुरु शिष्य की
शान्ति के लिये, परा की प्रीति के लिये अग्नि के
सामने यन्त्र के आगे परम दुर्लभ दीक्षा शिष्य के कान में महाविद्या श्रीविद्या को
प्रदान करे। आनन्दपूर्ण हृदय से गुरु धीरे-धीरे शिष्य को तीन-तीन बार बोलकर
श्रीविद्या समर्पित करे। शिष्य को पहले साङ्गोपाङ्ग गणेशमन्त्र प्रदान करे तब
देवीगायत्री का उपदेश करे। हे महेश्वरि ! तब मूल मन्त्र प्रदान करे। हे देवेशि! इस
प्रकार क्रम से मन्त्र समर्पित करके यथाविधि हवन करे।।५२-५७।।
शिष्यो दीक्षां तु सम्प्राप्य
गुरुमभ्यर्च्य शक्तितः ॥ ५८ ॥
तोषयित्वा प्रणामैश्च दक्षिणाभिः
शुभाम्बरैः ।
तदाज्ञां सहसादाय जपाय परमेश्वरि
।।५९ ।।
यन्त्रं मन्त्रं च मालां च तन्त्रं
वैकाङ्गमीश्वरि ।
पुनर्जातु शिवे शिष्यो गुरवेऽपि न
दर्शयेत् ॥ ६० ॥
ततो होमं च सम्पाद्य वटुकं
योगिनीगणम् ।
भूतान् सन्तर्प्य बलिना देवीं देवं
विसर्जयेत् ॥ ६१ ॥
दीक्षाप्राप्ति के बाद शिष्य अपनी
शक्ति के अनुसार गुरु का अभ्यर्चन करे। गुरु को प्रणाम करे। द्रव्य-दक्षिणा और
वस्त्र समर्पित करे। तब गुरु की आज्ञा जप के लिये प्राप्त करे। यन्त्र-मन्त्र-माला
और तन्त्र व्यक्तिगत होते हैं। इन्हें गुरु को भी नहीं दिखाना चाहिए;
तब हवन करके बटुक योगिनीगण और भूतों के लिये तर्पण करे। उन्हें बलि
प्रदान करे। तब विसर्जन करे।। ५२-६१।।
देवीरहस्य पटल १ मन्त्रसिद्ध्यर्थं
सम्प्रदायानुगतविद्या- ग्रहणविषयक प्रश्नः
श्रीदेव्युवाच
भगवन् देवदेवेश भक्तानुग्रहकारक ।
गणेशं चैव गायत्री मूलविद्यां जपेत्
परम् ॥ ६२ ॥
शैवं मन्त्रं जपन्नो वा वैष्णवं
साधकेश्वरः ।
कां कां विद्यां स
गृह्णीयाच्छिन्ध्येतत् संशयं मम ॥ ६३ ॥
विद्याविशेष ग्रहण का निर्णय-
श्रीदेवी ने कहा- भक्तों पर कृपालु हे भगवन् देवदेवेश ! मेरी इस शंका का समाधान
करें कि गणेश के साथ गायत्री और मूल विद्या का जप साधक करता है। शैव और वैष्णव
मन्त्रों की सिद्धि के लिये किन-किन विद्याओं को ग्रहण किया जाता है ?
।।६२-६३।।
देवीरहस्य पटल १ विद्याविशेषग्रहणनिर्णयः
श्री भैरव उवाच
प्रथमेऽहनि देवेशि साधको
गुरुभक्तितः ।
गणेशं देवि गायत्री मूलविद्यां
जपेत् परम् ।।६४।।
मुहूर्ते शुभदे देवि शैवं मन्त्रं
जपेत्ततः ।
गुरोः पादप्रसादेन लब्ध्वा
कतिपयैर्दिनैः ॥६५॥
ततो गुरुं शिवे भक्त्या वन्दनैः
पूजनैः सदा ।
प्रार्थनाभिश्च सन्तोष्य
श्रीविद्यां प्रार्थयेत्ततः ॥ ६६ ॥
विना श्रीविद्यया देवि
साधकोऽदीक्षितः स्मृतः ।
अदीक्षितः पशुः प्रोक्त:
पशुत्वान्निरयी भवेत् ॥६७॥
स्वजन्मनि शिवे तस्माद्
गुरुमभ्यर्च्य भक्तितः ।
श्रीविद्यां प्रार्थयित्वादौ
गृह्णीयात् सर्वसिद्धये ॥ ६८ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे देवेशि !
प्रथम दिन साधक गुरुभक्ति के साथ गणेशमन्त्र, देवीगायत्री
और मूल मन्त्र का जप करें शुभ मुहूर्त में शैव मन्त्र को गुरुकृपा से प्राप्त करके
कुछ दिनों के बाद जप करे हे शिवे! तब गुरु को भक्ति से, वन्दन
से पूजन से सन्तुष्ट करके श्रीविद्या मन्त्र की दीक्षा दान के लिये प्रार्थना करे।
हे देवि! श्रीविद्या की दीक्षा के बिना साधक को अदीक्षित कहा जाता है और अदीक्षित
पशु होता है। पशु नरकगामी होता है। अतएव अपने जन्मदिन में भक्ति से गुरु का अर्चन
करके श्रीविद्या की दीक्षा के लिये प्रार्थना करे और सभी सिद्धियों की प्राप्ति के
लिये उसे ग्रहण करे।। ६४-६८ ।।
महात्रिपुरसुन्दर्याः श्रीविद्यां
प्राप्य दुर्लभाम् ।
शिवां गिरजे साङ्गां प्रार्थयेद्
दक्षिणां ततः ।। ६९ ।।
विना श्यामां न सिद्धिः स्यान्ममापि
परमेश्वरि ।
द्वाविंशत्यक्षरी विद्यां प्रजपेत्
साधकोत्तमः ॥ ७० ॥
श्यामाविद्याजपेनाशु श्रीविद्या
सिद्धिमेष्यति ।
तामसी कालिका प्रोक्ता राजसी
षोडशाक्षरी ॥७१॥
सात्त्विकी च परादेवी
महाश्रीषोडशाक्षरी ।
राज्यं देयं शिरो देयं देया
सन्ततिरर्थिने ॥ ७२ ॥
वसुपूर्ण गृहं देयं न देया
घोडशाक्षरी ।
विद्यां त्रिपुरसुन्दर्या लब्ध्वा
गुरुप्रसादतः ॥७३॥
मनसापीति नो
ब्रूयाच्छ्रीविद्योपासकोऽस्म्यहम् ।
महात्रिपुरसुन्दरी की श्रीविद्या
प्राप्ति दुर्लभ है। हे गिरिजे! तब साधक शिव के साथ सांग दक्षिणकाली के
मन्त्रदान के लिये प्रार्थना करे बिना काली मन्त्र के मुझे भी सिद्धि नहीं
मिल सकती। इसलिये बाईस अक्षरों वाली श्यामा विद्या प्राप्त करके साधकोत्तम जप करे।
श्यामाविद्या के जप से ही श्रीविद्या की सिद्धि होती है। कालिका को तामसी
और षोडशी को राजसी कहा जाता है। परा देवी महाषोडशाक्षरी को सात्विकी कहा
जाता है। राज्य का दान कर दे, शिर दे दे,
सन्तानों को दे दे, धन-धान्यपूर्ण गृह प्रदान
कर दे किन्तु षोडशाक्षरी विद्या किसी को न दे। गुरुकृपा से त्रिपुरसुन्दरी की
विद्या प्राप्त करके मन से भी न कहे कि मैं श्रीविद्या का उपासक हूँ ।। ६९-७३ ।।
श्यामां भजेत् पराविद्यां श्रीविद्याभेदरूपिणीम्
॥७४॥
तेन सिद्धिर्भवेदाशु देवानामपि
दुर्लभा ।
यत्र दृष्ट्यापि वै
ब्रूयाद्गुरुस्तन्न समाचरेत् ॥ ७५ ॥
गुरुरेव परा देवी गुरुरेव परा गतिः
।
गुरुमुल्लङ्घय यः कुर्यात्किञ्चित्स
निरयं व्रजेत् ॥ ७६ ॥
एवं देवि पराभक्तो दीक्षितो
गुरुपूजकः ।
गुरूपदेशत: कुर्याज्जपं
पूजामहर्निशम् ॥७७॥
परा विद्या श्रीविद्या की भेदरूपिणी
श्यामा विद्या के जप से देवदुर्लभ सिद्धि की प्राप्ति होती हैं। यदि कुछ दिखलायी न
पड़े तो यह बात गुरु को बताना चाहिये। तब गुरु जैसा कहे वैसा ही करना चाहिये;
क्योंकि गुरु ही परा देवी है, गुरु ही परा गति
है। गुरु की आज्ञा का उल्लङ्घन करके जो कुछ भी किया जाता है, उससे नरकवास प्राप्त होता है। इस प्रकार परा देवी का दीक्षित भक्त
गुरुभक्ति में निरत गुरु के उपेदशानुसार अहर्निश पूजा और जप करता रहे।। ७४-७७।।
देवीरहस्य पटल १ शक्तिदीक्षानिरूपणम्
स्वयं दीक्षां गुरोर्लब्ध्वा
दीक्षितः पुण्यभाजनम् ।
गुरुमभ्यर्च्य सम्प्रार्थ्य
शक्तिदीक्षार्थमीश्वरि ॥७८॥
दीक्षिता यस्य तो शक्तिस्तस्य
दीक्षा तु निष्फला ।
जन्मकोटिषु जप्तापि तस्य विद्या न
सिध्यति ॥ ७९ ॥
ततः शिवे गुरुः शिष्यं सम्पूज्य
परमार्थवित् ।
शिष्यस्त्रियं परारूपां देवीरूपां
विचिन्तयेत् ॥८०॥
अभ्यर्च्य परमां शक्तिं परावद्
वन्दनैः स्तवैः ।
आदृत्य मातृवद् देवि कन्यावद्
दीक्षयेत् तदा ॥८१॥
शक्ति दीक्षानिरूपण—
गुरु से दीक्षा प्राप्त करके पुण्यात्मा दीक्षित साधक गुरु की पूजा
करके उनसे शक्तिदीक्षा के लिये प्रार्थना करे। शक्तिदीक्षा के बिना दीक्षा निष्फल
होती है करोड़ों जन्मों तक जप करने पर भी विद्या सिद्ध नहीं होती हे शिवे! इसलिये
गुरु की सम्यक् रूप से पूजा करके शिष्य परमार्थ प्राप्ति के लिये स्त्रियों को
परारूपा और देवीरूपा चिन्तन करे। परमा शक्ति परा के समान स्त्रियों की पूजा वन्दन
स्तोत्र से करके शिष्य उन्हें माता के समान आदर करे और कन्या के समान दीक्षित
करे।। ७८-८१।।
परावत् पूजयित्वादौ ततो दीक्षां
समर्पयेत् ।
उपविश्य गुरुस्तत्र पश्चिमाभिमुखः
शिवे ॥८ २ ॥
दीक्षायै प्राङ्मुखीं कृत्वा
पूजयेद् यन्त्रराजवत् ।
ततः सम्पूज्य देवेशि यन्त्राये
देवतागृहे ॥८३॥
शिवो भूत्वा पराविद्यां कर्णमूले
समर्पयेत् ।
सम्प्राप्य सशिवां विद्यां गुरुं
पितृवदर्चयेत् ॥ ८४ ॥
गन्धाक्षतप्रसूनाद्यैर्दक्षिणाम्बरपूर्वकैः
।
तदाज्ञां शिरसादाय जपं कुर्यात्तु
सर्वदा ॥८५॥
पहले परा देवी के समान उनकी पूजा
करे तब उसे दीक्षित करे। तब गुरु पश्चिम की ओर मुख करके बैठे। दीक्षार्थिनी स्त्री
को पूर्वाभिमुख बैठाये यन्त्रराज की पूजा के समान उसका पूजन करे। हे देवेशि! इसके
बाद देवालय में यन्त्र के आगे पूजन करके स्वयं शिवस्वरूप होकर परा विद्या को
शिष्या के कानों में कहे और समर्पित करे। दीक्षा के बाद शिष्या गुरु की पूजा पिता
के समान करे। गन्धाक्षतपुष्प से पूजा करके दक्षिणा और वस्त्र प्रदान करे। गुरु की
आज्ञा को शिर पर धारण करके सदैव जप करे ।। ८२-८५ ।।
शक्तिश्च दीक्षिता भूत्वा
दीक्षितोऽपि स्वयं शिवे ।
मर्त्योऽपि सञ्छिवे
जन्तुरमरत्वमवाप्नुयात् ॥८६॥
गुरोः पादप्रसादेन श्रीविद्या यदि
लभ्यते ।
स श्यामा स शिवा देवि वश्यं तस्य
जगत्त्रयम् ॥८७॥
शक्ति में दीक्षित साधक स्वयं शिव
स्वरूप हो जाता है। मर्त्य होने पर भी सत्शिवा हो जाती है,
अमरत्व प्राप्त करती है। गुरुपादप्रसाद से यदि श्रीविद्या प्राप्त
हो जाय तो वह स्त्री स्वयं काली, पार्वती के समान हो जाती है
और उसके वश में तीनों लोक हो जाते हैं।।८६-८७।।
देवीरहस्य पटल १ पटलोपसंहारः
इदं रहस्यं परमं तव भक्त्या
मयेरितम् ।
दीक्षाविधेर्महादेवि गोपनीयं
प्रयत्नतः ॥ ८८ ॥
इस परम रहस्य को मैंने तुम्हारी
भक्ति के कारण बतलाया है। हे महादेवि! दीक्षाविधि को यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये
।। ८८ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये दीक्षाविधिनिरूपणं नाम प्रथमः पटलः ॥ १ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में दीक्षाविधिनिरूपण नामक प्रथम पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 2
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