अग्निपुराण अध्याय ९६
अग्निपुराण
अध्याय ९६ में प्रतिष्ठा में अधिवास की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् षण्णवतितमोऽध्यायः
Agni puran chapter 96
अग्निपुराण छियानबेवाँ अध्याय – प्रतिष्ठा अधिवास विधि
अग्नि पुराण अध्याय ९६
अग्निपुराणम् अध्यायः ९६ – अधिवासनविधि:
अथ षण्णवतितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
स्नात्वा
नित्यद्वयं कृत्वा प्रणवार्थकरो गुरुः ।
सहायैर्मूर्त्तिपैर्विप्रैः
सह गच्छेन्मशालयं ।। १ ।।
शान्त्यादितोरणांस्तत्र
पूर्ववत् पूजयेत् क्रमात् ।
प्रदक्षिणक्रमादेषां
शाखायां द्वारपालकान् ।। २ ।।
प्राचि नन्दिमहाकालौ
याम्ये भृङ्गिविनायकौ ।
वारुणे
वृषभस्कन्दौ देवीचण्डौ तथोत्तरे ।। ३ ।।
तच्छाखामूलदेशस्थौ
प्रशान्तशिशिरौ घटौ ।
पर्ज्जन्याशोकनामानौ
भूतं सञ्जीवनामृतौ ।। ४ ।।
धनदश्रीप्रदौ
द्वौ द्वौ पूजयेदनुपूर्वशः ।
स्वनामभिश्चतुर्थ्यन्तैः
प्रणवादिनमोन्तगैः ।। ५ ।।
भगवान् शिव
कहते हैं- स्कन्द ! पुरोहित को चाहिये कि वह स्नान करके प्रातः काल और मध्याह्नकाल, दोनों समय का नित्यकर्म सम्पन्न करके
मूर्तिरक्षक सहायक ब्राह्मणों के साथ यज्ञमण्डप को
पधारे।(मूर्तिभिर्जापिभिर्विप्रैः - इस पाठान्तर के अनुसार मूर्तियों और जपकर्ता
ब्राह्मणों के साथ यज्ञमण्डप में जाय ऐसा अर्थ समझना चाहिये। फिर वहाँ शान्ति आदि द्वारों
का पूर्ववत् क्रमशः पूजन करे। इन द्वारों की दोनों शाखाओं पर प्रदक्षिणक्रम से
द्वारपालों की पूजा करनी चाहिये। पूर्व दिशा में द्वारपाल नन्दी और महाकाल की,
दक्षिण दिशा में भृङ्गी और विनायक की, पश्चिम
दिशा में वृषभ और स्कन्द की तथा उत्तर दिशा में देवी और चण्ड की पूजा करे। द्वार –
शाखाओं के मूलदेश में पूर्वादि क्रम से दो-दो कलशों की पूजा करे। उनके नाम इस
प्रकार हैं- पूर्व दिशा में प्रशान्त और शिशिर, दक्षिण में
पर्जन्य और अशोक, पश्चिम में भूतसंजीवन और अमृत तथा उत्तर में
धनद और श्रीप्रद-इन दो-दो कलशों की क्रमशः पूजा का विधान है। इनके नाम के आदि में 'प्रणव' और अन्त में 'नमः'
जोड़कर चतुर्थ्यन्त रूप रखे यही इनके पूजन का मन्त्र है। यथा- 'ॐ प्रशान्तशिशिराभ्यां नमः ।' इत्यादि ॥ १-५ ॥
लोकग्रहावसुद्वाःस्थस्रवन्तीनां
द्वयं द्वयं ।
भानुत्रयं
युगं वेदो लक्ष्मीर्गणपतिस्तथा ।। ६ ।।
इति देवा
मखागारे तिष्ठन्ति प्रतितोरणं ।
विघ्नसङ्घापनोदाय
क्रतोः संरक्षणाय च ।। ७ ।।
वज्रं शक्तिं
तथा दण्डं खड्गं पाशं ध्वजं गदां ।
त्रिशूलं
चक्रमम्भोजम्पताकास्वर्च्चयेत् क्रमात् ।। ८ ।।
ओ ह्रूं फट्
नमः। ओं ह्रूं फट् द्वाः स्थशक्तये ह्रूं फट् नमः इत्यादिमन्त्रैः।
लोक दो ग्रह
दो, वसु दो, द्वारपाल दो,
नदियाँ दो, सूर्य तीन, युग
एक, वेद एक, लक्ष्मी तथा गणेश - इतने
देवता यज्ञमण्डप के प्रत्येक द्वार पर रहते हैं। इनका कार्य है- विघ्न समूह का
निवारण और यज्ञ का संरक्षण पूर्वादि दस दिशाओं में वज्र, शक्ति,
दण्ड, खड्ग, पाश,
ध्वज, गदा, त्रिशूल,
चक्र और कमल की क्रमशः पूजा करे तथा प्रत्येक दिशा में दिक्पाल की
पताका का भी पूजन करे। पूजन के मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है - ॐ हूं हः वज्राय
हूं फट् । ॐ हूं हः शक्तये हूं फट् ।*
इत्यादि ॥ ६-८ ॥
* सोमशम्भुरचित 'कर्मकाण्ड-क्रमावली 'में
मन्त्र का यही स्वरूप उपलब्ध होता है। कुछ प्रतियों में ॐ हूं फट् नमः। ॐ हूं फट् द्वाःस्थशक्तये
हुं फट् नमः' ऐसा पाठ है।
कुमुदः
कुमुदाक्षश्च पुण्डरीकोथ वामनः।
शङ्कुकर्णः
सर्वनेत्रः सुमुख सुप्रतिष्ठितः ।। ९ ।।
ध्वजाष्टदेवताः
पूज्याः पूर्वादौ भूतकोटिभिः।
ओं कौं
कुमुदाय नम इत्यादिमन्त्रैः ।। १० ।।
हेतुकं
त्रिपुरघ्नञ्च शक्त्याख्यं यमज्ह्वकं ।
कालं करालिनं
षष्ठमेकाङ्घ्निम्भीममष्टकं ।। ११ ।।
तथैव पूजयेद्
दिक्षु क्षेत्रपालाननुक्रमात् ।
वलिभिः
कुसुमैर्धूपैः सन्तुष्टान् परिभावयेत् ।। १२ ।।
कम्बलास्तृतेषु
वर्णेषु वंशस्थूणास्वनुक्रमात् ।
पञ्च
क्षित्यादितत्त्वानि सद्योजातादिभिर्यजेत् ।। १३ ।।
सदाशिवपदव्यापि
मण्डपं धाम शाङ्करं ।
पताकाशक्तिसंयुक्तं
तत्त्वदृष्ट्यावलोकयेत् ।। १४ ।।
कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक,
वामन, शङ्कुकर्ण, सर्वनेत्र
(अथवा पद्मनेत्र), सुमुख और सुप्रतिष्ठित--ये ध्वजों के आठ
देवता हैं, जो पूर्वादि दिशाओं में कोटि-कोटि भूतों सहित
पूजनीय हैं। इनके पूजन-सम्बन्धी मन्त्र इस प्रकार हैं- ॐ कुं कुमुदायनमः ।* इत्यादि। हेतुक (अथवा हेरुक), त्रिपुरघ्न, शक्ति (अथवा वह्नि), यमजिह्व, काल, छठा कराली,
सातवाँ एकाङ्घ्रि और आठवाँ भीम- ये क्षेत्रपाल हैं। इनका क्रमशः
पूर्वादि आठ दिशाओं में पूर्ववत् पूजन करे। बलि, पुष्प और
धूप देकर इन सबको सन्तुष्ट करे। तदनन्तर उत्तम एवं पवित्र तृणों पर अथवा बाँस के खंभों
पर क्रमशः पृथ्वी आदि पाँच तत्त्वों की स्थापना करके सद्योजातादि पाँच मन्त्रों द्वारा
उनका पूजन करे। सदाशिव पदव्यापी मण्डप का, जो भगवान् शंकर का
धाम है तथा पताका एवं शक्ति से संयुक्त है (पाठान्तर के अनुसार पातालशक्ति या पिनाकशक्ति
से संयुक्त है), तत्त्वदृष्टि से अवलोकन करे ॥ ९-१४ ॥
* कहीं-कहीं-कुं' के स्थान में 'कौं' पाठ है।
दिव्यान्तरिक्षभूमिष्ठविघ्नानुत्सार्य्य
पूर्ववत् ।
प्रविशेत्
पश्चिमद्वारा शेषद्वाराणि दर्शयेत् ।। १५ ।।
प्रदक्षिणक्रमाद्गत्वा
निविष्टो वेदिदक्षिणे ।
उत्तराभिमुखः
कुर्य्याद् भूतशुद्धिं यथा पुरा ।। १६ ।।
अन्तर्य्यागं
विशेषार्घ्यं मन्त्रद्रव्यादिशोधनं ।
कुर्व्वींत
आत्मनः पूजां पञ्चगव्यादि पूर्ववत् ।। १७ ।
साधारङ्कलसन्तस्मिन्
विन्यसेत्तदनन्तरं ।
विशेषाच्छिचवतत्त्वाय
तत्त्वत्रयमनुक्रमात् ।। १८ ।।
ललाटस्कन्धपादान्तं
शिवविद्यात्मकं परं ।
रुद्रनारायणब्रह्मदैवतं
निजसञ्चरैः ।। १९ ।।
ओं हं हां ।
पूर्ववत्
दिव्य अन्तरिक्ष एवं भूलोकवर्ती विघ्नों का अपसारण करके पश्चिम द्वार में प्रवेश
करे और शेष दरवाजों को बंद करा दे (अथवा शेष द्वारों का दर्शनमात्र कर ले ) ।
प्रदक्षिणक्रम से मण्डप के भीतर जाकर वेदी के दक्षिण भाग में उत्तराभिमुख होकर
बैठे और पूर्ववत् भूतशुद्धि करे। अन्तर्याग, विशेषार्घ्य, मन्त्र- द्रव्यादि-शोधन,
स्वात्म पूजन तथा पञ्चगव्य आदि पूर्ववत् करे। फिर वहाँ आधारशक्ति की
प्रतिष्ठापूर्वक कलश स्थापन करे। विशेषतः शिव का ध्यान करे। तदनन्तर क्रमशः तीनों
तत्त्वों का चिन्तन करे। ललाट में शिवतत्त्व की, स्कन्धदेश में
विद्यातत्त्व की तथा पादान्त-भाग में उत्तम आत्मतत्त्व की भावना करे। शिवतत्त्व के
रुद्र, विद्यातत्त्व के नारायण तथा आत्मतत्त्व के ब्रह्मा
देवता हैं। इनका अपने नाम मन्त्रों द्वारा पूजन करना चाहिये। इन तत्त्वों के
आदि-बीज क्रमश: इस प्रकार हैं- ॐ ई आम्' ॥ १५-१९
॥
मूर्त्तीस्तदीश्वरंस्तत्र
पूर्ववद्विनिवेशयेत् ।
तद्व्यापकं
शिवं साङ्गं शिवहस्तञ्च मूर्द्धनि ।। २० ।।
ब्रह्मरन्ध्रप्रविष्टेन
तेजसा बाह्यसान्तरं ।
तमः पटलमाधूय
प्रद्योतितदिगन्तरं ।। २१ ।।
आत्मानं
मूर्त्तिपैः सार्द्वं स्रग्वस्त्रकुसुमादिभिः ।
भूषयित्वा
शिवोस्मीति ध्यात्वा बोधासिमुद्धिरेत् ।। २२ ।।
चतुष्पदान्तसंस्कारैः
संस्कुर्य्यान्मशमण्डपं ।
विक्षिप्य
विकिरादीनि कुशकूर्चोपसंहरेत् ।। २३ ।।
आसनीकृत्य वर्द्धन्यां
वास्त्वादीन् पूर्ववद्यजेत् ।
शिवकुम्भास्त्रवर्द्धन्यौ
पूजयेच्च स्थिरासने ।। २४ ।।
स्वदिक्षु
कलशारूढांल्लोकपालाननुक्रमात् ।
सहस्त्रनयनं
शक्रं वज्रपाणिं विभावयेत् ।। २५ ।।
मूर्तियों और
मूर्तीश्वरों की वहाँ पूर्ववत् स्थापना करे। उनमें व्यापक शिव का साङ्ग पूजन करके
मस्तक पर शिव हस्त रखे। भावना द्वारा ब्रह्मरन्ध्र के मार्ग से प्रविष्ट हुए तेज से
अपने बाहर-भीतर की अन्धकार राशि को नष्ट करके आत्मस्वरूप का इस प्रकार चिन्तन करे
कि 'वह सम्पूर्ण दिङ्मण्डल को प्रकाशित कर रहा
है।' मूर्तिपालकों के साथ अपने-आपको भी हार, वस्त्र और मुकुट आदि से अलंकृत करके - 'मैं शिव हूँ'
- ऐसा चिन्तन करते हुए 'बोधासि' (ज्ञानमय खड्ग) - को उठावे । चतुष्पदान्त संस्कारों द्वारा यज्ञमण्डप का
संस्कार करे। बिखेरने योग्य वस्तुओं को सब ओर बिखेरकर, कुश की
कूँची से उन सबको समेटे उन्हें आसन के नीचे करके वार्धानी के जल से पूर्ववत्
वास्तु आदि का पूजन करे। शिव - कुम्भास्त्र और वार्षानी के सुस्थिर आसनों की भी
पूजा करे। अपनी-अपनी दिशा में कलशों पर विराजमान इन्द्रादि लोकपालों का क्रमशः
उनके वाहनों और आयुध आदि के साथ यथाविधि पूजन करे ॥ २० - २५ ॥
ऐरावतगजारूढं
स्वर्णवण किरीटिनं ।
सहस्रनयनं
शक्रं वज्रपाणिं विभावयेत् ।। २६ ।।
सप्तार्च्चिषं
च विभ्राणमक्षमालां कमण्डलुं ।
ज्वालामालाकुलं
रक्तं शक्तिहस्तमजासनं ।। २७ ।।
महिषस्थं
दण्डहस्तं यमं कालानलं स्मरेत् ।
रक्तनेत्रं
खरारूढं खड्गहस्तञ्च नैर्ऋृतं ।। २८ ।।
वरुणं मकरे
श्वेतं नागपाशधरं स्मरेत् ।
वायुं च हरिणे
नीलं कुवेरं मेघसंस्थितं ।। २९ ।।
त्रिशूलिनं
वृषे चेशं कूर्म्मेनन्तन्तु चक्रिणं ।
ब्रह्माणं
हंसगं ध्यायेच्चतुर्वक्त्रं चतुर्भुजं ।। ३० ।।
पूर्व दिशा में
इन्द्र का चिन्तन करे। वे ऐरावत हाथी पर बैठे हैं। उनकी अङ्ग कान्ति सुवर्ण के समान
दमक रही है। मस्तक पर किरीट शोभा दे रहा है। वे सहस्र नेत्र धारण करते हैं। उनके हाथ
में वज्र शोभा पाता है। अग्निकोण में सात ज्वालामयी जिह्वाएँ धारण किये, अक्षमाला और कमण्डलु लिये, लपटों से घिरे रक्त वर्णवाले अग्निदेव का ध्यान करे। उनके हाथ में शक्ति
शोभा पाती है तथा बकरा उनका वाहन है। दक्षिण में महिषारूढ दण्डधारी यमराज का
चिन्तन करे, जो कालाग्नि के समान प्रकाशित हो रहे हैं।
नैर्ऋत्य- कोण में लाल नेत्रवाले नैर्ऋत्य की भावना करे, जो
हाथ में तलवार लिये, शव (मुर्दे) पर आरूढ हैं। पश्चिम में
मकरारूढ, श्वेतवर्ण, नागपाशधारी वरुण का
चिन्तन करे। वायव्यकोण में मृगारूढ, नीलवर्ण वायुदेव का तथा
उत्तर में भेंड़े पर सवार कुबेर का ध्यान करे। ईशानकोण में त्रिशूलधारी, वृषभारूढ ईशान का, नैर्ऋत्य तथा पश्चिम के मध्यभाग में
कच्छप पर सवार चक्रधारी भगवान् अनन्त का तथा ईशान और पूर्व के भीतर चार मुख एवं
चार भुजा धारण करनेवाले हंसवाहन ब्रह्मा का ध्यान करे ॥ २६-३० ॥
स्तम्बमूलेषु
कुम्भेषु वेद्यां धर्मादिकान् यजेत् ।
दिक्षु
कुम्भेष्वनन्तादीन् पूजयन्त्यपि केचन ।। ३१ ।।
शिवाज्ञां
श्रावयेत् कुम्भं भ्रामयेदात्मपृष्ठगं ।
पूर्ववत्
स्थापयेदादौ कुम्भं तदनु वर्द्धनीं ।। ३२ ।।
शिवं
स्थिरासनं कुम्भे शस्त्रार्थंञ्च ध्रुवासनं ।
पूजयित्वा
यथापूर्वं स्पृशेदुद्भवमुद्रया ।। ३३ ।।
निजयागं
जगन्नाथ रक्ष भक्तानुकम्पया ।
एभिः
संश्राव्य रक्षार्थं कुम्भे खड्गं निवेशयेत् ।। ३४ ।।
दीक्षास्थापनयोः
कुम्भे स्थण्डिले मण्डलेऽथवा ।
मण्डलेभ्यर्च्य
देवेशं व्रजेद्वै कुण्डसन्निधौ ।। ३५ ।।
खंभों के मूल
भाग में स्थित कलशों में तथा वेदी पर धर्म आदि का पूजन करे। कुछ लोग सम्पूर्ण
दिशाओं में स्थित कलशों पर अनन्त आदि की पूजा भी करते हैं। इसके बाद शिवाज्ञा
सुनावे और कलशों को अपने पृष्ठभाग तक घुमावे। तत्पश्चात् पहले कलश को और फिर
वार्धानी को पूर्ववत् अपने स्थान पर रख दे। स्थिर आसनवाले शिव का कलश में और
शस्त्र के लिये ध्रुवासन का पूर्ववत् पूजन करके उद्भव मुद्रा द्वारा स्पर्श करे।
उस समय भगवान्से इस प्रकार प्रार्थना करे – 'हे जगन्नाथ! आप अपने भक्तजन पर कृपा करके इस अपने ही यज्ञ की
रक्षा कीजिये।'-यों रक्षा के लिये प्रार्थना सुनाकर कलश में
खड्ग की स्थापना करे। दीक्षा और स्थापना के समय कलश में, वेदी
पर अथवा मण्डल में भगवान् शिव का पूजन करे। मण्डल में देवेश्वर शिव का पूजन करने के
पश्चात् कुण्ड के समीप जाय ॥ ३१-३५ ॥
कुण्डनाभिं
पुरस्कृत्य निविष्टा मूर्त्तिदारिणः।
गुरोरादेशतः
कुर्युर्न्निजकुण्डेषु संस्कृतिं ।। ३६ ।।
जपेयुर्जापिनः
सङ्ख्यं मन्त्रमन्ये तु संहितां ।
पठेयुर्ब्राह्मणाः
शान्तिं स्वशाखावेदपारगाः ।। ३७ ।।
श्रीसूक्तं
पावमानीश्च मैत्रकञ्च वृषाकपिं ।
ऋग्वेदी
पूर्वदिग्भागे सर्वमेतत् समुच्चरेत् ।। ३८ ।।
देवव्रतन्तु
भारुण्डं ज्यष्ठसाम रथन्तरं ।
पुरुषं
गीतिमेतानि सामवेदी तु दक्षइणे ।। ३९ ।।
रुद्रं
पुरुषसूक्तञ्च श्लोकाद्यायं विशेषतः।
ब्रह्मणञ्च
यजुर्वेदी पश्चिमायां समुच्चरेत् ।। ४० ।।
नीलरुद्रं
तथाथर्वी सूक्ष्मासूक्ष्मन्तथैव च ।
उत्तरेऽथर्वशीर्षञ्च
तत्परस्तु समुद्धरेत् ।। ४१ ।।
कुण्ड – नाभि को
आगे करके बैठे हुए मूर्तिधारी पुरुष गुरु की आज्ञा से अपने-अपने कुण्ड का संस्कार करें।
जप करनेवाले ब्राह्मण संख्यारहित मन्त्र का जप करें। दूसरे लोग संहिता का पाठ
करें। अपनी शाखा के अनुसार वेदों के पारंगत विद्वान् शान्तिपाठ में लगे रहें।
ऋग्वेदी विद्वान् पूर्व दिशा में श्रीसूक्त, पावमानी ऋचा, मैत्रेय ब्राह्मण तथा
वृषाकपि-मन्त्र - इन सबका पाठ करें। सामवेदी विद्वान् दक्षिण में देवव्रत, भारुण्ड, ज्येष्ठसाम, रथन्तरसाम
तथा पुरुषगीत- इन सबका गान करें। यजुर्वेदी विद्वान् पश्चिम दिशा में रुद्रसूक्त,
पुरुषसूक्त, श्लोकाध्याय तथा विशेषतः
ब्राह्मणभाग का पाठ करें। अथर्ववेदी विद्वान् उत्तर दिशा में नीलरुद्र, सूक्ष्मासूक्ष्म तथा अथर्वशीर्ष का तत्परतापूर्वक अध्ययन करें ॥ ३६-४१ ॥
आचार्य्यश्चाग्निमुत्पाद्य
प्रतिकुण्डंथ प्रदापयेत् ।
वह्नेः
पूर्वादिकान् भागान् पूर्वकुण्डदितः क्रमात् ।। ४२ ।।
धूपदीपचरूणाञ्च
ददीताग्निं सम्द्धरेत् ।
पूववच्छिवमभ्यर्च्य
शिवाग्नौ मन्त्रतर्पणं ।। ४३ ।।
देशकालादिसम्पत्तौ
दुर्न्निमित्तप्रशान्त्ये ।
होमङ्कृत्वा
तु मन्त्रज्ञः पूर्णा दत्त्वा शुभावहां ।। ४४ ।।
पूर्ववच्चरुकं
कृत्वा प्रतिकुण्डं निवेदयेत् ।
यजमानालङकृतास्तु
व्रजेयुः स्नानमण्डपं ।। ४५ ।।
भद्रपीठे निधायेशं
ताडयित्वावगुण्ठयेत् ।
स्नापयेत्
पूजयित्वा तु मृदा काषायवारिणा ।। ४६ ।।
गोमूत्रैर्गोमयेनापि
वारिणा चान्तरान्तरा ।
भस्माना
गन्धतोयेन फडन्तास्त्रेण वारिणा ।। ४७ ।।
देशिको
मूर्त्तिपैः सार्द्धं कृत्वा कारणशोधनं ।
धर्मजप्तेन
सञ्छाद्य पीतवर्णेन वाससा ।। ४८ ।।
सम्पूज्य
सितपुष्पैश्च नयदुत्तरवेदिकां ।
आचार्य (अरणी
मन्थन द्वारा) अग्नि का उत्पादन करके उसे प्रत्येक कुण्ड में स्थापित करावें । अग्नि
के पूर्व आदि भागों को पूर्व-कुण्ड आदि के क्रम से लेकर धूप, दीप और चरु के निमित्त अग्नि का उद्धार
करे। फिर पहले बताये अनुसार भगवान् शंकर का पूजन करके शिवाग्नि में मन्त्र- तर्पण
करे। देश, काल आदि की सम्पन्नता तथा दुर्निमित्त की शान्ति के
लिये होम करके मन्त्रज्ञ आचार्य मङ्गलकारिणी पूर्णाहुति प्रदान करके, पूर्ववत् चरु तैयार करे और उसे प्रत्येक कुण्ड में निवेदित करे। यजमान से
वस्त्राभूषणों द्वारा विभूषित एवं सम्मानित मूर्तिपालक ब्राह्मण स्नान मण्डप में
जायँ । भद्रपीठ पर भगवान् शिव की प्रतिमा को स्थापित करके ताड़न और अवगुण्ठन की
क्रिया करें। पूर्व की वेदी पर पूजन करके मिट्टी, काषाय- जल,
गोबर और गोमूत्र से तथा बीच-बीच में जल से भगवत्प्रतिमा को स्नान
करावे। तत्पश्चात् भस्म तथा गन्धयुक्त जल से नहलावे। इसके बाद आचार्य 'अस्त्राय फट् । - इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल के
द्वारा मूर्तिपालकों के साथ हाथ धोकर कवच मन्त्र से अभिमन्त्रित पीताम्बर द्वारा
मूर्ति को आच्छादित करके श्वेत फूलों से उसकी पूजा करे। तदनन्तर उसे उत्तर- वेदी पर
ले जाय ॥ ४२ – ४८अ ॥
तत्र
दत्तासनायाञ्च शय्यायां सन्निवेश्य च ।। ४९ ।।
कुङ्कुमालिप्तसूत्रेण
विभज्य गुरुरालिखेत् ।
शलाकया
सुवर्णस्य अक्षिणी शस्त्रकर्मणा ।। ५० ।।
अञ्जयेल्लक्ष्मकृत्
पश्चाच्छास्त्रदृष्टेन कर्मणा ।
कृतकर्मा
चशस्त्रेण लक्ष्मी शिल्पी समुत्तक्षिपेत् ।। ५१ ।।
त्र्यंशादर्द्धोथ
पादार्द्धादर्द्धाया अर्द्धतोथवा ।
सर्वकामप्रसिद्ध्यर्थं
शुभं लक्ष्मावतारणं ।। ५२ ।।
लिङ्गदीर्घविकारांशे
त्रिभक्ते भागवर्णनात् ।
विस्तारो
लक्ष्म देहस्य भवेल्लिङ्गस्य सर्वतः ।। ५३ ।।
वहाँ आसनयुक्त
शय्या पर सुलाकर कुङ्कुम में रंगे हुए सूत से अङ्ग का विभाजन करके आचार्य सोने की
शलाका द्वारा उस प्रतिमा में दोनों नेत्र अङ्कित करे। यह कार्य शस्त्रक्रिया द्वारा
सम्पन होना चाहिये। पहले चिह्न बनानेवाला गुरु नेत्र- चिह्न को अञ्जन से अङ्कित कर
दे; इसके बाद वह शिल्पी, जो
मूर्ति निर्माण का कार्य पहले भी कर चुका हो, उस नेत्रचिह्न को
शस्त्र द्वारा खोदे (अर्थात् खुदाई करके नेत्र की आकृति को स्पष्टरूप से अभिव्यक्त
करे)। अर्चा के तीन अंश से कम अथवा एक चौथाई भाग या आधे भाग में सम्पूर्ण कामनाओं की
सिद्धि के लिये शुभ लक्षण (चिह्न) की अवतारणा करनी चाहिये। शिवलिङ्ग की लंबाई के
मान में तीन से भाग देकर एक भाग को त्याग देने से जो मान हो, वही लिङ्ग के लक्ष्मदेह का सब ओर से विस्तार होना चाहिये॥४९-५३॥
यवस्य
नवभक्तस्य भागैरष्टाभिरावृता हस्तिके ।
लक्ष्मरेखा च
गाम्भीर्य्याद् विस्तरादपि ।। ५४ ।।
एवमष्टांशवृद्ध्या
तु लिङ्गे सार्द्धकरादिके ।
भवेदष्टयवा
पृथ्वी गम्भीरात्र च हास्तिके ।। ५५ ।।
एवमष्टांशवृद्ध्या
तु लिङ्गे सार्द्धकरादिके ।
भवेदष्टयवा
पृथ्वी गम्भीरन्नवहास्तिके ।। ५६ ।।
शाम्भवेषु च लिङ्गेषु
पादवृद्धेषु सर्वतः।
लक्ष्म देहस्य
विष्कम्भो भवेद्वै यववर्द्धनात् ।। ५७ ।।
गम्भीरत्वपृथुत्वाभ्यां
रेशापि त्रयंशवृद्धितः।
सर्वेषु च
भवेत् सूक्ष्मं लिङ्गमस्तकमस्तकं ।। ५८ ।।
एक हाथ के
प्रस्तरखण्ड में जो लक्ष्मरेखा बनेगी, उसकी गहराई और चौड़ाई उतनी ही होगी, जितनी
जौ के नौ भागों में से एक को छोड़ने और आठ को लेने से होती है। इसी प्रकार डेढ़
हाथ या दो हाथ आदि के लिङ्ग से लेकर नौ हाथतक के लिङ्ग में क्रमशः १/२ भाग की वृद्धि करके लक्ष्मरेखा बनानी चाहिये। इस तरह नौ हाथवाले लिङ्ग में
आठ जौ के बराबर मोटी और गहरी लक्ष्मरेखा होनी चाहिये। जो शिवलिङ्ग परस्पर अन्तर
रखते हुए उत्तरोत्तर सवाये बड़े हों, वहाँ लक्ष्म देह का 'विस्तार एक-एक जौ बढ़ाकर करना चाहिये । गहराई और मोटाई की वृद्धि के
अनुसार रेखा भी एक तिहाई बढ़ जायगी। सभी शिवलिङ्गों में लिङ्ग का ऊपरी भाग ही उनका
सूक्ष्म मस्तक है ॥ ५४-५८ ॥
लक्ष्मक्षेत्रेष्टधाभक्ते
मूद्र्ध्नि भागद्वये शुभे ।
षड्भागपरिवर्त्तेन
मुक्त्वा भागद्वयन्त्वधः ।। ५९ ।।
रेखात्रयेण
सम्बद्धं कारयेत् पृष्ठदेशगं ।
रत्नजे
लक्षणोद्धारो यवौ हेमसमुद्भवे ।। ६० ।।
स्वरूपं
लक्षणन्तेषां प्रभा रत्नेषु निर्मला ।
नयनोन्मीलनं
वक्त्रे सान्निध्याय च लक्ष्म तत् ।। ६१ ।।
लक्ष्मणोद्धाररेखाञ्च
घृतेन मधुना तथा ।
मृत्युञ्जयेन
सम्पूज्य शिल्पिदोषनिवृत्तये ।। ६२ ।।
अर्च्चयेच्च
तता लिङ्गं स्नापयित्वा मृदादिभिः।
शिल्पिनन्तोषयित्वा
तु दद्याद् गां गुरवो ततः ।। ६३ ।।
लिङ्गं धूपादिभिः
प्राच्यं गायेयुर्भर्तृगास्त्रियः।
सव्येन
चापसव्येन सूत्रेणाथ कुशेन वा ।। ६४ ।।
स्मृत्वा च
रोचनं दत्वा कुर्यान्निर्मञ्जनादिकं ।
गुडलवणधान्याकदानेन
विसृजेच्च ताः ।। ६५ ।।
लक्ष्म
अर्थात् चिह्न का जो क्षेत्र है, उसका आठ भाग करके दो भागों को मस्तक के अन्तर्गत रखे। शेष छः भागों में से
नीचे के दो भागों को छोड़कर मध्य के अवशिष्ट भागों में तीन रेखा खींचे और उन्हें
पृष्ठदेश में ले जाकर जोड़ दे। रत्नमय लिङ्ग में लक्षणोद्धार की आवश्यकता नहीं है।
भूमि से स्वतः प्रकट हुए अथवा नर्मदादि नदियों से प्रादुर्भूत हुए शिवलिङ्ग में भी
लक्ष्मोद्धार अपेक्षित नहीं है। रत्नमय लिङ्गों के रत्नों में जो निर्मल प्रभा
होती है, वही उनके स्वरूप का लक्षण (परिचायक) है। मुखभाग में
जो नेत्रोन्मीलन किया जाता है, वह आवश्यक है और उसी के
संनिधान के लिये वह लक्ष्म या चिह्न बनाया जाता है। लक्षणोद्धार की रेखा का घृत और
मधु से मृत्युञ्जय मन्त्र द्वारा पूजन करके, शिल्पिदोष की
निवृत्ति के लिये मृत्तिका आदि से स्नान कराकर, लिङ्ग की
अर्चना करे। फिर दान-मान आदि से शिल्पी को संतुष्ट करके आचार्य को गोदान दे। तदनन्तर
सौभाग्यवती स्त्रियाँ धूप, दीप आदि के द्वारा लिङ्ग की विशेष
पूजा करके मङ्गल-गीत गायें और सव्य या अपसव्य भाव से सूत्र अथवा कुश के द्वारा
स्पर्शपूर्वक रोचना अर्पित करके न्योछावर दें। इसके बाद यजमान गुड़, नमक और धनिया देकर उन स्त्रियों को विदा करे ।। ५९-६५ ॥
गुरुमूर्त्तिधरैः
सार्द्धं हृदा वा प्रणवेन वा ।
मृत्स्नागोमयगोमूत्रभस्मभिः
सलिलान्तरं ।। ६६ ।।
स्नापयेत्
पञ्चगव्येन पञ्चमृतपुरः सरं ।
विरूक्षणं
कषायैश्च सर्वौषधिजलेन वा ।। ६७ ।।
शुभ्रपुष्पफलस्वर्णरत्न
श्रृङ्गयवोदकैः।
तथा
धारासहस्रेण दिव्यौषधिजलेन च ।। ६८ ।।
तीर्थोदकेन
गङ्गेन चन्दनेन च वारिणा ।
क्षीरार्णवादिभिः
कुम्भैः शिवकुम्भजलेन च ।। ६९ ।।
विरूक्षणं
विलेपञ्च सुगन्धैश्चन्दनादिभिः।
सम्पूज्य
ब्रह्मभिः पुष्पैर्वर्मणा रक्तचीवरैः ।। ७० ।।
रक्तरूपेण
नीराज्य रक्षातिलकपूर्वकं ।
घृतौघैर्जलदुग्धैश्च
कुशाद्यैरर्घ्यसूचितैः ।। ७१ ।।
द्रव्यैः स्तुत्यादिबिस्तुष्टमर्चयेत्
पुरुषाणुना ।
समाचम्य हृदा
देवं ब्रूयादुत्थीयतां प्रभो ।। ७२ ।।
तत्पश्चात्
गुरु मूर्तिरक्षक ब्राह्मणों के साथ 'नमः' या प्रणव- मन्त्र के द्वारा मिट्टी, गोबर, गोमूत्र और भस्म से पृथक् पृथक्
स्नान करावे। एक एक के बाद बीच में जल से स्नान कराता जाय। फिर पञ्चगव्य, पञ्चामृत, रूखापन दूर करनेवाले कषाय द्रव्य, सर्वौषधिमिश्रित जल, श्वेत पुष्प, फल, सुवर्ण, रत्न, सींग एवं जौ मिलाये हुए जल, सहस्रधारा, दिव्यौषधियुक्त जल, तीर्थ- जल, गङ्गाजल, चन्दनमिश्रित जल, क्षीरसागर
आदि के जल, कलशों के जल तथा शिव कलश के जल से अभिषेक करे।
रूखेपन को दूर करनेवाला विलेपन लगाकर उत्तम गन्ध और चन्दन आदि से पूजन करने के
पश्चात् ब्रह्ममन्त्र द्वारा पुष्प तथा कवच- मन्त्र से लाल वस्त्र चढ़ावे। फिर
अनेक प्रकार से आरती उतारकर रक्षा और तिलकपूर्वक गीत- वाद्य आदि से, विविध द्रव्यों से तथा जय-जयकार और स्तुति आदि से भगवान् को संतुष्ट करके
पुरुष मन्त्र से उनकी पूजा करे। तदनन्तर हृदय- मन्त्र से आचमन करके इष्टदेव से कहे
प्रभो! उठिये ' ॥ ६६-७२ ॥
देवं
ब्रह्मारथेनैव क्षिप्रं द्रव्याणि तन्नयेत् ।
मण्डपे
पश्चिमद्वारे शय्यायां विनिवेशयेत् ।। ७३ ।।
शक्त्यादिशक्तिपर्य्यन्ते
विन्यसेदासने शुभे ।
पश्चिमे
पिण्डिकान्तस्यन्यसेद्ब्रह्मशिलान्तदा ।। ७४ ।।
शस्त्रमस्त्र
शतालब्धनिद्राकुम्भध्रुवासनं ।
प्राकल्प्य
शिवकोणे च दत्वार्घ्यं हृदयेन तु ।। ७५ ।।
उत्थाप्योक्तासने
लिङ्गं शिरसा पूर्वमस्तकं ।
समारोप्य
न्यसेत्तस्मिन् सृष्ट्या धर्मादिनन्दनं ।। ७६ ।।
दद्याद्धूपञ्च
सम्पूज्य तथा वासांसि वर्मणा ।
गृहोपकृतिनैवेद्यं
हृदा दद्यात् स्वशक्तितः ।। ७७ ।।
घृतक्षौद्रयुतं
पात्रमब्यङ्गाय पदान्तिके ।
देशिकश्च
स्थितस्तत्र षट्त्रिंशत्तत्त्वसञ्चयं ।। ७८ ।।
शक्त्यादिभूमिपर्य्यन्तं
स्वतत्त्वाधिपसंयुतं ।
विन्यस्य
पुष्पमालाभिस्त्रिशण्डं परिकल्पयेत् ।। ७९ ।।
फिर इष्टदेव को
ब्रह्मरथ पर बिठाकर उसी के द्वारा उन्हें सब ओर घुमाते और द्रव्य बिखेरते हुए
मण्डप के पश्चिम द्वार पर ले जाय और वहाँ शय्या पर भगवान् को पधरावे। आसन के आदि-
अन्त में शक्ति की भावना करके उस शुभ आसन पर उन्हें विराजमान करे। पश्चिमाभिमुख
प्रासाद में पश्चिम दिशा की ओर पिण्डि का स्थापित करके उसके ऊपर ब्रह्मशिला रखे।
शिवकोण में सौ अस्त्र-मन्त्रों से अभिमन्त्रित निद्रा-कलश और शिवासन की कल्पना
करके, हृदय-मन्त्र से अर्घ्य दे, देवता को उठाकर लिङ्गमय आसन पर शिरोमन्त्र द्वारा पूर्व की ओर मस्तक रखते
हुए आरोपित एवं स्थापित करे। इस प्रकार उन परमात्मा का साक्षात्कार होने पर चन्दन
और धूप चढ़ाते हुए उनकी पूजा करे तथा कवच- मन्त्र से वस्त्र अर्पित करे। घर का
उपकरण आदि अर्पित कर दे। फिर अपनी शक्ति के अनुसार नमस्कारपूर्वक नैवेद्य निवेदन
करे। अभ्यङ्ग- कर्म के लिये घृत और मधु से युक्त पात्र इष्टदेव के चरणों के समीप
रखे। वहाँ उपस्थित हुए आचार्य शक्ति से लेकर भूमि- पर्यन्त छत्तीस तत्त्वों के
समूह को उनके अधिपतियों सहित स्थापित करके फूल की मालाओं से उनके तीन भागों की
कल्पना करे ॥ ७३-७९ ॥
मायापदेशक्त्यन्तन्तुर्य्याशाष्टांशवर्त्तुलं
।
तत्रात्मतत्त्वविद्याख्यं
शिवं सृष्टिक्रमेण तु ।। ८० ।।
एकशः
प्रतिभागेषु ब्रह्मविष्णुहरधिपान् ।
विन्यस्य
मूर्त्तिमूर्त्तीशान् पूर्वादिक्रमतो यथा ।। ८१ ।।
क्ष्मावह्निर्यजमानार्क्कजलवायुनिशाकरान्
।
आकाशमूर्त्तिरूपांस्तान्
न्यसेत्तदधिनायकान् ।। ८२ ।।
सर्वं पशुपति
चोग्रं रुद्रं भवमखेश्वरं ।
महादेवञ्च
भीमञ्च मन्त्रास्तद्वाचका इमे ।। ८३ ।।
लवशषचयसाश्च
हकारश्च त्रिमात्रिकः।
प्रणवो
हृदयाणुर्वा मूलमन्त्रोऽथवा क्कचित् ।। ८४ ।।
पञ्चकुण्डात्मके
योगे मूर्त्तीः पञ्चाथवा न्यसेत् ।
पृथिवीजलतेजांसि
वायुमाकाशमेव च ।। ८५ ।।
वे तीन भाग
माया से लेकर शक्ति- पर्यन्त हैं। उनमें प्रथम भाग चतुष्कोण, द्वितीय भाग अष्टकोण और तृतीय भाग
वर्तुलाकार है। प्रथम भाग में आत्मतत्व, द्वितीय भाग में
विद्यातत्त्व और तृतीय भाग में शिवतत्त्व की स्थिति है। इन भागों में सृष्टिक्रम से
एक-एक अधिपति हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु
और शिव नाम से प्रसिद्ध हैं। तदनन्तर मूर्तियों और मूर्तीश्वरों का पूर्वादि
दिशाओं के क्रम से न्यास करे। पृथ्वी, अग्रि, यजमान, सूर्य, जल, वायु, चन्द्रमा और आकाश - ये आठ मूर्तिरूप हैं। इनका
न्यास करने के पश्चात् इनके अधिपतियों का न्यास करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार
हैं- शर्व, पशुपति, उग्र, रुद्र, भव, ईश्वर, महादेव और भीम। इनके वाचक मन्त्र निम्नलिखित हैं- लं, रं, शं, खं, चं, पं, सं हं* अथवा त्रिमात्रिक प्रणव तथा 'हां' अथवा हृदय-मन्त्र अथवा कहीं- कहीं मूल
मन्त्र इनके (मूर्तियों और मूर्तिपतियों के ) पूजन के उपयोग में आते हैं। अथवा
पञ्चकुण्डात्मक याग में पृथ्वी, जल, तेज,
वायु और आकाश - इन पाँच मूर्तियों का ही न्यास करे ॥ ८०-८५ ॥
* सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली में इन
मन्त्रों का क्रम य र स प व, य ह प्रणव'
इस प्रकार दिया गया है।
क्रमात्तदधिपान्
पञ्च ब्रह्माणं धरणीधरं ।
रुद्रमीशं
सदाख्यञ्च सृष्टिन्यायेन मन्त्रवित् ।। ८६ ।।
मुमुक्षोर्वा
निवृत्ताद्याः अजाताद्यास्तदीश्वराः ।
त्रितत्त्वं
वाथ न्यसेद्व्याप्त्यात्मकारणं ।। ८७ ।।
शुद्धे
चात्मनि विद्येशा अशुद्धे लोकनायकाः।
द्रष्टव्या
मूर्त्तिपाश्चैव भोगिनो मन्त्रनायकाः ।। ८८ ।।
पञ्चविंशत्तथैवाष्टपञ्चत्रीणि
यथाक्रमं ।
एषान्तत्त्वं
तदीशानामिन्द्रादीनां ततो यथा ।। ८९ ।।
ओं हां
शक्तितत्तवाय नम हत्यादि ।
ओं हां
शक्तितत्त्वाधिपाय नम इत्यादि ।
ओं हां
क्ष्मामूर्त्तये नमः।
ओं हां
क्ष्मामूर्त्त्यधीशाय शिवाय नम इत्यादि ।
ओं हां
पृथिवीमूर्त्तये नमः।
ओं हां मूर्त्त्यधिपाय ब्रह्मणे नम इत्यादि ।
ओं हां
शिवतत्त्वाधिपाय रुद्राय नम इत्यादि ।
नाभिकन्दात्समुच्चार्य्य
घण्टा नादविसर्प्पणं ।
ब्रह्मादिकारणत्यागाद्
द्वादशान्तसमाश्रइतं ।। ९० ।।
नम्त्रञ्च
मनसा भिन्नं प्राप्तानन्दरसोपमं ।
द्वादशान्तात्समानीय
निष्कलं व्यापकं शिवं ।। ९१ ।।
अष्टत्रिशत्कलोपेतं
सहस्रकिरणोज्जवलं ।
सर्वशक्तिमयं
साङ्गं ध्यात्वा लिङ्गे निवेशयेत् ।। ९२ ।।
फिर क्रमशः
इनके पाँच अधिपतियों - ब्रह्मा, शेषनाग, रुद्र, ईश और सदाशिव का
मन्त्रज्ञ पुरुष सृष्टि-क्रम से न्यास करे। यदि यजमान मुमुक्षु हो तो वह
पञ्चमूर्तियों के स्थान में 'निवृत्ति' आदि पाँच कलाओं तथा उनके 'अजात' आदि अधिपतियों का न्यास करे। अथवा सर्वत्र व्याप्तिरूप कारणात्मक
त्रितत्त्व का ही न्यास करना चाहिये। शुद्ध अध्वा में विद्येश्वरों का और अशुद्ध में
लोकनायकों का मूर्तिपतियों के रूप में दर्शन करना चाहिये। भोगी (सर्प) भी
मन्त्रेश्वर हैं। पैंतीस, आठ, पाँच और
तीन मूर्तिरूप तत्त्व क्रमश: कहे गये हैं। ये ही इनके तत्त्व हैं। इन तत्त्वों के
अधिपतियों के मन्त्रों का दिग्दर्शन मात्र कराया जाता है। ॐ हां शक्तितत्त्वाय नमः
। इत्यादि । ॐ हां शक्तितत्त्वाधिपाय नमः । इत्यादि । ॐ हां
क्ष्मामूर्तये नमः । ॐ हां क्ष्मामूर्त्यधिपतये ब्रह्मणे नमः। इत्यादि । ॐ
हां शिवतत्त्वाय नमः । ॐ हां शिवतत्त्वाधिपतये रुद्राय नमः । इत्यादि ।
नाभिमूल से उच्चरित होकर घण्टानाद के समान सब ओर फैलनेवाले, ब्रह्मादि
कारणों के त्यागपूर्वक, द्वादशान्त स्थान को प्राप्त हुए मन से
अभिन्न तथा आनन्द-रस के उद्गम को पा लेनेवाले मन्त्र का और निष्कल, व्यापक शिव का, जो अड़तीस कलाओं से युक्त, सहस्रों किरणों से प्रकाशमान, सर्वशक्तिमय तथा साङ्ग
हैं, ध्यान करते हुए उन्हें द्वादशान्त से लाकर शिवलिङ्ग में
स्थापित करे ॥ ८६ - ९२ ॥
जीवन्यासो
भवेदेवं लिङ्गे सर्वार्थसाधकः।
पिण्डिकादिषु
तु न्यासः प्रोच्यते साम्प्रतं यथा ।। ९३ ।।
पिण्डिकाञ्च
कृतस्नानां विलिप्ताञ्चन्दनादिभिः।
सद्वस्त्रैश्च
समाच्छाद्य रन्ध्रे च भगलक्षणे । ९४ ।।
पञ्चरत्नादिसंयुक्तां
लिङ्गस्योत्तरतः स्थितां ।
लिङ्गवत्कृतवनिन्यासां
विधिवत्सम्प्रपूजयेत् ।। ९५ ।।
कृतस्नानादिकान्तत्र
लिङ्गमूले शिलां न्यसेत् ।
कृतस्नानादिसंस्कारं
शक्त्यन्तं वृष्भं तथा ।। ९६ ।।
इस प्रकार
शिवलिङ्ग में जीवन्यास होना चाहिये, जो सम्पूर्ण पुरुषार्थों का साधक है। पिण्डिका आदि में किस
प्रकार न्यास करना चाहिये, यह बताया जाता है। पिण्डिका को
स्नान कराकर उसमें चन्दन आदि का लेप करे और उसे सुन्दर वस्त्रों से आच्छादित करके,
उसके भगस्वरूप छिद्र में पञ्चरत्न आदि डालकर, उस
पिण्डिका को लिङ्ग से उत्तर दिशा में स्थापित करे। उसमें भी लिङ्ग की ही भाँति
न्यास करके विधिपूर्वक उसकी पूजा करे। उसका स्नान आदि पूजन कार्य सम्पन्न करके
लिङ्ग के मूलभाग में शिव का न्यास करे। फिर शक्त्यन्त वृषभ का भी स्नान आदि
संस्कार करके स्थापन करना चाहिये ॥ ९३ - ९६ ॥
प्रणवपूर्वं
हुं पूं ह्रीं मध्यादन्यतमेन च ।
क्रियाशक्तियुतां
पिण्डीं शिलामाधाररूपिणीं ।। ९७ ।।
भस्मदर्भतिलैः
कुर्य्यात् प्राकारत्रितयन्ततः।
रक्षायै
लोकपालांश्च सायुधान्याजयेद्वहिः ।। ९८ ।।
ओं हूं ह्रं
क्रियाशक्तये नमः। ओं हूं ह्रां हः
महागौरी
रुद्रदयिते स्वाहेति च पिण्ड़िकायां ।
ओं हां
आदारशक्तये नमः। ओं हां वृषभाय नमः।
तत्पश्चात्
पहले प्रणव का, फिर 'ह्रां हूं ह्रीं ।'- इन तीन बीजों में से किसी
एक का उच्चारण करते हुए क्रियाशक्ति सहित आधाररूपिणी शिला- पिण्डिका का पूजन करे।
भस्म, कुशा और तिल से तीन प्राकार (परकोटा) बनावे तथा रक्षा के
लिये आयुधों सहित लोकपालों को बाहर की ओर नियोजित एवं पूजित करे। पूजन के मन्त्र
इस प्रकार हैं- ॐ ह्रीं क्रियाशक्तये नमः । ॐ ह्रीं महागौरि रुद्रदयिते स्वाहा।'
निम्नाङ्कित मन्त्र के द्वारा पिण्डिका में पूजन करे - ॐ ह्रीं
आधारशक्तये नमः । ॐ ह्रां वृषभाय नमः ।' ॥ ९७ - ९८
॥
धारिका
दीप्तिमत्युग्रा ज्योत्स्ना चैता बलोत्कटाः।
तथा धात्री
विधात्री च न्यसेद्वा पञ्चनायिकाः ।। ९९ ।।
वामा ज्येष्ठा
क्रिया ज्ञाना बेधा तिस्रोथवा न्यसेत् ।
क्रियाज्ञाना
तथेच्छा च पूर्ववच्छान्तिमूर्त्तिषु ।। १०० ।।
तमी मोहा
क्षमी निष्ठा मृत्युर्मायाभवज्वराः।
पञ्च चाथ
महामोहा घोरा च त्रितयज्वरा ।। १०१ ।।
तिस्रोथवा
क्रियाज्ञाना तथा बाधाधिनायिका ।
आत्मादित्रिषु
तत्त्वेषु तीव्रमूर्त्तिषु विन्यसेत् ।। १०२ ।।
अत्रापि
पिण्डिका ब्रह्मशिलादिषु यथाविधि ।
गोर्य्यादिसंवरैरैव
पूर्ववत् सर्वमाचरेत् ।। १०३ ।।
धारिका, दीप्ता, अत्युग्रा,
ज्योत्स्रा, बलोत्कटा, धात्री
और विधात्री – इनका पिण्डी में न्यास करे; अथवा वामा, ज्येष्ठा, क्रिया,
ज्ञाना और वेधा (अथवा रोधा या प्रह्वी) - इन पाँच नायिकाओं का न्यास
करे। अथवा क्रिया, ज्ञाना तथा इच्छा-इन तीन का ही न्यास करे;
पूर्ववत् शान्तिमूर्तियों में तमी, मोहा,
क्षुधा, निद्रा, मृत्यु,
माया, जरा और भया - इनका न्यास करे; अथवा तमा, मोहा, घोरा, रति, अपज्वरा - इन पाँचों का न्यास करे; या क्रिया, ज्ञाना और इच्छा-इन तीन अधिनायिकाओं का
आत्मा आदि तीन तीव्र मूर्तिवाले तत्त्वों में न्यास करे। यहाँ भी पिण्डिका,
ब्रह्मशिला आदि में पूर्ववत् गौरी आदि शम्बरों (मन्त्रों) द्वारा ही
सब कार्य विधिवत् सम्पन्न करे ॥ ९९ - १०३ ॥
एवं विधाय
विन्यासं गत्वा कुण्डान्तिकं ततः।
कुण्डमध्ये
महेशानं मेखलासु महेश्वरं ।। १०४ ।।
क्रियाशक्तिं
तथान्यासु नादमोष्ठे च विन्यासेत् ।
घटं
स्थण्डिलवह्नीशैः नीडीसन्धानकन्तत ।। १०५ ।।
पद्मतन्तुसमां
शक्तिमुद्घातेनां समुद्यतां ।
विशन्ती
सूर्यमार्गेण निः सरन्तीं समुद्गतां ।। १०६ ।।
पुनश्च
शून्यमार्गेण विशतीं स्वस्य चिन्तयेत् ।
एवं सर्वत्र
सन्धेयं मूर्त्तिपैश्च परस्परं ।। १०७ ।।
इस प्रकार
न्यास-कर्म करके कुण्ड के समीप जा, उसके भीतर महेश्वर का, मेखलाओं में
चतुर्भुज का, नाभि में क्रियाशक्ति का तथा ऊर्ध्वभाग में नाद
का न्यास करे। तदनन्तर कलश, वेदी, अग्नि
और शिव के द्वारा नाड़ी संधान- कर्म करे। कमल के तन्तु की भाँति सूक्ष्मशक्ति
ऊर्ध्वगत वायु की सहायता से ऊपर उठती और शून्य मार्ग से शिव में प्रवेश करती है।
फिर वह ऊर्ध्वगत शक्ति वहाँ से निकलती और शून्यमार्ग से अपने भीतर प्रवेश करती है।
इस प्रकार चिन्तन करे। मूर्तिपालकों को भी सर्वत्र इसी प्रकार संधान करना चाहिये ॥
१०४- १०७ ॥
सम्पूज्य
घारिकां शक्तिं कुण्डे सन्तर्प्य च क्रमात् ।
तत्त्वतत्त्वेश्वरा
मूर्त्तीर्मूर्त्तीशांश्च घृतादिभिः ।।१०८।।
सम्पूज्य
तर्प्पयित्वा तु सन्निधौ संहिताणुभिः ।
शतं
सहस्रमर्द्धं वा पूर्णया सह होमयेत् ।। १०९ ।।
तत्त्वतत्त्वेश्वरा
मूर्त्तिर्मूर्त्तीशांश्च करेणुकान् ।
तथा सन्तर्प्य
सान्निध्ये जुहुयुर्मूर्त्तिपा अपि ।। ११० ।।
ततो
ब्रह्मभिरङ्गैश्च द्रव्यकालानुरोधतः।
सन्तर्प्य
शक्तिं कुम्भाम्भः प्रोक्षिते कुशमूलतः ।। १११ ।।
लिङ्गमुलं च
संस्पृश्य विष्ण्वन्तादि विशुद्धये ।
विधाय
पूर्ववत्सर्वं होमसङ्श्याजपादिकम् ।। ११२ ।।
एवं संशोध्य
ब्रह्मादि विष्ण्वन्तादि विशुद्धये ।
विधाय
पूर्ववत्सर्वं होमसङ्ख्याजपादिकम् ।। ११३ ।।
कुण्ड में
आधार-शक्ति का पूजन करके, तर्पण करने के पश्चात्, क्रमशः तत्त्व, तत्त्वेश्वर, मूर्ति और मूर्तीश्वरों का घृत आदि से
पूजन और तर्पण करे। फिर उन दोनों (तत्त्व, तत्त्वेश्वर एवं
मूर्ति, मूर्तीश्वर) को संहिता मन्त्रों से एक सौ एक सहस्र
अथवा आधा सहस्र आहुतियाँ दे। साथ ही पूर्णाहुति भी अर्पण करे। तत्त्व और
तत्त्वेश्वरों तथा मूर्ति और मूर्तीश्वरों का पूर्वोक्त रीति से एक- दूसरे के
संनिधान में तर्पण करके मूर्तिपालक भी उनके लिये आहुतियाँ दें। इसके बाद द्रव्य और
काल के अनुसार वेदों और अङ्गों द्वारा तर्पण करके, शान्ति-कलश
के जल से प्रोक्षित कुश- मूल द्वारा लिङ्ग के मूलभाग का स्पर्श करके, होम-संख्या के बराबर जप करे। हृदय-मन्त्र से संनिधापन और कवच-मन्त्र से
अवगुण्ठन करे ॥ १०८ - ११३ ॥
कुशमध्याग्रयोगेन
लिङ्गमध्याग्रकं स्पृशेत् ।
यथा यथा च
सन्धानं तदिदानीमिहोच्यते ।। ११४ ।।
ओँ हाँ हँ ओँ
ओँ ओँ एँ ओँ भूँ भूँ वाह्यमूर्त्तये नमः ।
ओँ हाँ वाँ आँ
ओं आँ षाँ ओँ भूँ भूँ वाँ वह्निमूर्त्तये नमः।
एवञ्च
यजमानादिमूर्त्तिभिरभिसन्धेयं ।
पञ्चमूर्च्यांत्मकेप्येवं
सन्धानं हृदयादिभिः ।। ११५ ।।
मूलेन
स्वीयवीजैर्वा ज्ञेयन्तत्त्वात्रयात्मके ।
शिलापिण्डी
वृषेष्वेवं पूर्णाछिन्नं सुसंवरैः ।। ११६ ।।
भागाभागविशुद्ध्यर्थं
होमं । कुर्य्याच्छतादिकं ।
इस प्रकार
संशोधन करके, लिङ्ग के
ऊर्ध्व- भाग में ब्रह्मा और अन्त (मूल) भाग में विष्णु का पूजन आदि करके, शुद्धि के लिये पूर्ववत् सारा कार्य सम्पन्न कर, होम
संख्या के अनुसार जप आदि करे। कुश के मध्यभाग से लिङ्ग के मध्यभाग का और कुश के
अग्रभाग से लिङ्ग के अग्रभाग का स्पर्श करे जिस मन्त्र से जिस प्रकार संधान किया
जाता है, वह इस समय बताया जाता है - ॐ हां हं,
ॐ ॐ एं, ॐ धूं धूं बाह्यमूर्तये नमः । ॐ हां
वां, आं ॐ आं षां, ॐ भुं भुं वां
वह्निमूर्तये नमः ।* इसी
प्रकार यजमान आदि मूर्तियों के साथ भी अभिसंधान करना चाहिये। पञ्चमूर्त्यात्मक शिव
के लिये भी हृदयादि- मन्त्रों द्वारा इसी तरह संधान कर्म करने का विधान है।
त्रितत्त्वात्मक स्वरूप में मूलमन्त्र अथवा अपने बीज मन्त्रों द्वारा संधानकर्म
करने की विधि है- ऐसा जानना चाहिये। शिला, पिण्डिका एवं वृषभ
के लिये भी इसी तरह संधान आवश्यक है । प्रत्येक भाग की शुद्धि के लिये अपने
मन्त्रों द्वारा शतादि होम करे और उसे पूर्णाहुति द्वारा पृथक् कर दे ।। ११४ – ११६अ
॥
* आचार्य सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली' में ये मन्त्र इस प्रकार उपलब्ध होते हैं- ॐ हां हां वा, ॐ ॐ ॐ वा ॐ लूं लूं या क्ष्मामूर्तये नमः । ॐ हां हां वा, ॐ ॐ ॐ या ॐ वा वह्निमूर्तये नमः ।
न्यूनादिदोषमोषाय
शिवेनाष्टाधिकं शतं ।। ११७ ।।
हुत्वाथ यत्
कृतं कर्म्म शिवश्रोत्रे निवेदयेत् ।
एतत्समन्वितं
कर्म त्वच्छक्तौ च मया प्रभो ।। ११८ ।।
ओं नमो भगवते
रुद्राय रुद्र नमोस्तुते ।
विधिपूर्णमपूर्णं
वा स्वशक्त्यापूर्य्य गृह्यतां ।। ११९ ।।
ओं ह्रीं
शाङ्करि पूरय स्वाहा इति पिण्डिकायां ।
अथ लिङ्गे
न्यसेज् ज्ञानी क्रियाख्यं पीठविग्रहे ।। १२० ।।
आधाररूपिणीं
शक्तिं न्यसेद् ब्रह्मशिलोपरि।
न्यूनता दोष से
छुटकारा पाने के लिये शिव-मन्त्र से एक सौ आठ आहुतियाँ दे और जो कर्म किया गया है, उसे शिव के कान में निवेदन करे- 'प्रभो! आपकी शक्ति से ही मेरे द्वारा इस कार्य का सम्पादन हुआ है, ॐ भगवान् रुद्र को नमस्कार है। रुद्रदेव! आपको मेरा नमस्कार है। यह कार्य
विधिपूर्ण हो या अपूर्ण, आप अपनी शक्ति से ही इसे पूर्ण करके
ग्रहण करें।' 'ॐ ह्रीं शांकरि पूरय स्वाहा।'। ऐसा कहकर पिण्डिका में न्यास करे। तदनन्तर
ज्ञानी पुरुष लिङ्ग में क्रिया-शक्ति का और पीठ-विग्रह में ब्रह्मशिला के ऊपर आधाररूपिणी
शक्ति का न्यास करे ।। ११७ – १२०अ ॥
निबध्य सप्तरात्रं
वा पञ्चरात्रं त्रिरात्रकं ।। १२१ ।।
करात्रमथो
वापि यद्वा सद्योधिवासनं ।
विनाधिवासनं
यागः कृतोऽपि न फलप्रदः ।। १२२ ।।
स्वमन्त्रैः
प्रत्याहं देयमाहुतीनां शतं शतं ।
शिवकुम्भादिपूजाञ्च
दिग्बलिञ्च निवेदयेत् ।। १२३ ।।
सात, पाँच, तीन अथवा एक
रात तक उसका निरोध करके या तत्काल ही उसका अधिवासन करे। अधिक बिना कोई भी सम्पादित
होने पर भी फलदायक नहीं होता। अतः अधिवासन अवश्य करे। अधिवासन काल में प्रतिदिन
देवताओं को अपने-अपने मन्त्रों द्वारा सौ-सौ आहुतियाँ दे तथा शिव-कलश आदि की पूजा
करके दिशाओं में बलि अर्पित करे ॥ १२१ - १२३ ॥
गुर्वादिसहितो
वासो रात्रौ नियमपूर्वकम् ।
अदिवासः स
वसतेवधेर्भावः समीरितः ।। १२४ ।।
गुरु आदि के
साथ रात में नियमपूर्वक वास 'अधिवास' कहलाता है। 'अधि 'पूर्वक 'वस' धातु से भाव में 'घञ्' प्रत्यय किया गया है। इससे 'अधिवास' शब्द सिद्ध हुआ है ॥ १२४ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये अधिवासनविधिर्नाम षण्णवतितमोऽध्यायः॥९६ ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'प्रतिष्ठा के अन्तर्गत संधान एवं अधिवास की विधि का वर्णन' नामक छियानवे अध्याय पूरा हुआ ॥ ९६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 97
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