अग्निपुराण अध्याय १०१

अग्निपुराण अध्याय १०१  

अग्निपुराण अध्याय १०१ में प्रासाद-प्रतिष्ठा की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १०१

अग्निपुराणम् एकाधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 101  

अग्निपुराण एक सौ एक अध्याय- प्रासादप्रतिष्ठा

अग्नि पुराण अध्याय १०१          

अग्निपुराणम् अध्यायः १०१ – प्रासादप्रतिष्ठाकथनम्

अथ एकाधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

प्रासादस्थापनं वक्ष्ये तच्चैतन्यं स्वयोगतः ।

शुकनाशासमाप्तौ तु पूर्ववेद्याश्च मध्यतः ॥१॥

आधारशक्तितः पद्मे विन्यस्ते प्रणवेन च ।

स्वर्णाद्ये कतमोद्द्भतं पञ्चगव्येन संयुतं ॥२॥

मधुक्षीरयुतं कुम्भं न्यस्तरत्रादिपञ्चकं ।

स्रग्वस्त्रं गन्धलिप्तञ्च गन्धवत्पुष्पभूषितं ॥३॥

चूतादिपल्लवानाञ्च कृती कृत्यञ्च विन्यसेत् ।

भगवान शिव कहते हैंस्कन्द ! अब मैं प्रासाद (मन्दिर) की स्थापना का वर्णन करता हूँ। उसमें चैतन्य का सम्बन्ध दिखा रहा हूँ। जहाँ मन्दिर के गुंबज की समाप्ति होती है, वहाँ पूर्ववेदी के मध्यभाग में आधारशक्ति का चिन्तन करके प्रणव-मन्त्र से कमल का न्यास करे। उसके ऊपर सुवर्ण आदि धातुओं में से किसी एक का बना हुआ कलश स्थापित करे। उसमें पञ्चगव्य, मधु और दूध पड़ा हुआ हो। रत्न आदि पाँच वस्तुएँ डाली गयी हों। कलश पर गन्ध का लेप हुआ हो। वह वस्त्र से आवृत हो तथा उसे सुगन्धित पुष्पों से सुवासित किया गया हो। उस कलश के मुख में आम आदि पाँच वृक्षों के पल्लव डाले गये हों हृदय-मन्त्र से हृदय कमल की भावना करके उस कलश को वहाँ स्थापित करना चाहिये ॥ १-३अ ॥

पूरकेण समादाय सकलीकृतविग्रहः ॥४॥

सर्वात्मभिन्नात्मानं स्वाणुना स्वान्तमारुतः ।

आज्ञया बोधयेच्छम्भौ रेचकेन ततो गुरुः ॥५॥

द्वादशान्तात् समादाय स्फुरद्वह्निकणोपमं ।

निक्षिपेत्कुम्भगर्भे च न्यस्ततन्त्रातिवाहिकं ॥६॥

विग्रहन्तद्गुणानाञ्च बोधकञ्च कलादिकं ।

क्षान्तं वागीश्वरं तत्तु ब्रातं तत्र निवेशयेत् ॥७॥

तदनन्तर गुरु पूरक प्राणायाम के द्वारा श्वास को भीतर लेकर, शरीर के द्वारा सकलीकरण क्रिया का सम्पादन करके, स्व-सम्बन्धी मन्त्र से कुम्भक प्राणायाम द्वारा प्राणवायु को भीतर अवरुद्ध करे। फिर भगवान् शंकर की आज्ञा से सर्वात्मा से अभिन्न आत्मा (जीवचैतन्य ) - को जगावे। तत्पश्चात्, रेचक प्राणायाम द्वारा द्वादशान्त स्थान से प्रज्वलित अग्निकण के समान जीव चैतन्य को लेकर कलश के भीतर स्थापित करे और उसमें आतिवाहिक शरीर का न्यास करके उसके गुणों के बोधक काल आदि का एवं ईश्वर सहित पृथ्वी - पर्यन्त तत्त्व- समुदाय का भी उसमें निवेश करे ॥ ४-७ ॥

दश नाडीर्दश प्राणानिन्द्रियाणि त्रयोदश ।

तदधिपांश्च संयोज्य प्रणवाद्यैः स्वनामभिः ॥८॥

स्वकार्यकारणत्वेन मायाकाशनियामिकाः ।

विद्येशान् प्रेरकान् शम्भुं व्यापिनञ्च सुसम्वरैः ॥९॥

अङ्गानि च विनिक्षिप्य निरुन्ध्याद्रोधमुद्रा ।

सुवर्णाद्युद्भवं यद्वा पुरुषं पुरुषानुगं ॥१०॥

पञ्चगव्यकषायाद्यैः पूर्ववत्संस्कृतन्ततः ।

शय्यायां कुम्भमारोप्य ध्यात्वा रुद्रमुमापतिं ॥११॥

तस्मिंश्च शिवमन्त्रेण व्यापकत्वेन वियसेत् ।

इसके बाद उक्त कलश में दस नाड़ियों, दस प्राणों (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि और अहंकार - इन ) तेरह इन्द्रियों तथा उनके अधिपतियों की भी उस कलश में स्थापना करके, प्रणव आदि नाम मन्त्रों से उनका पूजन करे। अपने-अपने कार्य के कारकरूप से जो मायापाश के नियामक हैं, उनका, प्रेरक विद्येश्वरों का तथा सर्वव्यापी शिव का भी अपने-अपने मन्त्र द्वारा वहाँ न्यास और पूजन करे। समस्त अङ्गों का भी न्यास करके अवरोधिनी मुद्रा द्वारा उन सबका निरोध करे। अथवा सुवर्ण आदि धातुओं द्वारा निर्मित पुरुष की आकृति, जो ठीक मानव- शरीर के तुल्य हो, लेकर उसे पूर्ववत् पञ्चगव्य एवं कसैले जल आदि से संस्कृत (शुद्ध) करे। फिर उसे शय्या पर आसीन करके उमापति रुद्रदेव का ध्यान करते हुए शिव-मन्त्र से उस पुरुष शरीर में व्यापक रूप से उन्हीं का न्यास करे ॥ ८- ११अ ॥

सन्निधानाय होमञ्च प्रओक्षणं स्पर्शनं जपं ॥१२॥

सान्निध्याबोधनं सर्वम्भागत्रयविभागतः ।

विधायैवं प्रकृत्यन्ते कुम्भे तं विनिवेशयेत् ॥१३॥

उनके संनिधान के लिये होम, प्रोक्षण, स्पर्श एवं जप करे। संनिधापन तथा रोधक आदि सारा कार्य भागत्रय विभागपूर्वक करे। इस प्रकार प्रकृति- पर्यन्त न्यास सारा विधान पूर्ण करके उस पुरुष को पूर्वोक्त कलश में स्थापित कर दे ॥ १२-१३ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे प्रासादकृत्यप्रतिष्ठा नामैकाधिकशततमोऽध्यायः॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'प्रासाद-प्रतिष्ठा की विधि का वर्णन' नामक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०१ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 102 

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