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जानकी स्तवन
अद्भुत रामायण श्रीराम विजय वर्णन
नामक सर्ग २६ में माता सीता के सौम्यरूप देखकर श्रीराम द्वारा जानकी का स्तवन किया
गया ।
जानकी स्तवन
Janaki stavan
श्रीरामकृत जानकी स्तवन
अद्य मे सफलं जन्म अद्य मे सफलं तपः
॥
यन्मे साक्षात्वमक्ता प्रसन्ना
दृष्टिगोचरा ।। ९ ।।
आज मेरा जन्म और तप सफल है जो तुम अव्यक्ता साक्षात् मेरी दृष्टि के सन्मुख हुई हो और प्रसन्न हुई हो ।
त्वया सृष्टं जगत्सर्व प्रधानाद्यं
त्वयि स्थितम् ॥
त्वय्येव लीयते देवि त्वमेव च
परागतिः ॥ १० ॥
तुमने ही सब जगत् निर्माण किया है
और यह प्रधानादि तुममें स्थित है, हे देवि ! यह
अन्त में तुममें ही लय हो जाता है, तुम ही परागति हो
वदंति केचित्त्वामेव प्रकृति
विकृतेः परम् ॥
अपरे परमात्मज्ञाः शिवेति
शिवसंश्रये ॥ ११ ॥
कोई तुम ही को प्रकृति से विकृति से
परे कहते हैं, परमात्मा के जाननेवाले शिव के
आश्रय में शिवा कहते हैं ।
त्वयि प्रधानं पुरुषो महान्ब्रह्मा
तथेश्वरः ॥
अविद्या नियमिर्माया कालाद्याः
शतशोऽभवन् ॥ १२ ॥
तुममें प्रधान पुरुष महान् ब्रह्मा ईश्वर अविद्या नियति माया कालाहि सैकडों होते हैं ।
त्वं हि सा परमा शक्तिरनंता
परमेष्ठिनी ॥
सर्वभेदविनिर्मुक्ता सर्वभेदाश्रया
निजा ॥ १३ ॥
तुम अनन्त परमेष्ठिनी परमशक्ति हो सब भेदों से निर्मुक्त सब भेदों के आश्रयवाली निजस्वरूप हो ।
त्वामधिष्ठाय योगेश पुरुषः परमेश्वरीम्
॥
प्रधानाद्यं जगत्कृत्स्नं करोति
विकरोति च ॥ १४ ॥
हे योगेशि ! तुम परमेश्वर को प्राप्त होकर पुरुष प्रधानादि सब जगत्को निर्माण कर फिर संहार करती है ।
त्वयैव सगतो देवः स्वमानंदं
सम्झनुते ।।
त्वमेव परमानन्दस्त्वमेवानन्ददायिनी
।। १५ ।।
तुम्हारी संगति से अपने देव अपने
आनन्द को प्राप्त होता है, तुम ही परमानंद और
आनंद की देनेवाली हो
त्वमेव परमं व्योम
महाज्योर्तिनिरंजनम् ॥
शिवं सर्वगतं सूक्ष्मं परं ब्रह्म
सनातनम् ॥ १६ ॥
तू ही परमाकाश महाज्योति निरञ्जन है,
शिव सर्वगत सूक्ष्म परब्रह्म सनातन है ।
त्वं शक्रः सर्व-देवानां ब्रह्मा
ब्रह्मविदामपि ।।
सांख्यानां कपिलो देवो रुद्राणामसि
शंकरः ।। १७ ।।
तुम सब देवताओं के इंद्र,
ब्रह्मज्ञानियों के ब्रह्मा हो, सांख्यों में
कपिलदेव, रुद्रों में शंकर हो ।
आदित्यानामुपेंद्रस्त्व वसूनां चैव
पावकः ॥
वेदानां सामवेदस्त्वं गायत्री
छन्दसामपि ॥ १८ ॥
आदित्यों में उपेन्द्र और वसुओं में
पावक हो,
वेदों में सामवेद और छंदों में गायत्री हो ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां गीतानां
परमा गतिः ।
माया त्वं सर्वशक्तीनां कालः
कलयतामपि ॥ १९ ॥
विद्या में अध्यात्मविद्या गतियों में परमगति सर्वशक्तियों की माया और कलित करनेवालों में काल तुम हो ।
ॐकार सर्वगुह्यानां वर्णानां च
द्विजोत्तमः ।।
आश्रमाणां गृहस्थस्त्वमीश्वराणां
महेश्वरः ॥ २० ॥
सम्पूर्ण गुह्यों में ॐकार तुम हो,
वर्णों में ब्राह्मण, आश्रमों में, गृहस्थ, और ईश्वरों में महेश्वर तुम हो ।
पुंसां त्वमेव पुरुषः सर्वभूत हृदि
स्थितः ।।
सर्वोपनिषदां देवि
गुह्योपनिषटुच्यसे ॥ २१ ॥
पुरुषों में पुरुष सब भूतों के हृदय
में तुम स्थित हो, हे देवि ! सम्पूर्ण
उपनिषदों में गुप्त उपनिषद् तुम हो ।
ईशनं चासि भूपानां युगानां कृतमेव च
।।
आदित्यः सर्वमार्गाणां वाचां देवि
सरस्वती ॥ २२ ॥
राजों में ईशता,
और युग में सतयुग तुम हो, अचिरादि सब मार्गों में
आदित्य, वाणियों में सरस्वती देवी तुम हो ।
त्वं लक्ष्मीश्चारुरूपाणां
विष्णुर्मायाविनामपि ।।
अरुंधती सतीनां त्वं सुपर्णः
पततामसि ।। २३ ।।
सुन्दर रूपवालों में लक्ष्मी
मायावियों में विष्णु, सतियों में
अरुन्धती, पक्षियों में गरुड तुम हो ।
सूक्तानां पौरुषं सूक्तं ज्येष्ठं
साम च सामसु ॥
सावित्री ह्यसि जप्यानां यजुषां
शतरुद्रियम् ॥ २४ ॥
वेद के सूक्तों में पुरुषसूक्त
साम में ज्येष्ठ साम, जपों में सावित्री,
और यजुओं में शतरुद्रिय तुम हो ।
पर्वतानां महामेरुरनन्तो भागिनामसि
॥
सर्वेषां त्वं परंब्रह्म त्वन्मयं
सर्वमेवहि ।। २५ ।।
पर्वतों में मेरु भोगियों (सर्पों)
में अनन्त, सबके परब्रह्म तुम हो यह सब
तुममें हैं ।
रूपं तवाशेषकलाविहीनमगोचरं
निर्मलमेकरूपम् ।।
अनादिमध्यान्तमनन्तमाद्यं नमामि
सत्यं तमसः परस्तात् ।। २६ ॥
तुम्हारा रूप सब काल से विहीन अगोचर
निर्मल एक है, आदि अन्त मध्यरहित अनन्त तुमसे
परे, सब की आदि तुमको मैं प्रणाम करता हूं ।
यदेव पश्यंति जगत्प्रसूति
वेदांतविज्ञानविनिश्चितार्थाः ॥
आनन्दमात्रं परमाविधान तदेवं रूपं
प्रणतोऽस्मि नित्यम् ।। २७ ।।
जो वेदान्त के विज्ञान से निश्चित
अर्थवाले होकर इस जगत् की प्रसूति तुमको जब देखते है,
आनन्द मय परम तुम्हारे रूप को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ ।
अशेषसूत्रांतरसन्निविष्टं
प्रधानसंयोगवियोगहेतुः ॥
तेजोमयं जन्मविनाशहीनं प्राणाभिधानं
प्रणतोऽस्मि रूपम् ॥ २८ ॥
सम्पूर्ण के सूत्रांतर में सन्निविष्ट प्रधान संयोग वियोग के हेतु तेजोमय जन्म विनाश से हीन प्राणरूप तुमको मैं नित्य नमस्कार करता हूं ।
आद्यंतहीनं जगदात्मरूपं
विभिन्नसंस्थं प्रकृतेः परस्तात् ॥
कूटस्थमव्यक्तवपुस्तवैव नमामि रूपं
पुरुषाभिधानम् ।। २९ ।।
आदि अन्त में हीन. जगत्के आत्मरूप
भिन्न संस्थावान्, प्रकृति से परे,
कूटस्थ अव्यक्त शरीर पुरुष रूप तुमको नित्य नमस्कार करता हूं ।
सर्वाश्रयं सर्वजगन्निधानं
सर्वत्रगं जन्मविनाशहीनम् ॥
नतोऽस्मि ते रूपमणुप्रभेदमाद्यं
महत्त्वे पुरुषानुरूपम् ॥ ३० ॥
सबके आश्रय,
सब जगत्के निधान, सब स्थान में जानेवाले जन्म विनाश
से रहित, अणुप्रभेद आद्य महत्त्व पुरुष अनुरूप तुम्हारे रूप को
मैं प्रणाम करता हूं ।
प्रकृत्यवस्थं
त्रिगुणात्मबीजमैश्वर्यविज्ञानविरागधर्मेः ।
समन्वितं देवि नतोऽस्मि रूपं
द्विसप्तलोकात्मकमंबुसंस्थम् ॥ ३१ ॥
प्रकृति की अवस्थावाला,
त्रिगुणात्मबीज ऐश्वर्यं विज्ञान विराग धर्मो से युक्त, चौदह लोकात्मक, जल में स्थित, आपके
रूप को नमस्कार करता हूं
विचित्रभेदं पुरुषैकनाथमनंत
भूर्तीवनिवासितं ते ।।
नतोऽस्मि रूपं
जगदंडसंज्ञमशेषवेदात्मकमेकमाद्यम् ।। ३२ ।।
विचित्र भेद पुरुष एकनाथ अनन्त भूतों से निवासित जगत्के अंडसंज्ञक अशेष वेद आद्य तुम्हारे रूप को नमस्कार करता हूं ।
स्वतेजसा पूरितलोकभेदं नमामि रूपं
रविमंडलस्थम् ।।
सहस्रमूर्द्धानमनंतशक्त सहस्रबाहु
पुरुषं पुराणम् ॥
शयानमंतः सलिले तवैव नारायणाख्यं प्रणतोऽस्मि
रूपम् ।। ३३ ।।
अपने तेज से लोक को भेदपूर्ण
रविमंडल में स्थित तुम्हारे रूप को नमस्कार करता हूं, सहस्रमूर्धावाले अनन्तशक्ति सहस्रबाहु पुराण पुरुष जल के भीतर शयन
करनेवाले नारायणाख्य आपके रूप को नमस्कार करता हूं ।
दंष्ट्राकरालं त्रिदशाभिवंद्यं
युगांतकालानलकल्परूपम् ।।
अशेषभूतांडविनाश हेतुं नमामि रूपं
नव कालसंज्ञम् ।। ३४ ।।
कराल डाढोंवाला देवताओं से नमस्कृत युगान्त कालानल के समान प्रकाशित सम्पूर्ण भूतअण्ड के विनाश कारण कालसंज्ञक तुम्हारे रूप को नमस्कार करता हूं ।
फणासहस्रेण विराजमानं
भुवस्तलेऽधिष्ठितमप्रमेयम् ।।
अशेषभारोद्वहने समर्थ नमामि ते
रूपनंतसंज्ञम् ।। ३५ ।।
अव्याहतैश्वर्यम युग्मनेत्रं
ब्रह्मात्मतानं दरसंज्ञमेकम् ।।
युगांतशेषं दिवि नृत्यमानं न
तोऽस्मि रूपं तव रुद्रसंज्ञम् ।। ३६ ।।
सहस्रफणों से विराजमान पृथ्वीतल में स्थित अप्रमेय सम्पूर्ण भार के उद्वहन करने में समर्थ अनन्त संज्ञक अव्यातहतैश्वर्य नेत्र द्वयवाले ब्रह्मानंद में स्थित स्वर्ग में नाचनेवाले ऐसे तुम्हारे रुद्र रूप को नमस्कार करता हूं ।
प्रहीणशोकं विमलं पवित्रं सुरा
सुरैरचितपादयुग्मम् ॥
सुकोमलं देवि विशालशुभ्रं नमामि ते
रूपमिदं नमामि ।। ३७ ।।
शोकरहित विमल पवित्र सुर असुरों से अर्चित चरण कमल कोमल विशाल शुभ्र इस तुम्हारे रूप को मैं प्रणाम करता हूं ।
इति: अद्भुत रामायण जानकी स्तवन नाम षविंशतितमः सर्गः ।।२६।।
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