कमला स्तोत्र

कमला स्तोत्र

जो व्यक्ति भक्तियुक्त होकर इस महापुण्यजनक एवं आपद् उद्धार कमला स्तोत्र का पाठ करता है, वह समस्त पापों से एवं समस्त सङ्कटों से मुक्त हो जाते हैं। उसके सभी जवर एवं सर्वरोग नष्ट हो जाते हैं। इस स्तोत्र राज का पाठ करने से जगत् में उसके लिए असाध्य कुछ भी नहीं रहता है ।

कमला स्तोत्र

कमलास्तोत्रम् 

Kamla stotram

ॐकाररूपिणी देवि विशुद्धसत्त्वरूपिणी ।

देवानां जननी त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥1

हे देवि ! आप ॐकार स्वरूपिणी हैं; रजः एवं तमः से रहित केवल सत्त्वस्वरूपिणी हैं; आप देवताओं की जननी हैं। हे सुन्दरि ! आप प्रसन्न होवें । (यहाँ पर ॐकार एवं उसके वाच्य को अभिन्न मानकर, लक्ष्मी को यहाँ पर 'ॐ कार-स्वरूपिणी' कहा गया है) ।।1।।

तन्मात्रञ्चैव भूतानि तव वक्षःस्थलं स्मृतम् ।

त्वमेव वेदगम्या तु प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥2

हे सुन्दरी ! पञ्चतन्मात्रा अर्थात् पञ्च सूक्ष्मभूत एवं पञ्च स्थूलभूत आपके वक्षःस्थल के रूप में प्रतीत होते हैं। आप वेद के द्वारा ज्ञेया हैं। आप प्रसन्न होवें ।।2।।

देव दानव गन्धर्व यक्ष राक्षस किन्नरैः ।

स्तूयसे त्वं सदा लक्ष्मि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥3

हे लक्ष्मि ! देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस एवं समस्त किन्नर सर्वदा आपकी स्तुति करते रहते हैं । हे सुन्दरि ! आप प्रसन्न होवें ।।3।।

लोकातीता द्वैतातीता समस्तभूतवेष्टिता ।

विद्वज्जनकीर्तिता च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥4

हे सुन्दरि ! आप भूरादि लोकों के अतीत हैं, भेदातीत हैं, फिर भी समस्त भूतों के द्वारा वेष्टित हैं, विद्वानों के द्वारा कीर्त्तित हैं। आप प्रसन्न होवें ।।4।।

परिपूर्णा सदा लक्ष्मि त्रात्री तु शरणार्थिषु ।

विश्वाद्या विश्वकर्त्री च प्रसन्ना भव सुन्दरी ॥5

हे लक्ष्मि ! आप सर्वदा पूर्णा हैं, आपके शरणप्रार्थिगणों का आप त्राण करती हैं । आप विश्व के आदि हैं, विश्व की कर्त्री हैं। आप प्रसन्न होवें ।।5 ।।

ब्रह्मरूपा च सावित्री त्वद्दीप्त्या भासते जगत् ।

विश्वरूपा वरेण्या च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥6

हे सुन्दरि ! आप ब्रह्मा के स्वरूप - विशिष्टा सावित्री हैं; आपकी दीप्ति से जगत् प्रकाशित होता है । विश्वजगत् आपका स्वरूप है; आप सभी की वरणीया हैं। आप प्रसन्न होवें ।।6।।

क्षित्यप्तेजोमरु द्व्योमपञ्चभूतस्वरूपिणी ।

बन्धादे; कारणं त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥7

हे सुन्दरि ! पृथिवी, जल, तेज, वायु एवं आकाशरूप पञ्चभूत आपका स्वरूप है । आप बन्धन, जन्म-मृत्यु प्रभृति के कारण हैं। आप प्रसन्न होवें ।।7।।

महेशे त्वं हैमवती कमला केशवेऽपि च ।

ब्रह्मणः प्रेयसी त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥8

हे सुन्दरि ! आप महेश्वर की प्रिया हैमवती दुर्गा हैं; आप विष्णु की प्रिया लक्ष्मी हैं; आप ब्रह्मा की प्रियतरा ब्रह्माणी हैं। आप प्रसन्न होवें ।। 8 ।।

चण्डी दुर्गा कालिका च कौशिकी सिद्धिरूपिणी ।

योगिनी योगगम्या च प्रसन्ना भव सुन्दरी ॥9

हे सुन्दरि ! आप चण्डी, दुर्गा, काली, कौशिकी एवं सिद्धिस्वरूपिणी हैं; आप योगिनी हैं एवं योग के द्वारा प्राप्या हैं। आप प्रसन्न होवें ।।9।।

बाल्ये च बालिका त्वं हि यौवने युवतीति च ।

स्थविरे वृद्धरूपा च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥10

हे सुन्दरी ! आप बाल्यकाल में बालिकारूपा, यौवन में युवती एवं वार्द्धक्य में वृद्धरूपा हैं। आप प्रसन्न होवें ।।10।।

गुणमयी गुणातीता आद्या विद्या सनातनी ।

महत्तत्त्वादि संयुक्ता प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥11

हे सुन्दरि ! आप सत्त्व, रजः एवं तमोरूप गुणत्रय स्वरूपिणी हैं, फिर उक्त गुणों के अतीत भी हैं, आप आद्यारूपा हैं, आप नित्य विद्या ( = चिन्मयीविद्या) स्वरूपिणी हैं । फिर आप महत् प्रभृति तत्त्वों के आश्रय भी हैं। आप प्रसन्न होवें ।।11।।

तपस्विनी तपः सिद्धिः स्वर्गसिद्धिस्तदर्थिषु ।

चिन्मयी प्रकृतिस्त्वं तु प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥12

हे सुन्दरि ! आप तपस्यापरायणा हैं, फिर भी तपस्या से प्राप्त होने वाली सिद्धिरूपा हैं । आप स्वर्गप्रार्थिगणों के लिए स्वर्गसिद्धिस्वरूपा हैं । आप चिन्मयी प्रकृति (= 'जड़ा प्रकृति' कदापि नहीं ) हैं । आप प्रसन्ना होवें ।।12।।

त्वमादिर्जगतां देवि त्वमेव स्थितिकारणम् ।

त्वमन्ते निधनस्थानं स्वेच्छाचारा त्वमेव हि ॥13

हे देवि ! आप जगत् के आदि अर्थात् उत्पत्ति के कारण हैं; आप ही (जगत् के) स्थिति-कारण हैं एवं प्रलय काल में आप ही लय-कारण हैं। आप अपनी इच्छा से काम करती हैं ।।13।।

चराचराणां भूतानां बहिरन्तस्त्वमेव हि ।

व्याप्यव्यापकरूपेण त्वं भासि भक्तवत्सले ॥14

हे भक्तवत्सला देवि ! आप चर एवं अचर, समस्त भूतों के बाहर एवं भीतर विद्यमान हैं। आप व्याप्य एवं व्यापक रूप में प्रकाशित होवें ।।14।।

त्वन्मायया हृतज्ञाना नष्टात्मानो विचेतसः ।

गतागतं प्रपद्यन्ते पापपुण्यवशात् सदा ॥15

आपकी माया से समस्त जीवों में से आत्मतत्त्वज्ञान अपहृत हो जाते हैं । इसलिए वे परलोक के या आत्मज्ञान (प्राप्ति) के साधन से भ्रष्ट होकर अविवेक हेतु पाप एवं पुण्य-वश सर्वदा संसार में आवागमन करते रहते हैं ।।15।।

तावत् सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा ।

यावन्न जायते ज्ञानं चेतसा नान्यगामिना ॥16

जबतक चित्त आत्मतत्त्व से भिन्न अन्य किसी विषय में गमन नहीं करता है (ऐसी अवस्था चित्त की आ जाती है), जबतक चित्त के द्वारा चैतन्यरूप आत्मतत्त्व को जाना नहीं जाता है, तब तक शुक्ति में रजत-दर्शन के समान, जगत् सत्य-रूप में प्रतिभासित होता है ।।16।।

(त्वज्ज्ञानात्तु ) त्वद्ज्ञानात् सदा युक्तः पुत्रदारगृहादिषु ।

रमन्ते विषयान् सर्वानन्ते दुःखप्रदान् ध्रुवम् ॥17

आपके (ज्ञान के विषय में) अज्ञानता के कारण प्राणिगण सर्वदा पुत्र; द्वारा गृह प्रभृति से युक्त होकर, परिणाम में वस्तुतः दुःखप्रद है - एवं विध विषयों में रत रहते हैं ।।17।।

त्वदाज्ञया तु देवेशि गगने सूर्यमण्डलम् ।

चन्द्रश्च भ्रमते नित्यं प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥18

हे सुन्दरि ! हे देवगणों की ईश्वरि ! आपकी आज्ञा से ही आकाश में सूर्य एवं चन्द्र सर्वदा भ्रमण करते रहते हैं। आप प्रसन्न होवें ।।18।।

ब्रह्मेशविष्णुजननी ब्रह्माख्या ब्रह्मसंश्रया ।

व्यक्ताव्यक्ता च देवेशि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥19

हे देवेश्वरि ! आप ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर की जननी हैं; आप ब्रह्मनाम- धारिणी हैं; आप ब्रह्माश्रिता हैं; आप व्यक्त एवं अव्यक्त हैं अर्थात् कार्य एवं कारण- स्वरूप है अथवा आप स्थूल एवं सूक्ष्म स्वरूप हैं। हे सुन्दरि ! आप प्रसन्न होवें ।।19।।

अचला सर्वगा त्वं हि मायातीता महेश्वरि ।

शिवात्मा शाश्वता नित्या प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥20

हे महेश्वरि ! आप चलनवर्जिता हैं, पुनः सर्वत्र गमन भी करती हैं । आप मायातीता हैं; शिव की आत्मस्वरूपा हैं, सर्वदा एकरूपा, नित्या हैं। हे सुन्दरि ! आप प्रसन्न होवें ।।20।।

सर्वकायनियन्त्री च सर्वभूतेश्वरेश्वरी ।

अनन्ता निष्फला त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥21

हे सुन्दरि ! आप समस्त जीवों के समस्त शरीरों को नियन्त्रित करती हैं; आप समस्त भूतों के ईश्वर के भी ईश्वरी हैं। आप देश, काल एवं वस्तु-परिच्छेदरहिता एवं अवयवशून्या हैं। आप प्रसन्न होवें ।।21।।

सर्वेश्वरी सर्ववन्द्या अचिन्त्या परमात्मिका ।

भुक्तिमुक्तिप्रदा त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥22

हे सुन्दरि ! आप सभी की ईश्वरी हैं; सभी के लिए वन्दनयोग्या हैं; आप अचिन्तनीया हैं; आप परमात्मस्वरूपा हैं; आप जीवों को भोग एवं मुक्ति प्रदानकारिणी हैं। आप प्रसन्न होवें ।।22।।

ब्रह्माणी ब्रह्मलोके त्वं वैकुण्ठे सर्वमङ्गला ।

इन्द्राणी अमरावत्यामम्बिका वरुणालये ॥23

हे देवि ! आप ब्रह्मलोक में ब्रह्माणी स्वरूपा हैं; बैकुण्ठ में सर्वमङ्गला हैं, अमरावती नामक इन्द्रपुर में इन्द्राणी हैं; वरुण के पुर में आप अम्बिका हैं ।। 23 ।।

यमालये कालरूपा कुबेरभवने शुभा ।

महानन्दाग्निकोणे च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥24

आप यम के भवन में कालरूपा हैं, कुबेर के गृह में शुभा नामधारिणी हैं, अग्निकोण में महानन्दा हैं। हे सुन्दरि ! आप प्रसन्न होवें ।।24।।

नैऋत्यां रक्तदन्ता त्वं वायव्यां मृगवाहिनी ।

पाताले वैष्णवीरूपा प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥25

नैर्ऋत् दिशा में आप रक्तदन्ता हैं, वायुकोण में मृगवाहिनी हैं, पाताल में वैष्णवीस्वरूपा हैं । हे सुन्दरि ! आप प्रसन्न होवें ।।25।।

सुरसा त्वं मणिद्वीपे ऐशान्यां शूलधारिणी ।

भद्रकाली च लङ्कायां प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥26

हे सुन्दरि ! आप मणिद्वीप में सुरसा हैं, ईशानकोण में शूलधारिणी हैं, लङ्का में भद्रकाली हैं। आप प्रसन्न होवें ।।26।।

रामेश्वरी सेतुबन्धे सिंहले देवमोहिनी ।

विमला त्वं च श्रीक्षेत्रे प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥27

हे सुन्दरि ! आप सेतुबन्ध में रामेश्वरी हैं, सिंहल में देवमोहिनी हैं, श्रीक्षेत्र में आप विमला हैं। आप प्रसन्न होवें ।।27।।

कालिका त्वं कालिघट्टे कामाख्या नीलपर्वते ।

विरजा औड्रदेशे त्वं प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥28

हे सुन्दरि ! आप कालीघाट में कालिका हैं, नीलपर्वत पर कामाख्या हैं, उड़ीसा (उड़िष्या) देश में आप विरजा हैं। आप प्रसन्न होवें ।।28।।

वाराणस्यामन्नपूर्णा अयोध्यायां महेश्वरी ।

गयासुरी गयाधाम्नि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥29

हे सुन्दरि ! आप वाराणसी में अन्नपूर्णा हैं, अयोध्या में महेश्वरी हैं, गया क्षेत्र में गयासुरी हैं। आप प्रसन्न होवें ।। 29 ।।

भद्रकाली कुरुक्षेत्रे कृष्ण कात्यायनी व्रजे ।

महामाया द्वारकायां प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥30

हे सुन्दरि ! आप कुरुक्षेत्र में भद्रकाली हैं, व्रज में कात्यायनी हैं, द्वारका में महामाया हैं। आप प्रसन्न होवें ।।30।।

क्षुधा त्वं सर्वजीवानां वेला च सागरस्य हि ।

महेश्वरी मथुरायां प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥31

हे सुन्दरि ! आप समस्त जीवों की क्षुधास्वरूपिणी हैं, समुद्र की वेला भूमि अर्थात् तटभूमि हैं, मथुरा में आप महेश्वरी हैं। आप प्रसन्न होवें ।।31।।

रामस्य जानकी त्वञ्च शिवस्य मनोमोहिनी ।

दक्षस्य दुहिता चैव प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥32

हे सुन्दरि ! आप रामचन्द्र की जानकी हैं, शिव के मनोमोहनकारिणी हैं, दक्ष की कन्यास्वरूपिणी हैं। आप प्रसन्न होवें ।।32।।

विष्णुभक्तिप्रदा त्वञ्च कंसासुर विनाशिनी ।

रावणनाशिनी चैव प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥33

हे सुन्दरि ! आप साधक को विष्णुभक्ति प्रदान करती हैं, आपने कंसासुर का विनाश किया था, रावण का नाश भी आपने किया था। आप प्रसन्न होवें ।।33।।

कमलास्तोत्र फलश्रुति:

लक्ष्मीस्तोत्रमिदं पुण्यं यः पठेत् भक्तिसंयुतः ।

सर्वज्वरभयं नश्येत् सर्वव्याधि निवारणम् ॥34

जो व्यक्ति भक्तियुक्त होकर इस पुण्यजनक लक्ष्मीस्तोत्र का पाठ करता है, उसके सभी जवर नष्ट हो जाते हैं एवं सर्वरोग निवृत्त जाते हैं ।।34।।

इदं स्तोत्रं महापुण्यमापदुद्धार कारणम् ।

त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यं वा यः पठेत् सततं नरः ॥35

मुच्यते सर्वपापेभ्यस्तथा तु सर्वसङ्कटात् ।

मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले ॥36

जो मानव इस महापुण्यजनक एवं आपद् उद्धार के कारक स्तोत्र का तीन सन्ध्याओं में या एक सन्ध्या में नियत रूप से पाठ करता है, वह समस्त पापों से एवं समस्त सङ्कटों से, पृथिवी, स्वर्ग एवं रसातल में मुक्त हो जाते हैं। इस विषय में कोई सन्देह नहीं है ।।35-36।।

समस्तं च तथा चैकं यः पठेद् भक्तितत्परः ।

स सर्वदुष्करं तीर्त्वा लभते परमां गतिम् ॥37

जो व्यक्ति परायण होकर इस सम्पूर्ण स्तोत्र का पाठ करता है अथवा एक श्लोक का पाठ करता है, वह समस्त दुःसाध्यों का अतिक्रमण कर परम गति (लक्ष्मीलोक की प्राप्ति) को प्राप्त करता है ।।37।।

सुखदं मोक्षदं स्तोत्रं यः पठेद् भक्तिसंयुतः ।

स तु कोटि तीर्थफलं प्राप्नोति नात्र संशयः ॥38

जो भक्तियुक्त होकर सुखदायक एवं मोक्षदायक इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह कोटितीर्थों का फल प्राप्त करता है। इस विषय में कोई सन्देह नहीं है ।।38 ।।

एका देवी तु कमला यस्मिंस्तुष्टा भवेद् सदा ।

तस्यासाध्यं तु देवेशि नास्ति किञ्चिज्जगत्त्रये ॥39

हे देवेश्वरि (पार्वति) ! एक लक्ष्मीदेवी सर्वदा जिसके ऊपर सन्तुष्ट रहती हैं, त्रिजगत् में उसके लिए असाध्य कुछ भी नहीं रहता है ।।39 ।।

पठनादपि स्तोत्रस्य किं न सिद्धति भूतले ।

तस्मात् स्तोत्रवरं प्रोक्तं सत्यं सत्यं हि पार्वति ॥40

इस स्तोत्र के पाठ मात्र से भी जगत् में क्या सिद्ध नहीं हो सकता है ? इसलिए हे पार्वति ! इस स्तोत्र राज का कथन किया गया। यह सत्य, सत्य है ।।40।।

इति श्रीकमलास्तोत्रम् सम्पूर्ण: ॥

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