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कर्मकाण्ड

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कमला स्तोत्र

कमला स्तोत्र

इस कमला स्तोत्र का नित्य पाठ भुक्ति और मुक्ति प्रदान करती हैं, तथा सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं । इसके पाठ करने से पूर्व कमला- मंत्र जप और ध्यान करें ।

कमला स्तोत्र

कमला स्तोत्र

कमला- मंत्र 

'श्रीं' इस एकाक्षर मंत्र से ही कमला (लक्ष्मी) की उपासना करें ।

कमला-ध्यान 

कान्त्या काञ्चनसन्निभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुभिर्गजै-

र्हस्तोत्क्षिप्त हिरण्मयामृतघटैरासिच्यमानां श्रियम् ।

विभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तै: किरोटोज्ज्वलां

क्षौमाबद्धनितम्बबिम्बललितां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ॥

देवी स्वर्ण की समान कान्तिमान् हैं, इनको हिमगिरि की समान बड़े आकारवाले चार हाथी सूड उठाकर सुधा से पूर्ण सुवर्ण घड़ों से अभिषेक करते हैं, इनके चार हाथ में वर और अभयमुद्रा तथा दो कमल हैं । मस्तक में रत्नमुकुट और पट्ट(रेशमी)वस्त्र धारण किए हैं तथा यह पद्म (कमल) पर स्थित हैं ।

जप - होम

बारह लक्ष जपने से इस मन्त्र का पुरश्चरण होता है और घृत मधु तथा शर्करायुक्त वारह हजार पद्म अथवा तिल द्वारा होम करना चाहिये ।

श्रीकमलास्तोत्रम् 

श्री लक्ष्म्यै नमः ।

श्री शङ्कर उवाच ।

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि लक्ष्मीस्तोत्रमनुत्तमम् ।

पठनात् श्रवणाद्यस्य नरो मोक्षमावाप्नुयात् ॥ १॥

श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्व्वति ! अब अति उत्तम लक्ष्मीस्तोत्र कहता हूं, इसको पढ़ने वा सुनने से मनुष्यों को मुक्ति प्राप्त होती है ।

गुह्याद् गुह्यतरं पुण्यं सर्वदेवनमस्कृतम् ।

सर्वमन्त्रमयं साक्षाच्छृणु पर्वतनन्दिनि ॥ २ ॥

हे पर्वतनन्दिनि ! यह गुह्य से गुह्यतर सर्वदेवों से नमस्कृत और सर्वमन्त्रमय है, सुनो ।

अनन्तरूपिणी लक्ष्मीरपारगुणसागरी ।

अणिमादि सिद्धिदात्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ३॥

हे देवि लक्ष्मि ! तुम अनन्तरूपिणी और गुणों की सागर स्वरूप हो । तुम्हीं प्रसन्न होकर अणिमादि सिद्धि देती हो, तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

आपदुद्धारिणी त्वं हि आद्या शक्तिः शुभा परा ।

आद्या आनन्ददात्री च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ४॥

हे देवि ! तुम्हीं प्रसन्न होकर नम्र हुए भक्तों को विपद से उद्धार करती हो, तुम्हीं कल्याणी और आद्या शक्ति हो, तुम्हीं सबकी आदि और तुम्हीं आनन्ददायिनी हो, तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

इन्दुमुखी इष्टदात्री इष्टमन्त्रस्वरूपिणी ।

इच्छामयी जगन्मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ५॥

हे देवि जगन्माता लक्ष्मी ! तुम्हीं अभीष्ट प्रदान करती हो, तुम्हारा मुख पूर्णचन्द्रमा की समान प्रकाशमान है, तुम्हीं इष्टमन्त्र- स्वरूपिणी और इच्छामयी हो, तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

उमा उमापतेस्त्वन्तु ह्युत्कण्ठाकुलनाशिनी ।

उर्वीश्वरी जगन्मातर्लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ६॥

हे देवि लक्ष्मि ! तुम्हीं उमापति की उमा हो, तुम्हीं उत्कण्ठित मनुष्यों की उत्कण्ठा का नाश करती हो, तुम्हीं पृथ्वी की ईश्वरी हो तुमको नमस्कार है ।

ऐरावतपतिपूज्या ऐश्वर्याणां प्रदायिनी ।

औदार्यगुणसम्पन्ना लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ७॥

हे देवि ! तुम्हीं ऐरावतपति देवराज इन्द्र की वन्दनीय हो, तुम्हीं, प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य प्रदान कर सकती हो, तुम्हीं उदार गुणों से विभूषित हो, तुमको नमस्कार है ।

कृष्णवक्षःस्थिता देवि कलिकल्मषनाशिनी ।

कृष्णचित्तहरा कर्त्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ८॥

हे कमले ! तुम सदा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में विराजमान रहती हो, तुम्हारे बिना और कोई भी कलिकल्मष ध्वंस करने में समर्थ नहीं हैं, तुमने ही श्रीकृष्ण का चित्त हरण किया है, अतएव तुम्हीं सर्व्वकर्त्री हो, तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

कन्दर्पदमना देवि कल्याणी कमलानना ।

करुणार्णवसम्पूर्णा शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ९॥

हे देवि ! तुमने ही काम का दर्प हरण किया है, तुम्हीं कल्याणमयी हो, तुम्हारा मुख कमल की समान मनोहर है, और तुम्हीं दया की एक मात्र सागरस्वरूप हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

खञ्जनाक्षी खञ्जनासा देवि खेदविनाशिनी ।

खञ्जरीटगतिश्चैव शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १०॥

हे देवि ! तुम खञ्जनाक्षी अर्थात् खञ्जन के नेत्र की समान सुनयना हो, तुम्हारी नासिका गरुड़ की नासिका के समान मनोहर है, तुम आश्रित जनों का खेद विनाश करती हो, और तुम्हारी गति खञ्चरीट के समान है, मैं तुमको मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं ।

गोविन्दवल्लभा देवी गन्धर्वकुलपावनी ।

गोलोकवासिनी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ११॥

हे जननि ! तुम्हीं वैकुण्ठपति गोविन्द को प्रियतमा अर्थात् प्यारी हो, तुम्हारे अनुग्रह से ही गन्धर्वकुल पवित्र हुआ है, तुम्हीं सर्वदा गोलोकधाम में विहार करती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

ज्ञानदा गुणदा देवि गुणाध्यक्षा गुणाकरी ।

गन्धपुष्पधरा मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १२॥

हे मातः ! एकमात्र तुम्हीं ज्ञान की देनेवाली और एकमात्र तुम्ही गुण की दायिनी हो, तुम्हीं गुणों की अध्यक्ष और तुम्हीं गुणों की आधार हो। तुम्हीं गन्ध पुष्प द्वारा निरन्तर शोभित रहती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको नमस्कार करता हूं ।

घनश्यामप्रिया देवि घोरसंसारतारिणी ।

घोरपापहरा चैव शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १३॥

हे कमले ! तुम्हीं घनश्याम हरि की प्रियतमा अर्थात् प्यारी हो, एकमात्र तुम्हीं घोरतर संसार सागर से रक्षा कर सकती हो, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी भयंकर पापों से उद्धार करने में समर्थ नहीं है। अतएव मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

चतुर्वेदमयी चिन्त्या चित्ताचैतन्यदायिनी ।

चतुराननपूज्या च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १४॥

हे देवि ! तुम्हीं चतुर्वेदमयी और एकमात्र तुम्हीं योगिगणों की चिन्तनीय हो, तुम्हारे प्रसाद से ही चित्त में चैतन्यता का संचार होता है, जगत्पति चतुरानन (ब्रह्मा) भी तुम्हारी पूजा करते हैं, अतएव हे जननि ! मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

चैतन्यरूपिणी देवि चन्द्रकोटिसमप्रभा ।

चन्द्रार्कनखरज्योतिर्लक्ष्मि देवि नमाम्यहम् ॥ १५॥

हे देवि ! तुम्हीं चैतन्यरूपिणी हो, तुम्हारे देह की कांति करोड़ चन्द्रमा के समान रमणीय है, तुम्हारे चरणों की दीप्ति चन्द्र सूर्य की कांति से भी अधिक देदीप्यमान है, में तुमको नमस्कार करता हूं ।

चपला चतुराध्यक्षी चरमे गतिदायिनी ।

चराचरेश्वरी लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १६॥

हे देवि लक्ष्मि ! तुम सदा एक स्थान में वास नहीं करतीं, इसी लिये तुम्हारा 'चपला' नाम हुआ है, अंतकाल में एकमात्र तुम्हीं गति देती हो, तुम्हीं चराचर जीवों की अधीश्वरी हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

छत्रचामरयुक्ता च छलचातुर्यनाशिनी ।

छिद्रौघहारिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १७॥

हे जननि ! तुम्हीं शोभायमान छत्र और चामर से परम शोभा पाती हो, छल चातुरी सब ही तुम्हारे प्रभाव से नाश को प्राप्त होती है। तुम्ही छिद्र अर्थात् पापसमूह नष्ट करती हो; अतएव मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

जगन्माता जगत्कर्त्री जगदाधाररूपिणी ।

जयप्रदा जानकी च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १८॥

हे जननि ! तुम्हीं जगत्की जननी हो, तुम्हीं जगत्का एकमात्र आधार तथा जयदात्री हो और तुम्हीं जानकी रूप से पृथ्वी में अवतीर्ण हुई हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको नमस्कार करता हूं ।

जानकीशप्रिया त्वं हि जनकोत्सवदायिनी ।

जीवात्मनां च त्वं मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ १९॥

हे जननी ! तुम्हीं जानकीपति रघुवर की सहधर्मिणी हो, तुम्हीं जनक नगरपति को आनन्द की देनेवाली हो, और तुम्हीं सर्वजीवों की आत्मस्वरूप हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

झिञ्जीरवस्वना देवि झञ्झावातनिवारिणी ।

झर्झरप्रियवाद्या च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २०॥

हे देवि ! तुम्हारे कण्ठ का स्वर झिञ्जीरव की समान मधुर है। तुम्हारे अनुग्रह से झंझा वर्षा युक्त वायु के हाथ से सहज में ही रक्षा लाभ होता है, तुम गोवर्द्धनादि पर्व्वतों में झर्झर वाद्य में अत्यन्त अनुरक्त हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

अर्थप्रदायिनीं त्वं हि त्वञ्च ठकाररूपिणी ।

ढक्कादिवाद्यप्रणया डम्फवाद्यविनोदिनी॥

डमरूप्रणया मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २१॥

हे जननि ! एकमात्र तुम्हीं अर्थ प्रदान करती हो, तुम्हीं ठकार- रूपिणी (चन्द्रमण्डलस्वरूपिणी) हो, डमरू और डम्फ वाद्य में तुमको अत्यन्त प्रसन्नता होती है, और ढक्कादि वाद्य (एक बाजा) तुम्हारा प्रीतिकर है, मैं मस्तक झुकाकर तुम्हारे चरण कमलों में प्रणाम करता हूं ।

तप्तकाञ्चनवर्णाभा त्रैलोक्यलोकतारिणी ।

त्रिलोकजननी लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २२॥

हे देवि लक्ष्मि ! तुम्हारा वर्ण तपे हुए काञ्चन की समान उज्ज्वल तुम त्रैलोक्यवासी जीवों की रक्षा करती हो, तुम्हीं त्रिलोक की उत्पन्न करनेवाली हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

त्रिलोक्यसुन्दरी त्वं हि तापत्रयनिवारिणी ।

त्रिगुणधारिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २३॥

हे जननि ! तुम त्रिभुवन में परम रूपवती हो, तुम्हीं तीनों तापों को विनाश करती हो, तुम्हीं सत्त्व, रज और तमोगुण धारिणी हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

त्रैलोक्यमङ्गला त्वं हि तीर्थमूलपदद्वया ।

त्रिकालज्ञा त्राणकर्त्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २४॥

हे देवि ! तुम्ही तीनों लोकों का मंगल विधान करती हो, तुम्हारे चरणकमलों में सम्पूर्ण तीर्थ विराजमान रहते हैं, तुम भूत भविष्य और वर्तमान तीनों कालों को जानती हो, तुम्हीं जीवों की रक्षा करनेवाली हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

दुर्गतिनाशिनी त्वं हि दारिद्र्यापद्विनाशिनी ।

द्वारकावासिनी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २५॥

हे जननी ! तुम आपदा, दुर्गति और दरिद्र मनुष्य की दरिद्रता दूर करती हो, तुम्हीं द्वारकापुरी में अवस्थिति करके विराजमान रहती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

देवतानां दुराराध्या दुःखशोकविनाशिनी ।

दिव्याभरणभूषाङ्गी शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २६॥

हे देवि ! देवता भी बहुत आराधना अथवा बहुत कष्ट से तुमको प्राप्त होते हैं, तुम प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण शोक दुःख नष्टकर देती हो तुम दिव्य भूषणों से परम शोभायमान हो, मैं मस्तक झुकाकर तुम प्रणाम करता हूं ।

दामोदरप्रिया त्वं हि दिव्ययोगप्रदर्शिनी ।

दयामयी दयाध्यक्षी शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २७॥

हे जननि ! तुम दामोदर की प्रिया हो, तुम्हारे प्रसाद से ही दिव्य योग प्राप्त किया जाता है, तुम्हीं दयामयी और दया की अधिष्ठात्री हो, तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

ध्यानातीता धराध्यक्षा धनधान्यप्रदायिनी ।

धर्मदा धैर्यदा मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २८॥

हे मातः ! तुम ध्यान के भी अतीत हो, तुम्हीं पृथ्वी की स्वामिनी और तुम्हीं भक्तों के धन धान्य इत्यादि प्रदान करती हो, तुम्हीं धर्म और धैर्य देती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

नवगोरोचना गौरी नन्दनन्दनगेहिनी ।

नवयौवनचार्वङ्गी शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ २९॥

हे देवि ! तुम नवगोरोचन की समान गौरवर्ण हो, तुम्हीं नन्द नन्दन हरि की प्रियतमा गेहिनी हो, तुम्हीं नवयौवन के कारण कान्तिमती हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं ।

नानारत्नादिभूषाढ्या नानारत्नप्रदायिनी ।

निताम्बिनी नलिनाक्षी लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ३०॥

हे देवि ! तुम अनेक प्रकार के रत्नादि भूषणों से विभूषित होकर परम शोभा पाती हो, तुम्हीं प्रसन्न होने पर नाना रत्न प्रदान करती हो, तुम्हीं विशाल नितम्बवती और तुम्हारे नेत्र कमल के पत्ते की समान चौड़े हैं, तुमको शिर झुकाकर नमस्कार करता हूं ।

निधुवनप्रेमानन्दा निराश्रयगतिप्रदा ।

निर्विकारा नित्यरूपा लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ३१॥

हे लक्ष्मीदेवि! तुम विकाररहित और नित्यरूपिणी हो, निधुवन में विहार करने से तुमको प्रेमानन्द की प्राप्ति होती है, तुम्हीं निराश्रय जन को गति देती हो, तुमको नमस्कार है ।

पूर्णानन्दमयी त्वं हि पूर्णब्रह्मसनातनी ।

परा शक्तिः परा भक्तिर्लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ३२॥

हे देवि कमले ! तुम पूर्णानन्दमयी और तुम्ही पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी हो, तुम्हीं परमशक्ति और तुम्हीं परमभक्ति स्वरूपा हो, तुमको नमस्कार है ।

पूर्णचन्द्रमुखी त्वं हि परानन्दप्रदायिनी ।

परमार्थप्रदा लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ३३॥

हे देवि ! तुम्हारा वदन पूर्णचन्द्रमा की समान शोभायमान है, तुम्हीं परमानन्द और परमार्थ प्रदान करती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

पुण्डरीकाक्षिणी त्वं हि पुण्डरीकाक्षगेहिनी ।

पद्मरागधरा त्वं हि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ३४॥

हे जननि ! तुहारे नेत्र कमल की समान विस्तृत हैं, तुम्हीं पुण्डरीकाक्ष हरि की गेहिनी हो, तुम्हीं पद्मरागमणि धारण करके परम शोभा पाती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

पद्मा पद्मासना त्वं हि पद्ममालाविधारिणी ।

प्रणवरूपिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ३५॥

हे मातः ! तुम पद्मासन पर विराजमान रहती हो, इसीलिये तुम्हारा 'पद्मा' नाम हुआ है, तुम्हारे गले में मनोहर पद्ममाला पड़ी रहती है, तुम्हीं ओंकाररूपिणी हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

फुल्लेन्दुवदना त्वं हि फणिवेणिविमोहिनी ।

फणिशायिप्रिया मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ३६॥

हे जननि ! तुम्हारा मुख निर्मल चन्द्रमा की किरण के समान निर्मल है, तुम्हारे शिर की वेणी ने फणि की समान लम्बायमान होकर परम शोभा धारण की है। तुम्हीं क्षीरोद सागर में शेषशय्या पर शयन करनेवाले देवदेव हरि की गृहिणी हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणा करता हूं ।

विश्वकर्त्री विश्वभर्त्री विश्वत्रात्री विश्वेश्वरी ।

विश्वाराध्या विश्वबाह्या लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ३७॥

हे लक्ष्मीदेवी ! तुम्हीं विश्व निर्माण करनेवाली, तुम्हीं विश्व का पालन करनेवाली, तुम्हीं विश्व का त्राण करनेवाली और तुम्हीं सम्पूर्ण विश्व की ईश्वरी हो, तुम्हीं विश्व के जीवों की पूजनीया और तुम्हीं विश्व में सर्वत्र दीप्तिमान् रहती हो, किन्तु तो भी तुम इसमें लिप्त नहीं हो, तुम्हीं विश्व के बाहर स्थित हो, तुमको नमस्कार है ।

विष्णुप्रिया विष्णुशक्तिर्बीजमन्त्रस्वरूपिणी ।

वरदा वाक्यसिद्धा च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ३८॥

हे देवि ! तुम्हीं विष्णु की प्रिया और तुम्हीं विष्णु की एक मात्र शक्ति हो, तुम्हीं बीजमंत्र स्वरूपिणी, तुम्हीं वर देनेवाली और तुम् वाक्सिद्धियुक्त हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

वेणुवाद्यप्रिया त्वं हि वंशीवाद्यविनोदिनी ।

विद्युद्गौरी महादेवि लक्ष्मी देवि नमोऽस्तु ते ॥ ३९॥

हे महादेवि ! हे लक्ष्मीदेवि ! तुम विद्युत्की समान गौरवर्ण हो, वेणुवाद्य और दूसरे शब्द से तुमको परम प्रीति का संचार होता है, तुमको नमस्कार है ।

भुक्तिमुक्तिप्रदा त्वं हि भक्तानुग्रहकारिणी ।

भवार्णवत्राणकर्त्री लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४०॥

हे देवि ! तुम भुक्ति और मुक्ति प्रदान करती हो, तुम भक्तों के प्रति अनुग्रह दिखाती हो, और तुम्हीं आश्रित जनों का भवसागर से उद्धार करती हो। तुमको नमस्कार है ।

भक्तप्रिया भागीरथी भक्तमङ्गलदायिनी ।

भयादा भयदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४१॥

हे जननि ! तुम भक्तों के प्रति आन्तरिक स्नेह प्रकाशित करती हो, तुम्हीं भागीरथी गंगास्वरूपिणी और भक्तों को कल्याणदायिनी हो, तुम्हीं दुष्टों को भय देती और शरणागतों को अभय देती हो ! तुमको नमस्कार है ।

मनोऽभीष्टप्रदा त्वं हि महामोहविनाशिनी ।

मोक्षदा मानदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४२॥

लक्ष्मी देवि! तुम मनोरथ पूर्ण करती और महामोह को विनाश करती हो, तुम्हीं मोक्ष और सन्मान देती हो, तुमको नमस्कार है ।

महाधन्या महामान्या माधवस्यात्ममोहिनी ।

मुखराप्राणहन्त्री च लक्ष्मि देवि नमोऽतु ते ॥ ४३॥

हे लक्ष्मीदेवि ! तुम्हीं एकमात्र धन्या और माननीय हो, क्या धन्यवाद में क्या सन्मान में तुम्हारी अपेक्षा श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, तुमने ही माधव का मन मोहित किया है, जो स्त्रियें बहुत बोलनेवाली हैं, तुम उनका विनाश करती हो, तुमको नमस्कार है ।

यौवनपूर्णसौन्दर्या योगमाया तथेश्वरी ।

युग्मश्रीफलवृक्षा च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४४॥

हे देवि ! तुमने पूर्ण यौवन के कारण परम कान्ति धारण की है, तुम्हीं मूर्तिमान् योगमाया और तुम्हीं योग की ईश्वरी हो, तुम्हारे हृदय में दो नारियल के समान ऊंचे दो कुच शोभा पाते हैं, तुमको नमस्कार है ।

युग्माङ्गदविभूषाढ्या युवतीनां शिरोमणिः ।

यशोदासुतपत्नी च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४५ ॥

हे देवि ! तुहारे दोनों बाहुओं में दो अंगद बाजूबन्द विद्यमान रहने से परम शोभा हुई है, तुम्हीं युवतियों के शिर की मणि स्वरूप हो तुम्ही यशोदानन्द की पत्नि हो, तुमको नमस्कार है ।

रूपयौवनसम्पन्ना रत्नालङ्कारधारिणी ।

राकेन्दुकोटिसौन्दर्या लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४६॥

हे लक्ष्मीदेवि ! तुम परम रूपवती और यौवन सम्पन्न हो, तुम्हीं रत्न लंकार से विभूषित होकर परम शोभा धारण करती हो, तुम्हारी कान्ति करोड पूर्ण चन्द्रमा से भी उज्ज्वल है, तुमको नमस्कार है ।

रमा रामा रामपत्नी राजराजेश्वरी तथा ।

राज्यदा राज्यहन्त्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४७॥

हे लक्ष्मी देवि ! तुम्हारा ही 'रमा' और 'रामा' नाम है, तुम्ही राम की पत्नी जानकी, तुम्हीं राज राजेश्वरी और तुम्हीं प्रसन्न होने पर राज्य प्रदान करती हो और तुम्हीं कुपित होकर राज्य विनाश करती हो, तुमको नमस्कार है।

लीलालावण्यसम्पन्ना लोकानुग्रहकारिणी ।

ललना प्रीतिदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४८॥

हे जननि ! तुम्हीं लीला में प्रीति करती और लावण्य सम्पन्न हो, तुम्हीं लोकों पर अनुग्रह करती हो, स्त्रीजन तुम्हारे द्वारा परम प्रीति लाभ करती हैं, तुमको नमस्कार है ।

विद्याधरी तथा विद्या वसुदा त्वन्तु वन्दिता ।

विन्ध्याचलवासिनी च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ४९॥

हे देवि ! तुम्हीं विद्या, तुम्हीं विद्याधरी, तुम्हीं धनदायक और तुम्हीं एकमात्र वंदनीय हो, तुम्हीं विन्ध्यवासिनी रूप से विन्ध्याचल में वास करती हो, तुमको नमस्कार है ।

शुभकाञ्चनगौराङ्गी शङ्खकङ्कणधारिणी ।

शुभदा शीलसम्पन्ना लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ५०॥

हे देवि ! तुम निर्मल काञ्चन की समान गौर वर्ण हो, तुम्हारे हाथ में शंख और कंकण विराजमान रहता है, तुम कल्याणदायनी और सच्चरित सम्पन्न हो, तुमको नमस्कार है ।

षट्चक्रभेदिनी त्वं हि षडैश्वर्यप्रदायिनी ।

षोडशी वयसा त्वन्तु लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ५१॥

हे लक्ष्मीदेवी ! तुम्हीं षड्चक्रभेदिनी हो और तुम्हीं छ: प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करती हो, तुम्हीं सोलह वर्ष की अवस्थावाली नवयुवती हो, तुमको नमस्कार है ।

सदानन्दमयी त्वं हि सर्वसम्पत्तिदायिनी ।

संसारतारिणी देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ५२॥

हे देवि ! तुम सर्वदा आनन्दमयी हो, तुम्हीं सर्वसम्पत्ति देने में समर्थ हो और तुम्हीं इस घोर संसार से रक्षा कर सकती हो; मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

सुकेशी सुखदा देवि सुन्दरी सुमनोरमा ।

सुरेश्वरी सिद्धिदात्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ५३॥

हे देवि ! तुम्हारे केशकलाप मनोहर हैं, तुम परम सुन्दरी और मनमोहिनी हो, तुम्हीं देवताओं की ईश्वरी और सिद्धिप्रदायिनी हो, तुम्हारे अनुग्रह से ही सुख प्राप्त होता है, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

सर्वसङ्कटहन्त्री त्वं सत्यसत्त्वगुणान्विता ।

सीतापतिप्रिया देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ५४॥

हे देवि ! तुम संपूर्ण संकट दूर करती हो, तुम सत्यपरायण और सत्त्वगुणशालिनी हो, तुमने ही सीतापति रामचन्द्र की प्रियारूप से अयोध्यापुरी को पवित्र किया है, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

हेमाङ्गिनी हास्यमुखी हरिचित्तविमोहिनी ।

हरिपादप्रिया देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥ ५५॥

हे देवि ! तुम तप्तकांचन की समान गौरवर्णा हो, तुमने हरि का मन मोहित किया है, हरि के चरणों में ही तुम्हारा मन अत्यंत आसक्त रहता है, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूं ।

क्षेमङ्करी क्षमादात्री क्षौमवासोविधारिणी ।

क्षीणमध्या च क्षेत्राङ्गी लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ॥ ५६॥

हे लक्ष्मीदेवि ! तुम कल्याण करनेवाली, मोक्षदात्री, क्षौमवस्त्र धारिणी हो, तुम्हारी कमर ने क्षीण होने से परम शोभा धारण की है, तुम्हारे अंग में संपूर्ण तीर्थ और क्षेत्र विद्यमान रहते हैं, तुमको नमस्कार है ।

कमला स्तोत्रम् माहात्म्य

॥ फलश्रुति ॥

श्री शङ्कर उवाच ।

अकारादि क्षकारान्तं लक्ष्मीदेव्याः स्तवं शुभम् ।

पठितव्यं प्रयत्नेन त्रिसन्ध्यञ्च दिने दिने ॥  ५७॥

श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्वति ! तुम्हारे पूंछने के अनुसार लक्ष्मी- माहात्म्य और अकारादि क्षकारान्त वर्णमय लक्ष्मी स्तोत्र वर्णन किया इस कल्याणकारक स्तोत्र का प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में यत्न सहित पाठ करना चाहिये ।

पूजनीया प्रयत्नेन कमला करुणामयी ।

वाञ्छाकल्पलता साक्षाद्भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी ॥ ५८॥

जो अभिलषित देने में कल्पलतिकास्वरूप हैं, जो भुक्ति और मुक्ति प्रदान करती हैं, उन्हीं करुणामयी कमला की यत्न सहित पूजा करें ।

इदं स्तोत्रं पठेद्यस्तु शृणुयात् श्रावयेदपि ।

इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य सत्यं सत्यं हि पार्वति ॥ ५९॥

जो पुरुष यह लक्ष्मी स्तोत्र पढ़ते, अथवा सुनते हैं, वा दूसरे मनुष्य को सुनाते हैं, हे पार्वति ! उनके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं, इसमें सन्देह नहीं ।

इदं स्तोत्रं महापुण्यं यः पठेद्भक्तिसंयुतः ।

तञ्च दृष्ट्वा भवेन्मूको वादी सत्यं न संशयः ॥ ६०॥

हे गौरि ! जो पुरुष भक्ति सहित इस पवित्र स्तोत्र का पाठ करते हैं, उनके दर्शनमात्र से ही मूक वादीता को प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं ।

शृणुयाद्यावयेद्यस्तु पठेद्वा पाठयेदपि ।

राजानो वशमायान्ति तं दृष्ट्वा गिरिनन्दिनि ॥ ६१॥

हे गिरिनंदिनि ! जो इस स्तोत्र को सुनते हैं, वा दूसरे को सुनाते हैं, अध्ययन करते हैं, वा दूसरेको पढ़ाते हैं, उनके दर्शनमात्र से ही राजा लोग वशीभूत होते हैं।

तं दृष्ट्वा दुष्टसङ्घाश्च पलायन्ते दिशो दश ।

भूतप्रेतग्रहा यक्षा राक्षसाः पन्नगादयः॥

विद्रवन्ति भयार्ता वै स्तोत्रस्यापि च कीर्तनात् ॥ ६२॥

जो पुरुष इस लक्ष्मीस्तोत्र का कीर्तन करते हैं, उनके दर्शनमात्र से ही दुष्टगण दशों दिशा में भाग जाते हैं, और क्या भूत, क्या प्रेत, क्या ग्रह, क्या यक्ष, क्या राक्षस, क्या सर्प, इत्यादि सभी डरकर चले जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं ।

सुराश्च ह्यसुराश्चैव गन्धर्वकिन्नरादयः ।

प्रणमन्ति सदा भक्त्या तं दृष्ट्वा पाठकं मुदा ॥ ६३॥

जो पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, क्या देवता, क्या दानव, क्या गन्धर्व, क्या किन्नर, सम्पूर्ण उनके  दर्शनमात्र से ही आनन्द और भक्ति सहित प्रणाम करते हैं ।

धनार्थी लभते चार्थ पुत्रार्थी च सुतं लभेत् ।

राज्यार्थी लभते राज्यं स्तवराजस्य कीर्तनात् ॥ ६४॥

इस अनुत्तम स्तव का कीर्तन करने से धनार्थी धन, पुत्रार्थी पुत्र और राज्यार्थी राज्य को प्राप्त होता है ।

ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ।

महापापोपपापञ्च तरन्ति स्तवकीर्तनात् ॥ ६५॥

क्या ब्रह्महत्या, क्या सुरापान, क्या चोरी, क्या गुरुस्त्रीगमन, क्या महापातक, क्या उपपातक इस स्तव के कीर्तन करने पर इसके प्रभाव से सम्पूर्ण पापों से छुटकारा होता है ।

गद्यपद्यमयी वाणी मुखात्तस्य प्रजायते ।

अष्टसिद्धिमवाप्नोति लक्ष्मीस्तोत्रस्य कीर्तनात् ॥ ६६॥

इस लक्ष्मी स्तोत्र के कीर्त्तन करने से अपने आप ही मुख से गद्य पद्यमयी वाणी प्रादुर्भूत होती है, और कीर्तन करनेवाला आठ प्रकार की सिद्धि लाभ करता है ।

वन्ध्या चापि लभेत् पुत्रं गर्भिणी प्रसवेत्सुतम् ।

पठनात्स्मरणात् सत्यं वच्मि ते गिरिनन्दिनि ॥ ६७॥

हे पर्वतनन्दिनि ! तुमसे सत्य ही कहता हूं, इस स्तोत्र के पढ़ने वा स्मरण करने से, वंध्या (बांझ) स्त्री भी पुत्र प्राप्त करती है, और गर्भवती स्त्री को श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होता है ।

भूर्जपत्रे समालिख्य रोचनाकुङ्कुमेन तु ।

भक्त्या सम्पूजयेद्यस्तु गन्धपुष्पाक्षतैस्तथा ॥ ६८॥

धारयेद्दक्षिणे बाहौ पुरुषः सिद्धिकाङ्क्षया ।

योषिद्वामभुजे धृत्वा सर्वसौख्यमयी भवेत् ॥ ६९॥

जो पुरुष लक्ष्मी की कामना करते हैं, वे भोजपत्र पर रोचना और कुंकुम द्वारा इस स्तव को लिखकर गन्ध पुष्पादि से भक्ति पूर्व्वक अर्चना करके दाहिने बाहु में धारण करें । स्त्रियां  वाम भुजा में धारण करने से सर्व सुखी होती हैं ।

विषं निर्विषतां याति अग्निर्याति च शीतताम् ।

शत्रवो मित्रतां यान्ति स्तवस्यास्य प्रसादतः ॥ ७०॥

इस स्तवराज के प्रसाद से विष में निर्विषता, अग्नि में शीतलता और शत्रुओं में मित्रता होती है ।

बहुना किमिहोक्तेन स्तवस्यास्य प्रसादतः ।

वैकुण्ठे च वसेन्नित्यं सत्यं वच्मि सुरेश्वरि ॥ ७१॥

हे सुरेश्वरि ! इसका माहात्म्य और अधिक क्या वर्णन करूं? इसके प्रसाद से अन्त समय नित्य वैकुण्ठ धाम में वास होता है, इसमें सन्देह नहीं ।

     इति श्रीकमला स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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